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आप कब तक हँसेंगे कॉमरेड- डॉ० नुसरत मेहदी

आप कब तक हँसेंगे कॉमरेड- डॉ० नुसरत मेहदी

यह कुछ चयनित साहित्यकारों का सम्मान समारोह था। मैं श्रोताओं में प्रथम पंक्ति में बैठी मंच की गतिविधियों को ध्यान से देख रही थी। धीर गंभीर साहित्यकार कुछ निर्विकार से मंच पर बैठे थे। उनके चेहरों पर न ख़ुशी न ग़म वाले भाव थे। निश्चित ही साहित्य जगत के बड़े नाम थे और वरिष्ठता के इस पड़ाव पर भावनाओं की अभिव्यक्ति को वश में करना आ जाता होगा, मैने सोचा। किन्तु थोड़ी ही देर में मुझे अनुभव हुआ कि मंचासीन साहित्यकारों में कुछ की भाव भंगिमा सामान्य से कुछ ज़्यादा ही गंभीर है उनके चेहरे इतने कसे हुए थे कि मांस पेशियाँ तक दिखाई दे रही थीं।

यह कुछ चयनित साहित्यकारों का सम्मान समारोह था। मैं श्रोताओं में प्रथम पंक्ति में बैठी मंच की गतिविधियों को ध्यान से देख रही थी। धीर गंभीर साहित्यकार कुछ निर्विकार से मंच पर बैठे थे। उनके चेहरों पर न ख़ुशी न ग़म वाले भाव थे। निश्चित ही साहित्य जगत के बड़े नाम थे और वरिष्ठता के इस पड़ाव पर भावनाओं की अभिव्यक्ति को वश में करना आ जाता होगा, मैने सोचा। किन्तु थोड़ी ही देर में मुझे अनुभव हुआ कि मंचासीन साहित्यकारों में कुछ की भाव भंगिमा सामान्य से कुछ ज़्यादा ही गंभीर है उनके चेहरे इतने कसे हुए थे कि मांस पेशियाँ तक दिखाई दे रही थीं। कुछ की गर्दन नीचे झुकी हुई थी तो सोने का सा आभास दे रहे थे और कुछ छत की ओर देख रहे थे या शून्य में घूर रहे थे। कुल मिलाकर सभी स्वयं में खोए हुए से बैठे थे। न श्रोताओं से कोई दृष्टि संपर्क न परस्पर कोई संवाद। मुझे किसी के शेर की एक पंक्ति याद आ गई...
" और भी बैठे हैं महफ़िल में तुम्ही तुम तो नहीं "
ख़ैर, वे सम्मानित हुए और वक्तव्य प्रारम्भ हुए। वक्तव्यों में आयोजक संस्था के प्रति आभार, कृतज्ञता इत्यादि का प्रकटीकरण केवल शाब्दिक सा ही था उनमे उन महान विभूतियों की आत्मा शामिल हो, मुझे ऐसा महसूस नहीं हुआ। सम्मान ग्रहण करने के बाद वर्तमान में साहित्य समाज के द्वारा सम्मान प्राप्ति के लिए किए जाने वाले जोड़ तोड़ और प्रबंधन पर उनकी तीखी टिप्पणियाॅं मुझे हैरान कर गयीं। मन मे प्रश्न भी उठा, फिर भी आप ने......?? 
किसी ने साहित्य की अपने दृष्टिकोण से व्याख्या करते हुए शेष सम्पूर्ण साहित्य को शून्य घोषित कर दिया। किसी ने साहित्य सम्मेलनों की बढ़ती हुई प्रथा की कड़ी आलोचना की। किसी ने कहा, " मैं तो अब कहीं जाता, यह व्यवस्था अब सुधरने वाली नहीं। सब कुछ गर्त में जा चुका है। प्रेमचन्द, सज्जाद ज़हीर, अली सरदार जाफरी, घोष इत्यादि द्वारा स्थापित साहित्यिक मूल्य हम खो चुके हैं।"
 
एक अन्य विद्वान ने अपने वक्तव्य में अपने से पहले बोलने वाले वक्ता की बातों का समर्थन किया और पुष्टि करते हुए कहा, " आप व्यवस्था से वास्तव में इतने दुखी हैं कि लगभग वर्षभर भूमिगत रहते हैं, किसी से नहीं मिलते बस सृजन करते रहते हैं आज बहुत मुश्किल से इन्हें बड़ी मान मनौवल के बाद इस कार्यक्रम में लाया गया है।" मैंने उनकी ओर देखा तो वास्तव में वे बहुत दुखी लगे। आँखों के नीचे काले घेरे, सूखे हुए होंठ और निस्तेज सा चेहरा उनकी चिंताओं की व्याख्या कर रहे थे।
 
मैं कुछ अवाक सी थी। कुल मिलाकर सब कुछ रद किया जा रहा था। सभागार में नैराश्य और नकारात्मकता की गंध भर चुकी थी और माहौल बहुत बोझिल हो गया था। 
 
यह इस प्रकार का मेरा पहला कार्यक्रम नहीं था इससे पहले भी इसी प्रकार के कई आयोजनों में मैं जा चुकी हूँ किंतु सच कहूँ तो हमेशा बहुत खिन्न मन से वापसी हुई। कारण यही नकारात्मक रवैये, छिन्न भिन्न सोच,अस्फुट और अस्पष्ट उदगार।
हम जैसे साहित्य के विद्यार्थी अपनी साहित्यिक क्षुधा की तृप्ति हेतु प्रायः ऐसे कार्यक्रमों में पहुँच जाते हैं किन्तु भ्रमित से ही वापिस आते हैं। 
 
प्रश्न यह उठता है कि स्थिति वास्तव में इतनी भयावह और निराशाजनक है क्या ? यदि नहीं तो क्या इन विचारकों विद्वानों बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों की चिंताएँ निरर्थक और निराधार हैं ? 
ऐसा भी नहीं कह सकते। 
 
यह तो स्पष्ट हो चुका कि ये एक विशेष विचारधारा यानी प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक साहित्यकारों का समूह है और डॉ नामवर सिंह के अनुसार, " विचारधारा बहुत कुछ संस्कार की तरह समूचे अस्तित्व का ऐसा अंग बन जाती है कि उससे आसानी से छुटकारा संभव नहीं होता।"
इस कथन के प्रकाश में यदि देखा जाए तो किसी भी विचारधारा के साहित्यकार केवल उस विचारधारा के समर्थक नहीं होते बल्कि उसे जीने लगते हैं। उनके हावभाव, भावभंगिमा, रहन-सहन उनके उदगारों से उनकी यही सोच और दर्शन परिलक्षित होते हैं। यही कुछ व्यवस्था से क्षुब्ध हमारे इन साहित्यकारों की स्थिति है। कभी कभी तो मुझे लगता है कि स्वाधीनता प्राप्ति के लिए किए गए संघर्ष के दौरान जो क्षोभ और आक्रोश हमारे इस वर्ग के मन और आत्मा तक में फैल गए थे उन भावनाओं को स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी ये लोग निकालना भूल गए। बल्कि संभवतः असंतोष और दुख इनके व्यक्तित्व के स्थायी भाव बन गए हैं। बल्कि वर्तमान में तो "असंतुष्ट, कुंठित किन्तु अकर्मण्य" वाली स्थिति है।
 
आइये देखते हैं कि हमारे इस रूठे हुए साहित्य समाज की प्रारम्भिक परिस्थितियां क्या थीं ?
जानना होगा कि इनकी व्यथा के मूल में क्या है, निश्चित रूप से जिस कुंठित रूप में हम इसे आज देख रहे हैं ऐसा हमेशा से तो नहीं रहा होगा। क्या हुआ है ? कौन हैं ये लोग, क्या हैं इनकी चिंताएँ ?
 
बीसवीं शती के प्रारंभ में भारतीय अखिल भारतीय प्रगतिशील  लेखक संघ प्रगतिशील लेखको का एक समूह था जो अपने लेखन में सामाजिक समानता का समर्थन करता था और कुरीतियों अन्याय व पिछड़ेपन का विरोध करता था। इसकी स्थापना1935 में लन्दन में हुई। इसके प्रणेता सज्जाद ज़हीर थे। 
 
1935 के अंत तक लंदन से अपनी शिक्षा समाप्त करके सज्जाद ज़हीर भारत लौटे। यहाँ आने से पूर्व वे अलीगढ़ में डॉ॰ अशरफ, इलाहबाद में अहमद अली, मुम्बई में कन्हैया लाल मुंशी, बनारस में प्रेमचंद, कलकत्ता में प्रो॰ हीरन मुखर्जी और अमृतसर में रशीद जहाँ को प्रगतिशील संगठन के घोषणापत्र की प्रतियाँ भेज चुके थे। वे भारतीय अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव प्रेम, उसकी यथार्थ प्रियता और उसका सौन्दर्य तत्व लेने के पक्ष में थे लेकिन वे प्राचीन दौर के अंधविश्वासों और धार्मिक साम्प्रदायिकता के ज़हरीले प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे। उनका विचार था कि ये साम्राज्यवाद और जागीरदारी की सैद्धांतिक बुनियादें हैं। इलाहाबाद पहुंचकर सज्जाद ज़हीर अहमद अली से मिले जो विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रवक्ता थे। अहमद अली ने उन्हें प्रो॰एजाज़ हुसैन, रघुपति सहाय फ़िराक़, एहतिशाम हुसैन तथा विकार अज़ीम से मिलवाया. सबने सज्जाद ज़हीर का समर्थन किया। शिवदान सिंह चौहान और नरेन्द्र शर्मा ने भी सहयोग का आश्वासन दिया। प्रो॰ ताराचंद और अमरनाथ झा से स्नेहपूर्ण प्रोत्साहन मिला। सौभाग्य से जनवरी 1936 में 12-14 को हिन्दुस्तानी एकेडमी का वार्षिक अधिवेशन हुआ। अनेक साहित्यकार यहाँ एकत्र हुए - सच्चिदानंद सिन्हा, डॉ॰ अब्दुल हक़, गंगा नाथ झा, जोश मलीहाबादी, प्रेमचंद, रशीद जहाँ, अब्दुस्सत्तार सिद्दीक़ी इत्यादि। सज्जाद ज़हीर ने प्रेमचंद के साथ प्रगतिशील संगठन के घोषणापत्र पर खुलकर बात-चीत की। सभी ने घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। अहमद अली के घर को लेखक संगठन का कार्यालय बना दिया गया। पत्र-व्यव्हार की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। सज्जाद ज़हीर पंजाब के दौरे पर निकल पड़े. इस बीच अलीगढ में सज्जाद ज़हीर के मित्रों -डॉ॰ अशरफ़, अली सरदार जाफ़री, डॉ॰ अब्दुल अलीम, जाँनिसार अख़्तर आदि ने स्थानीय प्रगतिशील लेखकों का एक जलसा ख़्वाजा मंज़ूर अहमद के मकान पर फरवरी 1936 में कर डाला। अलीगढ में उन दिनों साम्यवाद का बेहद ज़ोर था। वहाँ की अंजुमन के लगभग सभी सदस्य साम्यवादी थे और पार्टी के सक्रिय सदस्य भी.
 
देखते-देखते सम्पूर्ण देश में प्रगतिशील लेखक संगठन की शाखाएँ फैलने लगीं। 9-10अप्रैल 1936 को प्रेमचंद की अध्यक्षता में होने वाले लखनऊ अधिवेशन में उस समय के प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद और जैनेन्द्र इसमें शामिल हुए। इस अधिवेशन में प्रेमचंद का अध्यक्षीय भाषण जब हिन्दी में रूपांतरित हुआ तो हिन्दी लेखकों की प्रेरणा का स्रोत बन गया। यह भाषण ऐतिहासिक था; इस दृष्टि से कि आदर्शवाद की सीमाओं के अंदर यथार्थवाद का जो रूप विकसित हो रहा था वह अब सुसंगत स्वरुप ग्रहण कर सामाजिक यथार्थवाद की विचार प्रणाली के रूप में नई पीढ़ी को आकृष्ट करने लगा था।
 
प्रेमचंद ने कहा कि साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना’ है| पहले के साहित्यकार कल्पना की एक सृष्टि खड़ी करके मनमाना तिलिस्म बाँधा करते थे | कवियों पर व्यक्तिवाद का रंग चढ़ा हुआ था | कवि मंडली श्रंगारिक मनोभाव मानवजीवन का अंग मात्र हैं, जाति के जीवन को जड़ता और ह्रास के पंजे से मुक्त करने के लिए आज साहित्यिक रूचि बड़ी तेज़ी से बदल रही है| दलित, पीड़ित और वंचित की हिमायत करने के लिए जो लिखता है, वह समाज की न्यायवृत्ति और सौंदर्यवृत्ति को जाग्रत करता है और उसमें ही वह अपने प्रयत्न को सफल समझता है |
 
फिर प्रगतिशील लेखक संघ के नाम के संबंध में उन्होंने कहा कि यह नाम गलत है| साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है |
 
कला सौंदर्यवृत्ति को पुष्ट करती है पर सौंदर्यवृत्ति के मूल में भी उपयोगिता का पहलू होता है| और इस सौन्दर्य की सत्ता निरपेक्ष नहीं है, बल्कि सापेक्ष है| एक रईस के लिय जो वस्तु सुख का साधन है वही दूसरे के लिए दुख का कारण हो सकती है| इसके साथ ही प्रेमचंद ने सौंदर्य की कसौटी बदलने की बात की
"हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी| अभी वह कसौटी अमीरी और विलासिता के ढंग की थी"
इतना ही नहीं, उन्होंने शासक वर्ग की सौंदर्यदृष्टि पर प्रहार भी किया
उसके लिए सौंदर्य सुन्दर स्त्री में है, उस बच्चों वाली गरीब रूपरहित स्त्री में नहीं जो बच्चों को खेत की मेंड़ पर सुलाए पसीना बहा रही है| उसने निश्चय कर लिया है कि रंगे होंठो, कपोलों और भौंहों में निस्संदेह सुंदरता का वास है| उसके उलझे हुए बालों, पपड़ियाँ पड़े हुए होंठों और कुम्हलाए गालों में सौंदर्य का प्रवेश कहाँ? पर यह संकीर्ण दृष्टि का दोष है|’ और अंत में प्रगतिशील लेखकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘हम तो समाज का झंडा लेकर चलने वाले सिपाही हैं|
 
साहित्यिक व्यक्तिवाद, कुंठित सौंदर्य दृष्टि आदि पर प्रहार और साहित्यकारों से क्रांतिकारी रोमांटिसिज्म और सामाजिक यथार्थवाद की तरफ बढ़ने वाली साहित्यिक रुचि की माँग प्रेमचंद के अध्यक्षीय भाषण का यही सार था| प्रगतिशील लेखक सम्मेलन द्वारा पास किए गए घोषणापत्र पर प्रेमचंद के इस भाषण का प्रभाव देखा जा सकता है | घोषणापत्र में प्रगतिशील लेखक संघ के उद्देश्य भी साफ़ तौर पर परिभाषित किये गए
भारत के तमाम प्रगतिशील लेखकों की संस्थाएँ संगठित करना औरहा साहित्य छापकर अपने उद्देश्यों का प्रचार करना |
प्रगतिशील लेखकों और अनुवादकों को प्रोत्साहित करना और प्रतिक्रियावादी प्रवृतियों के विरुद्ध संघर्ष करके देशवासियों के स्वाधीनता संग्राम को आगे बढ़ाना |
प्रगतिशील लेखकों की सहायता करना |
स्वतंत्रता और स्वतंत्र विचार की रक्षा करना |
प्रतिक्रिया और प्रगति की ताकतों के संघर्ष में साहित्यकार तटस्थ न रहे यह एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी| प्रगतिशील लेखक संघ ने अपनी इस ज़िम्मेदारी को महसूस किया |
 
इस अधिवेशन में कई आलेख पढ़े गए जिनमें अहमद अली, रघुपति सहाय, मह्मूदुज्ज़फर और हीरन मुखर्जी के नाम उल्लेख्य हैं। गुजरात, महाराष्ट्र और मद्रास के प्रतिनिधियों ने भी भाषण दिए। प्रेमचंद के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण वक्तव्य हसरत मोहानी का था। हसरत ने खुले शब्दों में साम्यवाद की वकालत करते हुए कहा " हमारे साहित्य को स्वाधीनता आन्दोलन की सशक्त अभ्व्यक्ति करनी चाहिए और साम्राज्यवादी, अत्याचारी तथा आक्रामक पूँजीपतियों का विरोध करना चाहिए. उसे मजदूरों, किसानों और सम्पूर्ण पीड़ित जनता का पक्षधर होना चाहिए. उसमें जन सामान्य के दुख-सुख, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को इस प्रकार व्यक्त करना चाहिए कि इससे उनकी इन्क़लाबी शक्तियों को बल मिले और वह एकजुट और संगठित होकर अपने संघर्ष को सफल बना सकें. केवल प्रगतिशीलता पर्याप्त नहीं है। नए साहित्य को समाजवाद और कम्युनिज़्म का भी प्रचार करना चाहिए." अधिवेशन के दूसरे दिन संध्या की गोष्ठी में जय प्रकाश नारायण, यूसुफ़ मेहर अली, इन्दुलाल याज्ञिक, कमलादेवी चट्टोपाध्याय आदि भी सम्मिलित हो गए थे। इस अवसर पर संगठन का एक संविधान भी स्वीकार किया गया और सज्जाद ज़हीर को संगठन का प्रधान मंत्री निर्वाचित किया गया।
 
इसका द्वितीय अखिल भारतीय अधिवेशन : कोलकाता 1938, तृतीय अखिल भारतीय अधिवेशन : दिल्ली 1942, चौथा अखिल भारतीय अधिवेशन : मुम्बई 1945, पाँचवाँ अखिल भारतीय अधिवेशन : भीमड़ी 1949, छठा अखिल भारतीय अधिवेशन : दिल्ली 1953 में हुआ। 1954 तक पहुँचते पहुँचते यह आंदोलन आपसी सामंजस्य की कमी, सामाजिक परिवर्तनों और उद्देश्यहीनता के कारण धीमा पड़ने लगा और इसका बाद इसका कोई अधिवेशन नहीं हुआ।
 
कहा जा सकता है कि इसमें कोई संदेह नहीं कि इस विचारधारा ने महान उद्देश्यों को लेकर संघर्ष की एक लंबी यात्रा तय की है। किन्तु साहित्यिक यात्रा की दशा और दिशा अतीत के आधार पर हर युग का वर्तमान तय करता है संभवतः यह समझने में चूक हुई है। 
 
मेरे अल्प ज्ञान और सीमित अध्ययन से जितनी जानकारी मुझे प्राप्त हुई है उसके आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रगतिशील विचारधारा और इसके साथ यदि जनवादी लेखन और वामपंथी लेखन को भी जोड़ लें तो जिन उद्देश्यों को लेकर यह विचारधारा विकसित हुई समय के साथ उन उद्देश्यों मे परिवर्तन होना चाहिए था या उनका विस्तार होना चाहिए था। ऐसा तो हुआ नहीं बल्कि जो लक्ष्य व उद्देश्य तय हुए थे उन्हें भी बिसरा दिया गया।
  
अपनी ‘रोशनाई’ नामक पुस्तक में सज्जाद ज़हीर प्रगतिशील लेखक संघ बनाने के उद्देश्यों, पर रोशनी डालते हैं:
 
" जब हमने प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन की ओर पग उठाया तो कुछ बातें विशेष रूप से हमारे सम्मुख थीं| पहली तो यह कि प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन का रुख देश की जनता और मजदूरों, किसानों और मध्यम वर्ग की ओर होना चाहिए| उनको लूटने वालों और उन पर अत्याचार करने वालों का घोर विरोध करना, अपनी साहित्यिक रचनाओं से जनता में चेतना, गति, क्रियाशीलता और एकता उत्पन्न करना और उन तमाम अवशेषों और प्रवृतियों का विरोध करना जो जड़ता, प्रतिक्रिया और निरुत्साह उत्पन्न करती हैं- हमारा मुख्य कर्त्तव्य ठहरा| इसी से फिर दूसरी बात निकलती है और वह यह कि सब कुछ तभी संभव था जब हम चेतन रूप से देश के स्वाधीनता संघर्ष और देश की जनता की अपनी स्थिति को सुधारने के आंदोलन में भाग लें| सिर्फ़ दूर के तमाशाई न हों बल्कि सामर्थ्य भर अपनी योग्यता के अनुसार स्वतंत्रता सेना के सिपाही बनें| लेकिन उसका यह अर्थ अवश्य था कि वे राजनीति से अलग और उदासीन भी नहीं हो सकते| प्रगतिशील लेखक के मन में मानव जाति से स्नेह और गहरी सहानुभूति ज़रूरी है| बिना मानवता प्रेम, स्वतंत्रता की इच्छा और जनतंत्रवाद के प्रगतिशील लेखक होना संभव नहीं| इस कारण हम खुल्लमखुल्ला और जान–बुझकर आंदोलन का संबंध स्वाधीनता और जनतंत्रवादी आंदोलन के साथ जोड़ना चाहते थे| हम चाहते थे कि प्रगतिशील बुद्धिजीवी मजदूरों, किसानों, दरिद्र और पीड़ित जनता से मिलें, उनके राजनीतिक और सामाजिक जीवन का अंग बनें| उनके जलसे और जुलूसों में और उन्हें अपने जुलूसों और कांफ्रेंसों में बुलायें| इसलिए हम अपमे संगठन में इस बात पर अधिक जोर देना चाहते थे कि बुद्धिजीवियों के लिए साहित्य रचना के साथ-साथ जनजीवन के साथ अधिक से अधिक संपर्क स्थापित करना आवश्यक है बल्कि इसके बिना नए साहित्य की रचना हो ही नहीं सकती| इसलिए हम चाहते थे कि हमारे संघ की शाखाएँ, एकांतप्रिय विद्वानों की टोलियाँ न हों, बल्कि उनमें हरक़त भी हो| साहित्यिक गोष्ठियों में दूसरे लोग भी आएँ| लेखकों की रचनाओं पर खुली बहसें हों| लेखक और कवि साधारण लोगों से मिलते जुलते रहें| उनमे घुले रहें, उनसे सीखें और उन्हें सिखाएँ| हमारा संघ लेखकों का संगठन होते हुए और साहित्य रचना पर अधिक से अधिक ध्यान देते हुए भी ‘अंजुमन-ए-तरक़्क़ी-ए-उर्दू’ अथवा हिंदी साहित्य सम्मेलन न बन जाए, गतिमान और सजीव संस्था बने, जिसका जनता से सीधा और स्थाई संपर्क हो "
 
 स्पष्ट है कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व देश में जो स्थिति थी उसको ध्यान में रखते हुए ये उद्देश्य तय किये गए होंगे। जनता से संवाद, जनता में चेतना, गति, क्रियाशीलता उत्पन्न करना और ऐसी प्रवृत्तियों का विरोध करना जो जड़ता और निरुत्साह उत्पन्न करती हैं, ये बातें प्रगतिशील लेखक संघ बनाने के उद्देश्यों में शामिल थीं। लेखक और कवि साधारण लोगों से मिलते जुलते रहें , उनसे सीखें और उन्हें सिखाएँ, ये बात भी उपरोक्त कथन में कही गयी है। 
 
अब दो बातें हैं या तो आप यह मान लें कि देश की स्थिति अब इतनी बुरी नहीं है जितनी स्वाधीनता प्राप्ति से पहले थी और तद्नुसार आप कुछ राहत की साँस ले लें। ख़ुश हो जाएँ थोड़ा हँस लें, मुस्कुरा लें। निश्चित रूप से पूरी तरह निश्चिंत होने वाली स्थिति नहीं है किंतु यह क्या कम है कि हम आज पराधीन नहीं हैं। अपने ही देश में रहकर व्यवस्था से कटकर तो वैसे भी किसी समस्या का समाधान संभव नहीं है।
 
दूसरी बात यह कि यदि आप यह महसूस करते हैं कि देश की स्थिति अब भी स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व के समान भयावह है अथवा उससे भी अधिक बुरी हो चुकी है तो फिर प्रगतिशील विचारधारा के लक्ष्य एवं उद्देश्यों के अनुसार मैदान में आइये, जनता का आह्वान कीजिये और एक बार फिर देश में होने वाले अन्याय, अराजकता, मज़दूरों और किसानों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध विरोध का बिगुल बजाइये। आंदोलन कीजिये, लेखनी को तलवार बनाइये, जन जागृति लाइये। जनजीवन के साथ अधिक से अधिक संपर्क स्थापित कीजिये क्योंकि इसके बिना नए साहित्य की रचना हो ही नहीं सकती।
 
लेकिन हो क्या रहा है ? आज जो रवैया हमारे साहित्यकार ने अपनाया हुआ है उससे वह समाज से कटा, स्वकेन्द्रित, अहंवादी और कुंठित प्राणी अधिक लग रहा है संघर्षशील सामाजिक मनुष्य की भूमिका कहीं गायब हो चुकी है।
 
एक निष्ठावान लेखक का कर्मक्षेत्र साहित्य-सृजन है। किन्तु व्यवस्था से क्षुब्ध होकर या भूमिगत होकर आप क्या आप अपने साहित्य धर्म का, अपने दायित्व का निर्वहन कर पा रहे हैं। या यदा कदा आयोजनों में निकलकर इस प्रकार अपनी भड़ास निकालकर साहित्य के क्षेत्र में आप अपनी उचित भूमिका निभा पा रहे हैं ? निश्चित रूप से नहीं। यदि यह मान भी लें कि कुछ लोग लिख रहे हैं तो उनके लेखन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है नकारात्‍मक रुख की प्रधानता। व्‍यवस्‍था-विरोध पर विशेष बल देने के कारण यह लेखन वस्‍तुत: एक विरोधी लेखन होने की नियति को स्‍वीकार कर रहा है, जबकि उसका ऐतिहासिक दायित्‍व शासक वर्ग के साहित्‍य के विकल्‍प में एक उच्‍चतर साहित्‍य का प्रतिमान प्रस्‍तुत करना है। यदि सर्वहारा का अधिनायकवाद एक वर्ग के शासन के बाद दूसरे वर्ग का शासन-मात्र नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवजाति की मुक्ति के लिए निर्मित एक उच्‍चतर समाज-व्‍यवस्‍था है तो स्‍पष्‍ट है कि उसका साहित्‍य भी साहित्‍य की अनेक प्रवृत्ति‍यों में से एक प्रवृत्ति-मात्र नहीं बल्कि समग्र साहित्‍य की परंपरा के विकास की अगली मंज़िल की ओर ले जाने का व्‍यापक प्रयास है। ऐसा प्रतीत होता है कि आज के लेखक अपने साहित्‍य-कर्म के व्‍यापक दायित्‍व से बहुत कुछ बेख़बर हैं और यदि आज के लेखकों के सम्‍मुख साहित्‍य का व्‍यापक लक्ष्‍य नहीं है तो वे एक संकीर्ण दायरे में सिमटकर रह जाएँगे और यह संकीर्णता साहित्‍य-सृजन को तो सीमित करेगी ही, साहित्यिक संगठन को भी एक विघटनशील गुट या गिरोह बनाकर छोड़ देगी।

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रचनाकार परिचय

नुसरत मेहदी

ईमेल :

निवास : भोपाल(मध्य प्रदेश)

नाम- डॉ० नुसरत मेहंदी 
जन्मतिथि- 1 मार्च 1970
जन्मस्थान- भोपाल (मध्य प्रदेश)
लेखन विधाएँ- शायरी कहानी लेखन आलेख ड्रामा स्क्रिप्ट लेखन इत्यादि
शिक्षा-  हिंदी अंग्रेजी उर्दू में स्नातकोत्तर, ऐशक्राफ्ट यूनिवर्सिटी यू के से मानद उपाधि,पी एच डी (हिंदी ) रविंद्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय, भोपाल से, विषय : अद्वैत परंपरा का वैश्विक अवदान(आदि शंकराचार्य रूमी एवं सूफी परंपरा के विशेष संदर्भ में)
सम्प्रति- निदेशक मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी संस्कृत विभाग मध्य प्रदेश (श्रेणी दो राजपत्रित अधिकारी)
प्रशासनिक अनुभव- मध्य प्रदेश में शासकीय सेवा में 35 वर्ष पूर्व निदेशक, राज्य आनंद संस्थान आध्यात्म विभाग(मध्य प्रदेश) पूर्व सचिव, मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी संस्कृत विभाग, पूर्व उपनिदेशक अल्लामा इकबाल अदबी मरकज़, पूर्व मुख्य कार्यपालन अधिकारी मध्य प्रदेश वक़्फ़ बोर्ड, पूर्व कार्यपालन अधिकारी राज्य हज समिति, राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद दिल्ली की एग्जीक्यूटिव बोर्ड की पूर्व सदस्य, नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया के सलाहकार मंडल की पूर्व सदस्य, सी.सी.आर.टी. संस्कृति मंत्रालय दिल्ली के उर्दू पैनल की पूर्व सदस्य
प्रकाशन- काव्य संग्रह- साया साया धूप, आबला पा, मैं भी तो हूँ (देवनागरी),  घर आने को है,  हिसारे जात से परे, फरहाद नहीं होने के (देवनागरी)
गद्य संकलन- 1857 की जंगे आजादी, इंतख़ाबे सुख़न,  (स्नातकोत्तर उर्दू के पाठ्यक्रम में शामिल), इस्लाम में नैतिक मूल्य (उच्च शिक्षा विभाग मध्य प्रदेश की स्नातक कक्षाओं में आधार पाठ्यक्रम में शामिल), आप कब हँसेंगे कॉमरेड
सम्मान/ पुरस्कार- अंतर्राष्ट्रीय सम्मान व पुरस्कार- * हुस्ने कारकर्दगी उर्दू इंटरनेशनल अवॉर्ड, उर्दू मरक़ज़ इंटरनेशनल लॉस एंजिलिस कैलीफोर्निया अमेरिका के द्वारा। * मोस्ट प्रोमिसिंग उर्दू पोएटेस एंड राइटर इन इंडिया अवार्ड 2018 इंटरनेशनल सोशल डेवलपमेंट फ़ाउण्डेशन द्वारा। * ग्लोबल लिटरेरी अवॉर्ड 2017 इंटरनेशनल चैंबर ऑफ़ मीडिया एंड एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री एंड एशियन एकेडमी ऑफ़ आर्ट्स द्वारा।
राष्ट्रीय सम्मान व पुरस्कार- * शिवना साहित्यिक सम्मान 2018 शिवना प्रकाशन के द्वारा * आनंद सम्मान 2017, ख़ुशबू एजुकेशन एंड कल्चरल सोसायटी भोपाल द्वारा * सुमिरन गीत सम्मान 2017, सुमिरन साहित्यिक संस्था कानपुर द्वारा * अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान 2017 अभिनव कला परिषद भोपाल द्वारा, * सृजन कला प्रेरक सम्मान 2016, लोक कला मंडल उदयपुर के द्वारा, अख्तरुल ईमान अवार्ड 2016, इकबाल मेमोरियल एजुकेशनल सोसाइटी नगीना उत्तर प्रदेश के द्वारा, * मदर टेरेसा गोल्ड मेडल 2015, * बेस्ट सिटीजन ऑफ़ इंडिया गोल्ड मेडल 2015, * परवीन शाकिर अवार्ड 2014, अमरावती महानगर पालिका महाराष्ट्र द्वारा, *-मज़हर शाहिद ख़ान अवार्ड 2014, रायसेन, * अमर शहीद अशफ़ाकउल्ला अवार्ड 2010,  भोपाल * नुशूर अवार्ड 2008, बज़्म ए नूशूर कानपुर द्वारा, * ख़ातून ए अवध अवार्ड 2006, लखनऊ
प्रसारण- देश के विभिन्न टी वी चैनलों एव रेडियो पर प्रसारण 
विशेष- अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों, उर्दू सम्मेलनों, कार्यशालाओं, मुशायरों में सक्रिय व निरंतर सहभागिता। अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, दुबई, सऊदी अरब, पाकिस्तान, बहरीन, क़तर, क़ुवैत, मस्कट इत्यादि अनेक देशों में साहित्यिक यात्राएँ।
सम्पर्क- विला नंबर 20 हैमिल्टन कोर्ट लालघाटी एयरपोर्ट रोड भोपाल (मध्य प्रदेश), पिन-462030
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