Ira
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। दिसंबर 2024 के अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

अवध बिहारी श्रीवास्तव के गीत

अवध बिहारी श्रीवास्तव के गीत

कस्तूरी मुझे रिझाती थी 
दिन रात भागना फिरना था.. 
ऐसी थी पागल प्यास मुझे 
खारे सागर में गिरना था 

मन को मेरे दोष न देना  

मन को मेरे दोष न देना 
मन मेरा अब भी पवित्र है 
यह तो है तन कि कमज़ोरी 
क्षण भर को पागल हो जाना,
 
दोषी तो रजनीगंधा है 
जिसने मादक गंध बिखेरी,
आँखें छवि खोजती फिरेंगी 
आँखें हैं जन्मना अहेरी 
 
घने मेघ के बीच अचानक 
उमगीं तुम विद्युत रेखा सी,
मैं सम्मोहित हुआ दिखीं तुम 
गाती हुई चित्रलेखा सी,
 
रूप ताल में खिले कमल पर 
पद्मासन कोई भी साधे, 
निश्चित है कुमारगिरि जैसे 
योगी का चंचल हो जाना,
 
क्यों आतीं फागुनी हवायें 
छू कर तन संकेत बताने,
शांत झील में हलचल करने 
अधरों पर मरुथल उपजाने, 
 
साँझ पाँव में रचे महावर 
क्यों आती पायल खनकाती,
सारा तन झंकृत कर देती 
आँखों में मदिरा भर जाती,
 
संयम के पर्वत शिखरों पर 
मैं तो बर्फ़ बना बैठा था,
कुंकुम रची धूप का छूना 
मेरा झरना जल हो जाना,
 
अवचेतन का भाव चेतना में 
आकर साकार हो गया,
मैंने तो अस्तित्व खो दिया 
तुममें एकाकार हो गया,
 
पाप-पुण्य क्या सुख क्या दुख क्या 
मैंने कभी नहीं माना है,
भरी नदी बाहों में भर कर 
मुझको तो बहते जाना है,
 
राग भाव की अग्नि शिखा के 
माथे पर आलेपन जल का,
क्षण भर गहन ताप का सहना 
फिर अनंत बादल हो जाना।
 


वैसे तो माटी माटी है 
 
वैसे तो माटी माटी है 
मेरे बाबा वाला वह घर 
लेकिन यादों का राजमहल 
उस घर का कोना कोना है। 
 
भाभी कि चपल ठिठोली है 
माँ के आँचल की छाया है 
दादी की परी कथाओं का 
वह जादू है वह टोना है। 
 
हम हँसते थे घर हँसता था 
फिर यादों में खो जाता था 
मैंने देखा है कभी कभी 
घर भूखा ही सो जाता था 
 
मुझको तीजों त्योहारों पर 
दरवाज़े पास बुलाते थे 
खिड़कियाँ झाँकती रहती थीं 
कमरे रिश्ते बतलाते थे 
 
आँगन में चलती हुयी धूप 
कल्पना लोक में चाँदी है 
दीवारों पर सूखती हुयी 
मक्के की बाली सोना है । 
 
खो गये कहीं इन गलियों में 
चंदनी गमक के दिन मेरे 
वे अनायास वे बार बार 
मंदिर के कई कई फेरे,
 
वे हिरनों वाले पाँव और 
वह वयहसंधि  वाला कंपन 
काँपती हुयी चिट्ठियाँ और 
डरती आँखों वाला दर्पन 
 
कितने मोहक थे माटी के 
सम्मोहन, मुझको याद अभी;
पत्थर की नगरी आये हैं 
हमको भी पत्थर होना है। 
 
कस्तूरी मुझे रिझाती थी 
दिन रात भागना फिरना था.. 
ऐसी थी पागल प्यास मुझे 
खारे सागर में गिरना था 
 
मोती तो मुझको मिले नहीं 
आँसू हैं झोली भर लेना 
बदले में घर की मुट्ठी भर 
माटी माथे पर धर देना 
 
दो चार सुखों के लालच में 
घर छूटा था मन छूटा था,
गुमनाम ज़िंदगी जीनी थी 
मन खोना था, तन खोना था। 



पूस
 
काँधे  पर अभाव की लाठी
पूस घूमता गाँव में। 
 
गन्ने के रस पर दिन बीता
रात बितायेंगे नारायण,
काकी कथरी ओढ़े चुप हैं
काका बाँच रहे रामायण,
 
हाथ पसारें कैसे ? जकड़ीं
मर्यादाएँ पाँव में। 
 
भइया ने परिवार अलग कर
कलकत्ते में घर बसा लिया,
बाबू जोह रहे मनिआडर
लौट गया फिर आज डाकिया,
 
फिर भी बाबू बैठे झूठी
आशाओं की छाँव में। 
 
लाला बाँट गया है गल्ला
ढाई गुना फ़सल पर देना,
सरकारी क़र्ज़ा भरने को
फिर मुखिया से क़र्ज़ा लेना,
 
इसी चक्र ने छेद किया है
हर किसान की नाव में। 



कमासुत
 
भइया आने वाले ही हैं
भौजी हुईं मगन। 
लगता है कुछ अलग अलग सा
घर बाहर आँगन। 
 
दरवाज़े का पानी अम्मा
बाहर फेंक रहीं,
कन्डे के अहरे पर दादी
बाटी सेंक रहीं,
 
काका गये मछलियाँ लेने
बाबू इसटेशन। 
 
काकी ले आईं अरुई के
पत्ते धुले हुए,
भइया को पसन्द है रिकँवच
घर के तले हुए,
 
दाल उरद की पीस रही हैं
सिल पर बड़ी बहन। 
 
भौजी गाढ़ महावर रचकर
पियरी में सोहें,
भइया के आने का रस्ता
खड़ी खड़ी जोहें,
 
कल थी व्रत की तीज आज है
उनका भी पारन। 
 
भइया आने वाले ही हैं
भौजी हुईं मगन। 



आसान सफ़र
 
जो आँख दिखाई पड़ती है
कुछ आँखें हैं उसके भीतर। 
 
जो है विराट जो है अनादि
जो है अनंत परमेश्वर है,
वह पार इंद्रियों के लेकिन
देखो तो अपने भीतर है,
 
भीतरी आँख ही देख सके
कण कण मे वह अरूप ईश्वर। 
 
बिन सुने सुनो उसकी ध्वनियाँ 
कानों  के भीतर कानों  से,
बिन कहे सुनो क्या कहता है
ईश्वर अपनी सन्तानों से,
 
सबके पाँवों की धूल तनिक
अपने सिर पर आलेपन कर। 
 
तितली के पीछे भागोगे
तो तितली भी उड़ जाएगी,
वह ढूँढ रही है शांत ठौर
बैठोगे तो ख़ुद आएगी,
 
जितना कम हो सामान यहाँ
उतना होगा आसान सफ़र। 

0 Total Review

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

अवध बिहारी श्रीवास्तव

ईमेल :

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 01 अगस्त 1935
जन्मस्थान- जौनपुर(उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- एम. कॉम. , एम. ए. (अर्थशास्त्र)
सम्प्रति- जिला सहायक निबंधक सहकारी ।
प्रकाशित कृतियाँ- हल्दी के छापे, मंडी चले कबीर, बस्ती के भीतर, अवध                         बिहारी के प्रतिनिधि गीत
प्राकाशन- देश के प्रतिष्ठित पत्र, पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित एवं विभिन्न                समवेत संकलनों में चयनित। 
 आकाशवाणी के सर्वभाषा कवि सम्मेलन में हिंदी के कवि के रूप में प्रतिभागिता, नागपुर।
आलोचना- साहित्य संवाद केंद्र में उद्भ्रांत ।
सम्मान- विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित 
मोबाइल- 9450760764, 6394906385