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अर्चना अनुप्रिया की कविताएँ

अर्चना अनुप्रिया की कविताएँ

रिश्ते-नाते के अपने नियम
स्वार्थ-परमार्थ की आँख मिचौली
अपने-पराए की विचित्र कहानी
कभी दुश्मनी, कभी हमजोली
हर व्यवहार अपने कर्मों से
स्वयं को सिद्ध करने को बेताब
पल-प्रतिपल लिखती रहती है
ज़िंदगी हर मानव की किताब

सुंदर स्त्री

गर्भ में मारोगे
तो समाज में उग जाऊँगी
पिंजरे में बंद करोगे
तो आकाश की तरह फैल जाऊँगी
अस्तित्व मेरा बाँधोगे तो
नदी की तरह उच्श्रृंखल हो बहूँगी
अपमान करोगे तो
निडर होकर आऊँगी
प्रेम करोगे तो
रूह के हर कोने में मुस्कुराऊँगी
मेरा स्वाभिमान ही है
मेरी सुंदरता का प्रसाधन
मेरे पंख
मेरी जीभ
मेरे नाग
सब हथियार हैं मेरे आत्मसम्मान के
राक्षसों के लिए खूँख्वार मैं
सृष्टि की सबसे सुंदर स्त्री हूँ

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ज़िंदगी: एक किताब

पन्ने-पन्ने पर लिखा है
अच्छे-बुरे कर्मों का हिसाब
पल-प्रतिपल लिखती रहती है
ज़िंदगी हर मानव की किताब

बालपन की मस्त क्रीड़ाएँ
जवानी की उमंग और प्रीति
अधेड़ उम्र की ज़िम्मेदारी
अनुभव है बुढ़ापे की रीति
हर उम्र का अपना जीवन
अपने कर्तव्य से देता जवाब
पल-प्रतिपल लिखती रहती है
ज़िंदगी हर मानव की किताब

रिश्ते-नाते के अपने नियम
स्वार्थ-परमार्थ की आँख मिचौली
अपने-पराए की विचित्र कहानी
कभी दुश्मनी, कभी हमजोली
हर व्यवहार अपने कर्मों से
स्वयं को सिद्ध करने को बेताब
पल-प्रतिपल लिखती रहती है
ज़िंदगी हर मानव की किताब

हर ज्ञान की अपनी सीमा
दर्शन कला हो या विज्ञान
लेकिन है सभी ज्ञान से बढ़कर
कर्म सिद्धांत 'गीता' का ज्ञान
ईश्वर भी जिससे बँधे हुए हैं
वह कर्म का मंत्र है लाजवाब
पल-प्रतिपल लिखती रहती है
जिंदगी हर मानव की किताब

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मजदूरिन

सिर पर ईंटों का बोझ उठाये
स्वेद बूँदों से लथपथ कुछ सकुचाये
पैबंद लगे पल्लू से मुखड़ा छिपाये
बाँस की सीढ़ियाँ चढ़ी जा रही थी
वो मजदूरिन अपनी किस्मत गढ़ी जा रही थी

वृक्षों पर साड़ी का झूला बनाकर
फूल से बच्चे को उसमें लिटा कर
बोझ उठाकर फिर झूला हिलाकर
लल्ला को पुचकारती चली जा रही थी
वो मजदूरिन माँ का फर्ज निभा रही थी

दो सूखी रोटी से कर भूख को शांत
गर्भ में जीवन, मुख श्रांत-क्लांत
अथक परिश्रम और मेहनत नितांत
अपना हाथ जगन्नाथ सिद्ध कर रही थी
वो मजदूरिन परेशानियाँ अवरुद्ध कर रही थी

फटा लिबास, कँधे पर ज़िम्मेदारी
अभावों में जीवन, ग़रीबी और लाचारी
थके शरीर पर भी मुस्कुराहट प्यारी
मुश्किलों में भी स्वाभिमान उठा रही थी
वो मजदूरिन प्रेरणा बन जग को लुभा रही थी

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कर्म

नैतिकता जब आहत हुई,
फरेब मुस्कुराने लगे
सच्चाई जब मृत हो गई,
झूठ नाचने-गाने लगे
दौलत की भूख के आगे,
सारे कर्तव्य बेकार हुए
'बेचारगी' का चोला ओढ़ा,
फिर आँसुओं ने व्यापार किए
गढ़ी कहानी झूठ ने अपनी,
दुनिया को गुमराह किया
ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ा,
और षड्यन्त्र का गुनाह किया
रिश्तों की बोली लगायी,
वसीयत को अपने नाम किया
रिश्ते-नाते चूल्हे में डालकर,
स्वार्थ ने अपना श्रृंगार किया
नेकी की जब आँखें नम हुईं,
स्वार्थ बड़े खुश हो गए
खुद से अपनी आरती उतारी,
फिर फरेब निरंकुश हो गए

न्याय सबकुछ देख रहा था,
वक़्त भी था खामोश अब तक
सब्र भाँप रहा था चुप से,
फ़रेब की है हद कहाँ तक
आशा ने जब ऊपर देखा,
कृष्ण खड़े मुस्कुरा रहे थे
"मैं हूँ सच के साथ सदा ही,
तुम नाहक ही घबरा रहे थे
झूठ, फ़रेब, साजिशें, कुचक्र
कभी काम नहीं आयेंगे
ना 'शकुनि' रहेगा, ना 'दुर्योधन'
पांडव ही अंततः जीत पायेंगे
बिना कर्तव्य, अधिकार ज़हर है,
कर्म ना हो तो जीवन कहर है
किसने, कब, क्या कर्म किया है?
मैं भूलूँगा नहीं, सब याद रखूँगा
यह कहानी भी मैंने रची है
इसका अंत भी मैं ही लिखूँगा

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रचनाकार परिचय

अर्चना अनुप्रिया

ईमेल : archanaanupriya123@gmail.com

निवास : पटना (बिहार)

जन्म स्थान- पटना, बिहार
शिक्षा- एम.ए.;एल. एल. बी.;एल.एल.एम.;पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा इन मैनेजमेंट डिप्लोमा इन फैशन डिजाइनिंग
सम्प्रति-अधिवक्ता, शिक्षिका,लेखिका एवं समाज सेवा
प्रकाशन-
* पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाओं का प्रकाशन
* कविता-संग्रह,कहानी-संग्रह,साझा संग्रह
विशेष-
  आकाशवाणी में साहित्यिक वार्ता