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जीवन के विविध पहलुओं पर गंभीरता से बात करती हैं ओमप्रकाश यती की ग़ज़लें- के० पी० अनमोल

जीवन के विविध पहलुओं पर गंभीरता से बात करती हैं ओमप्रकाश यती की ग़ज़लें- के० पी० अनमोल

वर्तमान परिदृश्य का अंकन अथवा अपने समकाल की यथार्थपरक अभिव्यक्ति हिंदी कविता की एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति रही है। हिंदी कविता के हर दौर में तत्कालीन परिस्थितियाँ एवं सन्दर्भ लगातार दर्ज किये जाते रहे हैं। समाज, उसका परिवेश, उसकी समस्याएँ, उसकी चिंताएँ, उसकी चुनौतियाँ आदि निरंतर कविता ने अपने केंद्र में रखे हैं। यही स्वभाव हिंदी ग़ज़ल का भी है।

हिंदी की ग़ज़ल समग्र जीवन की ग़ज़ल है। इसमें हम अपने समय की यथार्थपरक स्थितियों के बिम्ब कविता की भाषा में देखते हैं तो निति, दर्शन एवं प्रेम जैसे शाश्वत विषय भी। यहाँ वैश्विक मंच की चर्चा भी मिलती है और घर-परिवार की भी। कहा जा सकता है कि एक मनुष्य के जीवन के जितने आयाम होते हैं, हिंदी की ग़ज़ल उन समस्त आयामों तक पहुँचती है। यह एक ऐसा बिंदु भी है, जिससे हिंदी की यह कविता विधा अपनी मूल धारा यानी उर्दू की ग़ज़ल से अपने आपको अलग खड़ा करती है। हालाँकि यह कोई ज़रूरी शर्त नहीं है कि हिंदी के ग़ज़लकार अपनी रचनाओं में मानव जीवन के समग्र पहलुओं पर बात करे ही लेकिन इस विधा के प्रमुख अथवा अधिकतर ग़ज़लकारों के रचना कर्म का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने पर उक्त बिंदु प्रामाणित होता ही है।
हिंदी ग़ज़ल के इतिहास और वर्तमान में हमें कई ऐसे ग़ज़लकार भी मिलते हैं, जो अपनी रचनाओं में समस्त मानव जीवन को अंकित करते भी पाये जाते हैं, उनमें से एक नाम ओमप्रकाश यती का भी है। ओमप्रकाश यती जी के ग़ज़ल लेखन की विषय वस्तु सर्वाधिक विविधता लिए हुए है अगर यह कहा जाए तो कुछ ग़लत नहीं होगा।

यती जी के अब तक कुल सात ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा हिंदी के महत्त्वपूर्ण साहित्यकार एवं संपादक कमलेश्वर द्वारा संपादित 'हिंदुस्तानी ग़ज़लें', 'ग़ज़ल: दुष्यंत के बाद' एवं 'हिंदी ग़ज़ल के नवरत्न' संकलनों में भी इनकी रचनाओं को ससम्मान स्थान मिला है। 'हिंदी ग़ज़लकार: एक अध्ययन' एवं 'हिंदी ग़ज़ल की परंपरा' नामक महत्त्वपूर्ण आलोचना ग्रंथों में भी आपके लेखन पर विमर्श किया गया है। इनकी ग़ज़लें कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी सम्मिलित हो चुकी हैं। यती जी की ग़ज़लें सरलतम शब्दों के साथ आम जन के मन की अभिव्यक्ति जान पड़ती हैं। इनके पास वर्तमान समय की विडंबनाओं, विसंगतियों पर चिंताएँ भी हैं, आशा-आकांक्षाएँ भी तथा जीवन उत्सव भी। गाँव-खेत, रिश्ते-परिवार आदि विषय इन्हें सर्वाधिक ज़मीनी रचनाकार बनाते हैं।

वर्तमान परिदृश्य का अंकन अथवा अपने समकाल की यथार्थपरक अभिव्यक्ति हिंदी कविता की एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति रही है। हिंदी कविता के हर दौर में तत्कालीन परिस्थितियाँ एवं सन्दर्भ लगातार दर्ज किये जाते रहे हैं। समाज, उसका परिवेश, उसकी समस्याएँ, उसकी चिंताएँ, उसकी चुनौतियाँ आदि निरंतर कविता ने अपने केंद्र में रखे हैं। यही स्वभाव हिंदी ग़ज़ल का भी है। हिंदी ग़ज़ल के शेरों में भी हमें उपरोक्त सभी बिंदु बराबर दृष्टिगोचर होते हैं।
ओमप्रकाश यती जी की ग़ज़लों में भी समाज और उससे जुड़े सरोकार भरपूर दिखाई पड़ते हैं। ये अपने समय के परिदृश्य पर लगातार नज़र बनाए रखते हैं और वहीं से विषय वस्तु उठाकर अपनी रचनाओं का सृजन करते हैं। एक रचनाकार के समाज एवं समय के प्रति जो दायित्व होते हैं, यती जी उन्हें बा-ख़ूबी अंजाम देते हैं।

आज के आत्मकेंद्रित होते समय में धन-दौलत किस प्रकार संबंधों तथा अपनेपन की भावना पर हावी होती जा रही है, यह हम सबसे छिपा नहीं है। रिश्तों का दायरा निरंतर सिमटता जा रहा है। हर कोई अधिक से अधिक सुख-सुविधाओं के पीछे भागा जा रहा है। ऐसे में कोई अपने आराम में खलल नहीं चाहता और न ही किसी पर बेकार में पैसा बर्बाद करना चाहता है। दौलत हमारे समाज में एक मानक हो चुकी है, उसी के अनुरूप हम हर एक रिश्ते की अहमियत तय करने लगे हैं। इस प्रवृत्ति पर ग़ज़लकार यती जी अपनी चिंता प्रकट करते हैं और इस शेर का सृजन करते हैं-

इसके आगे क़द हर इक रिश्ते का है बौना हुआ
आज के इस दौर में सबसे बड़ा पैसा हुआ

हमारी आत्मकेंद्रिकता की प्रवृत्ति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि चंद सदस्यों के परिवार में भी किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। न कोई एक-दूसरे का हाल जानना चाहता है। एक समय वह भी रहा है, जब व्यक्ति गाँव भर के काम आया करता था। किसी के अवसर को हाथों-हाथ सफल करवाना, किसी के काम-धंधे में हाथ बँटवाना तो किसी की हारी-बीमारी में खड़े रहना, ये सब चीज़ें तो अब बीती बातें हो चुकी हैं। अब जीवन इतना सिमट गया है कि कोई कुछ काम बता दे तो झुंझलाहट होने लगती है। लोग मेहमानों अथवा ज़रुरतमंदों से बचने के रास्ते तलाशने लगते हैं। ओमप्रकाश यती इस परिस्थिति पर कुछ इस तरह चिंतित दिखाई देते हैं-

रह गयी है सिर्फ़ ख़ुद में ही सिमटकर आजकल
काश औरों के भी थोड़ा काम आती ज़िंदगी
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बाहर चाहे कितनी भीड़ है, रेले हैं
लेकिन भीतर-भीतर लोग अकेले हैं
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व्यस्त सभी हैं, वक़्त कहाँ है मेहमानों की ख़ातिर अब
उनका घर में आना, रुकना किसको अच्छा लगता है!

हम एक ऐसे समय में जीने को अभिशप्त हैं कि जहाँ आये दिन महिलाओं के साथ बेहूदगी की ख़बरें हमारी शर्मिंदगी को बढ़ाती रहती है। देश का कोई कोना ऐसा नहीं बचा है, जहाँ महिलाओं के साथ बदसलूकी न देखी जाती हो। इस समय हम अपनी बहन-बेटियों को ऐसी कोई जगह नहीं बता सकते, जो उनके लिए सुरक्षित हो। इस परिस्थिति विशेष के ज़िम्मेदार भी हम ही सब हैं। हम ही ने इस भयावह समाज की सृष्टि की है। हम ही ने यह माहौल रचा है। हम ही वे लोग हैं, जो मौक़ा पाते ही अपनी पाश्विक प्रवृत्तियों से नियंत्रण खो बैठते हैं।

कहीं धर्म, जाति तो कहीं हवस जैसे अनेकानेक कारण हैं, जिनका निशाना अबला मानी जाने वाली महिलाओं को बनाया जाता है। एक बलि 'पुरुष!' के लिए महिला ही सर्वाधिक सॉफ्ट टारगेट है। पिछले दशक भर में कितने ही ऐसे नाम गिनाये जा सकते हैं, जिनके साथ दरिंदगी को अंजाम दिया गया और असंख्य ऐसे मामले हैं, जो कभी सामने नहीं आये। तो क्या इसी तरह के समाज की कल्पना की होगी मनुष्य ने!

वर्तमान समाज का मनुष्य इतना गिर चुका है कि हर समय छल, कपट, बेईमानी जैसे तिकड़मों से अधिक से अधिक सुविधाएँ जुटा लेना चाहता है। इसके लिए वह किस ज़रूरतमंद-ग़रीब का क्या नुकसान कर रहा है, इससे उसे कोई सरोकार नहीं। एक अजीब तरह का माहौल दिखाई देता है चारों तरफ। यती जी जैसा संवेदनशील रचनाकार इससे सिर्फ़ आहत ही हो सकता है। ये कुछ शेर उनकी छटपटाहट बयान करने को पर्याप्त हैं-

रेप, हत्या, ख़ुदकुशी, धोखा, सियासी छल-कपट
हर जगह ख़बरें यही हैं, टी० वी० क्या अख़बार क्या
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निर्भया, श्रद्धा, नताशा, अंकिता बन जाएगी
क्या पता कब कौन लड़की पीड़िता बन जाएगी
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हँसी ख़ामोश हो जाती, ख़ुशी ख़तरे में पड़ती है
यहाँ हर रोज़ कोई दामिनी ख़तरे में पड़ती है
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सावधानी है बहुत, खुलकर कोई मिलता नहीं
आदमी पर आदमी का ये भरोसा रह गया

हमारे समय के 'अति सजग' व्यक्ति की मानसिकता और विकृत सामाजिक परिवेश का सटीक चित्रण करता है यह अंतिम शेर।

यहाँ 'यह भरोसा रह गया' वाक्यांश एक लानत की तरह आता है। शेर का पूरा सानी मिस्रा एक करारा व्यंग्य है, जो हमारे समाज की अवधारणा की खिल्ली उड़ाते हुए उसे उधेड़कर रख देता है। शेर पढ़े जाने में बहुत सामान्य जान पड़ता है लेकिन महसूस किये जाने पर तमाचे की तरह सालता है।
हमारे वर्तमान सामाजिक परिवेश में जिस प्रकार की धार्मिक कट्टरता, वैमनस्य और अतिवाद का दौर चल रहा है, वह किसी भी समझदार इंसान के लिए बेचैनी से भरा है। चारों तरफ अपने-अपने पंथ/सम्प्रदाय को श्रेष्ठ मनवाने की होड़ है। एक-दूसरे को कमतर और बेकार दिखाने की लगातार होती कोशिशें हैं। इन सबका परिणाम बहुत घातक है, यह कोई नहीं सोचना चाहता। धर्म को समझना, उसके वास्तविक उद्देश्यों की पड़ताल करना, उसे अपने जीवन में आत्मसात करना जैसे ज़रूरी कामों की तरफ किसी का ध्यान नहीं। हर कोई अपने-अपने जयकारों में ख़ुश है।

इन हालात पर ग़ज़लकार ओमप्रकाश यती भी बेचैन दिखाई पड़ते हैं। इनका मानना है कि इंसान ने दुनिया भर में न जाने कितने ही अलग-अलग धर्म-पंथ बना लिए लेकिन उन्हीं सब के सहारे मानवता को तार-तार कर दिया है। होना तो यह चाहिए था कि ये सभी मज़हब इंसान को संवेदनशील एवं संस्कारित बनाते। यानी यह उल्टी गंगा कैसे बह चली, वे हैरान हैं। जहाँ सभी मज़हब प्रेम, दया तथा अहिंसा की शिक्षा देते हैं, वहीं आज का इंसान नफ़रत, क्रूरता तथा हिंसा का व्यवहार करता नज़र आता है। यह विरोधाभास आश्चर्यजनक है। इन्हें दुःख है कि इंसान धर्म के सही अर्थ न समझ पाया यदि समझ लेता तो आज पूरी दुनिया में अमन और चैन का माहौल होता। लेकिन ये यह भी जानते हैं कि धर्मों के ये ग़लत मायने इंसान को कौन और क्यूँ सिखा रहा है। दरअसल हर एक समय में चंद लोग सत्ता और शक्ति के लिए आम इंसान को मुर्ख बनाकर फ़साद करवाते आये हैं। ये चंद लोग राजनीतिक प्रनितिधि भी हैं और धार्मिक भी। बहरहाल ग़ज़लकार उम्मीद बनाए हुए है कि कभी तो आम आदमी की समझ में ये सब बातें आएँगी। कभी तो मज़हब का असल उद्देद्श्य इंसान की समझ में आएगा और कभी तो हर तरफ सुकून के मंज़र देखने को मिलेंगे। यह आशावाद ही दुनिया को बचाए रखने के लिए काफ़ी है।

आज तो बस नफ़रतों की हर तरफ बौछार है
प्रेम वाले रंग की पिचकारियाँ ग़ायब हुईं
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ढेरों मज़हब, पंथ बनाकर दुनिया ने
कर डाले मानवता के टुकड़े कितने
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ये सिखाते प्रेम हैं हम नफ़रतें सीखें
है विरोधाभास कैसा मज़हबों के साथ
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कब हमारे बीच से धर्मों के झगड़े जाएँगे
जो छिपे संदेश हैं उनमें वो समझें जाएँगे
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लोगों में बस प्यार-मुहब्बत ही बाँटेगा वो
जिसने मज़हब को सच्चे अर्थों में जाना है
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जब यही सीढ़ी हुकूमत तक इसे पहुँचा रही है
फिर सियासत कैसे ये फ़िरका-परस्ती छोड़ देगी!
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हम दीप मुहब्बत के जलाना नहीं छोड़ें
ये सच है कि नफ़रत की बहुत तेज़ हवा है

हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जहाँ बाज़ार हर तरफ पसरा पड़ा है। यहाँ तक कि मोबाइल और टेलीविज़न के सहारे बाज़ार हमारे घरों के भीतर घुस आया है।एक समय था जब बाज़ार केवल मनुष्य की ज़रूरत भर के लिए था लेकिन अब यह ज़रूरत से आगे निकलकर शौक़ तथा तफ़री का साधन हो चुका है। आज कौनसी ऐसी चीज़ है, जो एक ऑर्डर पर उपलब्ध न हो! अब ऐसे हालात में लगातार बढ़ रही महँगाई और नए-नए फ्लेवर और कलेवर की वस्तुओं का आकर्षण आदमी के बजट पर तो ख़राब असर डाल ही रहा है, भावनात्मक रूप से भी इंसान पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। हर ओर बाज़ार का माहौल इंसान के भीतर की संवेदनशीलता को भी लील रहा है।

ओमप्रकाश यती बाज़ार की घुसपैठ और उसके विपरीत प्रभावों को लेकर ख़ूब सजग हैं। उनकी ग़ज़लों में जगह-जगह बाज़ार से जुड़े अलग-अलग सन्दर्भों में शेर देखने को मिलते हैं। बाज़ार का बाज़ारूपन, विज्ञापनों के खेल, बढ़ती महँगाई तथा उसका बजट पर नकारात्मक प्रभाव, उपभोक्ताओं के मन का विचलन, बिना ज़रूरत की ख़रीदारी की लत और प्रोफ़ेशनल होते जाते व्यक्ति की संवेदनाओं का लोप जैसा चिंतन शेरों में ढलकर पाठकों को इंगित भी करता है और आगाह भी।

बाज़ार है तो इससे फिर उम्मीद क्या करें
ग्राहक-दुकानदार के रिश्तों को छोड़कर
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कहाँ संवेदना की थी जगह
हमारे हर तरफ बाज़ार था
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रहा न मेरा जब इच्छाओं पे नियंत्रण तो
मुझे ये दुनिया के बाज़ार फिर लुभाने लगे
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उड़ गये हैं देख महँगाई ख़रीदारों के रंग
रोज़ चमकीले हुए जाते हैं बाज़ारों के रंग
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उसको आदत पड़ गयी है ऐसी कुछ बाज़ार की
मन नहीं लगता है जब तक घर में कुछ लाता नहीं

परिवार को समाज की एक महत्त्वपूर्ण इकाई माना जाता है। यह व्यक्तित्व के निर्माण के लिए एक अनिवार्य संस्था है। परिवार ही में एक व्यक्ति भाषा, संवेदना तथा व्यवहार जैसी चीज़ें सीखता-जानता है। रिश्ते-नाते इस परिवार नामक संस्था के कुछ अत्यावश्यक तत्व हैं। व्यक्ति विभिन्न प्रकार के संबंधों के बीच रहकर ही जीवन के पाठ सीखता है। ओमप्रकाश यती अपने लेखन में संबंधों को बहुत महत्त्व देते हैं। इनकी ग़ज़लों में बीच-बीच में लगातार रिश्ते-नातों पर शेर मिलते हैं। इनके शेरों में इन संबंधों का सम्मान भी है और गुणगान भी। किस तरह ये संबंध एक व्यक्ति और समाज के लिए ज़रूरी हैं, ये हम इनके शेरों में जान-समझ सकते हैं। इसके साथ ही साथ परिवार और उससे जुड़े मूल्यों में पिछले कुछ समय में आये ह्रास पर चिंतन हमें साफ़ दिखाई पड़ता है। यती जी अपने शेरों के माध्यम से पाठकों को परिवार तथा संबंधों के महत्त्व की ओर भी ध्यान दिलाते हैं तथा इनके अवमूल्यन के परिणामों पर भी।

हमारी भारतीय संस्कृति में संबंध केवल परिवार के दायरे में ही नहीं बँधते। गाय तथा मिट्टी को माता, पीपल अथवा वट को बाबा, चंदा को मामा तो बिल्ली को मौसी कहकर संबंधों के घेरे में बाँध लेने वाले हम दरअसल प्रकृति से आत्मीयता स्थापित करने के लिए ऐसा करते हैं लेकिन ऐसा करते हुए हम उस परिवार नामक संस्था को कितना विस्तृत कर देते हैं, यह गौर करने वाला बिंदु है। प्रकृति की हर एक वस्तु से अपनेपन का जुड़ाव स्थापित करने के बाद हम उसके अस्तित्व तथा देखरेख के लिए स्वत: सचेत हो उठते हैं। यती जी की ग़ज़लों में भी हमें परिवार एवं संबंधों का परिसर बहुत व्यापक मिलता है। इनके यहाँ संबंध केवल अपने परिवार तक सीमित न होकर गाँव तथा अपने परिवेश के सन्दर्भ में भी व्याख्यायित होते हैं।

बिना इनके न जाने ज़िंदगी का रूप क्या होगा
ज़रूरी आदमी से आदमी के रिश्ते-नाते हैं
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जुम्मन भी चाचा हैं, बुधिया भी चाची
गाँवों में ज़िन्दा हैं रिश्तों की ख़ुशबू
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ज़रूरी है मिले आबो-हवा इसको भरोसे की
नहीं तो सूखने लगता है ये परिवार का पौधा
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अगर आज रिश्ता निभाता है कोई
तो लगता है जैसे करिश्मा है कोई
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हुआ करती थी रिश्तों में कभी जो
वो लज़्ज़त ख़त्म होती जा रही है
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इतना आगे मत बढ़ जाना
रह जाएँ सब रिश्ते पीछे

पर्यावरण प्रकृति का एक अनिवार्य घटक है, यह कहने-बताने की बात ही नहीं। सर्वविदित है। मानव ही नहीं, पृथ्वी पर मौजूद समस्त जीवन का आधार ही पर्यावरण है। यह पर्यावरण अथवा प्रकृति अनंत समय से लोक और काव्य से जुड़ा है। हर एक समय में ये मानव जीवन का एक बहुत ख़ास हिस्सा रहा है। मानव ने प्राकृतिक परिवेश एवं उसके सौन्दर्य को अपनी रचनाओं में निरंतर गाया है। आज भी पर्यावरण हमारी कविता में बराबर उपस्थित है लेकिन अफ़सोस यह कि अब सौन्दर्य गान की बजाय इसकी चिंता अधिक है। दरअसल इन दिनों की परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी निर्मित हैं कि प्रकृति के संरक्षण की चिंता एक विकराल समस्या बनती जा रही है। प्रकृति के अत्यधिक दोहन के कारण खड़ी हुई यह समस्या लगातार भयावह हो रही है। ओमप्रकाश यती जी की ग़ज़लों में हमें पर्यावरण और उसके संरक्षण की चिंता निरंतर झकझोरती रहती है। ये पर्यावरण के उन पक्षों को भी हमारे सामने रखते हैं, जिनसे मानव जीवन प्रसन्न और संपन्न रहता है तो वे पक्ष भी बराबर उठाते हैं, जिनसे पर्यावरण और उसके घटक ख़तरे में पड़ते हैं। पर्यावरण इनकी ग़ज़लों में जगह-जगह बिखरा पड़ा है। एकदम यथार्थ गति एवं दुर्गति के साथ।

सभ्यता इसके किनारे जन्म लेती थी कभी
आज है अस्तित्व का संकट नदी के सामने
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पहाड़ों, जंगलों से तो सुरक्षित है निकल आती
मगर शहरों के पास आकर नदी ख़तरे में पड़ती है
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सड़क चिकनी है, अच्छे पार्क हैं, चौराहे सुंदर हैं
मगर वो खेत, वो जंगल कहाँ है, कुछ बताओगे!
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क्रोध में आयी अगर तो ज़िंदगी ले जाएगी
घर, मवेशी, खाट, छप्पर सब नदी ले जाएगी

ग़ज़लकार ओमप्रकाश यती चूँकि ग्रामीण एवं प्राकृतिक परिवेश से बहुत क़रीब से जुड़ाव रखते हैं इसलिए इनकी रचनाओं में गाँव तथा ग्रामीण जीवन उभरकर आते हैं। ग्रामीण जीवन की यथार्थपरक अभिव्यक्ति हमें यती जी की ग़ज़लों में देखने को मिलती है, जहाँ समूचा गाँव अपनी अस्मिता तथा गौरव के साथ भी उपस्थित है और बदहाली तथा उपेक्षाओं के साथ भी। ग्रामीण जीवन को लेकर रोज़गार एवं विकास की चिंताएँ इन्हें बेचैन करती हैं तो शहरों की गाँवों तक घुसपैठ तथा पलायन भी विचलित करते हैं।

शहर में तो हो रही है कुछ तरक्की रोज़-रोज़
पर हमारा गाँव अब तक है वहीं ठहरा हुआ
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शहर आता जा रहा है पास इसके, एक दिन
गाँव का ये गाँवपन सारा हवा हो जाएगा
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ढिंढोरा पीट लो उसकी तरक्की का भले लेकिन
दशा पहले ही जैसी गाँव की मालूम होती है
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सबकुछ अच्छा ही अच्छा है ये कहना तो ठीक नहीं
फिर भी कहता हूँ गाँवों की दुनिया अब भी प्यारी है
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बनेंगे गाँव शहरों से भी अच्छे
उन्हें सपने दिखाये जा रहे हैं
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काम के अवसर नहीं बढ़ जाते जब तक गाँव में
लोग शहरों में ही तो खाने-कमाने जाएँगे

यती जी का लेखन खेत और किसान को बहुत संजीदगी के साथ अपने में समाहित किये हुए है। खेती-किसानी से इनका क्या और कैसा सरोकार है, यह जिज्ञासा का विषय है लेकिन अपनी ग़ज़लों में खेत और उसकी परिस्थितियाँ, खेती की समस्याएँ, किसान का संघर्षमय जीवन, उसके प्रति आम इंसान तथा सरकार की उपेक्षा आदि सबकुछ ये बड़ी जीवंतता के साथ बयान कर देते हैं। किसान और उसकी समस्याएँ हिंदी कविता का एक अहम विमर्श हैं, यती जी की ग़ज़लें इस बात की पुष्टि करती हैं।

मैं जब भी देखता हूँ ट्रेक्टर दरवाज़े पे अपने
मुझे हर बार वो बैलों की जोड़ी याद आती है
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सूखा है, बाढ़ है तो कभी आँधी व तूफ़ान
आख़िर किसान देश के कितनों से लड़ेंगे
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किसानों को कहाँ मिल पाती है क़ीमत पसीने की
उठाता फ़ायदा है कौन, मेहनत कौन करता है
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कैसी विडंबना है, जो आज अन्नदाता
रोटी का कोई ज़रिया शहरों में ढूँढता है
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हुकूमत ध्यान दे तो ज़िंदगी इनकी बने आसान
किसानों की समस्या को मगर समझा नहीं जाता

ओमप्रकाश यती जी की ग़ज़लों में आशावादिता के शेर बहुत बड़ी संख्या में मिलते हैं। ये शेर किसी भी हतोत्साहित व्यक्ति का हौसला बढ़ाने के लिए पर्याप्त हैं। इधर इनकी ग़ज़लों में सांस्कृतिक मूल्य, उत्सव एवं त्यौहार, पौराणिक सन्दर्भ भी ख़ूब देखे जाते हैं। इनकी ग़ज़लों में आप वृद्ध एवं बाल विमर्श भी भरपूर पाते हैं तो हमारे समय भी तेज़ी से उभरती महामारी अर्थात् तनाव की समस्या पर भी कई-कई शेर देखे जा सकते हैं। इन शेरों में यती जी तनाव के कारण तथा उससे बचने के उपाय भी सटीकता के साथ प्रस्तुत करते हैं।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि ओमप्रकाश यती वर्तमान मानव जीवन के अनगिनत पहलुओं पर अपनी रचनाओं में बहुत सादगी और संजीदगी के साथ मंथन करते हैं। जहाँ इनके पास अपने समय का विसंगत तथा समाज के सरोकार मौजूद हैं, वहीं इनके लेखन में परिवार एवं संबंध पूरी संवेदनशीलता के साथ जगह पाते हैं। किसान, मज़दूर, पर्यावरण, स्त्री जैसे ग़ज़लों में उपेक्षित विमर्श भी गंभीरता के साथ उपस्थित होते हैं। निश्चित ही ओमप्रकाश यती की ग़ज़लें हिंदी की ग़ज़ल को कई अर्थों में मज़बूती प्रदान करती हैं।

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रचनाकार परिचय

के० पी० अनमोल

ईमेल : kpanmol.rke15@gmail.com

निवास : रुड़की (उत्तराखण्ड)

जन्मतिथि- 19 सितम्बर
जन्मस्थान- साँचोर (राजस्थान)
शिक्षा- एम० ए० एवं यू०जी०सी० नेट (हिन्दी), डिप्लोमा इन वेब डिजाइनिंग
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, दोहा, गीत, कविता, समीक्षा एवं आलेख।
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' (2013), 'कुछ निशान काग़ज़ पर' (2019), 'जी भर बतियाने के बाद' (2022) एवं 'जैसे बहुत क़रीब' (2023) प्रकाशित।
ज्ञानप्रकाश विवेक (हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना), अनिरुद्ध सिन्हा (हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे), हरेराम समीप (हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन (भाग-3), हिन्दी ग़ज़ल की पहचान एवं हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा), डॉ० भावना (कसौटियों पर कृतियाँ), डॉ० नितिन सेठी एवं राकेश कुमार आदि द्वारा ग़ज़ल-लेखन पर आलोचनात्मक लेख। अनेक शोध आलेखों में शेर उद्धृत।
ग़ज़ल पंच शतक, ग़ज़ल त्रयोदश, यह समय कुछ खल रहा है, इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें, 21वीं सदी के 21वें साल की बेह्तरीन ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल के इम्कान, 2020 की प्रतिनिधि ग़ज़लें, ग़ज़ल के फ़लक पर, नूर-ए-ग़ज़ल, दोहे के सौ रंग, ओ पिता, प्रेम तुम रहना, पश्चिमी राजस्थान की काव्यधारा आदि महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
कविता कोश, अनहद कोलकाता, समकालीन परिदृश्य, अनुभूति, आँच, हस्ताक्षर आदि ऑनलाइन साहित्यिक उपक्रमों पर रचनाएँ प्रकाशित।
चाँद अब हरा हो गया है (प्रेम कविता संग्रह) तथा इक उम्र मुकम्मल (ग़ज़ल संग्रह) एंड्राइड एप के रूप में गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध।
संपादन-
1. ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका के मार्च 2015 से फरवरी 2021 तक 68 अंकों का संपादन।
2. 'साहित्य रागिनी' वेब पत्रिका के 17 अंकों का संपादन।
3. त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सरिता’ (अलीगढ, उ.प्र.) के 3 अंकों का संपादन।
4. 'शैलसूत्र' त्रैमासिक पत्रिका के ग़ज़ल विशेषांक का संपादन।
5. ‘101 महिला ग़ज़लकार’, ‘समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें’, 'ज़हीर क़ुरैशी की उर्दू ग़ज़लें', 'मीठी-सी तल्ख़ियाँ' (भाग-2 व 3), 'ख़्वाबों के रंग’ आदि पुस्तकों का संपादन।
6. 'समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल' एवं 'दोहों का दीवान' एंड्राइड एप का संपादन।
प्रसारण- दूरदर्शन राजस्थान तथा आकाशवाणी जोधपुर एवं बाड़मेर पर ग़ज़लों का प्रसारण।
मोबाइल- 8006623499