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सुधा भार्गव की बाल कहानी 'बादल बरस पड़े'

सुधा भार्गव की बाल कहानी 'बादल बरस पड़े'

एक साल उस गाँव का मौसम गड़बड़ा गया। न बारिश हुई और न ही फसल उगी। फसल सूखने लगी। पक्षी भूखे मरने लगे। हर कोई प्यासा। सुनहरी चिड़िया को चिंता सताने लगी। वह अपने दोस्त तोते से मिलने गई। तोता बड़ा बुद्धिमान था। चिड़िया बोली- "वैज्ञानिक महाराज सब समय न जाने क्या सोचते रहते हो! पानी न बरसने से सबके गले सूखे जा रहे हैं। खाने को सब तरस रहे हैं। क्या किया जाए!"

पक्षीपुर नाम का एक छोटा-सा गाँव था। उसमें डाल-डाल पर पक्षी बैठे रहते थे। सभी हिल-मिल कर रहा करते। मौसम भी बड़ा सुहावना रहता। पूरे साल पक्षी कल्लोल करते। जो भी उस गाँव जाता, उसका मन भी चहकने लगता।

एक साल उस गाँव का मौसम गड़बड़ा गया। न बारिश हुई और न ही फसल उगी। फसल सूखने लगी। पक्षी भूखे मरने लगे। हर कोई प्यासा। सुनहरी चिड़िया को चिंता सताने लगी। वह अपने दोस्त तोते से मिलने गई। तोता बड़ा बुद्धिमान था। चिड़िया बोली- "वैज्ञानिक महाराज सब समय न जाने क्या सोचते रहते हो! पानी न बरसने से सबके गले सूखे जा रहे हैं। खाने को सब तरस रहे हैं। क्या किया जाए!"

कुछ देर को उसने चुप्पी साध ली और आकाश की तरफ देखने लगा।
"अरे आसमान की तरफ आँखें फाड़कर क्या देख रहा है? हम तो न जाने कब से उसकी तरफ हाथ जोड़े खड़े हैं। पत्थर दिल न पिघला न एक बूँद बरसाई!"
"उसने नहीं बरसाया तो सुनहरी रानी, हम तो बारिश कर सकते हैं।"
"तू कब से इन्द्र देवता हो गया।"
"पानी बरसने के लिए देवता होना ज़रूरी नहीं। यह तो विज्ञान है, विज्ञान!"
"ओहो! मैं तो भूल ही गई तू हमारा वैज्ञानिक है।"
"मैं वैसी असली बारिश नहीं करूँगा। नक़ली करूँगा। हा! हाँ! नक़ली बारिश।"
"ले भैया, अभी तक तो हमने नक़ली दूध, नक़ली घी की बातें सुनी थीं। अब यह बारिश भी नक़ली होने लगी!"
"हाँ, हाँ! नकली बारिश। लेकिन इससे किसी का नुकसान नहीं होता। भला ही भला समझो। पानी बरसने से फिर से मुरझाए चेहरों पर रौनक़ आ जाएगी।"
"यह तो तोता, तूने बड़ी अच्छी तरकीब बताई। अब तू जल्दी से नक़ली बारिश शुरू कर दे।"
"तू जितना सरल समझ रही है, उतना सरल है नहीं। इसके लिए पहले ऊँचाई पर खुली जगह पर तालाब बनाना होगा।"
"इसमें क्या मुश्किल! हम सब मिलकर तालाब की खुदाई करेंगे।" बहुत से पक्षी एक साथ बोले।

पक्षियों ने पंख फैलाए और पलक झपकते ही ऊँचे-से टीले पर जा पहुँचे, जहाँ काफी मिट्टी थी। मिट्टी खोदते खुरचते उनकी चोंच में तो दर्द होने लगा। केवल छोटा-सा ही गड्ढा कर पाए। इतने में पास के जंगल से हाथी-ऊंट भी पहुँच गए। उन्हें देख, सुनहरी की हिम्मत बंधी। दूसरी तरफ देखा- भालूराम भी डगमग-डगमग अपनी तोंद हिलाते आ रहा है। नट्टू चूहा भी उसके सिर पर पसरा हुआ था। आँखें मटकाता धम्म से कूदा- "लो मैं आ गया। शुरू करता हूँ ज़मीन खोदकर सुरंगें बनाना। जहाँ ज़मीन पोली हुई, मिट्टी को निकालकर फेंक देना और भर देना पानी। बन गया तालाब।"
"मिट्टी कैसे फेंकेंगे?" मैना बोली।
"अब मैं ही सब बता दूँ! अपने दिमाग़ पर भी तो कुछ ज़ोर डालो। दो टोकरियों का इंतज़ाम करो।" चूहा तुनक पड़ा।
"इश्श! नट्टू तो बड़ा अकडू है।" मैना बड़बड़ाई।

हाथी और ऊंट बड़े समझदार थे। आगे से आगे बढ़कर काम कर रहे थे। ऊंट ने खजूर और बांस के पत्ते तोड़कर पूरा ढेर लगा दिया। हाथी ने पूरी ताकत से अपनी सूंड हवा में उछाली। चिंघाड़ा- "दर्जिन बहन, जल्दी आओ, जल्दी आओ।" वह बच्चों के लिए दाना चुगने गई थी। आवाज़ सुनकर अपना काम छोड़ा। भागी-भागी आई।
"अरे हाथी राजा, तुम यहाँ क्यों चिल्ला रहे हो? तूफान आ गया क्या?"
"हाँ, तूफान ही समझ। इस तालाब की मिट्टी फेंकनी है। मिट्टी फेंकने को टोकरियाँ बनानी हैं। टोकरियाँ बनाने का काम तो तेरे अलावा कोई कर नहीं सकता।"
"तालाब! बिना पानी के कोई तालाब होता है?"
"बुद्धू, मिट्टी हटाएँगे तभी तो इसमें पानी भरेगा।"
"अपने आप भर जाएगा!" हैरान-सी दर्जिन चिड़िया बोली- तब तो भैया हमारे अच्छे दिन आ गए समझो। सबसे पहले मैं ही पानी पीऊँगी।
"क्यों इतना डंका पीट रही हो दर्जिन जी! बिना पसीना बहाए मेवा नहीं मिलता। देखो, ज़मीन को खोखला करते-करते पसीने से मैं कैसा लथपथ हूँ। तुम भी पहले अपना काम करो।" चूहे ने उचक कर मूंछ हिलाते कहा।
"अरे तू तो बड़ा चुटक-चुटक बोले है! अभी टोकरियाँ बनाकर तुझे दिखाती हूँ। मेरी जैसी मजबूत टोकरी किसी की भी नहीं बन सकती!"
"तो देरी क्यों! कर दो शुरू!" उसने ज़ोर से पूँछ हिलाकर उसे चिढाया।
दर्जिन चिड़िया को भी जोश आ गया। उसने बड़ी सावधानी से पत्तों के रेशे खींचे। उनसे पत्तों की सिलाई की। जल्दी ही सुंदर और मजबूत दो टोकरियाँ बना दीं। सारे पक्षी उसकी कारीगरी का लोहा मान गए।
सूंड से मिट्टी उठाकर हाथी टोकरियाँ भरने लगा। भालू ने दोनों हाथों से एक टोकरी उठाई तो हाथी ने दूसरी अपनी टोकरी उठा ली। चल दिये दोनों शोर मचाते- हुल्ला.. हुल्लड़…हू! हुल्लड़– हुल्लड़— हूँ।

मिट्टी तो दूर फेंक दी गई। अब कौन भरेगा पानी! सब परेशान! इसके लिए हाथी और ऊंट को चुना गया। पहाड़ी के नीचे से एक नदी बहती थी। पहाड़ी से उतरते- चढ़ते पानी लाते उनका तो दम फूल गया। कुछ पक्षियों को उन पर तरस आता! कुछ उनकी पीठ पर लद-फद गए। सवारी का आनंद लेते एक चिल्लाता, "हाथी दद्दा! सामने बहुत बड़ा पत्थर है। टकरा गये तो अपने पैर तुड़वा बैठोगे। यहाँ कोई डॉक्टर भी न मिलेगा! ज़रा ठीक से चलो।"
दूसरा हँसते हुए बोलता, "ऊंट चाचू, भागो मत। पानी बिखर गया तो तुम्हें दस चक्कर लगाने पड़ेंगे। फिर न कहना– अइयो! मेरे तो पैर दुख रहे हैं। यहाँ कोई पैर दबाने वाला नहीं!"
हाथी तो उनकी मसखरी पर चुप रहता। पर ऊंट बबक पड़ता। गुस्से में ज़ोर-ज़ोर से कूदने-उछलने लगता। झटके लगने से मैना-गौरैया की चीखें निकल जातीं। हाथी, ऊंट को बड़ी मुश्किल से शांत करता।

तीन-चार दिन तक नदी से पानी लाकर तालाब को भरने का काम चलता रहा। आखिरकार तालाब भर ही गया। सबकी ख़ुशी का ठिकाना न था। सब चिल्ला उठे- "तोता भाई, अब जल्दी से पानी बरसाओ।"
पशु-पक्षी तालाब के चारों ओर खड़े हो गए। जिन पक्षियों को जगह न मिली, वे दूसरों के कंधों पर चढ़ गए।
तोते ने अपनी लाल-लाल आँखें घुमाते कहा- "शुरू होता है अब मेरा तमाशा। गौर से देखो- तालाब के पानी में बहुत सारी छोटी-छोटी बूंदें हैं। जब सूरज की रोशनी इन बूंदों पर पड़ेगी तो वे गर्म हो जाएँगी और बढ़ जाएँगी। बढ़ने के कारण ये बूंदें एक-दूसरे से चिपक जाएँगी।"
"हमारी तरह से मिल-मिल कर बैठ जाएँगी तोता भैया!" भोली गौरैया बोली।
"हाँ! और जल्दी ही ये बड़े-बड़े बादल बन जाएँगी।"
गौरैया ठुमक पड़ी-
"बड़े-बड़े बादल, बड़ा-बड़ा पानी
छमछम भीगेगी, गौरैया रानी।"

"एक बात और बताऊँ! तालाब के पानी में नमक भी होता है। पर इस तालाब में नमक शायद कम हो। इसलिए थोड़ा-सा नमक छिड़क देता हूँ। यह बूंदों को एक साथ चिपकने में मदद करेगा।"
"नमक कैसे चिपकाएगा। वह तो नमकीन है। उसे खाने से हम तो नहीं चिपकते!" गौरैया चहक पड़ी।
"गौरैया, तू ठीक ही कह रही है। चीनी से चींटी-चेंटे को तो मैंने चिपकते देखा है। शहद से मैं भी चिपट कर रह जाता हूँ। लेकिन नमक से चिपकते तो किसी को नहीं देखा।" भालू की बात सुनकर तोते ने माथा ठोक लिया, "ओह! मैं तुम्हें कैसे अपनी बात समझाऊँ!" तभी उसकी निगाह पेड़ से लटके बया के घोंसले पर पड़ी। वह टोकरी की तरह बड़ा मजबूत दिखाई दे रहा था। तोता ख़ुश हो उठा। उसने आवाज़ लगाई, "ओ बया बहन!!"
"तोता भाई क्या बात है। तुम्हारे साथ तो पूरी फौज खड़ी है। कहीं चढ़ाई करने जा रहे हो क्या?" घोंसले से बया झाँकते हुए बोली।
"हाँ, बादल पर!"
"क्यों! उसने क्या बिगाड़ा है?"
"बहुत कुछ बिगाड़ा है!"
"पक्षीपुर पानी पीने तक को तरस गया है। वह बरस ही नहीं रहा! इसके लिए तुम्हारी मदद चाहिए।"
"मैं नन्ही-सी चिड़िया क्या कर सकती हूँ?"
"अपने को किसी से कम न समझो। तुम बहुत कुछ कर सकती हो?"
"सीधे-सीधे बोलो न!"
"मुझे कुछ देर को तुम्हारा घोंसला चाहिए।"
"एँ! फिर मैं रहूँगी कहाँ!"
"ज़रा-सी देर को ही तो चाहिए। इस फौज को कुछ समझाना है।"
"ठीक है ले लो। पर सावधानी से उतारना।" बया ने बेमन से कहा।

सुनहरी चिड़िया के साथ तोता ऊपर की ओर उड़ा। आहिस्ता से बया पक्षी के घोंसले को दोनों नीचे उतार लाए। उसकी सुंदरता को देख सब दंग रह गए। घास-तिनकों का बना इतना साफ-सुथरा घोंसला!
"तुमने तो बड़ी मेहनत से इसे अपनी चोंच और पैरों से बनाया है। इसमें पत्थर डालने से तो गंदा हो जाएगा।" तोता बोला।
"भैया तुम अपना काम करो। पानी बरस जाए उसके लिए तुम कितना दिमाग लड़ा रहे हो? अच्छा है, मैं भी तुम्हारे कुछ काम आ जाऊँ!"
तोता चोंच में छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर भर कर लाया। उन्हें टोकरी में डाल दिया। घोंसला इतना मजबूती से घना बुना था कि मजाल ज़रा भी लटक जाये। पानी की एक बूंद भी टपक जाए। इत्मीनान से उन पर उसने थोड़ा-सी मिट्टी डाली और पानी छिड़क दिया फिर पंजों से मिला दिया। इससे कंकड़ आपस में चिपक गए।

"अरे, ये कंकड़ तो आपस में चिपक गए। सूखने पर तो उठाने में बहुत भारी लगेंगे।" ऊँट बोला।
"हाँ, ऊंट जी, अब आप समझे! जिस तरह से कंकड़ों को चिपकाने के लिए मिट्टी डाली गई है, इसी तरह से बूंदों को चिपकाने के लिए नमक का होना बहुत ज़रूरी है। नमक के कारण बादल बहुत भारी हो जाते हैं और पानी की बूंदों को छोड़ देते हैं। ये पानी की बूंदें ही ज़मीन पर बारिश के रूप में पट-पट गिरने लगती हैं।"

पशु-पक्षी बड़ी उत्सुकता से इधर-उधर देखने लगे कि पानी बरसा या नहीं। वे दुखी हों, उससे पहले ही कृत्रिम बादलों को उन पर तरस आ गया। हँसती हुई बूदें टप-टप टपकने लगी। अपने साथ खुशियों का ख़जाना ले आईं। सारे पक्षी चोंच खोल आसमान की ओर ताकने लगे कि पहली बूँद उनके मुँह में ही पड़े। मोर ने तो पंख फैलाए और ठुमकना शुरू कर दिया। भीगती कोयल-मैना ने टीले से नीचे झांककर देखा- पेड़-पौधे, फूलपत्ती सभी मस्ती में झूम रहे हैं। गीली धरती देख किसानों की तो चिंताएँ धुएँ की तरह उड़ गईं। उन्हें लहलहाती फसलों के सपने आने लगे। इस आनंदोत्सव को देख तोता गदगद हो उठा और दूर आकाश मेँ उड़ गया।

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रचनाकार परिचय

सुधा भार्गव

ईमेल : subharga@gmail.com

निवास : बैंगलोर (कर्नाटक)

जन्मतिथि- 8 मार्च, 1942
जन्मस्थान- अनूपशहर, ज़िला- बुलंदशहर (उ०प्र०)
संप्रति- स्वतंत्र लेखन व वाचन
लेखन विधाएँ- कविता, कहानी, लघुकथा, लोककथा, बाल कहानी, बाल संस्मरण, यात्रा संस्मरण आदि
प्रकाशन- अंगूठा चूस, अहंकारी राजा, जितनी चादर उतने पैर पसार, चाँद-सा महल, मन की रानी छतरी में पानी, यादों की रिमझिम बरसात, बाल झरोझे से, हँसती-गुनगुनाती कहानियाँ, उत्सवों का आकाश, धूप की खिड़कियाँ, मिश्री मौसी का मटका, ककड़िया के भालू (बाल कहानी संग्रह), जब मैं छोटी थी, बुलबुल की नगरी (बाल उपन्यास), किशोर की डायरी (डायरी), वेदना संवेदना, टकराती रेत (लघुकथा संग्रह), रोशनी की तलाश में (काव्य संग्रह), 'कनाडा डायरी के पन्ने' की 40 कड़ियाँ अंतर्जाल साहित्यकुंज पत्रिका में प्रकाशित। हिंदी समय एवं गद्यकोश में रचनाएँ प्रकाशित।
सम्मान- डॉ० कमला रत्नम्‌ सम्मान, राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान, बाल साहित्य शोध केंद्र, भोपाल से श्रीमती अरुणा निगम सम्मान, 2023
पुरस्कार- शिक्षा के क्षेत्र राष्ट्र निर्माता पुरस्कार (प० बंगाल, 1996)
मोबाइल- 9731552847