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दोहे
भोर प्रभाती गा रही, शब्द बने हैं श्लोक।
किरनें भी बिखरा रहीं, लोक-लोक आलोक।।
काँप रहीं किरनें सभी, धूप मनाती शोक।
कुहरे में गुम हो गया, सूरज का आलोक।।
गंगा, गाँव, ग़रीब, गौ, हिंदी, हिंदुस्तान।
मिल-जुल कर करना हमें, नित इनका उत्थान।।
गुस्से में इस सूर्य का, खून रहा था खौल।
बादल ने भी तान ली, पानी की पिस्तौल।।
उधर रंग था राख-सा, पानी इधर उदास।
दोनों मिल रचने लगे, रंगों का मधुमास।।
जबसे उसमें जम रही, जाति, धर्म की गर्द।
मानवता का फेफड़ा, हुआ जा रहा सर्द।।
एक चिड़ी से आ रहे, मिलने दसियों बाज।
पका रहा है पूरियाँ, फिर कोई वनराज।।
जाति-धर्म की वायु से, हुआ प्रदूषित गाँव।
अब तो नित कटने लगे, प्रेम-प्रगति के पाँव।।
जीवन के हर पृष्ठ पर, लिखिए अपना नाम।
पता नहीं कब ज़िंदगी, लिख दे पूर्ण-विराम।।
यह विकास बहुमंज़िला, बना गले की फाँस।
कोई ले पाता नहीं, इसमें ताज़ी साँस।।
एक कली को लूटते, मिलकर दो हैवान।
बना रहा है वीडियो, प्रगतिशील इंसान।।
अम्मा छतरी धूप की, शीतलहर की शॉल।
घोर निराशा में बनी, आशाओं की कॉल।।
कभी नेह के हाथ से, खाते थे हम कौर।
आज हमारा चल रहा, उपवासों का दौर।।
बाबा घर की भीत हैं, दादी हैं नवनीत।
पिता मौन की बाँसुरी, अम्मा घर का गीत।।
बिना तुम्हारे आजकल, रहता बहुत उदास।
हे मन की मंदाकिनी, आओ नेह-निवास।।
ममता आँचल में लिए, आँखों में अरुणाभ।
माँ अशगुन के माथ पर, लिखती हैं शुभ-लाभ।।
दिन-प्रतिदिन यूँ बन रहा, कुछ ऐसा माहौल।
संवादों पर तन रही, चुप्पी की पिस्तौल।।
तुमसे मिलने के लिए, जागी मन में चाह।
मन-कोलम्बस ढूँढ़ता, नई-नई नित राह।।
स्वागत में दुलहिन जहाँ, गाती थीं शुभ-गीत।
आज वहीं पर चल रही, कॉलबेल की रीत।।
नए समय में यूँ हुआ, मूल्यों पर आघात।
चरणों तक गिरने लगी, आचरणों की बात।।
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रचनाकार परिचय
सत्यशील राम त्रिपाठी
ईमेल : satysheel441@gmail.com
निवास : गोरखपुर (उत्तरप्रदेश)
जन्मतिथि- 08 फरवरी, 2000
जन्मस्थान- रुद्रपुर (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- गोरखपुर विश्वविद्यालय से परास्नातक
प्रकाशन- देश की विभिन्न पत्रिकाओं में दोहे, गीत एवं ग़ज़लों का प्रकाशन
सम्प्रति- गोरखपुर विश्वविद्यालय से बीएड में अध्ययनरत
निवास- ग्राम- रुद्रपुर, पोस्ट- खजनी, ज़िला- गोरखपुर (उत्तरप्रदेश)- 273212
मोबाइल- 6386578871
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