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कविता का अरण्य- डॉ० शिव कुमार दीक्षित

कविता का अरण्य- डॉ० शिव कुमार दीक्षित

‘मनुष्य को खंडित रूप में देखने की जिस शैली का सूत्रपात तुम सबने किया है, उससे सिंहासन सदैव अभिशप्त रहेगा और मैं इस बार रघुनंदन का अवतरण बड़ी सावधानी से रचूँगी। अब रघुनंदन किसी दशरथ के आँगन में नहीं , निषाद के श्रद्धापूत कठौते के निर्मल जल में अवतरित होंगे , जिसमे मेरी वैदेहीस अरण्य में सदैव के लिये मनुष्यता की कविता का विहार सज्जित हो सकेगा और तब कविता शब्दमयी नहीं ध्वनिमयी होकर मनुष्यता का संकीर्तन भी होगी‘

राजधानी की ओर दौड़े जाते एक जनसमूह एक युवक के पाँव में , किनारे पड़ी सूखी दूब का एक टुकड़ा चुभ गया। तलुवे को सहलाने के लिए , वह जैसे ही झुका तो देखा कि तलुवे में एक वृत्ताकार चिन्ह बन गया था। उसके साथ चल रहा जनसमूह बहुत आगे निकल गया था और वह बहुत पीछे रह गया। सूखी दूब पर खीझते हुए उसने कुछ अपशब्द कहे , तभी उसे एक नारी स्वर सुनाई दिया। उसने इधर- उधर देखा लेकिन वहां कोई दिखाई नहीं दिया। वहीँ बैठ कर उसने अपनी दाहिनी हथेली जैसे ही भूमि पर रक्खी तो उसे किसी मर्मन्तुद संवेदन ने घेर लिया। 
‘ अरे ! इस मिट्टी से संवेदन का संस्तरण मुझमे कैसे हो रहा है? मिट्टी के स्पर्श से हथेली की रेखाएँ बनती – मिटती हैं।’
युवक का कुतूहल जानकर , वही स्वर फिर उठा :
‘ सुनो रामव्रती ! तुम मुझसे अपरिचित नहीं हो ! मै सबमें व्याप्त हूँ। लेकिन तुन्हें इसका बोध नहीं है !’
‘ आप कौन हैं ? सामने क्यों नहीं प्रगट होतीं हैं ?—युवक ने प्रश्न किया।
उत्तर में वही स्वर :
‘ मैं स्थूल रूप से विरूप किन्तु अनिवार्य हूँ।’
मैं पददलित किन्तु दुर्लंघ्य हूँ !!
मैं विराट किन्तु एक कण हूँ !!!
नित्य वत्सला , आद्यन्त उर्वर मैं मृत्तिका पिंड हूँ !’
‘बस ! - युवक ने व्यंग्य किया।
‘ नहीं ! समस्त तत्व मेरे अवलम्ब से ही सक्रिय होते हैं , लेकिन सबसे पृथक् मैं वैदेही की दग्धहृदया माता भी हूँ इसलिए निर्मान हूँ और शायद सर्वमान्य का प्रतिमान भी। वैदेही मेरे मातृत्व की संकल्पमयी कविता है और रघुनन्दन !—इसी कविता के सान्निध्य से मनुष्यता का अविराम संकीर्तन हैं।’
‘माता ! इस भाव-सम्पदा से मैं सर्वथा अपरिचित हूँ ‘—युवक ने कहा | पृथ्वी बोली, -‘ मैं जानती हूँ तुम या तुमसे बहुत आगे निकल गया जनसमूह मेरे जामातृ रघुनंदन का अनुभावन इस भावसंपदा के साथ नहीं कर पाता है।’
‘ माता ! रामानुभूति का अनुभावन मैं नहीं जानता हूँ लेकिन यह सच है कि मुझसे आगे चले गये , सिंहासन के समीप खड़े लोगों को मैंने यह कहते हुए सुना है कि राम उनके लिए सोपान हैं , अनुभाव्य नहीं।’
पृथ्वी ने उस युवा पथिक को तथ्य से परिचित कराते हुए कहा –‘ सिंहासन तक सबसे पहले पहुँचने को तुम व्याकुल हो रहे हो लेकिन रघुनंदन को तो सिहासन से अधिक मेरा अरण्य प्रिय था। तुम्हारे मन में रघुनंदन की जो छवि है ‘ वह राजधानी के सिंहासन द्वारा जारी की गयी सूचनाओं का एक साँचा है ; लेकिन रघुनदंन किसी साँचे में ढली प्रतिमा नहीं हैं बल्कि मनुष्य के अंतःकरण में अप्रतिहत चेतन भाव-सम्पदा हैं। कुछ क्षण मेरे पास बैठो ! क्या वैदेही की दग्धहृदया माता की आर्त वाणी नहीं सुनोगे ?’
पथिक नत होकर पृथ्वी की ओर देखने लगा। पृथ्वी ने उसे बताया –‘शायद तुम्हें ज्ञात हो कि बहुत पहले सिंहासन की क्रूरता से त्रस्त होकर मैं गाय हो गयी थी। वत्सल-भाव से द्रवित होकर तुम्हारे पूर्वजों को मैंने क्या नहीं दिया –पहाड़ ,नदी , वनस्पतियाँ और अमृत जलस्रोत ; तबसे आज तक सिंहासन मेरे दोहन में जुटा है।  अरे ! सिंहासन को जब सुविधा होती है तब मेरे वक्ष पर कटीले तारों की बाड़ लगाकर अपना स्वामित्व घोषित कर देता है –कभी आर्यावर्त ,कभी भारतवर्ष और कभी इण्डिया ; फिर भी निर्लज्ज होकर तुम्हारी पीढी को मेरे अखंड होने की सूचना देता है।’
‘माता यह तो सिंहासन का छल है।’—युवक ने रोष से कहा।
‘ न ! न ! यह छल नहीं ; यह सिंहासन की कविता है | अंतर इतना ही है कि सिंहासन की कविता काल-खंड का इतिहास बनती है , जब कि रामानुभूति की कविता हर वर्तमान का स्पंदन होती है ; कविता का यही कालजयत्व है | अरे ! आश्चर्य है कि तुम अब तक यह नहीं जान पाए कि तुम्हारे जनतंत्र में राजनीत छद्म को छवि बनाकर प्रस्तुत करती है। आज मैं तुम्हे अपने वक्ष पर रघुनंदन का पदचिन्ह दिखाती हूँ जब वह पहली बार राजधानी छोड़कर मिथिला के समीप महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में आ गये थे | राक्षस समुदाय से मेरी रक्षा के लिए विश्वामित्र , क्रोधजित रघुनंदन और कामजित लक्ष्मण को राजा दशरथ से माँग लाये थे। उस समय दशरथ की आँखों में अपने उत्तराधिकारी के रूप में रघुनंदन के शील , शक्ति और सौन्दर्य की छवियाँ तैर रहीं थीं।  यह तो अच्छा हुआ कि विश्वामित्र रघुनंदन को अरण्य में ले आये , नहीं तो ; राजनीति का क-ख-ग सिखाने के मोह में , क्या पता दशरथ ने उन्हें रातोरात किसी युवा संगठन का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया होता ! विशेषाधिकार और जनप्रतिनिधित्व के नियमों का फलक कितना विस्तृत हो सकता है , यह तुमने अभी अनुभव नहीं किया है। सिंहासन पर नित डुलाये जा रहे रंगीन चंवरों को छूकर आ रही वायु यदि तुम्हारे नथुनों में एक बार प्रवेश कर गयी तो तुम अपनों के बीच लौटकर कभी नहीं जाओगे। सिंहासन छ्लजीवी होता है और मेरे रघुनंदन इससे कोसों दूर अरण्य में आ गये थे।'
युवा पथिक पृथ्वी के वक्तव्य को सुनकर अवाक् , हतप्रभ हो गया | पृथ्वी को प्रायः चक्कर आता था , इसलिए कुछ पल ठहर कर उसने आगे कहा –‘ वत्स ! तुम मेरी बातें सुनकर खीझने लगोगे। सूर्यवंशी रघुनंदन की ग्रीवा से खिसक गये उत्तरीय को ओढ़ कर तुम राजधानी की ओर भागे जा रहे थे लेकिन लोक के सूर्य का आतप सहन करने की क्षमता उनमे भी नहीं है जो बहुत पहले राजधानी पहुंच गये हैं। जानते हो? उन्होंने क्या किया है? इसी दूब में पली , इसी पर सोयी और इसी की छाया में जी रही निश्छल भारतीय जनता की अपार लोकनिधि को सांसदनिधि बना दिया ; लेकिन रघुनंदन तो जनहित के लिए , अरण्य में , नगे पाँव आये थे।’
वैदेही सयानी हो गयी थी , उसके पाणिग्रहण की चिंता मिथिलापति को रात–रात भर सोने नहीं देती थी | सुदूर देशों में कोई सुयोग्य वर ढूंढे नहीं मिल रहा था | दूसरी ओर दम्भी लंकापति की जीवन- शैली से सम्भ्रान्त जन का जीना दूभर था। वैदेही मिट्टी से उत्पन्न हुई थी , उसके नाम अपार सम्पत्ति भी नहीं थी , तब भी , मिथिलापति ने उत्साह में अपनी प्रतिष्ठा दाँव पर लगा दी थी। उन्होंने स्वयंवर में , वैदेही से विवाह के लिए , शिव धनुष को भंग किये जाने की शर्त अनिवार्य कर दी थी। उन्ही दिनों मिथिला की गली – गली में यह समाचार फ़ैल गया था कि किन्हीं दो युवकों ने विश्वामित्र के आश्रम के आसपास राक्षसों का वध कर दिया था , और इतना ही नहीं ; उनमे से एक ने सिंहासन लोलुप इंद्र द्वारा अपमान से पत्थर हो गयी , ऋषि पत्नी अहल्या को स्वाभिमान से जीने की कला सिखा दी थी। आज भी मेरी छाती पर तुम्हारी राजधानी ही नहीं , ग्रामीण अंचलों में अनेक अहल्याएँ बलात्कार से पत्थर हो गयीं हैं | लेकिन तुम्हारे न्यायालय में अपनी देह पर कालिख ओढ़े दंडाधिकारी भी उस अहल्या के साथ हुए कदाचरण के वर्णन को ही सुबूत मानता है | जरा सोचो ! अपमान से संवेदनहीन होकर पत्थर की तरह जीना क्या सुबूत नहीं है ? मिथिलापति , सयानी हो गयी वैदेही के साथ ऐसे किसी कदाचरण की कल्पना से अंदर ही अंदर काँप जाते थे।’
‘ बस एक दिन चमत्कार उत्सव बन गया। मिथिला के उपवन के लताकुंजों से , वे दोनों युवक शील , शक्ति और सौन्दर्य का विग्रह बन कर जब प्रकट हुए तब वैदेही श्यामाभ रघुनंदन को देख कर नतमुख हो गयी। वे दोनों युवक जब स्वयंवर में आये तब मैं मंगल आरती का थाल सजा लायी।  श्यामाभ रघुनंदन की बाहुलताओं में मैंने विश्वविजय के सामर्थ्य के अनेक आवर्त देखे थे और चुपके से , उनकी सुचिक्कन मांसपेशियों में प्रणय की वर्तुल रेखाएं भी देख ली थीं। वत्स ! मेरे वक्ष पर रघुनंदन के प्रथम पदचिन्ह का यही मनोहारी दृश्य है। 
‘ माता ! श्री रघुनंदन और भगवती वैदेही को मेरे असंख्य प्रणाम !’
‘हे ! पुत्र , मेरे वक्ष पर रघुनंदन के दूसरे पदचिन्ह का दृश्य तुम शायद सहन नहीं कर पाओगे !
‘परिक्रमा करते समय मेरा वह अंग , जो सूर्याभिमुख होता है तो उजाले में देखती हूँ कि मनुष्य की छोटी छोटी बाहें महात्वाकांक्षाओ के शिखरों को झुका लेना चाहती हैं। इसी प्रयत्न में वह अपने समीप खड़े दूसरे मनुष्य की छाती पर पैर रखने से हिचकता नहीं है। अब तो एक देश दूसरे देश के साथ इसी मानसिकता से व्यवहार करता है ; साथ बैठने वाले देश को नीचा दिखाकर भूमंडलीकरण का नया आख्यान सुनाता है। लेकिन मेरे बहुत ऊपर , आकाश में मैंने एक जाति के पक्षी को उड़ते हुए किसी दूसरे पक्षी को धक्का देकर गिराते हुए नहीं देखा है। लेकिन यह मनुष्य ! क्या बताऊ तुन्हें ! मनुष्यता का निषेध कर इसने पतित हो जाने को अनेक विधियाँ सीख लीं हैं।  यदि कोई विधि चर्चित हो जाती है तो जांच के बाद ‘ क्लीन चिट ‘ से उसे संवैधानिक स्वरूप प्राप्त हो जाता है। मैं वसुधा, अब कुटुंब नहीं हूँ , आद्यन्त कुरुक्षेत्र बनने को विवश हूँ।
‘ सूर्य की परिक्रमा करते – करते मैं थक गयी थी। मेरे वक्ष के किसी कोने में पूरी अयोध्या सोने की तैयारी कर रही थी। अचानक राजरथ के पहिये मुझे रौंदते चले गये।  इस बार रघुनंदन के पदतलों का स्पर्श मुझे अनुभूत नहीं हुआ , वे रथ पर बैठे थे। अरे ! रथ पर वैद्र्ही निराभूषण ,वल्कल वसन में सिमटी थी , रथ के किनारे विगत काम लक्ष्मण खड़े थे। ये सब कहाँ जा रहे हैं ? रथ मिथिला की ओर नहीं जा रहा था ; सुदूर वहां इनका कोई सम्बन्धी भी नहीं है। मेरी छाती दहल गयी।  ये वैदेही को कहाँ ले जा रहे हैं ? राजतन्त्र की कुटिल नीति की गंध मुझे आने लगी थी। वैदेही मिट्टी की पुत्री है और रघुनंदन सूर्यवंशी हैं ; कहीं यह स्तर भेद दोनों के दाम्पत्य को आहत तो नहीं कर गया ?
‘ अयोध्या के बहुत बाहर अरण्य में रथ रुक गया। सुमन्त्र रघुनंदन के सामने घुटने टेक , हाथ जोड़ कर फफक पड़ा। रघुनंदन ने उसे सांत्वना देकर अयोध्या लौट जाने को विवश कर दिया। रथ से उतर कर रघुनंदन ने मेरे वक्ष पर अपना पाँव रक्खा, लेकिन यह क्या ? ये चरण तो वे नहीं थे जो मिथिला के लताकुंजों से प्रकट हुए थे। ये चरण तो काल की छाती पर नया चिन्ह अंकित करनेवाले जान पड़े। मेरे ह्रदय की धडकन बढ़ गयी थी कि तभी वैदेही ने अपने पाँव मेरे वक्ष पर धर दिये। हाय ! वैदेही नंगे पाँव थी , उसका जावक बस धूमिल ही हुआ था। मैं माँ होकर भी उसके लिये अपनी देह को कोमल नहीं बना सकती थी। मिथिला से विदा होते समय चक्रवर्ती दशरथ ने जनक को वैदेही के सम्मान की रक्षा का वचन दिया था। सिंहासन जब स्थिर नहीं होता तो वह लुभावने वचन देकर मुग्ध कर देता है , एक बार स्थिर हो जाने पर वही दिए गये वचनों से मुकर जाने में संकोच भी नहीं करता है। वचन के निर्वाह में प्राण देने वाला रघुकुल आज किसी पुराने वचन की रक्षा के लिये दूसरे वचन को भंग कर बैठा। व्यवस्था यदि मनुष्य के संवेदन का बटवारा रचती है तो उसके ध्वंस का रेखांकन कविता की पहली शर्त होनी चाहिए और इस शर्त को निर्भीक होकर भरत ने भरी राजसभा में ‘ तदपि होत परितोषु न जीकें ‘—कहकर पूरा कर दिया था तब सिंहासन से प्रतिबद्ध वशिष्ठ जैसे विचारक को भी झुकना पड़ा था। मितवसना वैदेही का क्या यही गौरव – संरक्षण है ?
‘ जामातृ और पुत्री के संरक्षण की व्यवस्था तो कर दूँ , भले ही रात कुछ बड़ी हो जाय। हे ! वृक्ष , मेरी पुत्री तुम्हारी छाया तले रहेगी ; तुम रात भर जागना। हजारों ऊंचे पर्वतों की बाहें धारण करके भी मैं हतभाग्य वैदेही की देह पर हाथ नहीं फेर सकती हूँ। पथिक ! तुम जानते हो क्या हुआ ?—यह सुन कर पथिक का मुंह खुला रह गया।
पृथ्वी ने व्यथित होकर कहा –‘ तुम जिस अयोध्या से दौड़े चले आ रहे हो , वहाँ एक दिन ‘ सांझ समय सानंद नृपु गयउ कैकई गेह ‘—वह सांझ ऐसी कालरात्रि में बदल गयी थी जिसकी सुबह दशरथ के आंसुओं से भीगी थी। निरपराध रघुनंदन सपत्नीक – सभ्रातृ चौदह वर्ष के लिये अयोध्या से बाहर कर दिये गये थे। सत्तासीन दशरथ अल्पमत जैसी दारुण कूटनीति के शिकार हो गये थे ; फिर भी मेरे जामातृ ने अभिजात्य के आवरण को चीर कर सघन अरण्य में मनुष्यता और पारस्परिक सौहार्द्र को पहचानने का संकल्प लिया था।  यह पहचान रघुनंदन को निषाद के कठौते में भरे , गंगा के पानी के रूप में नहीं , बल्कि निश्छल सर्वार्पण की अतल द्रवता के रूप में अनुभूत हुई थी। रघुनंदन को शबरी के हाथों में बेर जूठे नहीं दिखाई दिये। वह एक-एक बेर कौशल्या के हाथों से बनीं नवनीत की छोटी–छोटी गोलियों की तरह सुस्वादु जान पड़े। इतना ही नहीं ; रघुनंदन ने अरण्य के हिंसक पशुओं और निरक्षर वनजातियों को एकात्मैक्य का पाठ दिया था। मेरे सर्वांग के सर्वोत्तम भाग– भारत में मनुष्यता का जो अविराम संकीर्तन रघुनंदन के समय गुंजायमान हुआ था वह मेरे पूरे शरीर में व्याप्त हो गया था लेकिन तुम रामव्रती होकर उस संकीर्तन को जिस लय और गति से प्रस्तुत कर रहे हो , उसका अनुसरण कर पूरे भारत का समवेत स्वर कभी बन पायेगा ! इस विसंगति से हर मनुष्य समीप बैठे मनुष्य के प्रति शंकालु हो जायेगा। यह तो मनुष्य का बंटवारा है। सिंहासन के समीप खड़े तुम्हारे अग्रज रघुनंदन को भी बाँट देना चाहते हैं , जैसे अयोध्या में उस रात कैकेयी ने अपने परमप्रिय श्रीराम को केवल कौशल्या के श्रीराम बना दिया था।’
‘सावधान ! कहीं ऐसा न हो कि कुछ समय बाद रघुनंदन न तुम्हारे रहें और न निषाद के ही | पुत्र ! तुम्हारे साथी यदि बंटवारे के लिए अधिक लालायित हैं तो तुम मेरे वक्ष के दो भाग कर दो लेकिन मेरे रघुनंदन को मत बाँटो , क्योंकि मेरी कोख में सोयी जानकी जाग जाएगी और जागते रहने पर पीड़ा का बोध तीव्र होता है।’
‘ पथिक! तुम भी मेरी कोख से जन्मे हो। मेरी व्यथा कहाँ तक सुनोगे ?
‘ रघुनंदन के दूसरे पदचिन्ह के प्रसंग के साथ अरण्य में मनुष्यता की सम्पूर्ण कविता बनते–बनते वैदेही के तलुओं में पड़ गये छालों के चिन्ह आज भी मेरे वक्ष पर अंकित हैं। उन्हीं छालों के चिन्हों पर निर्ममता से सिंहासन के चारो पाँवों को गड़ा देने का जो कार्यक्रम तुम्हारे अग्रगामी बन्धु रच रहे हैं , उस सिंहासन को बहुत पहले ही वैदेही के साथ मेरी कोख में समा जाना चाहिए था। रघुनंदन ने गलती से सिंहासन बचा लिया था लेकिन उनका विश्वजित सामर्थ्य वैदेही को मुझमे समा जाते देख अवसन्न रह गया था।’
‘मनुष्य को खंडित रूप में देखने की जिस शैली का सूत्रपात तुम सबने किया है, उससे सिंहासन सदैव अभिशप्त रहेगा और मैं इस बार रघुनंदन का अवतरण बड़ी सावधानी से रचूँगी। अब रघुनंदन किसी दशरथ के आँगन में नहीं , निषाद के श्रद्धापूत कठौते के निर्मल जल में अवतरित होंगे , जिसमे मेरी वैदेहीस अरण्य में सदैव के लिये मनुष्यता की कविता का विहार सज्जित हो सकेगा और तब कविता शब्दमयी नहीं ध्वनिमयी होकर मनुष्यता का संकीर्तन भी होगी‘ श्रीराम के चरणों को निहारने की लालसा में अपनी परछाई भी देख सके। तब उस अरण्य में सदैव के लिये मनुष्यता की कविता का विहार सज्जित हो सकेगा और तब कविता शब्दमयी नहीं ध्वनिमयी होकर मनुष्यता का संकीर्तन भी होगी ‘

पथिक हतप्रभ था। वह बोला , माता ! मेरा गंतव्य राजधानी नहीं , सर्वाश्रय आप हैं। मैं तब तक आपके पास हूँ जब तक निषाद के कठौते में रघुनंदन का अवतरण नहीं हो जाता।क्षमा करो ! 'माता ! मेरे अन्दर शबरी का प्रतीक्षा – भाव उदित हो रहा है’

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रचनाकार परिचय

शिव कुमार दीक्षित

ईमेल :

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

नाम- डॉ० शिव कुमार दीक्षित 

डॉ० शिव कुमार दीक्षितजी का जन्म उत्तर प्रदेश के फ़तेहपुर जिले के एक गाँव में हुआ। आजीविका हेतु आप को कानपुर प्रवास करना पड़ा। आप पेशे से डिग्री कॉलेज के एसोसिएट प्रोफ़ेसर के पड़ से सेवानिवृत्त हैं। आप कानपुर के डी.बी. एस. डिग्री कॉलेज के हिन्दी विभाग में व्याख्याता रहे हैं। आप ललित निबंधकार, समीक्षक, विद्वान वक्ता एव वेदान्त मर्मज्ञ हैं। आपकी निबंध कि कई पुस्तकें आ चुकी हैं साथ ही प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आपके निबंध अनवरत छपते रहे हैं। आपने एक साहित्यिक पत्रिका का लगातार की वर्षों तक सम्पादन भी किया है। आप किसी भी विषय पर अपने मुखर वक्तव्य देने के लिए जाने जाते हैं, आप किसी भी बात को बिना लाग लपेट के कह देने के लिए प्रसिद्ध हैं।