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दूर्वा-संस्कृति का आख्यान- डॉ० शिव कुमार दीक्षित

दूर्वा-संस्कृति का आख्यान- डॉ० शिव कुमार दीक्षित

सदाशिव के जटा सम्भार से हहराकर उतर आयी सितफेन गंगधार के स्पर्श से दूर्वा भूमण्डल पर हरित होकर ऐसी फैल जाती है मानों वह उन वनस्पतियों को चिढ़ा रही हो जिनके शिखर पुष्प देवांगनाओं के धम्मिल पाश में रत्नाभूषण बन गए हैं।

विघ्नेश्वर के शीश पर चढ़ती ,निर्बीज,निष्फला दूर्वा अपने एक कांड यानी खण्ड से आगे अनेक कांडों को रचती-फैलती जाती है।कोटि संख्य पादतलों से रौंदी गयी उपेक्षित दूर्वा न जाने कितनी भभकती ग्रीष्म ऋतुओं में युगों-युगों से झुलसा दी गयी ,फिर भी भस्मीभूत हुए अस्तित्वों का साक्ष्य यही समेटे है।

इतिहास के नवलेखन का दम्भ अनेक क्रूरकर्मा अस्थियों का संयोजन कहाँ तक कर पायेगा!

सदाशिव के जटा सम्भार से हहराकर उतर आयी सितफेन गंगधार के स्पर्श से दूर्वा भूमण्डल पर हरित होकर ऐसी फैल जाती है मानों वह उन वनस्पतियों को चिढ़ा रही हो जिनके शिखर पुष्प देवांगनाओं के धम्मिल पाश में रत्नाभूषण बन गए हैं।

नवागत दूर्वा शशक शिशुओं के होठों पर मुस्कराहट की चित्रकारी रचती है,निर्यास लुप्त होती है,अनायास उगती है।

युगान्तरों को नापती,कालक्षेप करती दूर्वा उद्दंड बर्बरता, निर्मम आधिपत्य के इतिहास की पोथी बनी हुई विश्व के अहम्मन्य धर्मों के कथित अभिलेख को दबाये जीव-प्राण विशेषतः निर्वर्ण मनुष्य के सम्वेदन की अक्षत संस्कृति का प्ररोहण है।

भस्म दूर्वा की शय्या है,अप्रतिहत-अदृष्ट-अमाप काल का लास्य सजाती हुई यह भारत भूखण्ड पर एक अविजित साम्राज्य का पुरस्सरण करती है।अपरिग्रह इसका देवता है, त्यागमय भोक्तृत्व इसका सम्राट है, सर्व स्वीकृति-समावेश इसका संविधान है और पारस्परिकता इसकी शैली है।

अंतरिक्ष मे वितत-व्याप्त अदृश्य अनुभाव्य नाद इसका गान है।अथक सूर्य चन्द्र इसके कीर्ति ध्वज हैं।पंचपल्लव इसके आश्रय वितान हैं।सर्व त्यागयहाँ तक कि रक्षाकर्म में प्राणोत्सर्ग की कामना इसका मुमुक्षत्व है।

लोक चर्चित जाति, राष्ट्र, कौम, मुल्क, प्रान्त क्षेत्र आदि की संकीर्ण व्याख्याएँ कांड से कांड की ओर प्ररोहन्ती दूर्वा के फैले दिगन्त संजाल में बालुका भवन के निर्माण का प्रयास है।

उपेक्षिता दूर्वा अपार शक्ति पुंज विघ्नेश्वर के शीश पर चढ़ कर मर्म भी खोल गयी।भूमण्डल पर जो शक्ति-साधन-समृद्धि से पृथुल हो रहे हैं वे जाने कि उनके सामने जो उपेक्षित है वह हेय या त्याज्य नहीं है वस्तुतः वरेण्य है।

दूर्वा-संस्कृति का यही आख्यान है, यह भारत भूमि के अतल में समायी विपुल साक्ष्य सम्पदा है।

एक पल के जीवन का स्वामित्व बटोरे मनुष्य इन साक्ष्यों की गलित-शुष्क-चरचराती अस्थियों के संयोजन से कल्पित देह की भंगिमा बना भी ले तो आसन्न क्षण उसके लिए भस्म शय्या के रूप में पहले से तैयार हैं।

अजाति,अवर्ण,अगोत्र और अनाम होकरप्रकृति तो सृष्टि के आरम्भ से पृथ्वी के रजस्वला होने, रत्नगर्भा और प्रसूता होने तक कभी विक्षुब्ध नहीं हुई। मनोचित मुकुट लगाकर मनुष्य ने ही अपने तलुओं के नीचे की भूमि से निरपेक्ष होकर जब जब बहुत ऊपर की ओर निहारा तब तब उसका मुकुट खड़खड़ा कर इसी दूर्वा की कोख में समा गया।

नायकत्व कभी मनुष्य को एकाकी बना देता है जब कि उसका जन्म स्वाभाविक युग्म कलाप का प्रदेय है।

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रचनाकार परिचय

शिव कुमार दीक्षित

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निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

नाम- डॉ० शिव कुमार दीक्षित 

डॉ० शिव कुमार दीक्षितजी का जन्म उत्तर प्रदेश के फ़तेहपुर जिले के एक गाँव में हुआ। आजीविका हेतु आप को कानपुर प्रवास करना पड़ा। आप पेशे से डिग्री कॉलेज के एसोसिएट प्रोफ़ेसर के पड़ से सेवानिवृत्त हैं। आप कानपुर के डी.बी. एस. डिग्री कॉलेज के हिन्दी विभाग में व्याख्याता रहे हैं। आप ललित निबंधकार, समीक्षक, विद्वान वक्ता एव वेदान्त मर्मज्ञ हैं। आपकी निबंध कि कई पुस्तकें आ चुकी हैं साथ ही प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आपके निबंध अनवरत छपते रहे हैं। आपने एक साहित्यिक पत्रिका का लगातार की वर्षों तक सम्पादन भी किया है। आप किसी भी विषय पर अपने मुखर वक्तव्य देने के लिए जाने जाते हैं, आप किसी भी बात को बिना लाग लपेट के कह देने के लिए प्रसिद्ध हैं।