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नीरजा हेमेन्द्र की कहानी 'अमलतास के फूल'

नीरजा हेमेन्द्र की कहानी 'अमलतास के फूल'

वाश वेसिन के शीशे में स्वयं को देखते हुए मैं सोचने लगी कि घर से बैंक और बैंक से घर की दिनचर्या में समय कब इतना आगे बढ़ गया? मुझे आभास तक न हुआ कि मैं उम्र की तिरपन सीढ़ियाँ पार कर चुकी हूँ। उफ्फ! तिरपन वर्ष? यह तो समय की एक बड़ी अवधि है।

मैं ठीक समय पर बैंक में पहुँचकर अपने कार्य में व्यस्त हो गयी। व्यस्तता तो थी किन्तु हृदय आज कुछ विचलित और अशान्त-सा भी हो रहा है। मैं ये तो नहीं कह सकती कि 'न जाने क्यों?' आज हृदय के विचलित होने का जो कारण है, उसे मैं समझ भी रही हूँ। किन्तु इस समझ को इग्नोर कर देना चाहती हूँ। प्रतिदिन की भाँति आज भी प्रसन्न मन से मैं बैंक आ गयी थी।
बैंक आकर जब कुछ सहकर्मियों ने मुझे मेरे जन्मदिन की बधाई दी तब मुझे स्मरण हुआ कि आज मेरा जन्मदिवस है। जीवन के आपाधापी में मैं आज का दिन विस्मृत कर बैठी थी। कार्यालय में एक-दो परिचितों का भी फोन आया। तब से ही हृदय अशान्त-सा है, विचलित-सा है। जन्मदिवस का स्मरण भी भला हृदय के विचलित होने का कारण हो सकता हैं? मैं दिन भर यही सोचती रही।

बैंक से घर आकर पर्स व लंच बाक्स डायनिंग मेज पर रख, अंजली से चाय बनाने के लिए कहकर मैं सीधे बाथरूम में चली गई। मेरी छोटी बहन अंजली जो कि एक महिला कॉलेज में लाइब्रेरियन के पद पर कार्यरत है, वह मुझसे पूर्व ही घर आ जाती है। उसका कॉलेज बंद होने का समय मेरे बैंक बंद होने से पहले है। अतः वह मुझसे पहले घर में उपस्थित रहती है।
अंजली के घर में रहने से मुझे बड़ी राहत मिलती है। एक तो घर खुला मिलता है। घर खुला मिले तो घर में ताज़ी हवा व रोशनी रहती है। अन्यथा बंद घर खोलने पर कुछ समय तक कमरे का वातावरण दमघोटूँ-सा रहता है। यूँ भी बंद घर खोलकर प्रवेश करने में मुझे न जाने क्यों अकेलेपन की अनुभूति बढ़ जाती है। अंजली के पहले से घर में मौजूद रहने से मुझे अच्छा लगता है।

वाश वेसिन के शीशे में स्वयं को देखते हुए मैं सोचने लगी कि घर से बैंक और बैंक से घर की दिनचर्या में समय कब इतना आगे बढ़ गया? मुझे आभास तक न हुआ कि मैं उम्र की तिरपन सीढ़ियाँ पार कर चुकी हूँ। उफ्फ! तिरपन वर्ष? यह तो समय की एक बड़ी अवधि है।
मैंने दर्पण में स्वयं को देखा जैसे प्रथम बार देख रही हूँ स्वयं को। काले-सफेद उलझे बाल, आँखों के चारों तरफ स्याह घेरे, नाक पर चश्मे का भूरा निशान, निस्तेज चेहरा। क्या ये मैं ही हूँ? अब से पूर्व तो मैं ऐसी नहीं थी या कि स्वयं को इससे पूर्व ध्यान से देखा ही नहीं था या उस दृष्टि से देखने की आवश्यकता ही न पड़ी हो, जैसे आज देख रही हूँ। सत्य यही है कि आज की दृष्टि से स्वयं को इससे पूर्व मैंने नहीं देखा था।

समय की इतनी बड़ी अवधि पार कर गयी हूँ। इस अवधि में जीवन में क्या पाया? मैं सोचने लगी। हाथ-मुँह तो कब का मैं धो चुकी थी। किन्तु आज दर्पण के समक्ष खड़े होकर स्वयं से बातें करने का मन हो रहा था। "आख़िर क्या पाया मैंने इस लम्बी अवधि में? क्यों मैं उम्र के इस पड़ाव पर किसी अनजाने भय से बच्चों-की भाँति भयभीत रहने लगी हूँ? पहले तो मैं ऐसी नहीं थी? पहले क्या था मेरे पास और आज क्या नहीं है?" मेरे हृदय में अनेक प्रश्न, अनेक आशंकाएँ व्याप्त होती जा रही हैं।

"दीदी, चाय ठंडी हो रही है।" बाथरूम में कुछ ज़्यादा समय लगता देख, अंजली ने आवाज़ लगा दी है। विचारों पर विराम देते हुए मैं शीघ्रता से बाथरूम से बाहर आ गयी। मेरी चाय अंजली ने कमरे के कोने में रखी डायनिंग टेबल पर रख दी है तथा अपनी चाय लेकर टी०वी० के सामने बैठकर बड़े ही मनोयोग से अपनी पसंद का सीरियल देखते हुए पी रही है।
अंजली को इस प्रकार आनंद के साथ चाय पीते हुए देखकर मुझे अच्छा लग रहा है। मैं डायनिंग टेबल पर बैठकर चुपचाप चाय पीने लगती हूँ तथा अंजली को देखने लगती हूँ। घर के अधिकांशतः कार्य प्रतिदिन ऐसे ही संवादहीनता के बिना होते हैं, यंत्रवत्....।

मेरी चाय ख़त्म हो चुकी है किन्तु विचारों का प्रवाह थम नहीं रहा है। इस घर में मैं और अंजली ही तो रहते हैं। मेरे तीन अन्य भाई भी हैं, जो इसी मकान के तीन अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं। मेरे साथ मेरे भाई नहीं रहते या यूँ कहें कि मैं भाइयों के साथ नहीं रहती। मैं और अंजली इस बड़े से मकान के सबसे किनारे वाले छोटे हिस्से में एक साथ रहती हैं।
अंजली व मेरी उम्र में दस वर्ष का अंतर है। चारों भाई मुझसे छोटे हैं। अंजली हम सबसे छोटी है। मुझे याद आते हैं बचपन के दिन, मैं और अंजली एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। घर से एक साथ निकलते थे, अंजली प्राइमरी कक्षाओं की ओर मुड़ जाती थी, मैं इण्टरमीडिएट की। स्कूल छूटने पर हम एक साथ घर आ जाते थे। प्रारम्भ से ही अंजली भावनात्मक रूप से मुझसे जुड़ती चली गई थी। स्कूल में कोई समस्या होती तो वह सीधे मेरे पास आती। घर में किसी अन्य से अपनी कोई समस्या नहीं कहती। न माँ-पिता जी से, न भाइयों से।

मुझे अब तक स्मरण हैं कॉलेज के प्रारम्भ के वे दिन, जब अंजली मेरे साथ मेरी ही कक्षा में बैठना चाहती थी। बड़े यत्न से मैं उसे समझाकर उसकी कक्षा में पहुँचा कर आती थी। जब वह कुछ बड़ी होने लगी तो वह घर में सबसे अपनी इच्छा प्रकट करते हुए कहती कि, "मैं भी बड़ी होकर अनामिका दीदी की तरह बनूँगी, बड़ी कक्षा में पढूँगी, प्रथम आऊँगी।" उसकी बातें सुनकर मैं मुस्करा पड़ती।
आज भी मैं मुस्करा पड़ती हूँ हृदय में उठती एक गहरी टीस के साथ कि अंजली का भाग्य मेरे भाग्य से कितना मिलता-जुलता है। वो कुछ-कुछ मेरे जैसा ही भाग्य लेकर आई है। बचपन की बाल सुलभ बातों में सत्य छुपा था कदाचित्।

अपनी शिक्षा पूरी कर मैं नौकरी की तैयारियों में व्यस्त हो गयी थी कि एक दिन अकस्मात् पिताजी के शरीर के दाहिने अंग ने काम करना बंद कर दिया। वह चलने-फिरने में असर्मथ हो गये। माँ पर घर के कार्यों के अतिरिक्त पिताजी की देखभाल का उत्तरदायित्व भी आ गया।
वह घर में ही व्यस्त होती गयीं तथा पिताजी सामाजिक रूप से निष्क्रिय। लोगों के मुँह से मैंने सुना कि मैं विवाह योग्य हो गयी हूँ। लोग कहते रहे, समय मेरी उम्र को लेकर आगे बढ़ता रहा। इस बीच मुझे बैंक में नौकरी मिल गयी। पिताजी की दिनचर्या या यूँ कहें कि पूरा जीवन व्हीलचेयर तक सिमट गया। देखते-देखते मेरे चारों भाई भी शिक्षा पूरी कर नौकरियों पर लग गए। हम सबको आत्मनिर्भर होते देख पिताजी के चेहरे पर आत्मसंतुष्टि के भाव छलक पड़ते।

मैं घर में सबसे बड़ी थी। घर में सबसे बड़ी होने के कारण प्रारम्भ से ही आने-जाने वाले परिचितों, रिश्तेदारों की दृष्टि में आकर्षण का केंद्र मैं थी। अब तो एक अच्छी नौकरी में भी मैं थी। अतः मेरा सामाजिक दायरा बढ़ता जा रहा था। शादी, पर्वों या अन्य किसी बुलावे पर माँ-पिता जी मुझे ही भेजते। अंजली मेरे साथ होती। सभी मुझे अपने घर बुलाते, किन्तु मैंने किसी भी परिचित को अपने लिए विवाह का प्रस्ताव लाते नहीं सुना। जबकि सभी मेरी व्यवहार कुशलता व हँसमुख स्वभाव के प्रसंशक थे तथा उनके घरों में विवाह योग्य लड़के भी थे। इसका कारण मैं अपनी साधारण शक्ल-सूरत को समझती। लम्बा कद, छरहरी काया व गेहुँआ रंग होने के पश्चात् भी मुझे लगता कि मेरा चेहरा आर्कषक नहीं है या आकर्षक नहीं था।

शनैः शनैः मेरे चारों भाइयों का विवाह हो गया। मेरे चेहरे पर समय ने लकीरें खींचनी प्रारम्भ कर दी थीं। ऋतुएँ आतीं-जातीं उनके साथ मौसम भी परिवर्तित हो जाते। कभी गर्म तपिश भरे दिन, तो कभी बर्फीली ठंड लिए हुए शीत ऋतु। प्रारम्भ से ही मुझे मेरे घर के सामने का अमलतास का वृक्ष आकर्षित करता। तीव्र गर्मियों में जब हरियाली सूखने लगती। सृष्टि बियाबान, उजाड़-सी दिखाई देती तब यह अमलतास का वृक्ष पीले फूलों से भर जाता। सृष्टि में फैले सूनेपन को अपने आकर्षक पुष्पों से भर देता। उसकी इसी विशेषता के कारण मैं गर्मियों में बालकनी में खड़ी देर तक इस वृक्ष के सौंदर्य को निहारा करती।

विवाह की मेरी उम्र निकल चुकी थी किन्तु अंजली विवाह की उम्र को छूने लगी थी। उसकी शिक्षा पूरी हो चुकी थी। एक वर्ष घर में रहने के पश्चात् अकेलेपन से ऊबकर उसने अपने लिए नौकरी तलाशनी प्रारम्भ कर दी थी। स्वयं के प्रयत्नों से उसने अपने लिए एक बालिका डिग्री कॉलेज में लाइब्रेरियन की नौकरी प्राप्त कर ली। उसके दिन कॉलेज में व रातें घर में कटने लगीं।
घर में आने-जाने वाले रिश्तेदारों से बेटियों के लिए रिश्ते बताने के लिए कहते-कहते पिताजी एक दिन इस दुनिया से चले गए। पिताजी के निधन के पश्चात् माँ अस्वस्थ रहने लगीं। भाइयों के अपने-अपने घर-संसार में व्यस्त हो जाने के कारण वे मुझे ही अंजली के लिए कोई योग्य वर तलाशने को लिए कहतीं। मैं जैसे ही बैंक से घर आती, उनकी कातर दृष्टि मेरी तरफ उठ जाती। मानों मैं कोई चमत्कार कर, अंजली के लिए योग्य वर लाकर उनके समक्ष खड़ा कर सकती हूँ।

मैंने यह चमत्कार किया। इसी शहर के एक अच्छे लड़के से अंजली का विवाह तय कर दिया। लड़के वालों की इच्छानुसार विवाह कोर्ट में हुआ। मैं भी कोर्ट में विवाह के लिए सहमत थी। आर्थिक विवशताएँ इधर भी थीं। अतः दोनों पक्ष कोर्ट विवाह हेतु सहमत थे। घर-गृहस्थी के सभी साजो-सामान, गहने, बर्तन, जेवर के साथ हमने अंजली को विदा किया।
अंजली की ससुराल स्थानीय थी। अतः जब भी मिलने का मन होता अंजली हमसे मिलने आ जाती। कभी बताकर तो कभी बिना बताये। अंजली के विवाह के कुछ माह पश्चात् एक दिन माँ भी चल बसीं। अंजली का विवाह देखने की ही उनकी इच्छा शेष रही होगी। विवाह होते ही जीवन से उनका मोह छूट गया। माँ के चले जाने के पश्चात् मेरे जीवन में अकेलेपन का घनत्व बढ़ता गया।

.....स्मृतियों के विस्तृत पथ कुछ क़दम ही मैं आगे बढ़ पायी हूँ कि रसोई में कुछ खटकने की आवाज़ आई। अंजली टी०वी० बंद कर रसोई में जा चुकी थी। वह रात का भोजन बनाने की तैयारी कर रही होगी। मेरी चाय कब की ख़त्म हो चुकी थी। किन्तु स्मृतियाँ हैं कि समाप्त ही नहीं होती हैं। किसी मैदान में बारिश के पश्चात् स्वतः उग आयी घास व असंख्य बिरवों-सी स्मृतियाँ मानस-पटल पर विस्तृत हो जाती हैं। रसोई से आती खटपट की ध्वनियाँ मेरी एकाग्रता को बाधित कर रही थीं।
मैं कमरे से निकल बाहर बालकनी में खड़ी हो गयी। स्मृतियाँ मेरे समक्ष आती जा रही थीं, जैसे ये अभी कल की बात हो। ऋतुएँ बदल रही थीं। शनैः शनैः वसंत ऋतु विदा ले रही थी। दबे पाँव ग्रीष्म ऋतु पूरी सृष्टि पर अपने पैर पसार रही थी। मेरे घर के सामने अमलतास का वृक्ष कलियों से परिपूर्ण होने लगा था। वृक्ष के पत्ते पीले होकर भूमि पर गिरने लगे थे। बस कुछ ही दिनों में पूरा वृक्ष फूलों से भर जाएगा। वृक्षों पर पुरातन पीले पत्ते कहीं नज़र नही आएंगे। घूल भरी गर्म हवाओं में, बियाबान सृष्टि पर सौन्दर्य व जीवन्तता का सृजन करते ये अमलतास के फूल.......।

स्मृतियाँ मेरे समक्ष आती जा रही थीं, जैसे अभी कल की बात हो- "........स्थानीय विवाह की कुछ अच्छाइयाँ होती हैं तो कुछ समस्याएँ भी होती हैं। अंजली अपनी ससुराल में सामंजस्य कर, सबसे घुलमिल कर रहने का प्रयत्न कर रही थी। नई जगह पर जाकर अचानक सबकुछ अच्छा तो नहीं हो जाता। नये रिश्तों को बनाने व विकसित करने में समय व प्रयत्न दोनों लगता हैं।
स्थानीय होने के कारण अंजली अपने पति के साथ बहुधा आ जाया करती। न जाने कब? मेरे किस रिश्तेदार ने उसके पति के कान में अंजली के चरित्र को लेकर उल्टी-सीधी बातें भर दीं और वह उन्हें सच मान बैठा। अंजली देखने में आर्कषक है। मैंने महिलाओं से सुना है कि वैवाहिक जीवन में सौंदर्य व संदेह बहुधा साथ-साथ चलने लगते हैं।

अंजली के साथ भी यही हुआ। बढ़ते-बढ़ते बात इतनी बढ़ गयी कि अंजली मेरे पास आकर रहने लगी। माँ-पिता जी के न रहने पर इस संसार में मात्र मैं ही उसका संबल थी। मेरे पास रहते हुए अंजली के चेहरे पर शान्ति व सुकून के जो भाव आने लगे, उनसे मुझे यह अनुमान लगाने में देर न लगी कि अंजली अपने इस वैवाहिक जीवन से कितनी त्रस्त थी।
जो हुआ उसे विस्मृत तो नहीं किया जा सकता किन्तु हमें समय के साथ आगे बढ़ना ही होता है। कॉलेज के बाद शाम के शेष कुछ समय अंजली आस-पास के निर्धन बच्चों को पढ़ाने का कार्य करती है। उसका सपना निर्धन बच्चियों को इस प्रकार की शिक्षा देने का था कि वे न सिर्फ विकसित समाज के साथ चल सकें बल्कि समाज के विकास में अपना योगदान भी दें सकें। अंजली की यह सोच मुझमें भी उत्साह का संचार करती है।

उसके टूटे वैवाहिक जीवन को लेकर कोई प्रश्न न कर बैठे, इस असहज स्थिति से बचने के लिए अंजली ने कहीं भी आना-जाना कम कर दिया है। अवकाश के दिनों में मैं कहीं, किसी रिश्तेदार के घर या बैंक की सहकर्मी के घर मिलने चली भी जाती किन्तु अंजली कहीं भी न जाती।
घर से कॉलेज व कॉलेज से घर, शेष समय कुछ निर्धन बच्चों की शिक्षा। यही अंजली की दिनचर्या रह गयी है। आठ वर्ष हो गये भाइयों से बटवारे के पश्चात् मिले घर के इस हिस्से को ठीक कराकर मैं व अंजली इसमें रह रहे हैं। जो हुआ उसे विस्मृत तो नहीं किया जा सकता किन्तु न चाहते हुए भी उन चीजों पर विस्मृति का छद्म आवरण चढ़ाकर हमें समय के साथ आगे बढ़ना ही होता है।

मैं स्मृतियों के जंगल में गुम हो गयी थी। टी० वी० के स्वर बालकनी तक आ रहे थे। कदाचित् अंजली रसोई में काम समाप्त कर ड्राइंग रूम में आकर टी० वी० देख रही होगी। मैं भी बालकनी से ड्राइंगरूम में आ गयी। अंजली टी० वी0० खोल कर माथे पर छलक आयी पसीने की बूँदों को पोंछ रही थी।
मुझे देखकर मुस्कुराते हुए उसने दीवार पर लगी घड़ी तरफ एक दृष्टि डाली। कदाचित् यह समय उसके पसंदीदा धारावाहिक का था। वह सोफे पर बैठकर रिमोट से चैनल बदल कर आराम से टी० वी० देखने लगी। टी० वी० देखने में मेरी विशेष रूचि न थी। किन्तु मैंने अनुमान लगाया कि जो धारावाहिक अंजली देख रही थी, वह प्रेम कथा पर आधारित कोई धारावाहिक था, जिसे अंजली बड़े ही मनोयोग से देख रही थी।

उसके चेहरे पर विस्तृत होती मुस्कराहट से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह नायक-नायिका के प्रेम लोक में स्वंय को स्थापित करती जा रही है। किसी युवती की भाँति लज्जा व लालिमा के भाव उसके चेहरे पर दृष्टिगोचर हो रहे थे। मैं अंजली को टी० वी० देखने में व्यस्त देखकर खिड़की के पास आ कर खड़ी हो गयी। ग्रीष्म ऋतु का आगमन हो चुका था। पूरी सृष्टि में अजीब-सा विरानापन व सन्नाटा पसरा हुआ था। पतझड़ की शुष्क हवाओं के झोंकों से वृक्षों से पीले पत्ते भूमि पर गिरकर इधर-उधर बे-तरतीब पड़े थे। मेरा हृदय आज मेरे तिरपनवें जन्मदिन पर इतना विचलित क्यों हो रहा है? ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे सृष्टि पर पसरा विरानापन व सन्नाटा मेरे हृदय में समाता जा रहा है। एक भय-सा क्यों मेरे भीतर समाता जा रहा है कि मेरे न रहने पर अंजली कैसे अकेली रहेगी?

सभी भाइयों का विवाह हो चुका है। अब तो उन सबके बच्चे भी विवाह योग्य हो चुके हैं। उन सबकी अपनी विवशताएँ व व्यस्तताएँ हैं। पास रहकर भी दूरियाँ इतनी बढ़ गयी हैं कि वो हमारे पास नहीं आ पाते, मैं और अंजली ही बहुधा उनके पास चले जाते हैं मिलने। यहाँ तक कि पर्व व प्रसन्नता के अवसर भी हमें अकेले मनाना पड़ जाता है, यदि हम पहल कर के उनके पास न जायें तो। मैंने पलट कर अंजली की तरफ देखा। वह निश्चिन्त भाव से टी० वी० देख रही थी। उसके चेहरे पर वही चिर परिचित प्रसन्नता के भाव विद्यमान थे।
अंजली को इस प्रकार प्रसन्न देख मुझे आत्मसंतुष्टि की अनुभूति हुई। मैंने खिड़की के बाहर देखा। आकाश से उतरकर साँझ शनैः शनैः पूरी सृष्टि पर फैलती जा रही थी। दिन भर चलने वाली गर्म हवाएँ शाम होते-होते शीतल पुरवा के झोंकों में परिवर्तित हो रही थीं। वृक्षों पर पतझड़ अपना प्रभाव छोड़ चुका था। अधिकांश वृक्ष पत्र-विहीन हो चुके थे, इन विपरीत परिस्थितियों में अमलतास के वृक्ष पृष्पों से भर गये थे। हरे पत्तों के मध्य बहुतायत में खिल उठे अमलतास के पीले गुच्छे कितने मनमोहक लग रहे थे। इन पुष्पों को देखकर सहसा मुझे सुखद अनुभूति होने लगी।

अभी तक एक अनजानी आशंका से मेरा हृदय सदैव आशंकित रहता था कि मेरे न रहने पर अंजली कैसे अकेली रहेगी? बड़ी बहन के संबल की छत्रछाया अभी उसके सिर पर है। इस छत्रछाया में वह बेफिक्र हो कर रहती है। प्रकृति की भाँति जीवन में भी पतझड़ आता है।
मेरा यह सोचना कि अकेलेपन के पतझड़ वाले दिन अंजली कैसे व्यतीत करेगी? व्यर्थ है। पतझड़ में खिल उठे अमलतास के इन पुष्पों ने मेरा मार्गदर्शन किया है। अकेलेपन के पतझड़ में अंजली के जीवन में भी अवश्य खिल उठेंगे पुष्प अमलतास के। प्रकृति का यही नियम है। वंचित बच्चों को शिक्षित करना अंजली का ध्येय भी है।
मेरी अंतरात्मा ने धीरे से मुझसे कहा, ’’ चलो अनामिका, घर में चलो। खिड़की से ताज़ा हवा आने दो। प्रकृति ने सबके हिस्से की ख़ुशियाँ सबको दी हैं। तुम्हें भी......अंजली को भी.......।"



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रचनाकार परिचय

नीरजा हेमेन्द्र

ईमेल : neerjahemendra@gmail.com

निवास : लखनऊ (उत्तरप्रदेश)

शिक्षा- एम०ए० (हिन्दी साहित्य), बी०एड
संप्रति- अध्यापन
प्रकाशन- कहानी संग्रह- 'बियाबानों के जंगल', 'धूप भरे दिन', 'मुट्ठी भर इच्छाएँ', 'माटी में उगते शब्द (ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ), 'जी हाँ, मैं लेखिका हूँ', 'अमलतास के फूल', 'पत्तों पर ठहरी ओस की बूँदें' (प्रेम कहानियाँ), '....और एक दिन'। आत्मकथा- 'पथरीली पगडंडियों का सफ़र'। उपन्यास- 'अपने-अपने इन्द्रधनुष ', 'उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए'। ललई भाई (एक राजनैतिक गाथा)। कविता संग्रह- 'मेघ, मानसून और मन', 'ढूँढ कर लाओं ज़िंदगी', 'बारिश और भूमि', 'स्वप्न'।
हिंदी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, बाल सुलभ रचनाएँ एवं सम सामयिक विषयों पर लेख प्रकाशित। रचनाएँ आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी प्रसारित। हिंदी समय, विश्व गद्य कोश, विश्व कविता कोश, मातृभारती, प्रतिलिपि, हस्ताक्षर, स्त्रीकाल, पुरवाई, साहित्य कुंज, रचनाकार, हिंदी काव्य संकलन, साहित्य हंट, न्यूज बताओ डॉट कॉम, हस्तक्षेप, नूतन कहानियाँ आदि वेब साईट्स एवं वेब पत्रिकाओं में भी रचनाएँ प्रकाशित।
सम्मान- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त विजयदेव नारायण साही नामित पुरस्कार, शिंगलू स्मृति सम्मान। फणीश्वरनाथ रेणु स्मृति सम्मान। कमलेश्वर कथा सम्मान। लोकमत पुरस्कार। सेवक साहित्यश्री सम्मान। हाशिये की आवाज़ कथा सम्मान। कथा साहित्य विभूषण सम्मान। अनन्य हिंदी सहयोगी सम्मान आदि।
पता- 'नीरजालय', 510/75, न्यू हैदराबाद, लखनऊ (उत्तरप्रदेश)- 226007
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