Ira
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। दिसंबर 2024 के अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

अनामिका प्रिय की कहानी- नायक

अनामिका प्रिय की कहानी- नायक

अगर ईश्वर पर भरोसा है तो ठीक है। वैसे किसी व्यक्ति पर एक बार तो भरोसा किया ही जा सकता है और क्या मैं इस काबिल नहीं हूँ।  मुझे तुम्हारे जवाब का इंतजार रहेगा। बहुत परेशान सी हो गयी थी वह। कहा था-  हद है, तुम कुछ नहीं समझते। प्लीज यह सब अब दुबारा मत कहना।

 

पिछले दो साल तक एक ही संस्थान में पढाई की है हम दोनों ने। उन दिनों जब मैं उसे बहुत कम जानता था, दूर दूर से देखा करता। मुझे वह किसी शहजादी से कम नहीं लगती थी। सपने में मैं हमेशा अव्वल रहता लेकिन सामना होते ही मेरी हालत पतली हो जाती। मेरे साथ का पीयूष जब उससे बेतकल्लुफी से बातचीत कर रहा होता तो मुझे खीझ होती कि मैं रूपसी से इतना कतराता क्यों हूँ। उससे बात करते  हुए मेरी नज़रें नीचे गड़ी होती थीं या फिर कहीं दूर टिकी हुई। मैं इतना घबरा जाता कि उसके सवालों का जवाब हाँ या ना में देकर निकल जाया करता। मेरी स्थिति उस परीक्षार्थी की तरह होती जो परीक्षा के मौके पर मनाता है कि इस बार किसी तरह पास हो जाये तो अगली बार अच्छी तैयारी रखेगा। मैं हर बार निश्चय करता कि उससे अच्छी तरह मिलूँगा। लेकिन यह हो नहीं पाता था। बाद में पीयूष से  खोद-खोद कर मैं रूपसी के बारे में पूछता तो वह मेरा मज़ाक उड़ाये बिना न रह पाता था।

आज रूपसी को इतने समय बाद देखकर मैं एकदम ठगा-सा रह गया था। गले में कुछ अटकता-सा लगा। अगर अभी वह मुझसे मिले तो मैं किस तरह मिलूँगा, क्या कहूँगा, मेरे भीतर कैसी प्रतिक्रिया होगी ! इन सबका आँकलन तत्काल मैं नहीं कर पाया। थोड़ी देर में मैंने उसे दुबारा देखा, चेहरे पर वही पहले-सा सौम्य लुभावनापन था। नीले रंग की डीप गले की समीज और दुपट्टे के बीच का हिस्सा पसीने से चमकता लगा। अचानक इस खयाल से कि वह  मुड़ कर देख सकती है, मैं सचेत होकर अपने काम में जुट गया।

रूपसी सक्सेना- इस नाम ने मुझे बहुत बदला। उसी का कमाल है कि मुझमें पहले वाला कच्चापन अब जरा भी नहीं। यह अलग बात है कि मेरे स्वभाव के उसी कच्चेपन और शर्मीलेपन ने उसे मेरी ओर खींचा भी था। उस दिन पीयूष ने चुहल में कह भी दिया था- रूपसी, यह तुम्हें पसंद करता है। अब तुम ही मामला संभालो। यह मेरा सिर अब न खाये, इसलिए मैंने तुम्हें बता दिया। एक सामूहिक ठहाका मेरी कोमल भावना पर चोट कर रहा  थी। मैं एकदम से पीयूष की बात को काट नहीं पाया। आसपास कई लोग इस हँसी में सम्मिलित दिखे। रूपसी खनकती हँसी के साथ मेरे पास आयी थी और मेरी बाँह छूकर कहा था, कल आओगे न! सबकी हँसी  मुझे अपना मजाक उड़ाती-सी लगी थी। मैं वहाँ से हट जाना चाहता था, इसलिए जब पीयूष ने मुझे रोकना चाहा तो मैं पूरी तरह बौखला गया और उसे एक जोरदार थप्पड़ दे मारा था। पूरा माहौल अचानक बदल गया था। सब एकाएक सन्नाटे में आ गये थे। मैं अपने व्यवहार के लिए लज्जित हो, तुरंत वहाँ से हट गया था।

दूसरे दिन भी पीयूष को देखकर मैं झेंपता रहा था। ताज्जुब की बात थी कि वह एकदम सहज था। मुझे लगा कि पीयूष को जितना मैं समझता हूँ, उससे कहीं ज्यादा भला है वह। मैं अपनी भूल के लिए कुछ कहना चाहता था लेकिन मुझे उसके लिए सही शब्द नहीं मिल रहे थे। अन्ततः बड़ी मुश्किल से मैंने सॉरी कहा था। 

पीयूष का स्वर हमेशा-सा सहज था, तुमने जो किया उससे मुझे कोई फर्क नही पड़ा। हाँ, पर  हँसी-हँसी  में तुम्हारी बात उस तक पहुँचा जरूर दी, यही चाहता था। सचमुच मैं बड़ा कच्चा हूँ अपने बर्ताव को बदल भी तो नहीं  सकता। कुछ दिनों तक सबसे कटता रहा था। थोड़ा सामान्य महसूस किया कई दिनों बाद। एक दिन दोपहर में जब मैं लायब्रेरी पहुँचा तो देखा कि रूपसी पहले से वहाँ बैठी है। मैं लिखते हुए उसकी एकाग्रता को देखता रहा। एकाएक जब उसने सिर उठाया तो मैं सकपका गया था लेकिन वह जिस हल्के ढंग से मुस्कुरायी थी और उठकर आने को हुई थी, मुझे अपनी अकड़, संकोच सबकुछ बेमानी लगे थे। थोड़ी देर में ही उसकी बातचीत की नमी से मैं इतना सहज हो गया था कि उसके साथ बाहर शेड में देर तक बैठा रह गया था । मुझे बार.बार आश्चर्य हो रहा था कि मैं इतना सहज कैसे रह पा रहा हूँ। यह पीयूष के बार-बार के गुरूमन्त्र का नतीजा है। देर से ही सही पर उसने मुझे अपनी तरह हँसना सिखा दिया है। 

रूपसी के साथ मुझे बैठा देखकर पीयूष भी अकचका गया था। उसने हँसते हुए धीमे से मेरे कान में कहा था, आज तो कुछ कर गुजरने के मूड में दिखलायी पड़ते हो। मैंने भी छूटते ही कहा था, यार पीयूष यह तो तुझे थप्पड़ मारने का प्रायश्चित है। हाँ क्यों नहीं, कर ले अपने मन की, प्रायश्चित के बहाने। पीयूष हमेशा की तरह ख़ुश था।

उन दिनों मेरा ज्यादा से ज्यादा समय रूपसी के साथ गुजरने लगा था। दूसरे किसी विषय पर बात करते हुए हम अंततः खुद पर उतर जाते। जब तब वह मुझे कुरेदती कि कैसी लड़की चाहिए तुम्हें। मेरे भीतर से बार-बार जवाब उठता कि यह मत पूछो कि कैसी चाहिए,  पूछो कि कौन चाहिए, तब मैं कहूँगा रूपसी। ऐसे मौके पर मेरी चुप्पी उसे बुरी लगी होगी, तभी एकबार उसने रूखे ढंग से कहा था, डरते हो कि फँस जाओगे।

मुझे खुद पर बेहद खीझ हुई थी। अक्सर कुछ न कुछ बेतुका करता हूँ कि किया हुआ जो करना चाहता हूँ , ठीक उससे उल्टा पड़ता है। मैंने जब कहा कि मैं तो यह सोच रहा हूँ कि क्या तुम मेरे साथ खुश रह पाओगी? वह मुस्कुरायी थी, तब जाकर अपनी चुप्पेपन पर मेरी शर्मिन्दगी कुछ कम हुई थी। पहले उसका साथ और फिर उसकी यादें, बस यही दो स्थितियाँ बनती थी उन दिनो मेरी आत्मलीन और आकाशी दुनिया में। बार-बार मुझे लगता कि मैं अब नियंत्रण में नहीं। संबंधों को किसी खास अंजाम तक पहुँचाना होगा। 

एक दिन इसी निश्चय के बाद मैं लाइब्रेरी गया था। मुझे देख वह जिस तरह मुस्कुरायी थी, उसने मुझे और आश्वस्त किया था। मेरी घबराहट बहुत हद तक कम हो गयी थी। बस उसे पाने की एक अदम्य ख्वाहिश थी। अन्ततः मैंने लिखकर उसकी ओर एक परचा बढ़ाया था-‘पता नहीं इन दिनों क्या हो गया है मुझे। एक परेशानी अंदर ही अंदर खाये जा रही है। कुछ कहते हुए डरता हूं। लेकिन चुप भी नहीं रह सकता। मेरे मन मस्तिष्क में जो सवाल उभर रहे हैं उसका जवाब कौन देगा? शायद तुम...।‘

जब वह पढ़ रही थी मैं उत्सुकता और संकोच के मारे बेकाबू हो रहा था। मैंने थोड़ा इत्मीनान महसूस किया जब लगा कि वह नाराज नहीं है। वह बाहर देखती हुई कुछ सोचती रही थी और फिर उसने लिखना शुरू किया था।

मैं नहीं जानती कि तुम अपनी समस्या का कैसा समाधान चाहते हो। संभव है कि मेरी सलाह तुम्हारे काम न आये। अगर किसी बच्चे को आग से खेलने से मना किया जाये तो क्या वह मानेगा? तुम जो रास्ता चुन रहे हो वह बहुत खतरनाक है। 

मैं उसके जवाब से जरा भी संतुष्ट नहीं हुआ था। फिर लिखकर उसे भेजा-हर अच्छी चीज सबको प्यारी लगती है। फिर मैं क्यों न मचलूँ। ऐसे इसमें बुराई क्या है? 

पढ़ते हुए उस में एक गर्वीली चमक उभर आयी थी। मैंने उसे छेड़ने के ख्याल से फिर कहा -क्यों विश्वमोहिनी जी, यह ठीक है न?

मेरी प्रशंसा से चमकती निगाहों उसकी एक शर्मीली तरलता से टकराई थी। लाइब्रेरी से निकलकर बात करें- कहा था उसने।

 बाहर निकलकर वह और भी गंभीर थी- तुम्हें पता है कि सुंदर लड़कियाँ वफादार नहीं होतीं और जो वफादार होती हैं वो सुंदर नहीं होतीं। 

इस अप्रत्याशित बात से मुझे हँसी आ गयी थी- और तुम सुंदर हो। जवाब में उसने भी हँस दिया। मैं फिर से परेशान सा था। उसकी आँखों में नजरे गड़ाए कहा था- मैं तो अपना इरादा स्पष्ट कर चुका, तुम्हारा क्या है?

मेरा शौक है दिल से खेलना। क्यों, खतरनाक है न? हँस पड़ी थी वह। 

जवाब न सूझा, मैं हँसता  हुआ उसे देखता रहा था।

उसने मुझे अपनी तरफ देखते देखकर कुछ खीझकर कहा था- पागल हो, बिलकुल पागल। संभल जाओ, अब भी समय है। 

अब वह लाइट मूड में नहीं थी। मैं भी मजाक की मनःस्थिति से बाहर निकल आया। कहा था- अब देर हो चुकी है। संभलना काफी मुश्किल है। ऐसी स्थिति में सबका यही हाल होता है। फिर मेरा हाल तो तुम्हारा बनाया हुआ है। संभलने का तुम्हीं कोई उपाय बताओ।

वह हँसी थी- अच्छा, ऐसा करो कि जब तुम मुझसे बात करते हो, अपने पापा को याद कर लिया करो। तुम जरूर सुधर जाओगे।

अब मैं भी संजीदा था- आइडिया तो अच्छा है। पर मुश्किल यह है कि जब तुम सामने होती हो वे बिलकुल याद नहीं आते। आजकल तो मैं सिर्फ रूपसी-रूपसी जपता हूँ। तुमने ही तो हमें यह रास्ता दिखाया है।

मजाक को मजाक ही रहने दिया जाये तो अच्छा। कभी इस रास्ते पर चलने की कोशिश न करना। ऊपर वाला सब सही करे।

अगर ईश्वर पर भरोसा है तो ठीक है। वैसे किसी व्यक्ति पर एक बार तो भरोसा किया ही जा सकता है और क्या मैं इस काबिल नहीं हूँ।  मुझे तुम्हारे जवाब का इंतजार रहेगा। बहुत परेशान सी हो गयी थी वह। कहा था-  हद है, तुम कुछ नहीं समझते। प्लीज यह सब अब दुबारा मत कहना।

यह सब सुनकर जैसे मुझपर गहरी निराशा हावी होने लगी थी। मैंने थके मन से कहा था- ‘पता नहीं क्यूँ जब वह दिन याद करता हूँ तो अपने आप पर शर्म आती है। जो बात मुझे कहनी थी तुमने कितनी सहजता से कह दी और मैं सुनकर चुप रह गया था। 

हो सकता है वह तुम्हारे लिए नाटक या मजाक भर हो, पर उसने मेरी जिंदगी में काफी फेरबदल कर डाला है।‘

‘ऐसी कौन सी बात कह दी थी मैंने?’- पूछा था उसने । 

यह मुझे बहुत तकलीफदेह और असहनीय मालूम हुआ था कि उसे याद दिलाने की जरूरत है। बुझे ढंग से सिर्फ इतना कह पाया था- तुम्हारी बात तुम्हारे मुँह से ही अच्छी लगती है। मैं उसे दुहरा नहीं सकता हूँ।

तुम्हारी उलझन की वजह मैं हूँ। मैं यहां आना छोड़ देती हूँ- कहा था उसने। मुझे लगा था कि मुझ पर पहाड़ टूट पड़ा हो। उसकी अजीब सी बातें मुझे भीतर तक हिलाकर रख दे रही थीं। मैंने यथासंभव खुद को नियंत्रित करने की कोशिश की और कहा- मुझसे पीछा छुड़ाना चाहती हो तो एक बार सीधे-सीधे कह दो। मैं ही यहाँ आना छोड़ देता हूँ। मगर कहीं भी रहूँ, ये मीठी यादें हमेशा कड़वा स्वाद देंगी। किसी हँसती हुई लड़की में मुझे...खैर छोड़ो। मेरा हाल देखकर परेशान होने की जरूरत नहीं।

मुझे वहाँ और रुकना मुश्किल लगा। इससे ज्यादा तनाव मैं नही झेल सकता था। तुरंत बाहर निकल आया था। बाहर की खुली हवा भी वैसी ही बोझिल मालूम पड़ी थी। मैंने आकर पीयूष को सारी बातें बताई थीं। उसने कहा था- देख भाई, अभी समय है,मत पड़ उसके बतरस के चक्कर में। 

मेरी कड़वाहट संभाल नहीं रही थी- हाँ भाई अब समझ गया हूँ  कि जैसी गुड़िया-सी दिखती है, वैसी है नहीं वह। भाई मुझसे बोर हो गई है। अब समझ रहा हूँ  सारा खेल।

मुझे अशांत देखकर पीयूष भी बड़ा परेशान था उस दिन। कहा था- बतरस का मज़ा कितना घाव दे सकती हैं, शायद यह रूपसी और हमारे ग्रुप में किसी को भी अंदाजा नहीं रहा। जहाँ  तक मैं जानता हूँ वह किसी के साथ गहरे रिलेशनशिप में हैं। यह सब सुनकर मेरा सिर चकरा रहा था। मुझे पता नहीं कि किस तरह घर वापस आया था।

उस मुलाकात के बाद आज इतने समय बाद देख रहा हूँ  उसे। मिलने पर तत्काल क्या प्रतिक्रिया होगी, नहीं जानता। मुझे उसके चेहरे पर वही पुरानी ताजगी और वही कोमलता दिखलाई पड़ रही है। मुझे यह अच्छा नहीं लगा कि वह मुझे देखे भी। मैंने एकदम से उठकर चले आने का मन बना लिया। लेकिन तभी कंधे पर किसी के हाथ रखने से चौंक गया। पीछे पीयूष खड़ा दिखा। हमेशा की तरह सहज उत्फुल्लता के साथ- यार शशांक, मैंने तुम्हें अभी देखा। रूपसी ने मुझे बताया। फिर उसने मुझे खींचते हुए कहा- चल वहीं चलकर बात करते हैं। रूपसी अकेली है वहाँ । मेरे मुँह  से निकला- सॉरी पीयूष तुम जाओ। मेरे पास समय नहीं है। 

लेकिन वह वहीं बैठ गया और पूछा- तुम उससे अब भी नाराज हो शशांक? मैं चुप रहा, जैसे कहने को कुछ नहीं हो। उसने थोड़ा रूककर फिर कहा- यह सच है कि उसने तुम्हे तकलीफ पहुँचायीं है। वैसे वह खुद भी यह नहीं समझ पायी थी कि तुम इतने सीरियस हो रहे हो। उसने अभी खुद बुलाया है तुम्हें। अगर तुम चलोगे तो वह कुछ हल्का महसूस करेगी। 

पीयूष की बात रखने के खयाल से मैं उठ गया। हालाँकि यह मुझे बहुत अच्छा नहीं लगा। चलते हुए पीयूष ने बड़ी संजीदगी से कहा- थैंक्स शशांक। तुम यह नहीं जानते कि साथ चलकर सिर्फ तुम रूपसी को ही नहीं, मुझे भी उपकृत कर रहे हो। वास्तव में उससे अधिक गुनहगार तो तुम्हारा यह दोस्त है।

मैंने चौंककर उसकी ओर देखा। यह क्या कह रहा है पीयूष ! उसका चेहरा हमेशा से ज्यादा गंभीर लगा। उसने फिर कहा- हाँ शशांक। उस मजाक या खेल में मैं भी उतना ही हिस्सेदार था, जितनी रूपसी। वैसे हम दोनों ने नहीं सोचा था कि बात इतनी बढ़ जायेगी। मैंने तुम्हें बताया था कि जिन्दगी की डोर वह पहले ही कहीं और बाँध चुकी है। रूपसी के पास पहुँचने के पहले तुमको यह बताना जरूरी होगा कि जिसको उसने चुना है, वह मैं ही हूँ। मैं खुद इतनी शर्मिन्दगी में था कि पहले तुम्हें बताया नहीं।

यह सब सुनकर बहुत अजीब लगा। अगर बात पीयूष ने नहीं बतायी होती तो मैं कभी विश्वास नहीं कर पाता। हम रूपसी के पास पहुँच चुके थे इसलिए मुझे कुछ और पूछना मुनासिब नहीं लगा था। रूपसी मुस्कुरायी तो मैंने आगे बढ़ कर कहा- तुम्हें एक अच्छा जीवनसाथी पाने के लिए बधाई रूपसी। 

******************

 

1 Total Review

जितेन्द्र कुमार राणा

10 July 2024

यह एक बहुत आकर्षक एवं हृदय को छू लेने वाली मार्मिक कहानी है। भाषा एवं शब्दों का चयन कथानक को विस्तार देने के लिए बहुत ही सुदृढ़ एवं सुगठित है। निश्चित ही साहित्य जगत में आपकी यह कहानी मील का पत्थर साबित होगी।

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

अनामिका प्रिया

ईमेल : 123anamika111priya@gmail.com

निवास : राँची (झारखण्ड)

संपर्क- अनामिका प्रिया|
केयर /ऑफ नीरज कुमार, गेट नंबर-1
सरला बिरला यूनिवर्सिटी केैंपस ,
महिलौंग, टाटीसिल्वे,
राँची- 835103, झारखण्ड 
मोबाइल- 9546166234