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राजेन्द्र वर्मा का ललित निबंध 'प्रकृति, परिवेश और हम'

राजेन्द्र वर्मा का ललित निबंध 'प्रकृति, परिवेश और हम'

माना जाता है कि ये पञ्च तत्त्व हमारे शरीर में उसी मात्रा में विद्यमान हैं जिस मात्रा में ब्रह्माण्ड में हैं। इस दृष्टि से अपने शरीर को हम चलता-फिरता लघु ब्रह्माण्ड मान सकते हैं। हमारे भीतर गुण-अवगुण और हमारी चेतना का स्तर इन पंचतत्त्वों के व्यवहार से नियंत्रित होता है। 

प्रकृति परिवेश को सँवारती है, उसे समृद्ध करती है। पृथ्वी पर चर-अचर, सभी प्राणी प्रकृति से ही बने हैं। प्राणी का अस्तित्त्व दो पदार्थों से बना है— प्राण और देह।  प्राण देह के बिना नहीं रह सकता। हम सभी जानते हैं कि देह पाँच प्राकृतिक तत्त्वों से बनी है : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। तुलसी बाबा ने भी बताया— क्षिति जल पावक गगन समीरा।  पंचरहित यह अधम सरीरा॥ आसानी के लिए हम अर्धाली की दूसरी पंक्ति को—  पंचतत्त्व से बना शरीरा, कह लेते हैं। 

          माना जाता है कि ये पञ्च तत्त्व हमारे शरीर में उसी मात्रा में विद्यमान हैं जिस मात्रा में ब्रह्माण्ड में हैं। इस दृष्टि से अपने शरीर को हम चलता-फिरता लघु ब्रह्माण्ड मान सकते हैं। हमारे भीतर गुण-अवगुण और हमारी चेतना का स्तर इन पंचतत्त्वों के व्यवहार से नियंत्रित होता है। हड्डियाँ-मांस पिंड पृथ्वी, मल-मूत्र-पसीना जल, शरीर की गर्मी अग्नि, श्वास का आना-जाना व रक्त का प्रवाह वायु और मन की स्थिरता या शून्यता आकाश तत्त्व की ओर संकेत करते हैं।  हमारे भीतर क्षमा, क्रोध आदि जो गुण हैं, वे भी इन्ही पंचतत्त्वों से नियंत्रित होते हैं। आहार-विहार से प्राप्त ऊर्जा भी हममें तदनुसार संचालित होती है।

हमारे शास्त्रों में तीन प्रकार के गुणों का उल्लेख मिलता है : सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण। ये तीनों हममें सदैव विद्यमान रहते हैं। हमारा आहार-विहार, जीवन-शैली और इन गुणों में सहज संबंध है। अगर हम स्वाध्याय और जीवनचर्या में सत्व गुण से भरे रहते हैं तो हमारा मन भी सात्विक विचारों से प्रभावित और संचालित होता है। प्रकृति से प्रेरणा लेकर हम अपने भीतर सत्व गुण में वृद्धि कर सकते हैं। समुद्र, बादल, पवन, पेड़-पौधे वन और पर्वत— सब मिलकर वर्षा करते हैं। वर्षा के पानी से नदियाँ मैदानी क्षेत्रों को हरा-भरा करते हुए समुद्र में विलीन हो जाती हैं। यह एक बात ही अगर हम अपने मन में बिठा लें तो हमारी जीवन-दृष्टि बदल जाएगी और हम स्वार्थ के वशीभूत न रहकर एक परोपकार मानव की भाँति जीने का प्रण ले सकते हैं। इसके विपरीत, प्रकृति से कटकर हम काम, क्रोध, लोभ मोह आदि में पड़कर स्वार्थ की राह में जीवन बिता सकते हैं। परिणाम यह होगा कि सेवा, करुणा, क्षमा प्रभृत गुणों के विपरीत हम काम, क्रोध, लोभ, मोह और वैमनस्य में आसानी से पड़ जाएँगे और एक भोगवादी जीवन-दर्शन अपना लेंगे। यशार्थी प्रायः रजोगुणी होता है। उसमें साधुता की अपेक्षा स्वाभिमान और अस्मिता अधिक प्रभावी रहती है। तथापि यदि वह सभी प्राणियों के हित में कार्य करता रहे तो ठीक है, लेकिन ऐसा अधिक दिनों तक नहीं चल पाता। वह लोकप्रिय होना चाहता है, अपने अस्तित्त्व और अपनी प्रभुता का विस्तार चाहता है, जिसके लिए वह अनुचित साधनों का भी उपयोग करता है। परम्परा से चली आ रही अनेक अनुचित बातों को वह व्यवहृत करता है और स्वयं आलोचना से परे रहना चाहता है। तमोगुणी तो लोभ-मोह और भोगवादी जीवन-शैली के अतिरिक्त कुछ देखता ही नहीं। सारी पृथ्वी, अर्थात प्रकृति का प्रत्येक अवयय वह अपने भोग की वस्तु मानता है और उसके लिए यथासंभव उद्यम भी करता है, पर इसमें जगत का, प्राणिमात्र का तनिक भी कल्याण नहीं। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वे प्रकृति का दोहन-शोषण किसी सीमा तक करने में नहीं हिचकते। आश्चर्य की बात यह है कि सरकारें भी इन्हीं भोगियों के साथ हैं, वे ऐसी नीतियाँ बनाने में सहायक सिद्ध होती हैं जो प्रकृतिविरोधी हैं। सिद्धांततः कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति तमोगुणी से दूर ही रहना चाहेगा, पर अनेक कारणों से वह उसका विरोध नहीं कर पाता। चिंता की बात यह है कि ऐसे गुण के भरे लोगों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है।   

  हमारी बुद्धि भी हमारे मन की अवस्था और हमारे परिवेश के अनुसार ढलती है। मन और बुद्धि एक-दूसरे के पूरक हैं। बुद्धि मन के सारथी के रूप में कार्य अवश्य करती है, पर उसकी सीमा है। अधिक समय तक हम अगर अपने मन पर नियंत्रण नहीं रख पाते और वह स्वच्छंद विचरण करता रहता है तो बुद्धि भी एक दिन असहाय हो जाती है। परिणामतः हमारी प्रकृति स्वच्छंद हो जाती है। बुद्धि, दुर्बुद्धि में बदल जाती है। इसलिए हमें चाहिए कि प्रकृति के सान्निध्य में रहकर हम अपनी जीवन-शैली ऐसी विकसित करें कि स्वार्थ-साधना कम-से-कम हो। जीवन परार्थ में लगे। निरंतर स्वाध्याय और प्रकृति से प्रेरणा लेते रहने से हम ऐसा करने में समर्थ हो सकते हैं। सतत आत्मावलोकन और आत्मालोचन से हमारी बुद्धि हमारे मन पर अधिकाधिक नियंत्रण रखने में सफल होती है।

हमारा परिवेश प्रकृति पर आधारित है ही, बल्कि अधिकांशतः वह प्रकृति से ही बना है। पर्वत, नदियाँ, समुद्र, सूरज, चन्द्रमा, बादल, इन्द्रधनुष, ओस, कोहरा, बर्फ़, धूप, चाँदनी आदि तमाम पदार्थ प्रत्यक्षतः प्रकृति की देन हैं। कुछ वस्तुओं की खोज हमने अपने बुद्धि-कौशल से की है। विकासशील मानव ने प्रकृति को अनावश्यक हानि पहुँचाकर अपने सुख-आराम के साधन जुटाए हैं। उसने मोटर कार, रेलगाड़ी, बस-ट्रक हवाईजहाज, आदि यातायात के साधनों के साथ-साथ कल-कारखानों और उद्योगों की स्थापना की है। बिजली, अणु आदि का आविष्कार किया। सतत वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से जनजीवन की यात्रा सुगम हुई, लेकिन इन सबके विकास में प्रकृति का अंधाधुंध दोहन हुआ है। पहाड़ों को काटकर सड़कें बनायीं, बस्तियाँ बसायीं; नदियों पर बाँध बनाकर उनका प्रवाह रोका, कल-कारखानों से उन्हें प्रदूषित किया। वनों को काटकर खेती-योग्य भूमि में वृद्धि की, लेकिन वनचरों के रहने का स्थान छीन लिया। परिणाम यह है कि आए दिन जंगली जानवर आवासीय क्षेत्रों में घुसकर वहाँ के जानवरों और बच्चों-स्त्रियों को अपना भोजन बनाने लगे हैं। गाँवों में बैलों द्वारा खेती करना पुरानी बात हो गयी है। अब ट्रैक्टरों की इतनी बहुतायत है कि एक एकड़ वाले के पास भी ट्रैक्टर है— चाहे पुराना ही क्यों न हो! दुधारू जानवरों के बछड़ों के लिए उनके घर में कोई जगह नहीं। वे अब बहेतू जानवर हो गए हैं और उनके अपने ही खेतों को नुक़सान पहुँचा रहे हैं। बूढ़ी गाय-भैंसों का भी यही हाल है। इससे आदमी और मवेशी के बीच में सामंजस्य समाप्त हो गया है। दोनों में कौन मनुष्य है और कौन पशु, आज समझना मुश्किल हो गया है।

आवासीय स्थलों के आस-पास जो बाग़ आदि थे, उन्हें काटकर कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिये गए हैं। सौ साल पहले बनी सड़कों के किनारे आम, इमली, वट, पीपल, पाकड़, गूलर आदि वृक्षों के होने से जहाँ यात्रियों को छाया मिलती थी, पशु-पक्षियों को आश्रय मिलता था, वहाँ अब उन वृक्षों को काटकर सड़कों को चौड़ा किया जा रहा है, जबकि उनके किनारे बड़े और छायादार पेड़ों को नहीं रोपा जा रहा है। खेती-योग्य भूमि, जहाँ साल में छह-आठ महीने हरियाली रहती थी, अब उन पर बड़े-बड़े भवन-फ्लैट्स खड़े किये जा रहे हैं। पूँजी की इस खुले खेल-फ़र्रुक्ख़ाबादी ने अमीरी-गरीबी की खाई बढाते हुए जहाँ आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है, वहीं सरकार तमाशा देखती नज़र आ रही है। राज्य नामक संस्था की अवधारणा पर ही प्रश्नचिह्न लग चुका है। वृक्षों में निरंतर कमी तथा कल-कारखानों से निकलते धुंएँ, बस-ट्रक-एस.यू.वी. आदि में प्रयुक्त डीज़ल और छोटी कारों-मोटरसाइकिल आदि में प्रयुक्त पेट्रोल की बढती खपत और उससे उत्सर्जित प्रदूषण में हो रही वृद्धि के कारण बड़े शहरों में प्रदूषण का इतना स्तर बढ़ गया है कि वहाँ के लोगों को अब मास्क पहनकर सड़कों पर निकलना पड़ रहा है। इस बढ़ते प्रदूषण से बीमारियाँ तो बढ़ ही रही हैं, आने वाली पीढ़ियों में विकलांगता का भी प्रभाव देखा जा रहा है। देश की राजधानी दिल्ली इसका जीता-जागता उदाहरण है। असमय वर्षा, सूखा, बाढ़, भूकंप, तूफ़ान आदि प्रलयंकारी आपदाएँ इसी असंतुलन की देन हैं। ये कुछ मानवजनित कारण हैं जिनसे प्रकृति का स्वरूप और संतुलन बिगड़ा है और हमारा भविष्य अंधकारमय हो रहा है। निःसंदेह यह मानवजनित प्रदूषण है, जिसे अविलम्ब नियंत्रित किये जाने की आवश्यकता है।

पर्यावरण के अतिरिक्त हमारा परिवेश शिक्षा और अर्थशास्त्र से बहुत प्रभावित होता है। आज हमने शिक्षा को बुद्धि के लिए नहीं, ज्ञान के लिए ज़रूरी मानते हैं ताकि हम उससे धन का अर्जन कर सकें और भौतिक सुख भोग सकें। प्रकृति प्रदत्त जो भी साधन हैं, उनसे उत्पन्न दृश्यों से हम दिन-प्रतिदिन अनिर्वचनीय सुखानन्द का अनुभव कर सकते है, पर हम उनसे दूर होते जा रहे हैं। या तो वे हमें सहज उपलब्ध नहीं, या फिर हम इतना समय ही नहीं दे पाते कि उनके सान्निध्य में जाकर उनका आनंद उठा सकें। हमारे आस-पास प्रकृति ने जो परिवेश सँवारा है, वह प्राकृतिक दृश्य-भर नहीं, एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है। यों, हममें से तमाम लोगों में इन दृश्यों को देखा होगा, पर कुछ दृश्य ऐसे भी होंगे, जिन्हें नहीं देखा होगा। अपने व्यस्त समय में से कुछ क्षण निकालकर यदि हम इन दृश्यों को देखने की जुगत करे, तो निश्चय ही हम आनंदविभोर हो उठेंगे और तब उन तमाम महँगे भौतिक साधनों की ओर भागना बन्द कर देंगे जो क्षणिक उत्तेजना या सुख देकर हममें असीम निराशा भर देते हैं। कुछ प्राकृतिक दृश्य—

स्वाभिमान से शीश उठाये पर्वतों की शृंखला, जीवन की गूँज सुनाते झर-झर झरते झरने, अपने किनारों के अनुशासन से बँधी कल-कल करती नदियाँ, सागर का अनंत विस्तार, कल्लोल करती लहरें, रंग-बिरंगी मछलियाँ, बल खाती सीपियाँ, अपने ही में मगन इधर-उधर लुढकते शंख, क्रीड़ा करते सामुद्रिक जीव, क्षितिज की गोद से उतरता बाल-सूर्य, एक नटी की तरह शीश पर ओस की बूँद सँभाले दूब, पेड़ों की पत्तियों से जमीन पर हौले से उतरती सूरज की किरनें, कमल के पत्ते पर मोती-सी लुढ़कती बूँद, आकाश में हाथी-घोड़े-मृगछौनों की आकृतियाँ बनाते मेघ, पृथ्वी को अंक में समेटे काले-कजरारे बादल, अपने रसवर्षण से सूखी धरती को शस्य-श्यामला वसुन्धरा बनाने वाले जलधर, असीम जलराशि से लहराते सरोवर, लहलहाती फसलें, सजे-सँवरे उपवन और उनमें खिले सैकड़ों प्रकार के पुष्प, सुरभित पवन, गुंजार करते भौंरे, रंग-बिरंगी तितलियाँ, घने जंगल और उनमें विचरते सैकड़ों जीव-जंतु, आकाश की ऊँचाई नापते पंछी, कलरव करती चिड़ियाँ, संध्यावंदन करते मानव-पशु-पक्षी, क्षितिज के अंक में पसरता थका-हारा सूरज, अमृत बरसाता चन्द्रमा, टिमटिमाते तारे, अमावस की चादर में टँके चमकीले सलमा-सितारे, दृढ़ता दर्शाता ध्रुवतारा! यह आनन्द क्या हमें भौतिक साधनों से उपलब्ध हो सकता है?

कला, साहित्य, संगीत आदि विधाओं से जुड़ने पर हम चाहे सर्जक की भूमिका में हों अथवा मात्र दर्शक-पाठक-श्रोता की, हमें भौतिक सुख-दुःख अपने पाश में नहीं बाँध पाते, भले ही हमें उनकी थोड़ी-बहुत अनुभूति होती रहे। इन विधाओं का लक्ष्य यही है कि सामाजिक परिवेश कैसे उत्कृष्ट बने और आगे भी बना रहे! इनकी साधना में हमारा अभीष्ट भी यही होता है कि हम व्यक्तिगत रूप से उत्कर्ष को कैसे छुएँ? इस प्रयास में यह प्रश्न गौण हो जाता है कि हम अमुक सुख-सुविधा की प्राप्ति कैसे करें, अथवा अमुक दुख-व्याधि से कैसे छुटकारा पाएँ!... अध्यात्म भी वह साधन है जिससे हमारा परिवेश सात्विक बनता है और वासनाओं का शमन होता है। यह हमें स्फूर्ति से भर देता है, हमारी जिजीविषा को तीव्रतर कर देता है और जीवन-दर्शन को शुद्ध करता है। हमारा मनोविज्ञान बदलने लगता है : हमारे आतंरिक शत्रु— काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर स्वतः परास्त-पराजित होने लगते हैं और हम मानवजीवन का लक्ष्य साधने में सफल होने लगते हैं। हम साधारण से असाधारण होने लगते हैं और हमारी दृष्टि में विषय-वासना का कोई मूल्य नहीं रह जाता। सारी सृष्टि सत्य-शिव-सुन्दर लगने लगती है। ईश्वर की कल्पना साकार होने लगती है। हम स्वयं में एक लघु ब्रह्माण्ड की उपस्थिति का अनुभव करने लगते हैं।

प्राकृतिक व्यवस्थाओं में परिवेश की स्वच्छता छुपी हुई है। भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए हम भले ही प्रकृति-परिवेश को दूषित कर लें, लेकिन अन्दर से अपराधबोध लेकर ही जीते हैं। हम जानते हैं कि हम क्या कर रहे हैं : आगामी पीढ़ियों का जीवन दूभर कर रहे हैं, फिर भी हम विकास के ऐसे दुश्चक्र में फँसे हुए हैं कि उससे निकलना संभव नहीं लगता, वरन् वह दिनोदिन सघन और अभेद्य होता जा रहा है। महाभारत के अभिमन्यु की तरह हम चक्रव्यूह में घुसना तो जानते हैं, पर उसे तोड़कर निकलना नहीं। इसके लिए हमें भौतिकता का एक-एक द्वार धीरे-धीरे तोड़ना होगा, तभी भविष्य की सुरक्षा हो सकेगी। आज कोई महामानव अर्जुन या कृष्ण की भूमिका में नहीं दिखाई देता जो हमारी रक्षा कर सके। हमें अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी। कहावत है कि ईश्वर भी उसी की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करता है। बुद्ध ने भी कहा— अप्प दीपो भव!

मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह स्वयं एक आदर्श जीवन जिए और दूसरों को प्रेरणा दे। इसके लिए उसे प्रकृति और अपने परिवेश से सीखने और उसे सुधारने की आवश्यकता है। जब परिवेश सुधरेगा, जग अपने आप सुंदर और कल्याणकारी हो जाएगा।

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रचनाकार परिचय

राजेन्द्र वर्मा

ईमेल : rajendrapverma@gmail.com

निवास : लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 8 नवम्बर 1957
जन्मस्थान- बाराबंकी (उ.प्र.) के एक गाँव में
प्रकाशन-
पाँच ग़ज़ल संग्रह, तीन गीत/नवगीत-संग्रह, दो दोहा-संग्रह, दो हाइकु-संग्रह, ताँका, पद, और सात व्यंग्य-संग्रह,
निबंध, उपन्यास, कहानी, लघु कहानी, लघुकथा, आलोचना, काव्य-शास्त्र सहित तीन दर्ज़न पुस्तकें प्रकाशित।
महत्वपूर्ण संकलनों में सम्मिलित।
संपादन-
हिंदी ग़ज़ल के हज़ार शेर, गीत-शती, गीत-गुंजन।
साहित्यिक पत्रिका अविरल मंथन (1996-2003)
पुरस्कार/ सम्मान-
उ.प्र.हिन्दी संस्थान के श्रीनारायण चतुर्वेदी और महावीरप्रसाद द्विवेदी नामित पुरस्कारों सहित देश की अनेक
संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
अन्य।
विशेष- लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा रचनाकार पर एम फिल.।
अनेक शोधग्रन्थों में संदर्भित। चुनी हुई कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद।
एक निबंध स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में सम्मिलित।
सम्पर्क- 3/29 विकास नगर, लखनऊ 226 022 (मो. 80096 60096)