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हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी- गोपाल खन्ना

हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी- गोपाल खन्ना

बाबू के सर से रक्त की धार बह चली होगी। बाबू के हाथ से चाय की केतली छूट कर गिर गई होगी, गर्म चाय और अपने रक्त के ऊपर बाबू निढाल पड़े खुली आँखों से इस बेरहम दुनिया को अलविदा कह रहे होंगे। केतली से गिरी चाय ने खून की लालिमा को कुछ सफेद कर दिया होगा।

बात सन् 1971-72 की है। मैं गाजियाबाद में अपने बैंक की तरफ से क्लियरिंग हाउस जाया करता था, जो वहाँ स्टेट बैंक में लगता था। हाउस में करीब 10-12 बैंक के प्रतिनिधि अपने बैंक की चेकों के आदान-प्रदान के लिए एकत्र होते थे। उन सभी से मेरी अच्छी मित्रता हो गई थी।

एक बैंक से श्री अत्री आया करते थे। उनकी उम्र 35-40 के बीच की रही होगी। वह बड़े मृदुभाषी, हँसमुख, एवं सहयोगी स्वभाव के इंसान थे। ये तो मुझे मालूम नहीं कि वे शादीशुदा थे कि नहीं पर वह यहाँ रहते अकेले ही थे।

एक इतवार को स्टेट बैंक का मेरा मित्र श्रवण मेरे घर आया और बोला, "चलो गोपाल, आज अत्री के घर चलते हैं। वह कई बार बहुत बुला भी चुका है।" ठीक से याद नहीं, हल्के जाड़े का कोई महीना रहा होगा। दोपहर के तीन बजे थे, मैं और श्रवण टहलते हुए पहुँच गए अत्री के घर।
डोर बेल बजाई, एक बुजुर्ग ने ऊपर से झाँका और मेरा नाम पूछा, मैंने बता दिया। अत्री की इजाज़त उन्हें मिल गई और वो दो मंज़िल नीचे आकर दरवाज़ा खोलकर मुझे ऊपर ले गए।

पुराने किस्म का एक बड़ा कमरा था, जिसमें फ़र्श पर गद्दे तकिए लगे थे और 6-7 लोग ताश के पपलू खेल का आनंद ले रहे थे, जिसमें कुछ लोग क्लीयरिंग हाउस वाले भी थे। हैलो-हाय करके हम दोनों भी उन्हीं लोगों के पीछे बैठ गये। जब बाज़ी ख़त्म हुई तो अत्री ने हम लोगों की तरफ तवज्जो दी। अत्री ने अपनी मृदु शैली में पूछा, "गोपाल, कैसे आना हुआ? कोई काम तो नहीं?" उसके बाद लोगों ने फड़ चौड़ा करके हम दोनों के बैठने के लिए जगह बना दी। हालाँकि मुझे और श्रवण को पपलू खेलना अच्छी तरह आता था पर हम लोग घर के अलावा वह भी केवल दिवाली पर, बाहर बहुत कहीं नहीं खेलते थे।

फड़ में तो नहीं पर मैं अत्री के और श्रवण, चावला के पीछे बैठ गया। हम लोग भी खेल का आनंद लेने लगे। जैसा कि होता है पहली बार जब कोई किसी के घर जाता है तो उस घर का बड़ा सूक्ष्म अवलोकन करता है। मैं भी इस काम में लग गया। कमरे में एक तरफ सोफा, बेड और दूसरी तरफ एक रेडियोग्राम विराजमान था। दीवार पर भगवान के दो बड़े कलेंडर टँगे हुए थे। फड़ में रखे-तीन चार सिगरेटदानी में जली हुई सिगरेट के धुएँ की गंध से कमरा महक रहा था। दीवार की तरफ चाय के कुछ कप और पानी के गिलास बिखरे पड़े थे।

बाजी रुकी तो अत्री ने उस बुर्जुग से कहा, "बाबू मेरे मित्र आए हैं, इनको चाय-वाय तो पिलवाओ।" अत्री की बात सुनकर बाबू ने एल्यूमिनियम की एक केतली उठाई। और अत्री से पैसे लेकर चाय लेने सीढ़ी उतर गए। कुछ लोगों ने बाबू को सिगरेट, पान लाने के लिए भी पैसे दिए। जब बाबू सीढ़ी उतर रहे थे तो मैंने देखा, वह गठिया रोग से बुरी तरह पीड़ित हैं। और बड़ी कठिनाई से सीढ़ी उतर पा रहे हैं। आधा घंटे बाद वह उसी तरह थके और काँपते पैरों से कराहते हुए चाय की केतली लिए हाज़िर हो गये। फिर उन्होंने लड़खडाती टाँगों से सबके कप में चाय उलटकर सबके पास पहुँचाई। बाकी लोग तो ताश के खेल में व्यस्त थे पर मेरा और श्रवण का ध्यान बाबू के डगमगाते क़दमों की तरफ़ से हट ही नहीं रहा था। जब वे चलते थे तो ऐसा लगता था कहीं ये गिर न पड़ें।

बाबू के बारे में अत्री से कुछ पूछने का तो कोई मतलब था नहीं और न किसी को बताने की फुरसत। करीब डेढ़ घंटे अत्री के वहाँ रुकने के बाद हम लोग वापस लौट लिए। पर लौटते हुए उस बूढ़े बाबू के बारे में ही बात करते रहे, जो अपने दर्द से कराहती टाँगों की अनदेखी कर के पुराने ज़माने की ऊँची सीढ़ियाँ कैसे चढ़ते-उतरते होंगे। कितना कष्ट होता होगा उनको। पता नहीं क्या मज़बूरी होगी उनके साथ, जो इतनी उम्र में वह ये कष्ट झेल रहे हैं।

उस दिन के बाद से हम लोगों का कभी दुबारा अत्री के घर जाना नहीं हुआ। क़रीब एक महीने बाद की बात होगी, कई दिन की छुट्टी के उपरांत एक दिन अत्री क्लियरिंग हाउस आया तो उसके बाल मुंडे हुए थे। पूछने पर उसने बताया, कि विगत सप्ताह उसके पिता की मृत्यु हो गई। मैंने पूछा वो कहाँ रहते थे? क्या कुछ बीमार थे?
उसने कहा, "आप उनसे मिल तो चुके हो, जब आप मेरे घर आए थे। आपको चाय उन्होंने ही तो लाकर पिलाई थी। उनको कोई एक बीमारी तो थी नहीं, शुगर भी थी, ब्लड प्रेशर भी था, गठिया भी। मानते नहीं थे, लाख समझाओ पर ऊपर-नीचे किया ही करते थे। पिछले इतवार को सीढ़ी चढ़ते हुए पैर फिसल गया और नीचे सड़क पर आ गिरे। सिर में चोट ज़्यादा लग गई थी, बस उसी में चल बसे।"

मुझे और श्रवण को तब पता लगा कि वह अत्री के घर पर जुआड़ियों के लिए चाय लाने वाले बुजुर्ग नौकर नहीं बल्कि अत्री के पिता थे। मेरे मन में वह करुण दृश्य घूम गया, जब बाबू सड़क पर गिरे होंगे। धड़ाम की आवाज़ हुई होगी, आस-पास के लोग सहम गए होंगे। बाबू के सर से रक्त की धार बह चली होगी। बाबू के हाथ से चाय की केतली छूट कर गिर गई होगी, गर्म चाय और अपने रक्त के ऊपर बाबू निढाल पड़े खुली आँखों से इस बेरहम दुनिया को अलविदा कह रहे होंगे। केतली से गिरी चाय ने खून की लालिमा को कुछ सफेद कर दिया होगा।

बाद में मैंने श्रवण से बस इतना ही कहा, "यार श्रवण, हम तो सोच भी नहीं सकते थे कि इतना मृदुभाषी आदमी इतना गिरा हुआ इंसान होगा!"
श्रवण ने कहा-

हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो, कई बार देखना

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रचनाकार परिचय

गोपाल खन्ना

ईमेल :

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्मस्थान- कानपुर
जन्मतिथि- 26 अक्टूबर, 1948
लेखन विधा- संस्मरण, यात्रा वृतांत, कहानी, काव्य एवं आलेख 
शिक्षा- एम.ए. (अर्थशास्त्र) एल.एल.बी.
संप्रति- बैंक ऑफ बड़ौदा से 2008 में सेवानिवृत, रोमांचक खेलों के आयोजन, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्ष प्रसार, लेखन एवं कला सृजन में संलग्न ।
प्रकाशन- कई पुस्तकों का प्रकाशन एवं पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। 
अभिरुचियाँ- मूर्तिकला, चित्रकला, फोटोग्राफी, काष्ठ कला, रोमांचक भ्रमण एवं रोमांचक खेल। 
विशेष- * प्राचीन एवं समकालीन खिलौने (2000 से भी अधिक), सिक्के शंख, सीप, पत्थर, मेडल्स, पिक्चर पोस्ट कार्ड, प्राचीन वस्तुएं । 
* एकल एवं सामूहिक कला प्रदर्शनी कानपुर लखनऊ, दिल्ली। 100 से भी अधिक मूर्तिशिल्प- यू.एस.ए., कनाडा, इंग्लैण्ड, स्विटजरलैण्ड, दुबई, पाकिस्तान व जापान आदि देशों के व्यक्तिगत संग्रहालयों में संग्रहीत।
संपर्क- 3ए/32 बी-2 आजाद नगर, कानपुर- 208002
मोबाइल- 9935885370, 9569756867