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धर्म की स्थली: धर्मशाला- डॉ० कविता विकास

धर्म की स्थली: धर्मशाला- डॉ० कविता विकास

हमारा मन अपने आप में एक ब्रह्माण्ड है। यहाँ बाह्य जगत का आविर्भाव और दर्शन दोनों होता है। अपने चैतन्य अवस्था में दृश्य और देखने की प्रक्रिया जब एक-दूसरे को आत्मसात कर लेते हैं तब उससे उत्पन्न आनंद शाश्वत हो जाता है। वह एक ईश्वरीय आभास के साथ मानस पटल पर जीवन भर के लिए अंकित हो जाता है। इसलिए यात्रा के दौरान मन को भी जागृत रखना चाहिए।

जीवन की गुणवत्ता तलाश से जुड़ी है और जीवन को बेहतर बनाने की इच्छा ही जिजीविषा है। यात्रा का आयाम सांस्कृतिक परिवेश से जुड़ा है, जिसमें स्वतंत्रता, अनुशासन और आनंद तीनों शामिल हैं। यात्रा का आनंद ही मन और जीवन की दशा तय करता है इसलिए मुझे लगता है यात्रा की प्रेरणा भी उन्हीं को मिलती है, जिनमें परिश्रम और संघर्ष करने के साथ-साथ सृजनात्मकता का बोध होता है। यायावर मन क्षण भर भी ठाँव रखता है तो यह कवि मन अंतस की उस गहराई तक चला जाता है, जहाँ दिव्य रोशनी का दर्शन होता है। सचेतन अवस्था में यही मन प्रकृति की सुरम्य जटिलताओं के बीच उस उच्चतम सत्ता का बोध करता है। ग़ज़ब की कशिश है पहाड़ों की नैसर्गिक सुंदरता में। पहाड़ सदा से मुझे अपनी ओर खींचते रहे हैं। जीवन की यात्रा में जब घुमावदार मोड़ पर आकर साँसें थमने लगती हैं तो अक्सर मन होता है कि किसी ऐसे एकांत स्थल पर चली जाऊँ, जहाँ से सीधे रास्तों की तलाश आसान हो जाए। शायद पहाड़ के तीखे मोड़ों पर पहाड़ियों की कर्मठता और विपरीत परिस्थितियों में भी सामंजस्य बनाए रखने की कला जीने की कला सिखा दे!

पिछले कई सालों से पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के कारण कहीं जाने की योजना नहीं बन पा रही थी। अचानक पिछले साल दिसम्बर-जनवरी के महीने में हमने धर्मशाला जाने का मन बना लिया और बुकिंग भी करवा ली। असली यात्रा माता वैष्णो देवी के दर्शन की थी। यात्रा का यह पहला पड़ाव काफी सुखद था। फिर कटरा से पठानकोट और पठानकोट से धर्मशाला।

धर्मशाला समुद्र तल से तक़रीबन 6831 फ़ीट की ऊंचाई पर बसा है। धौलाधर पर्वत श्रृंखला पर बसा यह बेहद रमणीक स्थान हिमाचल प्रदेश राज्य की दूसरी राजधानी है। अंग्रेजों के ज़माने में गर्मियों के समय यह उनका प्रिय हिल स्टेशन हुआ करता था। हमने कटरा से कार ले ली थी, जिसका ड्राइवर रास्ते के बीच के कई महत्त्वपूर्ण स्थलों को दिखाने के लिए कार रोक लेता था। हमारी कार घुमावदार रास्तों के बीच से गुज़रती रही। गुनगुनी धूप थी पर ठंड का एहसास भी हो रहा था। धर्मशाला पहुँचने के पहले अनेक जगहों पे हमने चाय पीने और खाना खाने के लिए कार रुकवाई। हमने पाया कि ऐसे जगहों में पहाड़ियों के पारम्परिक वस्त्र-आभूषण भी मिलते हैं क्योंकि यात्री इन्हें पहन कर फोटो खिंचवाने के बड़े शौकीन होते हैं। नैसर्गिक सुंदरता से भरी घाटियाँ और पर्वत श्रेणियाँ मन को लुभाती रहीं। पहाड़ों पर बहुत करीने से उगे देवदार की ऊँची-ऊँची डालियाँ जब आकाश से बातें करती हैं तो लगता है कि सूरज तक पहुँचने की उनमें होड़ लगी हो। टेढ़े-मेढ़े दिल को दहला देने वाले रास्तों में कभी छोटी-छोटी नदियाँ मिलतीं हैं तो कभी टट्टुओं पर सामान लाद कर एक जगह से दूसरे जगह जाने वाले स्थानीय निवासी।

मनोरम घाटियों के संकरे-संकरे रास्तों से होकर धर्मशाला तक पहुँचने का अलग आनंद है। यात्रियों का जत्था रास्ते भर मिलता रहा। सभी घाटियों के मध्य फोटो खिंचवाने के लिए रुकते, गुनगुनी धूप का मज़ा लेते और फिर चल पड़ते। अलग-अलग प्रान्तों से आये यात्रीगण बड़ी आत्मीयता से आपस में मिलते। तत्क्षण परिचय होता और कुछेक के साथ तो इतनी दोस्ती हो जाती कि तुरंत व्हाट्सअप पर नंबरों का आदान-प्रदान हो जाता। यात्राएँ जीवन की आपा-धापी में रिश्तों के मध्य ठंडी होती जा रही संवेदनाओं को सहेज कर पुनः गर्माहट लाने का सहज साधन होती हैं। रास्तों की नैसर्गिक सुंदरता बरबस ही उस कुदरत की याद दिला देती है, जिसने बेशुमार सुंदरता से धरती का दामन भर रखा है।

पहाड़ी झरनों से सजी पर्वत शृंखलाएँ अपने कलकल निनाद से श्रान्त-क्लांत लोगों की थकान जाने कब हर लेतीं हैं ,पता ही नहीं चलता। ईश्वर के अस्तित्व में क्यों न भरोसा हो, जब हर शै में उसकी अनुभूति होती है! मैंने सरस-स्निग्ध प्रकृति की गहराई में ख़ुद को खो जाने दिया ताकि उस रोमांच को ताउम्र महसूस करती रहूँ।

यह शहर दो मुख्य भागों में बँटा है, एक कोतवाली बाज़ार का भाग और दूसरा लोअर धर्मशाला। इन दोनों भागों के बीच गंचेन किशोङ्ग गाँव बसा है, जहाँ तिब्बती लोगों का आधिपत्य है। धर्मशाला का ख़ुशगवार मौसम पर्यटकों को ख़ूब आकर्षित करता है। पहाड़ की गोद में बसा अत्यंत मनहर स्थल यूँ तो लामाओं का निवास है पर हिमाचली संस्कृति को जीवित रखने वाली अनेक जातियों और जनजातियों का भी यहाँ निवास है। शहर की भागदौड़ और प्रदूषण से निजात पाने का बेहतरीन स्थान है यह। शाम तीन बजे जब हम होटल पहुँचे तो हमें बताया गया कि मुख्य दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए हमें दूसरे दिन जाना होगा। वैसे स्थानीय बाज़ारों और एक-दो स्पॉट को शाम में भी देख सकते हैं। हमने वैसा ही किया। होटल के पीछे से ही एक पहाड़ी नदी गुजरती थी, जिसके बहाव में ग़ज़ब की रफ़्तार थी। घाटियों में काले-उजले बादल शावकों की तरह कुलांचे भरते दिखाई देते फिर तत्क्षण ही ग़ायब हो जाते।

दूसरे दिन हम धर्मशाला के प्रसिद्ध स्थानों को देखने निकले। नोर्बलिंगका के विशाल संग्रहालय में हाथ से बनी पेंटिंग्स और अन्य सामानों को सहेजकर रखा गया है। यहीं इन सामानों को बनाने का वर्कशॉप भी है। फूलों से निकाले प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। बुद्ध के मंदिरों में रंगों की कलात्मकता सजीव हो उठती है। धर्मशाला अपने नाम की सार्थकता कैसे बनाये हुए है, इसका परिचय धर्मगुरु दलाई लामा जी के विशाल मंदिर में जाकर स्वत: हो जाता है। बुद्ध की विशाल प्रतिमा में अनोखा सम्मोहन है, एक सकारात्मक शक्ति का संचार होता महसूस पड़ता है। बौद्ध स्तूपों का यूँ तो ख़ूब दर्शन किया है हमने पर यहाँ की बुद्ध प्रतिमा बोलती हुई जान पड़ती है। इतनी कशिश कहीं भी नहीं है। इतनी दूर जाकर इस स्थान को स्थापित करने वाले दलाई लामा जी का दर्शन भी सुखद था। धर्मशाला और मैक्लोडगंज में चीड़ की लंबी-लंबी गाछें हैं। असल में पूरे पहाड़ी इलाकों में नुकीली पत्तियों वाले वृक्ष ही ज़्यादातर मिलते हैं, मसलन चीड़, देवदार, फर, पाइन, स्प्रूस आदि। अंतिम दो हिमालय की और ऊँचाइयों में ज़्यादा मिलते हैं।

मैक्लोडगंज के तिब्बती मार्किट, डल झील और चाय बाग़ान की अपनी सुंदरता है। नड्डी की ऊंचाइयों में भगसुनाथ का मंदिर है और बग़ल से बहता सुंदर जलप्रपात। कहते हैं, यहाँ कभी नागवंश का राज था। राजस्थान के असुरों के राजा भगासू यहाँ पानी की खोज में आये थे। यहाँ से सरोवर का पानी लेकर जब वे जाने लगे तो नागों के साथ युद्ध हुआ। युद्ध में भगासू की हार हुई। जहाँ-जहाँ उनके कमंडल का पानी गिरा, सरवर बनते गये। प्राण त्यागने के पहले उन्हें पता चला कि नाग भी शिव का रूप हैं तो उनसे अपने प्रदेश में पानी की कमी पूरी करने का आग्रह करके अपना प्राण त्याग देते हैं। इस पूरे प्रदेश में जलप्रपात और सरोवरों की बहुतायत देखकर इस पौराणिक कथा पर आपको विश्वास करना ही पड़ेगा। चाय बाग़ान, क्रिकेट स्टेडियम और वॉर मेमोरियल अन्य रमणीक स्थल हैं, जहाँ यात्रा के दौरान कुछ देर विश्राम भी कर सकते हैं। क्रिकेट स्टेडियम, जिसकी बुनियाद आई० पी० एल० मैचों के दौरान पड़ी थी, वहाँ कुछ देर बैठ जाएँ तो धर्मशाला की नैसर्गिक सुंदरता आपका मन मोह लेगी। धरती पर निहुरता गगन कभी धुएँ की गिरफ्त में आ जाता है तो कभी सूर्य की प्रखर किरणों से सराबोर। जाड़े की गुनगुनी धूप में घंटों बैठे रहें, उठने का मन नहीं होगा। वॉर मेमोरियल के सुरम्य पार्क में बैठकर विविध प्रजातियों वाले वृक्षों को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि हमारी वन-सम्पदा वाक़ई इतनी समृद्ध है। लुप्त होती जा रहीं कुछ पेड़ों की प्रजातियों को बचाने की पुरज़ोर कोशिश की जा रही है। तिब्बती मार्केट में हाथ से बने ऊनी कपड़ों की विशेष दुकानें हैं। इसके अलावा पारंपरिक और पहाड़ी जीवन से जुड़ी वस्तुओं की भी बहुत-सी दुकानें हैं। जगह छोटी है इसलिए एक दिन में यहाँ के दर्शनीय स्थलों को देखना पर्याप्त है लेकिन स्वास्थ्य की दृष्टि से यहाँ के प्रदूषण मुक्त वातावरण में कुछ दिन और रह कर जल प्रपातों के खनिजीय जल का सेवन करना बहुत लाभदायक है। शहर के शोरगुल से दूर प्रकृति के मनहर सान्निध्य में जीने का मज़ा ही अनोखा है।

हमारा मन अपने आप में एक ब्रह्माण्ड है। यहाँ बाह्य जगत का आविर्भाव और दर्शन दोनों होता है। अपने चैतन्य अवस्था में दृश्य और देखने की प्रक्रिया जब एक-दूसरे को आत्मसात कर लेते हैं तब उससे उत्पन्न आनंद शाश्वत हो जाता है। वह एक ईश्वरीय आभास के साथ मानस पटल पर जीवन भर के लिए अंकित हो जाता है। इसलिए यात्रा के दौरान मन को भी जागृत रखना चाहिए। विपरीत मौसम की मार, ट्रेनों के लेट होने से उपजी असुविधा या किसी सदस्य के बीमार पड़ जाने से हुई तकलीफ़ आदि अगर आपके हिम्मत को नहीं तोड़ती है बल्कि इनका सामना करते हुए आप अपने लक्ष्य तक पहुँचने का सामर्थ्य रखते हैं तो इसका मतलब है कि आपने घुमन्तु विद्या को अच्छी तरह ग्रहण किया है।

पहाड़ों के विस्तृत अंचल में आड़ी-तिरछी रेखाओं वाले बुज़ुर्ग हों या नख से शिख तक सजी पहाड़ी युवतियाँ, सब में कुछ जीवित है। जीवित है, अपनी संस्कृति को बचाये रखने की जद्दोजहद और एक स्वच्छ-स्वस्थ पर्यावरण को बचाये रखने की पुरज़ोर कोशिश। खनिज तत्त्वों से भरपूर प्राकृतिक झरने का पानी अब भी लोग पीते हैं इसलिए आर० ओ० वाटर की जानकारी केवल टी० वी० के प्रचार तक ही सिमटा हुआ है। बहुत संघर्ष है इनके जीवन में पर बहुत आनंद है। प्रकृति के पहलू में रहने वाला इंसान सहज-सरल और सौम्य होता है। गर्मी वांछित है, स्वास्थ्य के लिए भी और सौन्दर्य के लिए भी। चीड़-देवदार की घाटियों को चीर कर जब सूर्य की किरणें घाटियों तक पहुँचती हैं तो लगता है, घंटों उन्हें निहारते रहें। और तब होता है एक अद्भुत अहसास। यह उष्णता अंतर्मन तक पहुँच कर सीधे कुदरत से रिश्ता जोड़ती है। प्रकृति माया है,शक्ति है और माँ है। आकाश को पिता मानते हैं। हमारा दृष्टिकोण है कि हम प्रकृति को समग्रीनभूत परिवार मानते हैं। दूर गगन से बातें करतीं हुईं ऊँची-ऊँची लरजती-मचलती डालियों को देख, प्रतीत होता था जैसे वे कह रहीं हों, "ऐ आसमां, तेरी निगहबानी में हमने मुद्दत से पलकें नहीं झपकायीं हैं।" दो पहाड़ों के बीच की घाटी में दुनिया से अलग एक दुनिया है, नितांत ख़ामोशी में डूबी, कोहरे और सूरज की किरणों के बीच लुका-छिपी के खेल में जीवन की उष्णता को तलाशती, देशी-विदेशी तमाम तरह के यात्रियों को अपनी गोद में पनाह देती हुई, पारंपरिक और आधुनिक दोनों तरह के व्यंजनों से आवाभगत करती हुई तथा भौतिकता की दौड़ में भी धर्म के प्रति आस्था जगाती इस छोटी-सी दुनिया को ही हम धर्म की स्थली यानी धर्मशाला के नाम से जानते हैं। सुकून से भरा यात्रा का यह रोमांच आज भी ज़ेह्न को गुदगुदा देता है, जब कैमरे में बंद तस्वीरें आँखों के सामने से गुज़रतीं हैं।

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रचनाकार परिचय

कविता विकास

ईमेल : kavitavikas28@gmail.com

निवास : धनबाद (झारखण्ड)

सम्प्रति- राजकीय सेवा (शिक्षिका)
प्रकाशन- 'लक्ष्य' और 'कहीं कुछ रिक्त है' (कविता संग्रह), 'सुविधा में दुविधा' (निबंध संग्रह), 'बिखरे हुए पर' (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित।
दस साझा कविता के और आठ साझा ग़ज़ल संकलनों रचनाएँ प्रकाशित।
हंस, परिकथा, पाखी, वागर्थ, गगनांचल, आजकल, मधुमती, हरिगंधा, कथाक्रम, साहित्य अमृत, अक्षर पर्व और अन्य अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, लेख और विचार निरंतर प्रकाशित। दैनिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं और ई-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित। 'झारखंड विमर्श' पत्रिका की सम्पादिका और अनेक पत्रिकाओं के विशेषांक के लिए अतिथि संपादन।
संपर्क- डी०- 15, सेक्टर- 9,पी०ओ०- कोयलानगर, ज़िला- धनबाद (झारखण्ड)- 826005
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