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अशोक रावत की ग़ज़लें

अशोक रावत की ग़ज़लें

मान   लेंगे,  आपका जो   भी  इरादा हो
शर्त  क्या हैं  मान्यवर, ये  तो खुलासा हो

ग़ज़ल- एक

इतना हो, मुझको दुख की परवाह न हो
मर जाऊँ लेकिन होठों पर आह न हो
 
जीने का आनंद इसी जीने में है
जीना हो लेकिन जीने की राह न हो
 
जैसे ख़ुशबू फूलों में बस जाती है
तुझ में रहूँ और मुझको तेरी चाह न हो
 
जितने अँधेरे हैं सब मेरे वश में हैं
कोई उजाला अब मेरा हमराह न हो
 
मेरी ग़ज़लें हैं सच्ची पहचान मेरी
कोई मेरे चेहरे से गुमराह न हो 
 
पहले मेरी बस्ती में स्कूल खुले
बेशक़ उसमें मंदिर या दरगाह न हो
 
कोई कुछ भी बोले ये नामुमकिन है
अच्छे शेर हों लेकिन उन पर वाह न हो

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ग़ज़ल- दो
 
चाहे जिस नंबर के चश्मे को लगा कर देखिये 
सच को थोड़ा ग़ौर से, नज़दीक जा कर देखिये
 
साफ़ आएगी  नज़र  तस्वीर हिंदुस्तान की 
सोच से नफ़रत के जालों को हटा कर देखिये  
 
ज़िंदगी भर जिस घुटन में जीता है आम आदमी
रहनुमाओ, उस में दो पल तो बिता कर देखिये
 
जाने क्या क्या हो गया जो आपके हक़ में नहीं 
दाएँ बाएँ अपनी  गर्दन तो घुमा कर देखिये 
 
एक ही है रास्ता, जब तोड़ना हो चक्रव्यूह  
हर  नई संभावना  को आज़मा कर देखिये  
 
रात में सूरज निकलने का न करिए इंतज़ार
दीपकों से इक नया सूरज बना कर देखिये
 
तोड़िए सदियों पुरानी रूढ़ियों की बेड़ियाँ
और फिर अपनी हदों के पार जा कर देखिये

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ग़ज़ल- तीन
 
मान   लेंगे,  आपका जो   भी  इरादा हो
शर्त  क्या हैं  मान्यवर, ये  तो खुलासा हो
 
इक तरफ गहरा अँधेरा हो, उचित  है क्या
इक तरफ एलीडी बल्बों का उजाला हो
 
हम  चिराग़ों  को  कभी  बुझने नहीं देंगे
चाहे  इनसे  रौशनी  कम हो ज़ियादा हो
 
मुँह  छुपा कर घर में वो बैठे रहेंगे  क्या
जिनकी  मजबूरी का सड़कों पर तमाशा हो
 
क्या ये मुमकिन है कि उसके गीत गायें हम
आदमी  जिसने  हमारा घर  जलाया हो
 
आप क्या इस बात को सच मान सकते हैं
पंख हों  जिसके उसे उड़ना न आता हो
 
ये नहीं होगा कि हम पे ज़ुल्म  ढाएँ आप
फिर भी हाथों में  हमारे फूल  माला हो
 
बेटियों की जान लेने से डरेंगे क्यूँ 
क़ातिलों के सर पे जब मुंसिफ़ का साया हो

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ग़ज़ल- चार
 
क़र्ज़  था  ही नहीं, सूद भरना पड़ा
इस शराफ़त में क्या क्या न करना पड़ा
 
हद तो ये हो गई, अपने हक़ के लिए
हम को हर बार हद से गुज़रना पड़ा
 
कोई पहचान बन ही न पाई कभी
ख़ुद को साबित हमें रोज़ करना पड़ा 
 
आइनों का पता ही नहीं था कहीं
पत्थरों में ही आख़िर सँवरना पड़ा
 
मरने वाले तो एक बार मर ही गए
जीनेवालों को सौ बार मरना पड़ा
 
एक बच्चे की ज़िद का असर देखिए
चाँद  को आसमाँ  से  उतरना पड़ा
 
उसने आवाज़ हमको नहीं दी कभी
उसकी आहट पे लेकिन ठहरना पड़ा
 
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ग़ज़ल- पाँच
 
भले ही पाँव ज़ख़्मी हों, भले छाले पे छाला हो
सफ़र जारी रखेंगे हम, अँधेरा हो उजाला हो
 
हर इक डर ज़िंदगी का छोड़ आए हैं बहुत पीछे
कोई सत्ता मैं बैठा हो, किसी का बोलबाला  हो
 
हमेशा याद रखते हैं, हर इक उस शख़्स का एहसान 
हमारे पाँव से जिसने कभी काँटा निकाला हो
 
ज़रा सा होश खोते ही पलट जाती है हर बाज़ी
ज़रूरी है कि जिस में जोश हो वह होश वाला हो
 
किसी भी राह पर उसके क़दम डगमग नहीं होंगे
जिसे ख़ुद रास्ते की ठोकरों ने ही संभाला हो
 
बहुत से लोग ख़ुश होंगे, अगर इतना भी हो जाए 
कि प्यासे को हो पानी और भूखे को निवाला हो
 
दिलों पर उसका ही सिक्का चलेगा पूरी दुनिया में
वो जिसका सोच गांधी की तरह सब से निराला हो
 
भला ऐसी तरक़्क़ी का करे तो क्या करे कोई
न जिसमें फिक्र तेरी हो न मेरा ही हवाला हो
 
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नफ़ीस परवेज़

15 September 2024

सुंदर सामयिक हिंदी गज़लें

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रचनाकार परिचय

अशोक रावत

ईमेल : ashokdgmce@gmail.com

निवास : आगरा (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि -15 नवंबर 1953
जन्मस्थान -मलिकपुर गाँव, मथुरा (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा -बी० ई० (सिविल इंजीनियरिंग)
संप्रति -भारतीय खाद्य निगम से सेवा निवृत्त
प्रकाशन - * 'थोड़ा सा ईमान' ग़ज़ल संग्रह
             * हिन्दी के सभी प्रमुख पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में ग़ज़लें                      प्रकाशित
             * राजपाल एंड संस, वाणी प्रकाशन, किताबघर से प्रकाशित,                      प्रदीप चौबे द्वारा संपादित/प्रकाशित 'आरंभ' तथा अन्य                          महत्वपूर्ण ग़ज़ल संकलनों में ग़ज़ले सम्मिलित
सम्पादन -उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की पत्रिका 'साहित्य भारती' के ग़ज़ल                 विशेषांक का सम्पादन
प्रसारण -दूरदर्शन एवं काव्य-मंचों से निरंतर काव्य-पाठ
सम्मान/पुरस्कार -विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
पता -२२२,मानस नगर,शाहगंजआगरा (उत्तर प्रदेश) 282010
मोबाईल -9013567499 , 9013901585,9456400433