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बनन में, बागन में अब काहे बगरयो नहीं बसंत है- प्रेम गुप्ता ‘मानी’

बनन में, बागन में अब काहे बगरयो नहीं बसंत है- प्रेम गुप्ता ‘मानी’

इस नई पीढ़ी को यह भी नहीं पता कि ऋतुएँ छः होती हैं- शरद, हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा। अपने-अपने स्तर पर इन सभी ऋतुओं का महत्व है। अगर ये ऋतुएँ न होतीं तो यह जीवन भी न होता। जल, वायु, भोजन, मकान व अन्य वस्तुएँ जैसे हमारे जीवन में बदलाव लाकर उसे संतुलित रखती है, वैसे ही ये ऋतुएँ भी हैं, जो कभी सुख तो कभी दुःख देकर जीवन के मायने समझाती हैं। जीवन और मृत्यु, रात और दिन को जैसे हम स्वीकार करते हैं, उसी तरह इन ऋतुओं को भी स्वीकार करते हैं।

वसंत ऋतु के संदर्भ में कवि पद्माकर की एक ऐसी कालजयी रचना है, जिसने वसंत की सम्पूर्णता को अपने में पूरी तरह से समेट लिया है। इसमें कवि की वसंत ऋतु के प्रति आस्था, उसकी संवेदना, उसका उल्लास, आत्म-तल्लीनता के साथ ऐसा सौन्दर्यबोध झलकता है, जो इस ख़ास ऋतु को और भी महत्वपूर्ण बना देता है। इसे सभी ऋतुओं में ऊँचा स्थान ही नहीं देता बल्कि इसे ऋतुराज की उपाधि से सम्मानित भी करता है। कवि की दृष्टि में यही एक ऐसी ऋतु है, जो पूरी प्रकृति के साथ एकसार होकर उसे और भी सुंदर बना देती है। कवि के अनुसार-

कूलन में, केलि में, कछारन में, कुंजन में
क्यारिन में कलित कलीन किलकंत है
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में
पातन में पिक में पलासन पंगत है
द्वारे में दिसान में दुनी में देस देसन में
देखो दीप दीपन में दपित दिगंत है
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में
बनन में बागन में बगरयो बसंत है

कवि पद्माकर ने अपनी इन पंक्तियों के माध्यम से इतना कुछ कह दिया है कि कुछ समझने की ज़रूरत नहीं, पर फिर भी अपने देश की छः ऋतुओं में वसंत का स्थान ही प्रमुख क्यों रहा, आज की पीढ़ी के लिए यह जानना बहुत ज़रूरी हो गया है। अपसंस्कृति के चलते आज की पीढ़ी यह भी नहीं जानती कि ऋतुएँ हैं कितनी और उनका अलग-अलग महत्व क्यों है?

ऋतुओं के नाम पर वे जाड़ा, गर्मी, बरसात कहकर छुट्टी पा लेते हैं पर ऋतुओं के बारे में न तो जानने की वे ज़रूरत समझते हैं और न ही बड़े-बुजुर्गों द्वारा बताए जाने पर उसके बारे में सुनना पसंद करते हैं। उन्हें डिस्को, पब की मौज-मस्ती और टी०वी० चैनलों द्वारा दिखाए गये तमाम रियल्टी शो में सड़कछाप हरकतों द्वारा अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ के सिवा कुछ समझ नहीं आता। अभिजात्य वर्ग की कौन कहे, अब तो मध्य और निम्न मध्यवर्ग भी अभिजात्य ढंग से रहना चाहते हैं और कहीं न कहीं वे इसके आदी बन गये हैं।

इस नई पीढ़ी को यह भी नहीं पता कि ऋतुएँ छः होती हैं- शरद, हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा। अपने-अपने स्तर पर इन सभी ऋतुओं का महत्व है। अगर ये ऋतुएँ न होतीं तो यह जीवन भी न होता। जल, वायु, भोजन, मकान व अन्य वस्तुएँ जैसे हमारे जीवन में बदलाव लाकर उसे संतुलित रखती है, वैसे ही ये ऋतुएँ भी हैं, जो कभी सुख तो कभी दुःख देकर जीवन के मायने समझाती हैं। जीवन और मृत्यु, रात और दिन को जैसे हम स्वीकार करते हैं, उसी तरह इन ऋतुओं को भी स्वीकार करते हैं।

यदि हम मौसम को सिर्फ़ ‘मौसम’ के रूप में परिभाषित न करें तो उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इंसान की तरह मौसम भी संवेदित होता है। कभी गौर कीजिए तो आँखों के आगे सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। जब पतझर का मौसम आता है तब कितनी ज़ोर से गर्म हवाएँ चलती हैं। यह हवाएँ सुख कम, दुःख ज़्यादा देती हैं। इन गर्म हवाओं के साथ जब धूल का गुबार चक्रवात सरीखा चलता है, तब धूल-धूसरित घर को देख कर तन ही नहीं, मन भी तिक्त हो उठता है। बाहर निकलने का ज़रा भी मन नहीं होता। पूरी दुनिया धूसर-धूसर लगती है।

हरे-भरे पेड़ों की शाखों से पत्ते पीले पड़ कर झड़ जाते हैं। पेड़ की सूखी डाली प्रकृति की दरिद्रता का अहसास कराती है, पर क्या वास्तव में प्रकृति दरिद्र है? नहीं, वह तो इतनी समृद्ध है कि अपने भीतर एक विशाल जीवन को समेटने की शक्ति रखती है। वक़्त पल भर के लिए ही तो थमता है।
पुराने पत्तों के झरते ही नई कोंपले फूटती हैं। ठीक उसी तरह जैसे वृद्धावस्था के ख़त्म होने पर एक नई ज़िन्दगी भी तो जन्म लेती है। इंसान यदि प्रकृति का पूरक है तो प्रकृति का चक्र भी इंसानी जीवन की तरह ही चलता है।

इस जीवन-चक्र का हिस्सा सिर्फ़ पतझर ही नहीं, ग्रीष्म, वर्षा और शीत भी है। ग्रीष्म ऋतु यदि अपनी तीखी धूप और गर्म हवा से तन को झुलसाती है तो उसे सहलाने के लिए वर्षा और शीत भी है। वर्षा ऋतु में जब काले बादलों से भरा आकाश उमड़ता-घुमड़ता है तो किसानों की खुशी का ठिकाना नहीं होता। अपने हरे-भरे खेत देख कर वह फूला नहीं समाता। इस मौसम में पूरी धरती जैसे भीग-भीग जाती है। कहने का तात्पर्य इतना है कि हर मौसम का अपना महत्व है पर वसन्त ऋतु?

यह तो अपने सामान्य और मनमोहक प्रवृति के कारण ऋतुओं का राजा है। इस एक ऋतु में ही मानो सारी ऋतुएँ समा गई हों। यह सिर्फ़ ऋतु ही नहीं बल्कि तीन-तीन पूजा का पर्व है- कामदेव और उनकी पत्नी रति की पूजा, श्रीकृष्ण की पूजा और माँ सरस्वती की पूजा।
माँ सरस्वती की पूजा चिंतन के माध्यम से ज्ञान की वृद्धि कर व्यक्ति को प्रबुद्ध तो बनाता ही है, मन को भी शांत करता है। यदि देखे तो ज्योतिष शास्त्र में भी इस ऋतु को काफ़ी महत्व दिया गया है। इस समय सभी ग्रहों का योग कुछ इस तरह बनता है कि व्यक्ति यदि मन-वचन से तीनो आराध्य की आराधना कर तो उसे मनवांछित बहुत कुछ हासिल हो जाता है।

सभी ऋतुओं में से वसंत को इस कारण से भी महत्व दिया गया है कि उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानो सारी की सारी ऋतुएँ उस एक ऋतु में एकाकार हो गई हों। उस समय न धूल का गुबार उठता है, न शीत की लहर। गर्मी भी तन को नहीं सताती। मौसम की खुशमिजाजी से इंसान भी खुश हो जाता है। जिधर देखो उधर खुशनुमा-सा माहौल। पीले फूले सरसों के खेत किसानों के मन में एक नई आशा जगाते हैं। वह विगत को भूल अपने खेतों और प्रकृति की सुन्दरता में रम जाता है। सम्पूर्ण प्रकृति को सुन्दरता प्रदान करने के कारण ही इस ऋतु को राजा की उपाधि दी गई है, ऋतुराज।

इस राजा के राजसी ठाठ को किसी कवि ने बड़ी खूबसूरती से वर्णित किया है। इसका आशय कुछ इस प्रकार है-
"वसन्त रूपी राजा, उपवन रूपी भवन में निवास कर रहा है। वह भवन मधु से आच्छादित है। उसकी सज्जा सुगन्धित पुष्पों से की गई है। रक्तोत्पल उस भवन के दीपक हैं। मयूर के बोल मानो गाने के सुर हैं और वह स्वयं मानो नर्तक है। श्वेत पुष्पों की कलियाँ उस वसंत रूपी राजा की ध्वजाएँ हैं। भ्रमरों का गुंजार उस राजा के लिए गान है। कामिणियाँ राजहंस के समान रमण कर रही हैं। कुरर और कीर आदि पक्षी उस राजा के लिए समवेत गायक हैं। उस वसंत रूपी राजा को समर्पित करने के लिए वन लक्ष्मी ने वनस्पति रूपी हाथ में कमल के पत्ते रूपी श्रेष्ठ मरकत थाल को ले रखा है, जिसमें श्वेत जल के कण रूपी तंदुल रखे हुए हैं।"

उस कवि ने तो वसंत ऋतु के राजसी रूप को ही नहीं वरन प्रकृति के सम्पूर्ण सौन्दर्य को ही आँखों के आगे सजीव कर दिया है। यह देख कर मन तो यही कहता है कि काश! ऋतुराज हमेशा के लिए इस धरा पर ठहर जाए पर ऐसा मुमकिन कहाँ? परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है और ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी भी, ज़िन्दगी और मौत की तरह।

आधुनिक युग की विषम परिस्थितियों से उपजी हिंसक घटनाएँ, आगे; सब से आगे निकल जाने की होड़ में भागती ज़िन्दगी, बढ़ती मँहगाई से निराश मन, मरती हुई संवेदनाओं के साथ खत्म होता प्राकृतिक सौन्दर्य यदि इन सबको कुछ पल के लिए ही सही, परे धकेल कर विगत की खिड़की से झाँकने का प्रयास किया जाए तो पता चलेगा कि विगत में इंसान के आत्मिक सौन्दर्य ने ही प्रकृति के सौन्दर्य को बरकरार रखने के साथ ही साथ ऋतुओं को भी पूरे अहसास के साथ ज़िन्दा रखा था।

पहले के घरों में न फ़्रिज का ठण्डा पानी था न कूलर की हवा, हीटर-एयरकण्डीशन जैसी चीजों का तो नाम ही नहीं था पर फिर भी ज़िन्दगी खुशनुमा थी। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ट, आषाढ़, सावन, भादों...आदमी इन्हीं नामों से मौसम को जानता था। आज की पीढ़ी न इन नामों को जानती है, न जानना चाहती है। पर नई पीढ़ी को ही दोष क्यों दिया जाए? उनके अंग्रेजीदाँ मॉम-डैड ही कहाँ जानते हैं इन नामों को? पहले आदमी तारीख महीने से नहीं बल्कि मन की आँखों से जान जाता था कि कब कौनसी ऋतु आई और कब गई पर अब?

पहले ऋतुराज के आगमन की आहट पाते ही प्रकृति ही नहीं, वरन इंसान भी खिल जाते थे। वसंत के आने से पहले ही घर की खूब साफ़-सफ़ाई की जाती थी। जिनके पक्के घर होते थे, वहाँ चूने की पुताई हो जाती थी और जिनके कच्चे घर होते थे, उनका घर-आँगन पवित्र गोबर की लिपाई से महक उठता। हर द्वार पर खड़िया को रंग कर रंगोली सजाई जाती। पीले फूले सरसों के फूल से खेत सज जाते। लाल कनेर के फूल इस तरह लालिमा बिखेरते मानो ऋतुराज को लुभाने के लिए प्रकृति ने होंठो पर लाली सजा ली हो।

क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी के मन उल्लासित हो उठते। गृहणियाँ जहाँ पकवानों की खुशबू से घर-आँगन को महका देती, वहीं वे कपड़ों को रंगना नहीं भूलती थी। सफ़ेद, कोरे कपड़े को पीले रंग से रंगकर वे फैला देती और फिर सुबह वसन्त पंचमी के दिन कोयले वाले प्रेस से या लोटे को उल्टा तपाकर कपड़े को सरियाती तो क्षण भर बाद ही पूरा घर मानो वसन्तमय हो उठता। खील, बताशे, घर में बनी मिठाइयों से तीनो अराध्यों की पूजा होती। घंटियों की मीठी आवाज़ घर को मंदिर बना देता। जिनके पास उस अहसास की मीठी यादें हैं, वे खंड-खंड बिखरती दुनिया को, आदमी की मरती संवेदना को देख कर दुःखी हैं पर जिन्होंने उस सुख को भोगा ही नहीं, वे कैसे जानेंगे कि हर मौसम का भी अपना एक सुख होता है। वे कैसे समझ सकते हैं कि छत पर खटिया-मछिया डाल कर खुले आकाश के नीचे सोना कितना सकून भरा होता है! वे कैसे महसूस कर सकते हैं, हाथों से रंगे पीले कपड़ों की भीनी महक को और उस संवेदना को भी, जब खून के रिश्ते न होने पर भी हर कोई एक-दूसरे का काका, मामा, बाबा ही नहीं होता था बल्कि पूरे दिल से एक-दूसरे के सुख-दुःख में भी शरीक़ होता था।
पर आज वैज्ञानिकता ने देश को जहाँ पूरी तरक्की दी है, उसे पूरी दुनिया में एक ताकतवर देश के रूप मे स्थापित किया है, वहीं समाज को विघटन की ओर भी खींचा है।

पहले जहाँ घरों में रेडियो पर गूँजते मधुर गीतों के साथ रिश्तों की मिठास थी, व्यवहारकुशलता थी, वहीं अब टेलीविजन और कम्प्यूटर ने आदमी को घर के भीतर बंद कर न केवल उसकी व्यवहारकुशलता और रिश्तों की मिठास को ख़त्म किया है बल्कि घरेलू तकरार, हिंसा और व्यभिचार को भी बढ़ावा दिया है। घर के भीतर बंद होकर लोग मौसम का मज़ा लेना भूल गये। उन्हें तो दीवार पर टँगे कैलण्डर से पता चलता है कि कब कौनसा महीना आया और कब गया। उनकी ज़ुबान पर जाड़ा, गर्मी, बरसात का नाम तो आ जाता है पर वसंत का नाम मुश्किल से आता है। कुछ लोग, खास तौर से बड़े-बूढ़े रस्म अदायगी-सी करते हुए वसन्त-पंचमी मना लेते हैं, तब याद आता है कि अरे, आज तो वसंत पंचमी है। खेतों में अब भी सरसों के पीले फूलों की चादर बिछ जाती है, अब भी लाल कनेर का फूल खिलता है, पर न जाने क्यों आपाधापी से भरी इस दुनिया में मन नहीं खिलता। अब तो शहरों की चकाचौंध में गाँव के किसान भी इस कदर खो गये हैं कि उन्हें भी सुध नहीं रहती कि वसंत सिर्फ़ एक ऋतु ही नहीं बल्कि उनके जीने का आधार भी है।

मनुष्य की आंतरिक संवेदना इस कदर ख़त्म होती जा रही है कि उसकी छवि भी अब आतंकमयी हो उठी है। अनास्था का साम्राज्य फैल रहा है। आज पलाश और कनेर की लालिमा नहीं, बम-विस्फ़ोटों से उपजी दहकन है, पीड़ा है और सूने होते आँगन हैं। आज की इस उलझी हुई ज़िन्दगी में ऋतुएँ भी उलझ कर रह गई है। पहले की तरह अब कोई भी कवि अपनी आत्मिक संवेदना से वसंत के गुणगान में पंक्तियाँ नहीं सजाता। वह खुद ही इतना उलझ कर रह गया है कि समझ में नहीं आता कि चुपके से आए-गए वसंत के लिए क्या कहे?

अब कवि पद्माकर का वसंत न है और न कभी आएगा। अब तो पीले, वासंती रंग की जगह खून का लाल रंग बिखरता है। लाल रंग से तो अब डर-सा लगता है। उसने अपनी शुभता खोकर पैशाचिक प्रकृति जो अपना ली है। काश! वक़्त रहते आदमी संभल जाता। विगत की कुछ अच्छाइयों को अपनाकर अपनी सारी संवेदनाओं को दूसरे पर उंडेल देता तो कितना अच्छा होता। पूरी दुनिया एक बार फिर वसन्तमय हो जाती और हम, इंसान कहलाने के अधिकारी।

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रचनाकार परिचय

प्रेम गुप्ता ‘मानी’

ईमेल : premgupta.mani.knpr@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तरप्रदेश)

शिक्षा- एम० ए० (समाजशास्त्र एवं अर्थशास्त्र)
जन्मतिथि- 24 अगस्त
जन्मस्थान- इलाहाबाद (उत्तरप्रदेश)
प्रकाशन- लाल सूरज, अंजुरी भर, बाबूजी का चश्मा (कथा संग्रह), अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो (कविता संग्रह), सवाल-दर-सवाल (लघुकथा संग्रह), यह सच डराता है (संस्मरणात्मक संग्रह) प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ एवं कविताएँ प्रकाशित।
संपादन- अनुभूत, दस्तावेज़, मुझे आकाश दो, काथम (संपादित कथा संग्रह)
सम्मान- पं० विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक स्मृति समिति द्वारा 'विशिष्ट साहित्य सम्मान'
विशेष- 1984 में कथा-संस्था 'यथार्थ' का गठन व 14 वर्षों तक लगातार हर माह कहानी-गोष्ठी का सफ़ल आयोजन।
संपर्क- ‘प्रेमांगन’, एम०आई०जी०- 292, कैलाश विहार, आवास विकास योजना संख्या- एक, कल्याणपुर, कानपुर (उत्तरप्रदेश)- 208017
मोबाइल- 9839915525