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दूर्वा-संस्कृति का आख्यान- डॉ० शिव कुमार दीक्षित

सदाशिव के जटा सम्भार से हहराकर उतर आयी सितफेन गंगधार के स्पर्श से दूर्वा भूमण्डल पर हरित होकर ऐसी फैल जाती है मानों वह उन वनस्पतियों को चिढ़ा रही हो जिनके शिखर पुष्प देवांगनाओं के धम्मिल पाश में रत्नाभूषण बन गए हैं।

राजेन्द्र वर्मा का ललित निबंध 'प्रकृति, परिवेश और हम'

माना जाता है कि ये पञ्च तत्त्व हमारे शरीर में उसी मात्रा में विद्यमान हैं जिस मात्रा में ब्रह्माण्ड में हैं। इस दृष्टि से अपने शरीर को हम चलता-फिरता लघु ब्रह्माण्ड मान सकते हैं। हमारे भीतर गुण-अवगुण और हमारी चेतना का स्तर इन पंचतत्त्वों के व्यवहार से नियंत्रित होता है। 

बनन में, बागन में अब काहे बगरयो नहीं बसंत है- प्रेम गुप्ता ‘मानी’

इस नई पीढ़ी को यह भी नहीं पता कि ऋतुएँ छः होती हैं- शरद, हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा। अपने-अपने स्तर पर इन सभी ऋतुओं का महत्व है। अगर ये ऋतुएँ न होतीं तो यह जीवन भी न होता। जल, वायु, भोजन, मकान व अन्य वस्तुएँ जैसे हमारे जीवन में बदलाव लाकर उसे संतुलित रखती है, वैसे ही ये ऋतुएँ भी हैं, जो कभी सुख तो कभी दुःख देकर जीवन के मायने समझाती हैं। जीवन और मृत्यु, रात और दिन को जैसे हम स्वीकार करते हैं, उसी तरह इन ऋतुओं को भी स्वीकार करते हैं।

कविता का अरण्य- डॉ० शिव कुमार दीक्षित

‘मनुष्य को खंडित रूप में देखने की जिस शैली का सूत्रपात तुम सबने किया है, उससे सिंहासन सदैव अभिशप्त रहेगा और मैं इस बार रघुनंदन का अवतरण बड़ी सावधानी से रचूँगी। अब रघुनंदन किसी दशरथ के आँगन में नहीं , निषाद के श्रद्धापूत कठौते के निर्मल जल में अवतरित होंगे , जिसमे मेरी वैदेहीस अरण्य में सदैव के लिये मनुष्यता की कविता का विहार सज्जित हो सकेगा और तब कविता शब्दमयी नहीं ध्वनिमयी होकर मनुष्यता का संकीर्तन भी होगी‘