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सादगी के साथ अपने दौर के अनुभवों और भावनाओं का शेरों में बयान: आसमां तू ही बता- अशोक रावत

सादगी के साथ अपने दौर के अनुभवों और भावनाओं का शेरों में बयान: आसमां तू ही बता- अशोक रावत

ऐसे बहुत कम ग़ज़ल संग्रह हाथ में आते हैं जिनको एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद उसे पढ़ते जाने का मन करे। मक़सूद अनवर साहब की  ग़ज़लों में खास बात जिसने मुझे प्रभावित किया वह है बड़ी सादगी के साथ उनका अपने दौर के अनुभवों  और भावनाओं को शेरों में बयान करते जाना. शायर शेर में अपने नज़रिये से किसी बात को कहता है लेकिन उसके अर्थ कहाँ  तक जाते हैं इसकी कोई सीमा नहीं है।

जनाब मक़सूद अनवर साहब के ग़ज़ल संग्रह आसमाँ तू ही बता से गुज़रना एक सुखद अनुभव रहा। यह ग़ज़ल संग्रह उर्दू भाषा में प्रकाशित हो चुका है और हिंदी भाषा में इसे अलका मिश्रा जी प्रकाशित कर रही हैं। आजकल उर्दू शायरों के ग़ज़ल संग्रह प्राय: हिन्दी भाषा में भी प्रकाशित होते हैं और हिंदी पाठकों तक पहुँचते हैं। हिंदी पाठक देवनागरी लिपि में उर्दू ग़ज़ल को पढ़ना इसलिए पसंद करता है क्योंकि उर्दू ग़ज़ल की कहन के अंदाज़ का आज भी कोई जवाब नहीं है। इस बात का भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि बशीर बद्र की पीढ़ी से उर्दू ग़ज़ल की भाषा और हिंदी भाषा एक-दूसरे के जितने नज़दीक आई हैं, इसका पूरा श्रेय उर्दू के शायरों को देना चाहिए। दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के सामने आने के बाद हिंदी भाषा के रचनाकार भी ग़ज़लों में अपना हाथ आज़मा रहे हैं। मुझे लगता है हिंदी भाषा में ग़ज़ल जितनी मात्रा में लिखी जा रही हैं और ग़ज़लों के जितने संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं, शायद ही किसी अन्य विधा में इतना लिखा जा रहा हो।

ऐसे बहुत कम ग़ज़ल संग्रह हाथ में आते हैं, जिनको एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद उसे पढ़ते जाने का मन करे। मक़सूद अनवर साहब की ग़ज़लों में ख़ास बात जिसने मुझे प्रभावित किया, वह है बड़ी सादगी के साथ उनका अपने दौर के अनुभवों और भावनाओं को शेरों में बयान करते जाना। शायर शेर में अपने नज़रिये से किसी बात को कहता है लेकिन उसके अर्थ कहाँ तक जाते हैं, इसकी कोई सीमा नहीं है। उदाहरण के रूप में इस शेर को ही देखिये, कितना दर्द है इस शेर में जब वे कहते हैं कि-

इसलिए भीड़ लगी है कि तमाशा हैं हम
हम हुए ख़त्म तो सब लोग बिखर जाएँगे

सियासत, सम्पन्न वर्ग द्वारा हमें अपने मनोरंजन के लिए एक तमाशे की तरह इस्तेमाल किया जाना एक ऐसी हक़ीक़त है, जिसका एहसास एक आम इंसान को क़दम-क़दम पर होता है। इसमें कोई शक नहीं मक़सूद साहब कि कहन का अंदाज़ निराला है। वे शेर में अल्फ़ाज़ इस ख़ूबसूरती से गढ़ते जाते हैं कि पाठक उनकी संवेदना से तो जुड़ता ही है, वह चमत्कृत भी होता है-

आसमां तू ही बता अब कौनसी हद बाक़ी है
जिस जगह से नहीं गुज़रे हैं, गुज़र जाएँगे

अपने ही मलबे से दबे होना, टूटे-फूटे होने के बाद भी ख़ुशगुमाँ होना एक नया मुहावरा है। उनका यह अंदाज़ भी महसूस कीजिये-

ख़ुशगुमाँ हैं टूटे-फूटे लोग फिर भी शहर में
कौन है वह जो दबा ख़ुद अपने मलबे में नहीं

शिकारी को मालूम है कि वह जो जाल फैला रहा है, उसमें लोग फँसेंगे ही तभी वह हँस सकता है। तअ'ज्जुब ये है कि लोग फँसते आए भी हैं।

हँस रहा होगा शिकारी जाल फैलाते हुए
ख़ौफ़ आता है मुझे घर लौट कर जाते हुए

आँसुओं से जिस्म की मिट्टी का गल जाना पीड़ा की पराकाष्ठा है, देखिए किस ख़ूबसूरती के साथ शेर में इसको बयान किया गया है-

ग़म न दो इतना कि मेरी जां निकल जाए कहीं
आँसुओं से जिस्म की मिट्टी न गल जाए कहीं

इस शेर में बात में नयापन न होते हुए भी ‘हलकान’ लफ़्ज़ कैसे शेर में चमक पैदा करता है, यह देखने की बात है-

इसको पाने की कोशिश में जां तेरी हलकान है क्यों
दुनिया अंदर से पीतल ऊपर सोने का पानी है

मक़सूद साहब के बहुत-से शेर इस संग्रह से कोट किए जा सकते हैं। उनकी शायरी आम आदमी के आसपास की ज़िंदगी की शायरी है। वे अपनी बात को बड़े सलीक़े से कहते हैं और एक साहित्यकार की मर्यादा को बनाए रखते हैं। वे कहीं तंज़ भी करते हैं तो शायरी के लहजे में ही करते हैं।
जनाब मक़सूद साहब से मेरा कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं है लेकिन अलका मिश्रा जी के वे पसंदीदा शायर हैं और उनके माध्यम से ही मेरी पहुँच इन ग़ज़लों तक हुई है। उर्दू भाषा में ग़ज़ल की लंबी परंपरा है और ग़ज़ल विधा पर बहुत काम भी हुआ है। ग़ज़ल के शिल्प को बचाने के लिए आज भी उर्दू में उस्ताद शायर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उर्दू ग़ज़ल भी किसी एक मोड पर ठहरी हुई ग़ज़ल नहीं है। उर्दू ग़ज़ल अपने दौर से बात करती हुई आगे बढ़ रही है और समय के साथ उसमें बहुत-से परिवर्तन आए हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व की भौगोलिक, राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में परिवर्तन बड़ी तीव्र गति से आए हैं और औद्योगीकरण के साथ संचार और कंप्यूटर तकनीक से पूरे परिदृश्य को ही बदलकर रख दिया है। सोशल मीडिया और इसके डिजिटल प्लेटफ़ोर्म इस दौर की बड़ी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं, जिनका असर हमारे लेखन और साहित्य पर भी पड़ा है।

मेरा विश्वास हैं हिन्दी भाषा में प्रकाशित होने पर इस ग़ज़ल संग्रह का खुले दिल से स्वागत किया जाएगा। इस संग्रह को हिन्दी भाषा में प्रकाशित करने के लिए इरा पब्लिशर्स को बधाई देता हूँ।

 

 

समीक्ष्य पुस्तक- आसमां तू ही बता
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- मक़सूद अनवर 'मक़सूद'
प्रकाशक- इरा पब्लिशर्स, कानपुर
पृष्ठ- 134
मूल्य- 200/-

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रचनाकार परिचय

अशोक रावत

ईमेल : ashokdgmce@gmail.com

निवास : आगरा (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि -15 नवंबर 1953
जन्मस्थान -मलिकपुर गाँव, मथुरा (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा -बी० ई० (सिविल इंजीनियरिंग)
संप्रति -भारतीय खाद्य निगम से सेवा निवृत्त
प्रकाशन - * 'थोड़ा सा ईमान' ग़ज़ल संग्रह
             * हिन्दी के सभी प्रमुख पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में ग़ज़लें                      प्रकाशित
             * राजपाल एंड संस, वाणी प्रकाशन, किताबघर से प्रकाशित,                      प्रदीप चौबे द्वारा संपादित/प्रकाशित 'आरंभ' तथा अन्य                          महत्वपूर्ण ग़ज़ल संकलनों में ग़ज़ले सम्मिलित
सम्पादन -उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की पत्रिका 'साहित्य भारती' के ग़ज़ल                 विशेषांक का सम्पादन
प्रसारण -दूरदर्शन एवं काव्य-मंचों से निरंतर काव्य-पाठ
सम्मान/पुरस्कार -विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
पता -२२२,मानस नगर,शाहगंजआगरा (उत्तर प्रदेश) 282010
मोबाईल -9013567499 , 9013901585,9456400433