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आरिफ़ महमूद की उर्दू कहानी 'तमाशाई' का प्रियंका गुप्ता द्वारा अनुवाद

आरिफ़ महमूद की उर्दू कहानी 'तमाशाई' का प्रियंका गुप्ता द्वारा अनुवाद

अब गली के आख़िर में बनी हुई छोटी-सी मस्जिद में स्थायी तौर पर लाउडस्पीकर लग गया था और वर्मा जी के दरवाज़े रखे हुए चंद पत्थरों ने एक मंदिर की सूरत अख़्तियार कर ली थी और उसका चबूतरा बढ़कर आधी गली तक पहुँच गया था। इस हक़ीक़त के बावजूद कि सड़क के इस पार बहुत बड़ा मंदिर मौजूद था लेकिन शाम को गली के बाहर के चंद लोग आकर ऐन अज़ान के वक़्त पर घण्टे बजाकर पूजा-पाठ करने लगे थे।

दफ़्तर से वापसी पर जब मैं सड़क की लम्बाई काटकर उस जगह पहुँचता हूँ, जहाँ से मेरी गली का मोड़ दिखाई पड़ता है तो आम तौर पर मुझे एक ख़ुशी का अहसास होता है। जैसे ताँगे का घोड़ा दिन भर का थका-माँदा शाम को घर लौटते वक़्त अपनी चाल बढ़ा देता है। गली की नुक्कड़ वाली पान की दूकान और इस पर खड़े हुए मेरी ही गली के दो चार नौजवान जब मुझे देखकर आदर से सलाम करते हैं तो ऐसा लगता है, मैं अपने दफ़्तर का ही बाबू नहीं बल्कि इस गली का कोई ख़ास और बहुत बाइज़्ज़त शहरी हूँ। लेकिन आज जब मैंने अपनी साइकिल सड़क से पार करके बाएँ पर जाते हुए गली के मोड़ पर नज़र डाली तो एकदम सारी ख़ुशी जैसे बारूद के ढेर की तरह भक्क से उड़ गई। पान की दूकान बंद थी और इसके सामने आठ-दस पुलिस कांस्टेबल डंडे-लाठी लिये खड़े थे, मेरे पैर अचानक पैडल पर रुक गये। साइकिल का पहिया सामने से आती हुई एक औरत से टकराया और मैं ब्रेक लगाता हुआ उससे माफ़ी माँगकर साइकिल से उतर पड़ा। वह औरत कुछ बड़बड़ाती हुई चली गई। मुझे नहीं मालूम कि उसने मुझसे क्या कहा, मैं तो उस वक़्त सारे जिस्म से सिर्फ़ सोचने का काम ले रहा था और आँखें पान की बंद दूकान पर लगी थीं। आख़िर वही हुआ, जिसका डर था। सुबह दफ़्तर जाते वक़्त जब मैं घर से निकला था तो ख़ान साहब की छत पर लाउडस्पीकर बाँधे जा रहे थे। कोई फंक्शन (तक़रीब) रहा होगा, लाउडस्पीकर बाँधना कोई अजीब बात नहीं। हम शहरों में रहने वाले तो जैसे इसके आदी हो गये हैं। बच्चे की पैदाइश से लेकर उसके आख़िर सफ़र तक हर ख़ुशी के मौक़े पर लाउडस्पीकर बजाने का जम्हूरी हक़ (लोकतान्त्रिक अधिकार) इस्तेमाल करना उतना ही ज़रूरी है, जितना मस्जिद में नमाज़ से पहले अज़ान देना और मंदिर में पूजा से पहले घण्टी बजाना।

मुझे पूरा यक़ीन था कि आज जो कुछ भी हुआ होगा, उसमें कहीं न कहीं लाउडस्पीकर ज़रूर शामिल होगा। अब मेरे लिए यह पचास गज़ का रास्ता, जो गली के नुक्कड़ तक जाता था, एक लम्बा सफ़र था। पैर आगे बढ़ ही नहीं रहे थे। मैंने साइकिल किनारे लगाकर आने वाले चंद मिनटों के बाद के हालात के लिए ख़ुद को तैयार करना चाहा। ज़ेह्न में 'अगर' और 'मगर' के साथ सवालात बनने और बिगड़ने लगे कि इतने में गली से चंद पुलिस कॉन्स्टेबिल दो आदमियों को उनके कॉलरों से पकड़े हुए बाहर ले आये। यह सब मेरी ही तरफ़ आ रहे थे। मैं अपनी जगह बिलकुल बर्फ़ की तरह जम गया। उन दोनों में एक तो वर्मा जी का सोलह-सत्रह साल का लड़का था और दूसरा ख़ान साहब का छोटा भाई, जो ख़ुद दो-तीन बच्चों का बाप था। उन सबके पीछे गली के बच्चों का गोल (समूह) था। दो-चार बूढ़े भी थे। मेरे क़रीब से गुज़रते हुए वर्मा जी के लड़के राजू की निगाहें मुझ पर पड़ीं और उसने आदतानुसार हाथ जोड़ दिए, "अंकल नमस्ते"। ख़ान साहब के भाई ने एक नफ़रत भरी निगाह मुझ पर डाली जैसे कि आज जो कुछ भी हुआ, मैं ही उसका ज़िम्मेदार था। मजमे से एक शख़्स ने रुककर मुझको कहानी सुनानी चाही, मैंने मुँह दूसरी तरफ कर लिया कि यह कहानी तो मैं ख़ुद ही पिछले छह माह से टुकड़े-टुकड़े करके देख और सुन रहा था। आज तो इस कहानी का क्लाइमेक्स था। मैंने भीड़ के गुज़रने के बाद पैडल पर पैर रखा और गली की तरफ़ साइकिल बढ़ा दी।

गली में दाख़िल होते वक़्त नुक्कड़ पर खड़े सिपाहियों ने कुछ इस तरह मुझको घूरा जैसे कह रहे हो कि तुम तो अब तक इस कहानी में कहीं भी नहीं थे, अब अचानक कैसे आ गये? मैंने भी घबराहट में उनकी आँखों की ज़बान समझ ली और ज़बरदस्ती की मुस्कराहट चेहरे पर लाकर अपनी उँगली से पहले तो अपने सीने की तरफ़ इशारा किया और फिर गली की तरफ़ ही 'यानी मैं यहीं रहता हूँ' और फिर निगाहें झुकाकर जल्दी से गली में दाख़िल हो गया। मेरे कानों में पुलिसवालों की व्यंग्य-भरी हँसी के हथौड़े बरस रहे थे, शायद मुझसे कोई भूल हो गयी थी।

गली के नुक्कड़ से मेरे घर तक दोनों जानिब कोई तीस-चालीस छोटे-बड़े ऊँचे-नीचे मकान हैं, जिनमें ईद, दीवाली और क्रिसमस सब ही त्यौहार मनाने वाले आज से नहीं, पिछले कोई बीस-पच्चीस साल से रह रहे हैं। वह सब सारे त्योहार मिल-जुलकर हमेशा इस तरह मनाते रहे हैं, जैसे उनके अपने त्योहार हों। मैं अभी कोई छह माह पहले तक इस गली का ऐतबार के क़ाबिल आदमी समझा जाता था। तमाम लोग मुझको 'बाबू जी' के नाम से याद करते और बच्चे, नौजवान सब 'अंकल' कहकर, गली की सारी औरतें मेरी बहने और बेटियाँ थीं। गली के छोटे-मोटे आपसी मामलों में मेरी याद आख़री होती थी, जिसका कभी कोई विरोध नहीं किया गया था लेकिन इसी छह माह के अरसे में जैसे सब अचानक ही बदल गया था। अब मैं एक विवादग्रस्त शख़्स बन गया था। न तो मुझसे अपने ख़ुश थे और न ग़ैर।

पिछले दशहरे के मौक़े पर जब छेदीलाल धोबी और चन्द्रमोहन पंसारी ने पूरी गली को सजाकर सुबह से ही लाउडस्पीकर के दस-बारह हॉर्न पूरी गली में फिट कर दिए तो सारी गली मैदाने-जंग बन गयी थी। इस क़दर शोर था कि सब ही परेशान थे। इत्तफ़ाक़ से उन दिनों ख़ान साहब की जवान लड़की सख़्त बीमार थी। डॉक्टरों ने उसको आराम करने की राय दी थी। जब शोर बहुत ज़्यादा बढ़ा तो मरीज़ की हालत बिगड़ने लगी। ख़ान साहब ने पहले तो ख़ुद जाकर छेदीलाल और चन्द्रमोहन को समझाया, जब दोनों नहीं माने तो वह गली की ही रहने वाली मिस रोज़ी, जो कि सरकारी अस्पताल में नर्स थी, को लेकर उसके पास गये ताकि कुछ असर पड़े, लेकिन वह फिर भी न माने तो आख़िर में मस्जिद के इमाम साहब को लेकर मेरे पास आये और अपनी परेशानी बतलायी। मैंने पहले तो ख़ान साहब के घर जाकर लड़की की हालत देखी। वह दर-हक़ीक़त इस शोर से बड़ी बेचैन थी। मैंने फ़ौरन जाकर दोनों को समझाया कि इंसानियत के नाते इस कड़े वक़्त में हमको ख़ान साहब का साथ देना चाहिए। कुछ सोचकर वह राज़ी हो गये और एकदम से सारी गली की फ़ज़ा शांत हो गयी लेकिन यह सन्नाटा शायद मेरे घर के सामने रहने वाले वर्मा जी को अच्छा न लगा। वह न तो उन दोनों से कुछ बोले और न मुझसे कुछ कहा बस लोगों ने यह देखा कि वह चुपचाप घर से निकलकर गली के सामने सड़क पार करके बड़े मंदिर के पुजारी के पास गये और फिर थोड़ी ही देर में पुजारी के साथ आठ-दस पहलवान किस्म के नौजवान वर्मा जी के यहाँ आये। कोई मीटिंग हुई। छेदीलाल और चन्द्रमोहन भी बुलाए गये फिर थोड़ी ही देर में वह सब तो वापस हो गये लेकिन लाउडस्पीकरों ने दुबारा दहाड़ना शुरू कर दिया। ख़ान साहब की लड़की की हालत अचानक बिगड़ गयी, डॉक्टर बुलाया गया और फिर एकदम से ख़ान साहब के घर से रोने पीटने की आवाज़ें आने लगीं। गली की तमाम औरतें ख़ान साहब के घर की तरफ़ भागी। छेदीलाल और चन्द्रमोहन ने फ़ौरन ख़ुद ही लाउडस्पीकर बन्द किए और सारी गली से इतनी तेज़ी के साथ सबकुछ हटा दिया, जैसे वहाँ कुछ था ही नहीं। लड़की की मौत की ख़बर ज़रा देर में ही गली से बाहर पहुँच गयी और लोग इकठठा होने शुरू हुए। सारी गली में एक तनाव का माहौल बन गया। हर शख़्स लड़की के इन्तक़ाल (मौत) की वजह लाउडस्पीकर के शोर को ही ठहरा रहा था। ग़ालिबन यह ख़बर पुलिस स्टेशन तक पहुँच गयी और चंद पुलिसवाले भी आ गये इसलिए कोई दुखद हादसा नहीं हुआ। शाम को लड़की का जनाज़ा जब रवाना हुआ तो गली के हर घर से कम से कम एक आदमी मौजूद था, सिवाय वर्मा जी के। चन्द्रमोहन और छेदीलाल भी सबसे आख़िर में जनाज़े के पीछे चल रहे थे। उनके चेहरों से ऐसा लग रहा था जैसे कि उनको अपने जुर्म का अहसास हो। मैने दोनों के क़रीब चलते हुए समझाने की कोशिश की तो दोनों एकदम छलक पड़े, "बाबूजी, इस बच्ची के हत्यारे हम ही हैं। हमने तो उसको गोद में खिलाया था।"

"हाँ, तुम ठीक कहते हो लेकिन गोद में तो वर्मा जी ने भी खिलाया होगा, कहीं दिखाई नहीं पड़ रहे हैं।" इस वाक़ये के बाद से ही मैं गली में रहने वालों के लिए एक विवादास्पद शख़्सियत बन गया था क्योंकि चंद दिनों के बाद ही मुहर्रम के मौक़े पर जब इमाम साहब ने सुबह से ही बच्चों को साथ लेकर पूरी गली को सजाया-सँवारा और शाम को लाउडस्पीकर बाँधने लगे तो सबसे पहले मैंने ही उनको समझाया कि आप जिस तरह भी चाहे मुहर्रम मनाएँ, सिर्फ़ शोर-शराबा न मचाएँ तो मेरी बात की ताईद में और बहुत से लोग आ गए थे, जो ख़ुद भी मुहर्रम बड़े एहतराम (आदर) के साथ मनाते थे लेकिन लाउडस्पीकर लगाकर शोर मचाने से वे भी सहमत नहीं थे। वर्मा जी, जो ख़ान साहब की लड़की के इन्तक़ाल के बाद से मेरे साथ बोल-चाल बंद कर चुके थे, इस मामले में मेरे पास आये, इमाम साहब के लाउडस्पीकर लगाने के सिलसिले में अपनी मदद का यक़ीन दिलाया। मैंने शुक्रिया के साथ उनकी पेशकश वापस कर दी और अपने तौर पर ही इमाम साहब को समझाकर राज़ी कर लिया। लेकिन इस वाक़ये के बाद से ही न सिर्फ़ इमाम साहब बल्कि ख़ान साहब और गली के कुछ नौजवान मुझे जानिबदार (एक तरफ़ वाला) समझने लगे बल्कि कुछ लोगों ने मुझको वर्मा जी का साथी कह दिया। मैं उन तमाम बातों से बेपरवाह अपनी पुरानी डगर पर ही चल रहा था। इस छह माह में एक नई बात और हुई कि अब गली के आख़िर में बनी हुई छोटी-सी मस्जिद में स्थायी तौर पर लाउडस्पीकर लग गया था और वर्मा जी के दरवाज़े रखे हुए चंद पत्थरों ने एक मंदिर की सूरत अख़्तियार कर ली थी और उसका चबूतरा बढ़कर आधी गली तक पहुँच गया था। इस हक़ीक़त के बावजूद कि सड़क के इस पार बहुत बड़ा मंदिर मौजूद था लेकिन शाम को गली के बाहर के चंद लोग आकर ऐन अज़ान के वक़्त पर घण्टे बजाकर पूजा-पाठ करने लगे थे। इस सिलसिले में भी कई बार दोनों तरफ़ से ज़ोर आज़माइश की कोशिशें हुईं लेकिन गली के ही समझदार लोगों ने मामलों को दबा दिया। अब हर त्योहार के मौक़े पर दोनों तरफ़ से मंदिर और मस्जिद के सजाने के बाद लाउडस्पीकर पर भजन और क़व्वालियाँ बजाना ज़रूरी हो गया था और हर ऐसे मौक़े पर पूरी गली में तनाव बढ़ जाता। नए-नए लोग घूमते नज़र आते। यह सिलसिला दोनों तरफ़ से जारी था। यह सब तो आज की कहानी के क्लाइमेक्स की पृष्ठभूमि थी, जो कि नुक्कड़ से अपने घर तक पहुँचते-पहुँचते मेरी निगाहों में एक फ़िल्म की तरह चल रही थी।

घर पर मेरी बीवी दरवाज़े पर ही खड़ी थी और वर्मा जी की बीवी उसके पास ही खड़ी ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी। उन दोनों से मालूम हुआ कि वर्माजी आज सुबह से ही शहर से बाहर गये हुए हैं। राजू के बोर्ड के इम्तहान चल रहे हैं और कल अंग्रेजी का परचा होगा और सुबह से ही ख़ान साहब के यहाँ लाउडस्पीकर पर फ़िल्मी गाने बजाए जा रहे थे। राजू ने पहले तो ख़ुद ही जाकर ख़ान साहब से अपनी परेशानी बतलाई। वह तो शायद मान भी जाते लेकिन उनका भाई सामने आ गया, "जब मेरे भाई की लड़की शोर की वजह से मर गई थी तब तुम्हारे बाप ने स्पीकर नही बंद कराये। अब हमारे बच्चों का काम है तो हम क्यों बंद करें? क्या हमको ख़ुशी मनाने का हक़ नहीं?" और फिर इस जवाब के बाद वह हुआ जो इस गली में कभी नहीं हुआ था। किसी ने सड़क के पार वाले मंदिर के पुजारी को इत्तिला दी और वह दस-पन्द्रह जवानों के साथ आकर तमाम स्पीकरों को तोड़-फोड़ गये। उनके जाने के बाद ख़ान साहब के भाई और राजू में मारपीट हुई और फिर जो कुछ भी हुआ, सब सामने है। वर्मा जी की बीवी ने पूरी कहानी सुनाकर मेरे पैर पकड़ लिए, "भैया अब राजू इम्तहान कैसे देगा?"

"आप घबराइए नहीं, वह कल सुबह इम्तहान ज़रूर देगा, बस इतना कीजिए कि अब आप गली के बाहर से किसी आदमी की मदद न लाइए, अगर वह आएँ भी तो शुक्रिया के साथ उनको वापस कर दीजिएगा।"

मैंने गली के दस-बारह समझदार क़िस्म के लोगों को इकट्ठा किया और सबको लेकर थाने गया। वहीं तमाम हालात बतलाकर न सिर्फ़ फ़ौरन दोनों की जमानत कराई बल्कि हम लोगों ने लिखकर यह ज़िम्मेदारी भी क़ुबूल की कि आइन्दा इस गली में इस तरह का कोई हादसा न होगा। हमारी यह दरख़्वास्त भी सर्किल इन्स्पेक्टर ने मान ली कि कल सुबह से पुलिस भी वहाँ से हटा ली जाए। हम लोग राजू और ख़ान साहब के भाई को लेकर जब गली मे वापस पहुँचे तो मालूम हुआ कि वर्मा जी भी वापस आ चुके हैं और उनके घर में कोई मीटिंग हो रही है। कुछ बाहरी लोग भी मौजूद हैं। दूसरी तरफ़ इमाम साहब की निगरानी में मस्जिद के दरवाज़े पर एक मीटिंग चल रही है। हम लोग भी मामले को समझ भी न पाए थे कि वर्मा जी का एक आदमी आकर हमसे यह कह गया कि वर्माजी ने लड़के की जमानत का तो शुक्रिया अदा किया है और यह भी कहा है कि अब हमारे मामले में आप दख़ल न दें, हम लोग ख़ुद ही निपट लेंगे। हम सब एक दूसरे का मुँह देख ही रहे थे कि दूसरी पार्टी ने भी कुछ इसी क़िस्म का पैग़ाम हमारे पास भेजा और हम, जो इस गली के हर दुख-दर्द को हमेशा अपना दुख-दर्द समझते रहे थे, अब इस जगह पहुँच गये थे कि हमको सिर्फ़ तमाशाई बने रहने का हुक्म था।

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रचनाकार परिचय

प्रियंका गुप्ता

ईमेल : priyanka.gupta.knpr@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्म- 31 अक्टूबर, 1978 (कानपुर)
शिक्षा- बी.काम
लेखन विधा- बचपन से लेखन आरम्भ करने के कारण मूलतः बालकथा बड़ी संख्या में लिखी-छपी, परन्तु बड़ी कहानियाँ लिखने के साथ साथ हाइकु, तांका, सेदोका, चोका, माहिया, कविता और ग़ज़लें आदि भी लिखी और प्रकाशित
प्रकाशन-
कृतियाँ -
1- नयन देश की राजकुमारी (बालकथा संग्रह)
2- सिर्फ़ एक गुलाब (बालकथा संग्रह)
3- फुलझड़ियाँ (बालकथा संग्रह)
4- नानी की कहानियाँ (लोककथा संग्रह)
5- ज़िन्दगी बाकी है (बड़ी कहानियों का एकल संग्रह)
6- बुरी लड़की (कहानी संग्रह)
इसके अलावा देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
पुरस्कार/ सम्मान-
1- ‘नयन देश की राजकुमारी’ उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा "सूर अनुशंसा" पुरस्कार प्राप्त
2- "सिर्फ़ एक गुलाब" प्रियम्वदा दुबे स्मृति पुरस्कार-राजस्थान
3- कादम्बिनी साहित्य महोत्सव-94 में कहानी "घर" के लिए तत्कालीन राज्यपाल(उ.प्र.) श्री मोतीलाल वोहरा द्वारा अनुशंसा पुरस्कार प्राप्त
ब्लॉग- www.priyankakedastavez.blogspot.in
मोबाइल- 9919025046
संपर्क- ‘प्रेमांगन’
एम.आई.जी-292, कैलाश विहार,
आवास विकास योजना संख्या-एक,
कल्याणपुर, कानपुर-208017(उत्तर प्रदेश)