Ira
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। दिसंबर 2024 के अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

चित्रा देसाई की कविताएँ

चित्रा देसाई की कविताएँ

कहानी के
अनचाहे पात्र,
जो नुकीले शब्द बन
शिराओं में बहते हैं
उन्हें थोड़ा-सा
मख़मली कर दूँ

नालंदा

सुनो द्वारपाल-
जब इसे जलाने आए
ढहाने आए
तुम खड़े थे द्वार पर
क्यों खोले तुमने किवाड़?
तुम भी तो ज्ञानी थे
तुम्हारे दस प्रश्न से
होती थी पहली परीक्षा
क्या तुमने एक भी प्रश्न नहीं किया!
ज्ञान ने क्यों रास्ता दिया बल को?
बल तर्क नहीं करता
दिखाता है बल्ली की नोंक
सैनिक पहले आँखें दिखाता है
फिर निकालता है
उबलते तेल के कड़ाहों में
बिना जले कैसे निकलें
नहीं सिखाती कोई किताब
झूठ मत बोलो द्वारपाल!
तुमने सीखा ही नहीं
प्रतिरोध करना
कुछ दीवारें लड़खड़ाती-सी
खड़ी हैं अभी तक
थामे हैं जली हुई ईंटे
मिट्टी जल कर
और भी ज़िद्दी हो जाती हैं
यहाँ गुरू को प्रणाम करने
मेरे हाथ नहीं उठते
चीखते हैं कितने ही प्रश्न
अपने शिष्यों के साथ
दीवारों से सट कर
क्या तुम भी खड़े हुए थे आचार्य
या उठाए थे हाथ?
उन्हीं के शस्त्र छीन कर
क्या किया था तुमने भी वार?
अहिंसा में विश्वास करते थे न!
इसलिए हिंसा के साक्षी बने रहे तुम?
चुप हैं सब
सच है-
किताबों से नहीं बहता लहू
उनके साथ हुई हिंसा
सदियों तक रिसती है

 

जड़

भीतर फैलती है
बाँधती है
तने पर पानी डाल दें
या छू ले कोई टहनी
अंदर कितना इतराती है!
उँगलियों की पोरें
पत्ती छू लें
भीतर ही भीतर
फैलते रेशों को गूँध लेती है।
कोई एक बूँद
तेज़ाब उड़ेल दे
तो कितना तिलमिला कर
नाराज़ हो सूख जाती है
जड़ इतनी भी जड़ नहीं होती।

 

तैनाल

सुनाई देती थी गलियों में
'तैनाल' लगवाने की पुकार
नर्म खुरों के नीचे
लोहा जड़ते
देखा है कभी?
कहीं आवेश में
आक्रामक न हो जाये,
मुँह पर बाँध दी जाती है जाली
स्वयं को सुरक्षित कर,
शुरू होती है
यातना-कथा
रेत में कुलबुलाती है पूरी देह
ज़मीन पर पटकता है सींग
जबड़ों के बीच दबी रबड़
और बहता झाग
आँख बंद कर
राह देखती हूँ उसके उठने की
तैनाल लगा
दौड़ता है वह
तारकोल की सड़कों पर
समझ जाती हूँ
यात्रा के लिए
नर्म फोहों के नीचे
लोहा लगाने की प्रक्रिया
और मैं भी तैनाल लगवा,
उठ खड़ी होती हूँ
सरपट दौड़ने के लिये।

 


संपादन

सोचती हूँ
एक दिन संपादक बन जाऊँ
कुछ पन्नों को
मोड़ दूँ
कहानी के
अनचाहे पात्र,
जो नुकीले शब्द बन
शिराओं में बहते हैं
उन्हें थोड़ा-सा
मख़मली कर दूँ
सारी उपेक्षाएँ
चाशनी में भीग
कुछ मीठी हो जाएँ
काँच से कौंचते हैं
कुछ पन्ने
मिट्टी में दब जाएँ
मुखपृष्ठ पर हो
सपनों की बौछार
और पन्नों पर हों 
उनके रेखाचित्र
जिन्होंने सहलाया,
थामा,
हाथ पकड़
थोड़ा उठाया-चलाया
सोचती हूँ
एक दिन
संपादक बन जाऊँ

 


शतरंज

धीरे-धीरे होता है सब
जैसे दीमक कुतरते हैं दीवार
सब रेत गारा ईंट को
ढहा देते हैं
कठफोड़वा चोंच के वार से
खोखर बना देता है
जमे हुए दरख़्त के फैले हुए तने
बहुत सावधानी से
शब्द उतरते हैं
सम्बन्धों की बिसात पर
अट्टहास लगा
कटु मुस्कान से
चलते हैं चाल

धीरे धीरे होता है सब।

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रचनाकार परिचय

चित्रा देसाई

ईमेल :

निवास : मुंबई (महाराष्ट्र)



शिक्षा- बी०ए० (राजनीति शास्त्र), एल०एल०बी०
संप्रति- पूर्व में सर्वोच्च न्यायालय में वकालत, स्वतंत्र लेखन
लेखन विधा- कविता
प्रकाशन- सरसो से अमलतास एवं दरारों में उगी दूब (कविता संग्रह) प्रकाशित।
विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
संबद्धता-
मुंबई विश्वविद्यालय से आल्टरनेटिव डिस्प्युट रिजोल्यूशन।
एस०एन०डी०टी० विश्वविद्यालय के लाॅ काॅलेज और अन्य कई विभागों में गेस्ट फैकल्टी से जुड़ी रही।
'टाइम्स फाउंडेशन'और 'महाराष्ट्र लीगल सर्विस अथॉरिटी' के साथ लीगल लिटरेसी अभियान से जुड़ी।
अपने क्षेत्र में मैंग्रोव्स, झील संरक्षण और अन्य पर्यावरण मुद्दों में सक्रिय योगदान।
पूर्व सदस्य-
राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार निर्णायक मंडल, केन्द्रीय फ़िल्म प्रमाण बोर्ड, राष्ट्रीय फ़िल्म संग्रहालय सलाहकार समिति एवं विदेश मंत्रालय हिन्दी सलाहकार समिति
पुरस्कार/सम्मान- 'सरसों से अमलतास' के लिए अनेक पुरस्कारों के साथ 'महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी पुरस्कार'।
विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
विशेष- राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी साहित्य उत्सव तथा सम्मेलनों में सक्रिय भागीदारी
निवास- मुम्बई (महाराष्ट्र)