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डॉ० संध्या तिवारी का संस्मरण 'अप्रिया नीलकंठी'

डॉ० संध्या तिवारी का संस्मरण 'अप्रिया नीलकंठी'

जेठ की तपती धूप-सा पापा का गुस्सा माँ अपने मन के हरे-भरे गुलमोहर पर दहकते फूलों-सा सजा लेती। उस वृक्ष के नीचे पूरा परिवार और हम बच्चे छाया का भले ही अनुभव करते रहे हों लेकिन दंदक तो छू ही जाती थी, तो फिर माँ कैसे सहती होगी उस प्रचंड क्रोधाग्नि को?

राध धातु से बना है शब्द राधा। आराधना से भी 'राध' शब्द की व्युत्पत्ति मानी गई है। जैसा की सभी जानते हैं, कर्म में 'अ' प्रत्यय लगने से बनता है आराध्य- अर्थात जो अपने आराध्य के प्रति समर्पित हो, वह है राधा और मेरी माँ, पापा को पूर्णतया समर्पित थीं/हैं।
राधा नाम ही तो दिया मेरे पापा ने मेरी माँ को।
क्यों?
क्यों तो नहीं पता, शायद पापा ख़ुद को कान्हा समझते हों या शायद राधा, कृष्ण की आह्वालादिनी शक्ति थी या फिर शायद राधा नाम भवसागर पार होने में सहायक था। जो रहा हो, सो रहा हो। मैंने जब होश संभाला तो मुझे इतना ही समझ आया कि राधा माने रंधना, पकना या चुरना।
कहते हैं, साहित्य समाज का दर्पण होता है लेकिन मुझे तो लगता है कि सिनेमा समाज का दर्पण है और साहित्य समाज का आदर्श। पचास साठ के दशक के सिनेमा के हीरो जैसे दिखते होंगे मेरे पापा। मैं जब उनका जवानी का चित्र देखती हूँ तो वह मुझे कभी युवा विश्वजीत तो कभी जाॅय मुखर्जी तो कभी देवानंद के क़रीब लगते हैं। बाद में जब मैंने माँ से पूछा तो माँ ने बताया कि उनके फेवरेट हीरो थे देवानंद साहेब। लेकिन मेरी माँ में मुझे कोई अभिनेत्री कभी नहीं दिखी। ऐसा नहीं कि मेरी माँ ख़ूबसूरत नहीं हैं। वह बहुत ख़ूबसूरत थीं/हैं परंतु मुझे उनमें हमेशा इतिहास, पुराणों में समाये चित्रों से ही साम्य दिखता।

मैं जब छोटी थी तो मेरे घर में सचित्र पुराण, नारी अंक, कल्याण आदि हुआ करते थे। उस समय मनोरंजन का साधन टी०वी० का दूरदर्शन केंद्र या कि किताबें ही हुआ करती थीं। ऐसे में समाचार सुनने के पहले किताबें और समाचार सुनने के बाद किताबें। मने यदि मनोरंजन या ज्ञानार्जन करना है तो किताबों की शरण में जाना ही जाना है। ऐसे में न जाने कितनी बार नारी अंक के पन्ने पलटती मैं किशनगढ़ शैली में बनी 'बणी-ठणी' के चित्र पर अटक जाया करती थी। अमिया-सी लम्बी फाँकों वाली आँखें, छोटे-छोटे लुरकुओं-से सजी पारदर्शी ओढ़नी वाली और उसमें से झाँकती नागिन-सी लम्बी चोटी वाली वह रमणी मुझे मेरी माँ जैसी लगती थी या यूँ कहूँ मेरी माँ उस जैसी दिखती थी। बड़ी-बड़ी काजल से सजी आँखों वाली मेरी माँ की आँखों में यदि कोई कसर रह जाती तो वह कंघे की नोक से खींची कज्जल रेखा पूरा कर देती। कानों को चूमने को आतुर काजल रेखा बणी-ठणी के चित्र का भ्रम रचती। माथे पर कील के गोल भाग से चिपकने वाला पदार्थ लगाकर उस पर सिंदूर से बिंदी सजाती थीं। कंघे के किनारे से ही लम्बी-सी मांग भरकर वह जब किनारी वाली गहरे रंग की धोती पहनती तो उनका उज्ज्वल रंग दप-दप करने लगता।

कभी जब वह पटली पर सीधा पल्ला माथे पर डाल एक पाँव की आधी पालथी और दूसरे खड़े पाँव के घुटने पर कोहनी टिकाये तर्जनी और अंगूठे की मदद से माथे का घूंघट दुरुस्त करती तो वह मुझे पुराण के चित्र की सीता मैया-सी दिखती। फिर जब कभी वह अपने लम्बे, घने स्याह बालों को खुला छोड़ सूप से अनाज फटकती तो अनायास ही दुर्वासा ऋषि के क्रोध से बचने को अपनी धुली पतीली में चावल का एक दाना खखोती खुले लम्बे लहरदार बालों वाली अस्त-व्यस्त द्रौपदी के चित्र से मेरा बालमन उनके छवि की समानता कर बैठता। आगे के दिनों में मैंने जाना कि न केवल चित्राकृति से उनका साम्य था वरन् चित्रों की प्रकृति भी उनमें प्रकृतिस्थ थी।

माँ के समय में गाँव की स्त्रियाँ तीसरा या पांचवाँ भर पढ़ी होती लेकिन नानाजी के उदार स्वभाव और अपनी पढ़ाई की लगन के चलते उन्होंने मैट्रिक गुड सैकेंड डिवीजन में पास किया, जिसकी कि अंकतालिका उनके पास अभी भी रखी है। मेरी माँ ब्याह के बाद भी पढ़ना चाहती थीं लेकिन शायद मेरे पापा मेरे नाना जैसे उदार नहीं हो पाये। और फिर जीवन बंधी-बंधाई लीक पर कहाँ चलता है‌!

माँ शिव की आराधिका हैं। माँ ने शायद अपने पिछले किन्हीं जन्मों में शिव प्रसन्नता हेतु धतूरे ज़रा ज़्यादा ही चढ़ा दिए होंगे और हमारे शिव तो ठहरे अवढ़रदानी, तो शिवजी ने भी प्रसन्न होकर उनके जीवन को उन्हीं फलों से प्रतिफलित कर दिया। पापा, माँ के प्रति जितना दुरूह होते गए, माँ को उन्हें साधने की ललक उतनी ही बढ़ती गई। सुनते हैं, कभी मेरी माँ, मेरी दादी मने अपनी सास के सोते समय पैर दबा रहीं थीं तो उन्हें अपने पैर पर पानी की बूँद टपकने का अहसास हुआ। उन्होंने माँ का हाथ रोकते हुए पूछा-
"क्या तुम रो रही हो?"
माँ के कुछ न बोलने पर भी वह माँ का दुःख समझ गईं और बोली-
"वे भी तो आदमी ही होते हैं, जो शेर को काबू में करते हैं….।"
या तो वह बात मेरी माँ ने गाँठ बाँध ली या शायद नारी अंक का आदर्श उनके पोर-पोर में भिद हुआ था।
जेठ की तपती धूप-सा पापा का गुस्सा माँ अपने मन के हरे-भरे गुलमोहर पर दहकते फूलों-सा सजा लेती। उस वृक्ष के नीचे पूरा परिवार और हम बच्चे छाया का भले ही अनुभव करते रहे हों लेकिन दंदक तो छू ही जाती थी, तो फिर माँ कैसे सहती होगी उस प्रचंड क्रोधाग्नि को?

समय-समय पर समाज के आदर्श बदलते रहते हैं। पचास साठ के दशक में 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' को माँ ने भी अंगीकार करते हुए अपने को घर-गृहस्थी में झोंककर प्रतिउत्तर में केवल तथाकथित अपनों से अपने लिए श्रद्धा ही चाही होगी। मुझे याद है मेरे बाबा के परलोकगामी होने के पहले से ही मेरी दादी बिस्तर पर थीं। वह लगभग अपने आप चलने फिरने में अक्षम थीं। बाबा दिसम्बर माह में स्वर्ग सिधारे थे। दसमा वाले दिन दादी का श्रृंगार उजाड़कर उन्हें छत पर एक कोने में धूप में लिटा दिया गया। घर के बाक़ी सदस्य कच्चे-पक्के खाने की रसोई में व्यस्त हो गए। दादी चूंकि चलने-फिरने में अक्षम थीं तो तेज धूप से अपने बचाव के लिए दूसरों पर आश्रित थीं। लोकपरम्परा के अनुसार विधवा औरत को सुहागिन तब तक नहीं छूतीं, जब तक उनका शुद्धिकरण न हो जाये ऐसे में घर की और सुहागिन सदस्याएँ उनसे बच-बच कर निकलती रहीं। किसी ने उन्हें छाँव में नहीं बैठाया। मेरी माँ जब तकरीबन दो-ढाई बजे रसोई से निकली तो दादी को लिपट कर रोने लगीं। उन्होंने कहा- "माता, तुम सुबह से धूप में पड़ी हो। किसी ने तुम्हें छाया में नहीं किया?"
दादी ने न में सिर हिलाया और बोली- "कि तुम भी मुझे मत छुओ, कहीं मेरी छाया से तुम्हारा अनिष्ट न हो जाये।"
लेकिन माँ ने न केवल उन्हें छुआ। उनकी अस्त-व्यस्त धोती सही की। उनके घुले-उलझे बाल संवारे, उनके नाखून काटे और उनको खाना-पीना खिलाकर आराम से लिटा दिया। उनके अन्दर इतना श्रद्धा भाव था कि अपने सास-ससुर की मृत्यु के पश्चात पापा और ताऊ को जबरन गया भेज के गया कराई और अपने किये हुए एकादशी व्रत में से ग्यारह एकादशी व्रत का फल भी उन्हें अर्पित किए।

माँ को जिंदगी ने कभी जी भर जीने नहीं दिया। जब हम हाईस्कूल में थे तभी पापा को पेप्टिकल अल्सर हो गया। उन दिनों पापा का भोजन उबला हुआ हुआ करता था। माँ, भाई, बाबा और दादी और मुझे तेल मसाले का पूरा खाना खिलाने के बाद माँ, पापा की तरह उबला भोजन करती थीं। मैं कभी कदा उन्हें मज़ाक में कह भी देती, "माँ नारी अंक भूल जाओ। कुछ ढ़ंग का पढ़ लो।" वह भी हँसते हुए जवाब देती- "बूढ़े पट्टे राम-राम नहीं पढ़ते, बेटा।"

पहले आजकल की तरह यदि महँगाई नहीं थी, तो तनख्वाह भी कम ही हुआ करती थी। पापा की उस कम तनख्वाह में मैं, मेरा भाई, मेरे बाबा, दादी और आये गये मेहमान, सब माँ की कुशल गृहस्थी संचालन में मैनेज हो जाता था। तब का समय भी कुछ और था।
मुझे याद है, मेरे ताऊजी किराये के मकान में रहते थे। उनकी विवाह योग्य बेटी के चलते पापा उन्हें हमारे दो कमरों वाले मकान में लिवा लाये। माँ ने दूसरे कमरे से चुपचाप सामान समेटकर कमरा उनके हवाले कर दिया। उस समय तो इतनी समझ नहीं थी, आज जब दो बेटियों की माँ बनी हूँ तो समझ आता है कि अपने ही घर के एक कोने में न केवल सिमट जाना अपितु चौबीस घंटे घूंघट करके सबकी तीमारदारी करना कितना कष्टपूर्ण और श्रमसाध्य रहा होगा। लेकिन माँ ने आज तक पापा से क्या किसी से भी इस बात की न कभी शिकायत की और न पीठ पीछे बुराई-भलाई।

मेरी माँ अपने समय में कोकिल कंठी भी थी लेकिन बाबा और ताऊ के घर में रहने के कारण वह अपना शौक़ कभी पूरा नहीं कर पाईं। बाद के दिनों में जब बाबा और ताऊ दोनों का स्वर्गवास गया, तब वह अक्सर ही भोर में आँगन बुहारते समय भजन गाती थी, जो कि मुझे आज तक याद हैं। प्रतिदिन सस्वर रामचरितमानस भी उस याद का एक अंश है। शिव की आराधिका मेरी माँ, पूरे सावन घर का सारा काम निपटाने के बाद लगभग एक किलोमीटर दूर शिवमन्दिर जाकर बिल्वपत्र भगवान को अर्पित करके तब ही मुँह में अन्न का दाना डालती थीं। बाद के दिनों में उन्होंने मंदिर के शिव को मानस में रख, साक्षात शिव अर्थात मेरे पापा की सेवा में अपने को अर्पित कर दिया। अपने डिमेंशिया, हार्ट अटैक, ब्रेन हैमरेज के चलते पापा जब-तब उठकर यमराज के साथ हो लेते हैं। लेकिन हमारी पुराणमहिला सावित्री के नाईं माँ एक बार नहीं अनेक बार उन्हें यम के फंदे से खींच लाई हैं।

अफ़सोस, डिमेंशिया के चलते मेरी माँ को मेरे पापा भूल गये हैं। जीवन के पतीले में रंधते-रंधते राधा का जीवन रस चुके कर पतीले के तले में चिपक गया है,
जिसके कारण जीवन भर ज़हर पिया, वही प्रिया अप्रिया नीलकंठी हो गई।

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रचनाकार परिचय

संध्या तिवारी

ईमेल : sandhyat70@gmail.com

निवास : पीलीभीत (उत्तरप्रदेश)

जन्मतिथि- 15 अक्टूबर
जन्मस्थान- शाहजहांपुर (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- एम०ए० (हिंदी एवं संस्कृत), बी.एड, पीएच०डी०
संप्रति- स्वतंत्र लेखन
लेखन विधाएँ- लघुकथा, कहानी, कविता, रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रावृत्त, लेख, शोधपरक लेख आदि
प्रकाशन- राजा नंगा है (ई-बुक संग्रह), तत: किम, अंधेरा उबालना है (लघुकथा संग्रह), शेड्स (कथेतर गद्य)
संपादन- अविराम साहित्यिकी (त्रैमासिक पत्रिका), कॉफ़ी हाउस किताब (विविध विधा रचना संग्रह)
सम्मान- दिशा प्रकाशन द्वारा 'दिशा सम्मान', हिंदी चेतना पत्रिका, कनाडा द्वारा 'हिंदी चेतना सम्मान' तथा जैमिनी सम्मान,
प्रतिलिपि पत्र सम्मान- 2016, शब्दनिष्ठा समीक्षा सम्मान- 2020, समकालीन स्वर्ण जयंती सम्मान लघुकथा प्रथम पुरस्कार
'किस्सा कोताह' त्रैमासिक पत्रिका की ओर से लघुकथा संग्रह 'अँधेरा उबालना है' को 'कृति सम्मान', आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र लघुकथा प्रतियोगिता सम्मान- 2022, प्रज्ञा वैश्विक लघुकथा विशिष्ट सेवी सम्मान- 2023
सम्पर्क- ठेका चौकी महिला थाना के सामने, निकट सलोनी हाॅस्पिटल, यशवन्तरी रोड़, पीलीभीत (उ०प्र०)- 262001