Lohe Ka Sanduk

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-12%

Writer : Dharmendra Singh |

 

Print Length : 104 Pages |

 

Language : Hindi |

 

Publisher : Ira Publishers, Kanpur |

Edition : Paper Back/First /2021 |

 

Dimensions : 21.5×14×1 cm |

 

ISBN-10 : 81-952896-8-4|

 

ISBN-13 : 978-81-952896-8-4

Product Description

लेखक ने ‘लोहे के सन्दूक’ में अपने जीवन की 15 स्मृतियों को कहानी के रूप में सहेजा है। संयोग से लेखक का यह सन्दूक खुला रह गया था। उत्सुकतावश मैंने उसे खोल लिया, तो बऊवा के ‘ज्योमेट्री बॉक्स’ ने कुछ ऐसा आकर्षित किया कि बिना रुके मैं इसे आद्योपांत पढ़ने पर बाध्य हो गया। इसके अलावा, ‘पप्पी’, ‘हे! सुनथऊ, ऊपरां आवा’, ‘लोहे का सन्दूक’ आदि भी लोकशब्दों से परिपूर्ण अपने कथ्य, तथ्य, भाषा, सौष्ठव के साथ अत्यंत सुरुचिपूर्ण और सरस बन पड़े हैं।

11 reviews for Lohe Ka Sanduk

  1. Vijayratna

    Bahut bahut badhai

  2. Sefali Semuwal

    लोगो को जीवन जीने के लिए जीवटता सिखाती पुस्तक लोहे का संदूक. इसे हर किसी को पढ़ना चाहिए. ज़िंदगी के उतार चढ़ाव को पार करके कोई कैसे मिसाल बन सकता है.
    पूरी किताब पढ़ते पढ़ते जेहन मे चित्र उभर आएंगे.

  3. Dharmendr singh

    इमेजिंग बहुत ही सुंदर रचना साथ साथ जीवन के विभिन्न पहलुओं को सोती हुई रस्सी

  4. Sanjay Maurya

    A through documentation.

  5. Anoop Pratap Singh

    Nice book written by respectable Dharmendra sir .

  6. Ganesh Tiwari

    प्रिय मित्र, धर्मेंद्र जी द्वारा समाज में किये जा रहे रचनात्मक कार्य आज के समय में कहानियां हो सकती है, यह कहानियां लिखित हैं अत्यन्त ह्रदय स्पर्शी है

  7. दिवाकर मणि

    जीवन की विभिन्न अवस्थाओं होकर गुजरी घटनाओं को कहानियों के रूप में सरस और रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है इस पुस्तक में। रचयिता की सर्जना तभी सफल है जब पाठकवृन्द पूरी तरह उसमें रससिक्त हो जाएं। और इस निकष पर लेखक महोदय खरे उतरते हैं।

  8. नीतू सिंह (verified owner)

    ' लोहे का संदूक ' एक सारगर्भित पुस्तक है। जो कि लेखक की आत्मकथा पर आधारित है, इसमें लेखक के जीवन की सत्य घटनाओं पर आधारित कहानियों का संग्रह है, इस पुस्तक की हर एक कहानी अत्यंत रोचक एवं प्रेरणादायक साथ ही दृढ़ जीवन- मूल्यों पर आधारित है, जो जीवन के हर पहलुओं को दर्शाती है। लेखक ने अपनी कहानियों को क्षेत्रीय भाषा में लिखा हुआ है, जो कि सरल और सुगम है इस पुस्तक की कहानियों का हर एक वाक्य सजीव चित्रण प्रस्तुत करता है।
    ' लोहे का संदूक ' एक ऐसा संदूक है जिसे खोलने के बाद आपका दृष्टिकोण ही बदल जायेगा।

    इस पुस्तक के लेखन और प्रकाशन के लिए हार्दिक बधाई एवं आभार आदरणीय महोदय.. 🙏🙏💐💐💐💐

  9. Vijayratna

    एक औरत का संघर्ष, पारिवारिक उहापोह का बालमन पर प्रभाव और एक पिता का अपने पुत्र से स्नेह और एक अच्छा इंसान बनाने की दृढ़ इच्छा सभी का सजीव वर्णन। लग रहा पढ़ नहीं उस वक्त को महसूस कर रही हूं।

  10. R. Vikram Singh

    धर्मेन्द्र कुमार सिंह द्वारा रचित कहानी संग्रह "लोहे का संदूक" जिसका पहले तो नाम ही थोड़ा अटपटा सा लगा. लेकिन दो चार कहानियां पढ़ने के बाद ही नामकरण का सार संमझ में आने लगा.
    पढ़ते समय न जाने क्यों ऐसा कई बार ऐसा लगा की लगभग सभी कहानियां लेखक के व्यक्तिगत जीवन को स्पर्श करती हुयी हैं
    शब्दों के चयन, संवाद अदायगी और पाठकों को अंत तक कहानी से बांधे रखने क्षमता का परिचय एक मंजे हुए लेखक का रूप दर्शाता है

    समाज से गहरा जुड़ाव रखने के साथ साथ समाज को अपनी लेखनी के माध्यम जो सम्बल प्रदान करने का प्रयास धर्मेन्द्र ने किया है वह सराहनीय है और निश्चित रूप यह सार्थक होगा.

    कैप्टन आर. विक्रम सिंह
    पूर्व सैन्य अधिकारी, सेवा निवृत्त आई.ए.एस., स्वतंत्र लेखक

  11. Smriti Dhandhania Banka

    पुस्तक के कवर पड़ छपा शीर्षक 'लोहे का सन्दूक' नाम थोड़ा अटपटा है।इसके पीछे क्या रहस्य हो सकता है यह जिज्ञासा मुझे कहानी पढ़ने को मजबूर कर देती है।
    यह पुस्तक,लेखक के जीवन की बचपन के दौर की विभिन्न सत्य घटनाओं पर आधारित छोटी- छोटी 15 कहानियों का संग्रह है। जीवन के तमाम संघर्षों से रुबरू कराती हुई ये कहानियाँ अत्यंत प्रेरणादायी और रोचक है । कई घटनायें दिल को छू जाती है और पाठक को भावुक कर देती है। और कहीं होंठों पर मुस्कान ला देती है। बीच- बीच में लोक-भाषा की सोंधी महक भी मिलती है।जैसे- "हुलकी आ जाए.. तोहिका भवानी चबा जाएँ। दयाखव तो.. कहि रहा हवय उपासे हन,औ खाय आवा है समोसा औ रसगुल्ला...बारा हाथ केर जीभ आजव लपलपात रही होई।" ............"आऊर ई पप्पियव सिठइनियय के आगे - पाछू रहत है, जइसे उहै एकर महतारी हवे।".......... "हे सुनथउ ! उपरां आवा"। आदि। कहीं - कहीं गवँई शब्दों का भी स्वाद मिलता है। मसलन- बउवा,गेगलाना, उतलहिली, पचकने, गुमटी, बिलइया, मरकही, ऐतना।
    लाचारी,मजबूरी और सामाजिक प्रताड़ना झेलता बचपन प्रतिशोध की आग में जलता हुआ किसी के पूछने पर यह कहता कि बड़ा होकर वह डाकू बनेगा । ताकि जिसने भी उनकी मजबूरी का फ़ायदा उठाया है उनसे वो बदला ले सके।लेकिन विभिन्न कहानियों के ज़रिए लेखक ने यह दर्शाया कि ख़राब परिवेश और विपरीत परिस्थियों के बीच कुछ कारण ऐसे रहे जिसने बालक की दशा और दिशा बदलने में महत्वपूर्ण काम किया।
    जैसे एक कहानी से यह पता चलता है कि ख़राब संगति के बीच उसे एक ऐसे दोस्त का साथ मिला जो आकर्षक होने के साथ मेधावी भी था। एक सच्चे दोस्त की सही सोच से तालमेल बैठाने और किसी भी क़ीमत पर उसकी दोस्ती ना खोने की डर से उसकी धारा को सही दिशा मिली। वहीं दूसरी कहानी में विषम परिस्थिति में भी उनके पिताजी का अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति द्वढ़ता और अपने पुत्र को हमेशा नैतिक मूल्यों पर चलने की सलाह देना का उल्लेख है। किसी कहानी से लेखक की पिता के प्रति अपार श्रद्धा और बचपन से ही परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी की समझ व पिता के काम में सहयोग करना दिखाता है।ये कुछ घटनायें थी बचपन और किशोरावस्था की ,कि वो शैतान नटखट बालक ख़राब परिवेश ,बुरी संगत और अपने चारों ओर अपराधिक - झगड़ालू प्रवृति के लोगों के बीच रहकर भी शिक्षा- सेवी बना और सरकारी नौकरी ना कर उसी मलिन- पिछड़ी बस्ती के बच्चों के लिए स्कूल खोला।
    लेखक वास्तविक अर्थों में समाज- सेवी हैं और पिछड़ी- मलिन बस्तियों के बच्चों के लिए जमीनी स्तर पर शिक्षण का कार्य कर रहे हैं। जिन्होंने 'भिक्षा से शिक्षा की ओर' जैसी तमाम सफल मुहिम चला रखी है। संभवतः कहानी लिखने का उनका उदेश्य यही रहा होगा की समाज का सबल,संपन्न वर्ग इन सत्य घटनाओं को पढ़ आत्म- मंथन और सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति उठ खड़े होने को विवश हो। और उपेक्षित,वंचित वर्ग प्रेरणा ले सकरात्मक दृष्टिकोण से हौसलों के साथ आगे बढ़ने की कोशिश करे।

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