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अमरीक सिंह दीप की कहानी 'हरम'

अमरीक सिंह दीप की कहानी 'हरम'

"ये फटेहाल बदहवास मुफ़लिस लोग और हरम? अच्छा मज़ाक कर लेते हो तुम।"
"मज़ाक नहीं हुज़ूर, ये हक़ीक़त बयानी कर रहा हूँ मैं। इस वक़्त इस मुल्क पर अंग्रेजों की नहीं, इसी मुल्क में रहने वाले दौलतमंदों और सौदागरों की हुकूमत है। इन सरमायेदारों और सौदागरों का एक ही मज़हब हैं– दौलत। दौलत के लिए ये अपना दीन-ईमान ही नहीं, अपनी बीवी, बेटी, बहन यहाँ तक कि अपनी माँ को बेचने तक में गुरेज़ नहीं करते।"

वज़ीर की बात का बादशाह वाज़िद अली शाह को यक़ीन ही न हुआ। उसे लगा, वज़ीर दून की हाँक रहा है। उसे बेवकूफ़ बनाने की कोशिश कर रहा है।

अगले ही पल बादशाह ने सोचा, जो भी हो लेकिन वज़ीर की इतनी ज़ुर्रत नहीं हैं कि वह उसे बेवकूफ़ बनाने की कोशिश करे। वह जानता है, ऐसी कोशिश करने वालों के उनके ज़माने में सिर कलम करवा कर रख दिए जाते थे। तो क्या उसका कहना सच है कि उसके मादरे वतन में अब हर घर में हरम हो गया है? लोगों ने घरों से निकलना छोड़ दिया है। पेट भर खाना जुटाने के लिए मजबूरीवश लोग घरों से निकलते हैं और नौकरी पूरी होते ही सरपट घरों की ओर दौड़ लेते हैं। घर चालीस चोरों की 'खुल जा सिम–सिम' वाली गार हो गए हैं। अली बिन क़ासिम की तरह लोग अपना होशोहवास गवाँ बैठे हैं। बातें करना, हँसना–रोना, लड़ना–झगड़ना...  सब कुछ भूल गए हैं। बस एक ही धुन, एक ही राग... मेरा प्यार, मेरा जीवन, मेरी हरम।

बादशाह से रहा न गया। उसने वज़ीर की बात का प्रतिवाद किया... 'ये कैसे हो सकता है? क्या मेरा मादरे वतन हिन्द फिर सोने की चिड़िया हो गया है? या कि मुल्क के सहरा में तेल के कुएँ निकल आए हैं? याकि आसमान से होने वाली बारिश की बूँदें अब पानी की जगह सोने की होने लगी है?' 'हुज़ूरेवाला, जैसा आप सोच रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं हुआ। बल्कि मुल्क की माली हालत पहले से भी

बदतर हो गई है। विदेशों से क़र्ज़ लेकर जैसे–तैसे मुल्क की गाड़ी को धकेला जा रहा है। गरीबी, बेकारी और भूखमरी का यह आलम है कि रात को सोते वक्त किसी को यह पता नहीं होता कि अगली सुबह उसे रोटी नसीब होगी भी या नहीं?'

वज़ीर की बात ने बादशाह सलामत की हैरानी में और इज़ाफ़ा कर दिया। उनका सिर घूमने लगा। कनपटियों में दर्द रक़्क़ासा की तरह थिरकने लगा। बादशाह ने फ़ौरन ताली बजा कर एक हूर को तलब किया और उसे बादाम रोगन से पेशानी और कनपटियों की मालिश करने को कहा।

हूर की रेशम सी मुलायम और ककड़ी सी नाज़ुक उँगलियों और बादाम रोगन से कुछ ही देर में बादशाह को दर्द से राहत मिल गई लेकिन हैरानी अपनी जगह वैसे ही कायम रही। वे वज़ीर की ओर फिर मुखातिब हुए, 'कैसी अहमकपने की बातें कर रहे हो तुम? एक ओर तो तुम मेरे मादरे वतन हिन्द में हर घर में हरम होने की बात करते हो, दूसरी ओर भूख, ग़रीबी, बेकारी और क़र्ज़े की बात करते हो। दोनों बातें एकसाथ कैसे मुमकिन हो सकती है? खुदाया, हमारी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा।'

'आप की समझ में कुछ आयेगा भी नहीं हुज़ूर। आसमान पर रह कर ज़मीनी हक़ीक़त को समझना मुमकिन ही नहीं है। ज़मीनी हक़ीक़त ज़मीन पर रह कर ही समझी जा सकती है। यों भी आपको ज़मीन में दफ़न होने के बाद जन्नतनशीं हुए सौ साल से भी ऊपर हो चुके हैं। ज़मीन पर शहरे–लखनऊ में आपका महल एक छोटी सी जन्नत था। अल्लाह की जन्नत की कोई हद ही नहीं है। और ये बात जगजाहिर है कि बेपनाह ऐशोआराम इन्सान को काहिल बना देता है। उसकी अक्ल को जंग लग जाता है। उसकी सोचने–समझने की ताक़त जाती रहती है। फिर आपकी ऐश के तो कहने ही क्या है? शहरे–लखनऊ तो आज भी आपकी ऐश का ज़िक्र छिड़ने पर ठण्डी आहें भरने लगता है... वाह! क्या बादशाह थे हमारे वाज़िद अली शाह भी। जब महल की सीढ़ियाँ चढ़ कर अपने हरम में आते थे तो हर सीढ़ी पर दोनों तरफ़ अलिफ़ नंगी कनीज़ें खड़ी रहती थीं। बादशाह सलामत उनके जोबन पकड़–पकड़ कर सीढ़ियाँ चढ़ कर अपने हरम में दाखिल होते थे।'

बादशाह का सुर्ख चर्बीला चेहरा गुस्से से तमतमा उठा – 'झूठ... सफ़ेद झूठ। किसी ग़ैर मुल्क के दुश्मन की उड़ाई झूठी अफ़वाह है ये। अगरचे ये हक़ीक़त होता तो अल्लाताला हमें जन्नत की जगह दोज़ख में न डाल देता।

वज़ीर बादशाह के ग़ुस्से से बेसुध रहा। उसने बेबाकी से कहा,' हुजूर, खुदा को खुदाई शहनशाहों, बादशाहों और अमीर उमरावों की बदौलत क़ायम है, ग़रीब गुरबाओं से नहीं। अमीर आदमी जब तक ज़िन्दा रहता है, ज़मीं पर रह कर जन्नत का लुत्फ़ उठाता है। और मरने के बाद आसमान की जन्नत तो है ही उसके लिए।'
बादशाह की आँखें शोलफ़िशा हो उठीं, 'तुम्हारी बातों से बग़ावत की बू आ रही है।'
'हुजूर, सच्चाई का ही दूसरा नाम बग़ावत है।'

वज़ीर की तंजमेज बातों से बादशाह का गुस्सा भड़क उठा। मन हुआ, इसी वक़्त फ़रिश्ते को तलब कर इस नामुराद वज़ीर को जन्नतबदर करवा दें, पर बादशाह ये जानते थे कि वज़ीर के जाने के बाद वे अकेले पड़ जाएँगे। फिर वे अपने मन की बातें किससे किया करेंगे? हूरों और फ़रिश्तों की बातें इतनी मीठी होती हैं कि लगातार सुनते रहने पर भीतर मक्खियाँ भिनभिनाने लगती हैं। वज़ीर की बातें तीखी और करारी होती है, मसालेदार खाने से भी ज्यादा ज़ायकेदार। मज़ा आ जाता है। ज़हन का हाज़मा दुरूस्त हो जाता है। बादशाह ने मौक़े की नज़ाकत देखते हुए अपना गुस्सा गुटक लिया,'खैर छोड़ो, ये बेमतलब की बहस। पहले यह बताओ कि हमारे मादरे वतन हिन्द का हर घर हरम में कैसे तब्दील हो गया है?'

'हुज़ूरेवाला, कुछ बातें न बताई जा सकती हैं, न समझायी जा सकती हैं। खुद अपनी आँखों से रूबरू देखने पर ही ये समझ में आती हैं।...  अगर आप जन्नत के हसीं ऐशो आराम से भरे माहौल को कुछ दिन के लिए छोड़ सकने की हिम्मत कर सकें और मेरे साथ दुनिया-ए-फ़ानी में चलने की ज़ुर्रत कर सकें तो हकीकत खुद–ब–खुद आपके सामने आ जायेगी।
•••

लखनऊ। बादशाह वाज़िद अली शाह की दारूस्सल्तनत। शाम है लेकिन जिस शामे अवध का शेरो–शायरी और अदब में हमेशा से जिक्र होता आया है उसका कहीं कोई अता–पता नहीं है। सूरज गन्दे नाले से भी ज़्यादा स्याह हो चुके गोमती के पानी में नाक बंद कर डूब रहा है। उसकी ज़र्द रश्मियाँ सड़े हुए अण्डे की ज़र्दी की तरह गोमती की जल सतह पर छितरायी हुई हैं। यों लग रहा है अँधेरा आसमान से नहीं गोमती के स्याह जल से निकल कर शहर पर छा जायेगा।

सड़कों पर लोग बेतहाशा भाग रहे हैं। जैसे शहर में कहीं आदम बू–आदम बू करता जिन्न निकल आया हो। अजीब सी भगदड़ और बदहवासी है। तेजी इतनी कि जैसे कमान से छूटा तीर। जो गिर गया उसे लोग रौंद कर भागे जा रहे हैं। गिरनेवाले की कोई चीख पुकार नहीं सुन रहा। किसी के पास वक़्त है न फ़ुर्सत। गिरे हुए को ठोकरें खुद–ब–खुद बुहार कर किनारे कर देती हैं।

अपने खस्ताहाल छतरमल में कुछ देर वादों के दरिया में बहने के बाद बादशाह वाज़िद अली शाह गहरी उदासी और खामोशी में डूबे हुए महल से निकल कर अपनी बेग़म हज़रत महल के मक़बरे में आ गए। वजीर चुपचाप उनके साथ चलता रहा। मक़बरे में उन्होंने अपनी बेग़म की याद में फ़ातिहा पड़ा। भारी मन से जब वे बाहर आये तो सड़क पर भागते ट्रैफिक को देख कर उनके प्राण सूख गए। वर का हाथ पकड़ कर किसी तरह उन्होंने सड़क पार की और गोमती के पुल पर आ खड़े हुए। जब उन्होंने गोमती में डूबते हुए सूरज को देखा तो उनकी रूह फ़ना हो गई। उफ़! सदी डेढ़ सदी में ही उनका जन्नत से होड़ लेने वाला शहरे लखनऊ नर्क से बदतर कैसे हो गया? कहाँ गए वो नज़ाकत–नफ़ासत पसंद तहज़ीबदार लोग, जो दूसरे की सुविधा का ख्याल रखते हुए 'पहले आप – पहले आप' कहते नहीं थकते थे, वो रवायतें, वो अख्लाक, वो इल्म, वो अदब, वो पालकियाँ, वो बग्घियाँ, वो बाग़-बग़ीचे, वो आबशार, वो फूल, वो खुशबुएँ, वो रोशनियाँ, वो आतिशबाजियाँ, वो साफ़ शफ़फ़ाक़ गोमती का बिल्लौरी पानी, उस पर तैरते बजरे, वो महफिलें, वो रक्कासाएँ, वो... इस वो का एक लम्बा सिलसिला उनके ज़ेहन में चलता रहा।

उन्हें समझ नहीं आ रहा... ये भागते हुए भयभीत लोग किस मुल्क के बाशिन्दे हैं? शक्ल औ' सूरत से तो ये हिन्द के निवासी नज़र आते हैं पर लिबास और पहनावे इनके अंग्रेजों जैसे हैं। अंग्रेजों का ख्याल आते ही इनके ज़ेहन का ज़ायका बिगड़ गया... हरामज़ादे, झूठे, मक्कार, फ़रेबी। सुअर के तुख्म... जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। वे कैसे भूल सकते है कलकत्ते के मटियाबुर्ज के किले की क़ैद के वो हौलनाक दिन! वो तिल-तिल कर मौत को अपने जिस्म में उतरते हुए महसूस करना। वो अन्धेरा, वो तनहाई, वो दर्द, वो छटपटाहट। उनका बस चलता तो वे बेतहाशा भागे जा रहे लोगों के कपड़े उतार कर तार–तार कर डालते।

आखिर उनसे रहा न गया। अपने वज़ीर से पूछ ही बैठे – 'आखिर ये लोग इस तेजी से भागे कहाँ जा रहे हैं?'
'हुजूर, ये सारे लोग अन्धेरा उतरने से पहले हर हाल में अपने–अपने हरम में पहुँच जाना चाहते हैं।'
'ये फटेहाल बदहवास मुफ़लिस लोग और हरम? अच्छा मज़ाक कर लेते हो तुम।'
'मज़ाक नहीं हुज़ूर, ये हक़ीक़त बयानी कर रहा हूँ मैं। इस वक़्त इस मुल्क पर अंग्रेजों की नहीं, इसी मुल्क में रहने वाले दौलतमंदों और सौदागरों की हुकूमत है। इन सरमायेदारों और सौदागरों का एक ही मज़हब हैं –दौलत। दौलत के लिए ये अपना दीन–ईमान ही नहीं अपनी बीवी, बेटी, बहन यहाँ तक कि अपनी माँ को बेचने तक में गुरेज़ नहीं करते।'

'दरअसल इस मुल्क को अँग्रेजों से आज़ादी एक लँगोटी धारी बूढ़े फ़क़ीर ने दिलाई थी। लेकिन हुज़ूर इन नामुरादों ने उसके सीने में गोलियाँ दाग़ कर उसे मार डाला और अपनी चाण्क्य–चालाकी से कुछ ही सालों मे इस मुल्क की हुकूमत पर कब्ज़ा कर लिया। ये जानते हैं कि आज़ादी का स्वाद चख चुके लोग इनकी चालाकी गाहे–बगाहे ताड़ ही जाएँगे। इसलिए ये जितनी जल्दी हो सके इस मुल्के–हिन्दुस्तान को बेच कर अपनी ऐशगाहों में भर लेना चाहते हैं। अपनी चालाकी से इस मुल्क के लोगों को ग़ाफ़िल रखने के लिए इन्होंने हर घर को हरम में बदल डाला है। कि लोग सिर्फ़ रोज़ी–रोटी के लिए घर से बाहर निकलें और आधी–पौनी रोटी हासिल होते ही फ़ौरन ही घर की ओर लपक लें।'

वाज़िद अली शाह को अपने वज़ीर की बातें अब भी तिलस्मी अफ़साने जैसी लग रही हैं। अपनी सारी दिमाग़ी मशक़्क़त बावजूद उसकी मुठ्ठियों में सिर्फ़ हवा ही आ रही है, जो मुठ्ठियाँ खुलते ही काफ़ूर हो जाती है। पहले उन्हें लगा कि लगातार जन्नत में रहने के कारण वज़ीर की सोचने समझने की ताक़त कुन्द पड़ गई है पर बाद में उन्हें अपनी इस सोच पर शर्मिन्दगी महसूस हुई। जन्नत में वज़ीर से ज्यादा ऐश और आनन्द तो वे लूट रहे हैं। हर सुबह हूरें साज़ बजा कर उन्हें जगाती हैं, सुगन्धित तेलों से पूरे शरीर की मालिश करती हैं, इत्र और दूध से नहलाती हैं। फिर नाश्ते के लिए दस्तरखान पर जन्नत के सबसे उमदा भोज्य पदार्थ और पेय सजाती है। नाश्ते के वक़्त, नाश्ते के बाद रक़्स। रक़्स देखते–देखते, राग रागनियाँ सुनते–सुनते, हूरों के हाथ से जाम पीते–पीते सो जाना। दोपहर उठ कर फिर वही कार्यक्रम। रक़्स, जाम, संगीत, शराब, खाना इन्हीं के प्रवाह में बहते हुए फिर सो जाना। रात को फिर इसी कार्यक्रम की पुनरावृत्ति और अन्त में मनचाही हूर को लेकर ख्वाबगाह में सो जाना।

शराब, शबाब, कबाब। लुत्फ़ ही लुत्फ़। मौज ही मौज। मस्ती ही मस्ती। हर वक़्त। हर लम्हा। हर पल। अब उन्हें न दीन की चिन्ता हैं, न दुनिया की। न हुकूमत की, न खलकत की। अब न हमला, न जंग। न हार, न जीत। न सियासी साजिशें। न महलों में होने वाली दुरभिसन्धियाँ। बेफ़िक्री, बेपरवाही और बेपनाह जिस्मानी सुख। ऐसे में सोचने की ताक़त उनकी कुंद हुई होगी वज़ीर की नहीं। वज़ीर को तो किताबें पढ़ने का शौक़ है। उसी में उसे अपार आनन्द मिलता है। न जाने फ़रिश्तों से कौन–कौन सी किताबें मँगवा कर पढ़ता रहता है वज़ीर। किताबों से सोचने की ताक़त कुंद नहीं होती बल्कि और बढ़ती है। 'इन्द्रसभा' नाटक लिखने से पहले उन्हें भी शौक़ हुआ था किताबें पढ़ने का। और पहली बार उन्होंने सागर को गागर में नहीं एक छोटी सी किताब में भरा पाया था। इसलिए वज़ीर जो कह रहा है वह ग़लत हो ही नहीं सकता। लेकिन अगर यह ग़लत नहीं हैं तो सही कैसे है? क्यों ये बात उन्हें समझ नहीं आ रहीं?

उन्होंने अपने दिमाग़ी घोड़े को अस्तबल से बाहर निकाला, उस पर जीन कसी और उस पर सवार हो कर एड़ लगाने की कोशिश की। घोड़ा काँख, कराह कर ज़मीन पर बैठ गया। उसे सख्त बेचैनी और उलझन महसूस होने लगी। जब ये उलझन और बेचैनी उससे बरदाश्त न हुई तो उन्होंने बड़ी आज़िज़ी से कहा – 'इस गोला बारूद से तेज़ भागती हुई भीड़ को देखते–देखते हमारा सिर चकराने लगा है। अगर हम इसे कुछ देर यों देखते रहे तो बेहोश हो कर गिर पड़ेंगे। इसलिए ऐसा करो कि हमें तुम किसी बस्ती में ले चलो और दिखाओ कि कैसे हर घर एक हरम में बदल चुका है।'

वज़ीर वाज़िद अली शाह को साथ लेकर पुल से नीचे उतर आया। वे गोमती नदी के किनारे–किनारे कई पुल पार करके काफी दूर निकल गए। रोशनियाँ पीछे छूट गयीं। रह गए रोशनी के कुछ फटे चिथड़े, जो गोमती के ऊबड़–खाबड़ किनारे में उनकी रहनुमाई कर रहे हैं। नदी के पानी से उठने वाली भीगी हवा में संड़ास की गंध घुली हुई है। बादशाह का सिर भन्नाने लगा... वक़्त कभी नहीं रूकता। वक़्त इन्सानों के ही नहीं, शहरों के चेहरे भी बदल देता है। बड़े–बड़े शहर खण्डहरों में बदल जाते हैं और बड़े–बड़े बियाबान रौनक़ भरे शहरों में बदल जाते हैं। पर वक़्त इतना बेरहम कभी नहीं हो सकता कि उनके जान से प्यारे, गुलिस्तान और परिस्तान को मात देने वाले शहर लखनऊ को संडास में बदल दे। पर इस वक़्त उन्हें यही लग रहा है। हो सकता है ऐसा न हो। पूरे शहर को अभी उन्होंने घूम कर कहाँ देखा है। देखने की बलवती चाह तो है ही। लेकिन पहले वे जिस काम से आए हैं उसे तो पूरा कर लें। वज़ीर के जादुई यथार्थ से रूबरू तो हो लें।

रोशनी के चिथड़ों के सहारे गोमती के किनारे–किनारे काफी दूर चलने पर उन्हें कुछ डिब्बेनुमा काले–काले धब्बे दिखाई दिए, जो क़रीब पहुँचने पर इन्सानी बस्ती में बदल गए। ये गोमती के सूखे हुए पाट पर बनी कच्चे पक्के मकानों की एक उबड़–खाबड़ बस्ती है। लगता है, शहर की ठोकरें खा–खा कर तिरस्कृत हुए इन्सानों की बस्ती है ये। शहर के कचरे ने यहाँ मकानों की शक्ल अख्तियार कर ली है, उतरन ने वस्त्रों की और जूठन ने खाने की। हैरानी की बात यह है कि जीवन की मूलभूत सुविधाएँ देने में असमर्थ सरकार ने इन्हें रोशनी की भरपूर सुविधा दे रखी है। बस्ती के अन्दर की ओर जो रास्ता जाता है, उस रास्ते के थोड़ी–थोड़ी दूर के फ़ासले पर लैम्पपोस्टों पर बिजली के लट्टू जल रहे हैं।

वज़ीर बादशाह सलामत को लेकर इस रास्ते से बस्ती के अन्दर दाखिल हो गया। गली में दाखिल होते ही रोशनी के बावजूद बादशाह का एक पाँव भन्न से गन्दे पानी और गू से भरी हुई नाली में जा धँसा। ढेर से मच्छर भनभना कर बादशाह की टाँगों से लिपट गए। नाली से निकल कर एक सुअर उन्हें धक्का देकर एक ओर भाग गया। बादशाह सलामत बिलबिला उठे – 'ये किस दोज़ख में ले आए हो तुम मुझे?'

वज़ीर ने फौरन आगे बढ़ कर अपने बादशाह सलामत को गिरने से बचा लिया। फिर वह दौड़ कर गोमती से एक टूटे डिब्बे में पानी लाया और उससे उनकी टाँगों को धोया। इस दौरान बादशाह सलामत एक ही रट लगाए रहे – 'भाड़ में जाए हरम। चलो वापिस जन्नत।'

वज़ीर ने किसी तरह समझा बुझा कर उनमें आगे बढ़ने का साहस भरा – 'हुज़ूर, बीमार होने पर इन्सान की माँ कितनी भी बदशक्ल हो जाए इंसान उससे मोहब्बत करना नहीं छोड़ देता। हुज़ूर, ये शहरे लखनऊ, आपकी दारूस्सल्तनत, ये सिर्फ़ एक शहर नहीं हैं, आपका दिल, आपकी रूह भी है।

'हमारा लखनऊ! हमारा लखनऊ ये हो ही नहीं सकता। हमारा लखनऊ तो हमारे साथ ही मर गया था। वह यहाँ... ' बादशाह ने अपनी छाती की तरफ इशारा करते हुए कहा – 'हमारे सीने में दफ़न है। ये तो उसकी कब्र... ' अचकचा कर रूक गए वे – 'उसकी कब्र भी नहीं हो सकता। उसकी कब्र तो हमारे सीने में है।' बादशाह भावुक हो उठे।

फ़िज़ा बोझिल हो गई है। बादशाह अपने सीने में होने लगे दर्द को दबाए आगे बढ़े।

अभी वे कुछ ही क़दम आगे बढ़े होंगे कि अचानक कूड़े के ढेर पर कूड़ा खंगाल रहे कुछ मरियल से कुत्ते उन्हें देख कर भौंकने लगे। उन्होंने डर कर पीछे क़दम खींच लिए। वे हैरान रह गए। कुत्तों के भौंकने के बावजूद गली में कोई हलचल नहीं हुई। कोई घर से बाहर नहीं निकला – 'इस दोज़ख में रहने वाले कहाँ चले गए हैं वज़ीर साहब?'

वज़ीर बादशाह का हाथ थाम कर उन्हें भौकते हुए कुत्तों से बचा कर आगे ले आया। इसके बाद उसने गली के एक मकान के दरवाजे के आगे गिरा प्लास्टिक शीट का परदा एक ओर हटा दिया। क्योंकि वे ग़ैबी इन्सान हैं इसलिए किसी ने कुछ न देखा। लेकिन बादशाह सलामत अन्दर कमरे का दृश्य देख कर हैरान रह गए।

दरवाज़े के ठीक सामने वाली दीवार के बीचोबीच एक ईंटों का चबूतरा बना है। चबूतरे पर एक पुराना मोमिया बिछा हुआ है। मोमिये पर जादुई आईना जड़ा एक हाथ भर लम्बा बक्सा रखा है। बक्से के पर्देनुमा जादुई आईने पर... जन्नत की हूरों से भी ज्यादा हसीन शोख हसीनाएँ, चार अंगुल चौड़ी अँगिया, जिनसे उनके जोबन ज्वालामुखी की तरह फटे पड़ रहे हैं, और बालिश्त भर चौड़ी चढ्ढी, जिससे उनकी केले के तने सी नंगी जाँघें और जाँघों के बीच के तिकोन, रेत पर पड़ी मछली की तरह थरथरा रहे हैं,रक़्स कर रही हैं।

इनमें से जो सबसे ज़्यादा हसीन प्रमुख रक़्क़ासा है, वह नाचते हुए स्टेज पर गड़ा लम्बा मोटा डण्डा अपनी जाँघों के बीच पूरी तरह उतार लेने का प्रयास करते हुए बार–बार एक ही लफ़्ज़ दोहरा रही है – 'खल्लास... खल्लास... खल्लास... '

इस जादुई आईने के सामने इस घर के सारे सदस्य दम साधे बैठे हुए हैं। कोई किसी से कुछ नहीं बोल रहा। सबके चेहरे तमतमाए हुए हैं और जिस्म यों लगता है जैसे छूने भर से पिघल कर बह जाएँगे। बादशाह सलामत ये देखकर हैरान रह गए, घर के किसी भी सदस्य के तन पर पूरे कपड़े नहीं हैं और बदन हठरियों जैसे हैं।

बादशाह सलामत काफी देर तक सकते के आलम में रहे। वज़ीर ने उन्हें झिंझोड़ कर हिलाया। वे कुछ पल तक फटी–फटी आँखों से वज़ीर की ओर ताकते रहे, फिर हौले से पूछ बैठे – 'ये क्या है?'
'इसे टेलीविज़न कहते हैं हुज़ूर।'

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रचनाकार परिचय

अमरीक सिंह 'दीप'

ईमेल : amriksinghdeep1@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 5 अगस्त 1942 
जन्मस्थान- कानपुर (उत्तर प्रदेश)
प्रकाशन-
प्रकाशित कृतियाँ- * एक और पांचाली, तीर्थाटन के बाद (दो उपन्यास )
*कहाँ जायेगा सिद्धार्थ , कालाहाण्डी, चाँदनी हूँ मैं, सिर फोड़ती चिड़िया, काली बिल्ली,एक कोई और,वनपाखी,अमरीक सिंह दीपः चुनी हुई कहानियां, यह मिथक नहीं, कब आयेगा अमृतसर, मेरी 11 प्रिय कहानियाँ। ( ग्यारह कहानी संग्रह प्रकाशित )
* आजादी की फसल व सपने में औरत ( दो लघुकथा संग्रह )
* कड़े पानी का शहर व झाड़े रहो क्लक्टरगंज (दो लेख संग्रह की पुस्तकें  )
अनुवाद- रेत में डूबी नदियाँ (उपन्यास ), बिहारी एक्सप्रेस (उपन्यास) कनक का क़त्लेआम( उपन्यास ) ज़मीनों वाले(उपन्यास)               
ऋतु नागर, शाने पंजाब, बर्फ का दानव, नो मैन्स लैण्ड, विदिशा की बासंती, पंजाबी की चुनी हुई कहानियाँ व 6-45 pm (11पुस्तकें पंजाबी से हिन्दी में अनूदित)
सम्पादित पुस्तकें- राजेन्द्र रावः चुनी हुई कहानियाँ, कृष्ण बिहारीः चुनी हुई कहानियाँ, विश्वम्भर नाथ शर्मा 'कौशिक':चुनी हुई कहानियाँ
माँ(उपन्यास) विश्वम्भर नाथ शर्मा 'कौशिक',  भिखारणी (उपन्यास ) विश्वम्भर नाथ शर्मा 'कौशिक'
अन्य भाषाओं में अनुवाद- 11 कहानियाँ पंजाबी एवं 6 कहानियाँ उर्दू में अनूदित ।
* दो दर्जन के लगभग कहानियाँ विविध संग्रहों में संग्रहीत ।
* सारिका, हंस, नया ज्ञानोदय, पहल, वसुधा, बहुवचन , कहानियाँ, कथाक्रम, वागर्थ, निहारिका, लमही, पुनर्नवा, समकालीन भारतीय साहित्य, साक्षात्कार, उत्तर प्रदेश मासिक, समकालीन सरोकार, कादम्बिनी, कला, मुहिम, कतार, सम्बोधन, कथाबिम्ब, वर्तमान साहित्य, आउटलुक, जनसत्ता, अमर उजाला, दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका  इत्यादि पत्र पत्रिकाओं में 200 से अधिक कहानियाँ प्रकाशित।
प्रसारण- आकाशवाणी लखनऊ से 6 कहानियों का प्रसारण
विशेष- * 'तीर्थाटन के बाद ' उपन्यास पर ' ढाई घर ' फीचर फिल्म निर्मित एवं सन् 2023 के गोवा फिल्म फेस्टिवल की पुरुस्कार प्रतियोगिता के लिए चयनित।
* बेस्ट वर्कर कहानी पर राँची दूरदर्शन व्दारा टेली फिल्म निर्मित व बेस्ट वर्कर कहानी का अबूधाबी एम्बेसी में नाट्य मंचन।
* कहानी 'दन्तकथा' उ० प्र० माध्यमिक शिक्षा परिषद , इलाहाबाद की हाईस्कूल में पढ़ाई जा रही पंजाबी सलेबस की पुस्तक  'गद्य - पद्य' में।
* विगत 23 वर्ष से हो रहे कथाकार सम्मेलन 'संगमन' के संस्थापक सदस्य।
* साहित्य की 'अकार'  व 'आशय' पत्रिका में सम्पादन सहयोग।
पुरस्कार/ सम्मान- सर्वभाषा कथा प्रतियोगिता में 'बेस्ट वर्कर' कहानी प्रथम पुरस्कार से पुरस्कृत।
बिगुल कथा प्रतियोगिता में  'सैण्डी और सेमल का वृक्ष' कहानी द्वितीय पुरस्कार से पुरस्कृत।
विश्वम्भर नाथ शर्मा 'कौशिक' कथा पुरस्कार ।
के० टी० फ़ाउण्डेशन साहित्य शिरोमणि सम्मान ।
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