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दास्तान ए जाजमऊ (ययातिमऊ), कानपुर-उत्तर प्रदेश- अनूप कुमार शुक्ल

दास्तान ए जाजमऊ (ययातिमऊ), कानपुर-उत्तर प्रदेश- अनूप कुमार शुक्ल

प्राचीनकाल से जाजमऊ कानपुर का भूभाग दक्षिण पंचाल का अंग रहा हैं। डॉ० अंगनेलाल जी कि 'उत्तर प्रदेश के बौद्ध केन्द्र' पुस्तक के अनुसार व बौद्ध साहित्य के मुताबिक अहोगंग (हरिद्वार) से सहजाति (भीटा,प्रयागराज) तक जाने वाला मार्ग व राजगृह से तक्षशिला जाने वाला सुप्रसिद्ध वणिक पथ कानपुर जिलान्तर्गत होकर ही जाता था। सहजाति से अग्गलपुर (वर्तमान कानपुर का जाजमऊ का विशाल टीला) तत्पश्चात उदुम्बर, कान्यकुन्ञ (कान्यकुब्ज), संकस्य (संकिसा) सोरेय्य (सोरो) से यह मार्ग सीधे अहोगंग पहुँचता था।

पुण्यतोया जान्हवी (गंगा) के तट पर अवस्थित जाजमऊ पौराणिक महत्व के साथ प्रागैतिहासिक महत्व का नगर है। सन् १८०१ ई० ( फसली सन् १२०९ ) मे जब कानपुर जिला बना तब जिले के १५ परगनो मे एक जाजमऊ परगना भी था जो आजकल परगना कानपुर सदर मे समाहित है। जाजमऊ कस्बे की बसावट उजाड़ व गंगा की ओर लगभग ६०फुट ऊँचे कगारो से युक्त एक मील लम्बाई के विशाल टीले के रुप में है। जाजमऊ टीला वर्तमान मे बहुत ही अतिक्रमित है।

पौराणिक उपाख्यान के मुताबिक जाजमऊ का नाम ययातिमऊ था। महाराज नहूष के पुत्र ययाति का यहाँ पर किला था। राजा ययाति का विवाह असुरराज वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा और असुरगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से हुआ थ। पौराणिक उपाख्यान के अनुसार असुरराज वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा से ययाति का विवाह हुआ, एक दिन शर्मिष्ठा व देवयानी अन्य सखियों के साथ सरोवर स्नान कर रही थीं, उन सभी के वस्त्र सरोवर तट पर रखे हुए थे, उसी समय शिव पार्वती सरोवर के पार्श्व से निकले, सभी कन्याएँ सकुचाकर सरोवर से निकलकर शीघ्रता से वस्त्र बदलने लगीं , शीघ्रता मे शर्मिष्ठा व देवयानी ने एक दूसरे के वस्त्र पहन लिए, अत: शर्मिष्ठा व देवयानी में विवाद हो गया, शर्मिष्ठा ने देवयानी से वस्त्र छीनकर उसे कुएँ मे धकेल दिया। बाद में देवयानी को राजा ययाति ने कुएँ से अपने दुपट्टे के सहारे से बाहर निकाला। देवयानी देवगुरु बृहस्पतिके पुत्र कच के श्राप से श्रापित होने के कारण ब्राह्मण विवाह से वंचिता थीं । देवयानी ने हाथ पकड़ कर कूप से बाहर निकालने वाले राजा ययाति से विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे ययाति ने प्रारब्ध मानकर स्वीकार कर लिया। राजा ययाति ने शर्मिष्ठा पुत्र पुरु से उसका यौवन माँग कर युवा हुए और काम से तृप्त होकर अपने पुत्र पुरु को यौवन वापस कर देने का आख्यान विशेष रुप से ख्यात रहा । राजा ययाति के पुत्र यदु से यादव और पुरु से पौरव क्षत्रियवंश प्रसिद्ध हुए। बहुत समय तक मध्यदेश का यह अंतर्वेद राजा ययाति व उनके वंशजो के अधीन रहा राजा ययाति की स्मृति लिए जाजमऊ और देवयानी की स्मृति लिए देवयानी सरोवर, मूसानगर, कानपुर मे विद्यमान है।

एक अन्य अनुश्रुति है कि जाजमऊ का किला चन्देल राजा चन्द्रवर्मा का है। महमूद गजनवी (९९७ - १०३० ई०)के साथ भारत आया अलबेरूनी (९७३- १०४८ ई०) ने अपनी किताब ' किताबुल हिन्द ' मे जाजमऊ का उल्लेख जज्जामऊ के रूप मे मिलता है। जाजमऊ का दूसरा नाम सिद्धपुर भी मिलता है और उसकी स्मृति मे सिद्धनाथ महादेव व सिद्धा देवी के मंदिर व घाट गंगातट आज भी अवस्थित है | लेकिन वर्तमान मे राजस्व अभिलेखो मे वजिदपुर दर्ज है।

लब्धप्रतिष्ठ पुरातत्वविद स्व० डा. एल एम वहल ने जाजमऊ के पुरावैभव को भी प्रकाश मे लाए। डा. बहल के मुताबिक सन् १९५० ई० के लगभग श्री राजकुमार सिन्हा (प्रसिद्ध क्रान्तिकारी) ने ताम्रयुगीन-ताम्रीन आयुध इस पुरास्थल से खोजे निकाले। उन ताम्रायुधो मे मुख्यत: कांटेंदार बर्छी (Harpoon) कुल्हाड़ी (Celt) गोलछल्ला (Ring) थे। इन आयुधो को लगभग २५०० - २००० वर्ष ईसा पूर्व का माना गया है। जाजमऊ के सर्वेक्षण व अन्वेषण से प्राप्त मृदभाण्डो मे विशेषरुप से उल्लेखनीय गेरुए रंग के मृदभाण्ड (O.C.P.) लाल व श्यामवर्ण के पालिशदार मृदभाण्ड ( Black polished ware ) भूरे रंग के चित्रित मृदभाण्ड(P.G.W) उत्तरी कृष्ण परिमार्जित मृदभाण्ड (N.B.P.) और उसके बाद शुंग, कुषाण, गुप्त मध्यकालीन व मुस्लिम ग्लेजड वेयर के मृदभाण्ड भी वहाँ से प्राप्त हुए है। पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार उपरोक्त उल्लेखित मृदभाण्डो की तिथि लगभग २००० वर्ष ई०पू० से १७०० ई० के आसपास आती है। जाजमऊ से अनेक मृण्मय मूर्तिया (Terracotta human and animal figurine) भी समय समय पय प्रकाश मे आयी है। विशेष उल्लेखनीय है- मौर्य, शुंग, कुषाण, एवं गुप्तकाल के अवशेष,अनेक प्राचीन सिक्के आहत रजत मुद्राएँ (Punch Marked Coins), कुषाण, गुप्त, मध्यकाल, दिल्ली सल्तनत, मुगल, तथा अवध के सिक्के विशेष रुप से प्राकाश मे आते रहे है। जाजमऊ से अभिलिखित मुद्रा व मुद्रांकन (Seal and Sealing) भी प्रकाश में आ चुकी है। विशेष उल्लेखनीय हाथी दाँत से निर्मित सिंह की आकृति से युक्त अभिलिखित मुद्रा जिस पर मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में 'वषलष' शब्द अंकित है। संभवत: यह मौर्यकालीन किसी राजपुरुष की नामांकित मुद्रा (Seal ) रही हो। कुषाण व गुप्तकालीन अनेक मुद्रा व मुद्रांकन यहाँ से उपलब्ध हो चुके हैं। यहीं से गुप्तकालीन (५०० ई०) भगवान बुद्ध की एक पाषाण प्रतिमा उपलब्ध हुई थी जो आजकल लखनऊ संग्रहालय मे प्रदर्शित है। यहाँ के पुरातत्व उत्खनन से कुषाण व गुप्त युग की विभिन्न इमारतों के ध्वंसावशेष प्र्काश मे आये है जो आज भी दृष्टब्य हैं।

गंगा तट पर स्थित जाजमऊ के अनेक घाट व मंदिर भी हैं। यहाँ से प्राप्त पाँच बुन्देलखण्डी सनदें जो समय समय पर पंडों को प्रदत्त की गयीं। पहली सनद महराज वीरसिंह देव की सन् १६२१ की है। दूसरी व तीसरी सनद महाराज कुमार पदमसिंह देव व महाराज हिरदेशाह द्वारा सन् १७१७ मे प्रदत्त है, चौथी सनद महाराज श्री राज जगतराज जूदेव जो छत्रसाल के पुत्र थे। द्वारा सन् १७४३ मे प्रदत्त और पाँचवीं सनद ओरछा नरेश महाराज श्री जसवन्त सिंह जूदेव द्वारा प्रदत्त् हिजरी सन् १११४ (१७३२- ३३) की थी।

प्राचीनकाल से जाजमऊ कानपुर का भूभाग दक्षिण पंचाल का अंग रहा हैं। डॉ० अंगनेलाल जी कि 'उत्तर प्रदेश के बौद्ध केन्द्र' पुस्तक के अनुसार व बौद्ध साहित्य के मुताबिक अहोगंग (हरिद्वार) से सहजाति (भीटा,प्रयागराज) तक जाने वाला मार्ग व राजगृह से तक्षशिला जाने वाला सुप्रसिद्ध वणिक पथ कानपुर जिलान्तर्गत होकर ही जाता था। सहजाति से अग्गलपुर (वर्तमान कानपुर का जाजमऊ का विशाल टीला) तत्पश्चात उदुम्बर, कान्यकुन्ञ (कान्यकुब्ज), संकस्य (संकिसा) सोरेय्य (सोरो) से यह मार्ग सीधे अहोगंग पहुँचता था। उदुम्बर नगर को भी कानपुर जिले मे स्थित माना गया है। अग्गलपुर की पहचान कानपुर मे गंगा नदी के दाहिने तट पर स्थित जाजमऊ के विशाल टीले से की जाती हैं। अग्गलपुर मे सौरेय्य बौद्ध विहार के अधिष्ठाता भिक्षु भदन्त रेवत महास्थाविर ठहरे थे बाद में अहोगंग बौद्ध विहार के भिक्षु प्रमुख भदंत संभूत साणवासी साठ भिक्षुओं के साथ अग्गलपुर विहार मे ठहरे थे। जाजमऊ मे उत्खनन से बुद्ध व गुप्तकाल के पर्याप्त प्रमाण मिले है। उत्खनन से प्राप्त एक मृदभाण्ड जो ६.९ से०मी० व्यास का टूटा हुआ है, इस पर अशोककालीन ब्राह्मी लिपि मे 'उपतिशेष' लेख अंकित है। उल्लेखनीय है कि भगवान गौतम बुद्ध के श्रेष्ठ शिष्य सारिपुत्र का जन्म उपतिस्स ग्राम मे हुआ था, जिसके कारण सारिपुत्र का व्यक्तिगत नाम ही उफतिस्स तथा सारिपुत्त उपतिस्स पड़ गया था। स्पष्टत: जाजमऊ का एक स्तूप सारिपुत्र (उपतिस्स) की स्मृति मे भी अशोक ने बनवाया होगा। जाजमऊ का सघन उत्खनन हो तो सारिपुत्त (उपतिस्स) स्तूप के साथ मौदगल्यायन का स्तूप व तथागत भगवान बुद्ध का धातु स्तूप भी प्राप्त होगा | सारिपुत्र व मौदगल्यायन दोनो घनिष्ठ साथी व सहयोगी थे , प्राय: दोनो के स्तूप भी साथ साथ मिलते हैं। उपतिस्स अंकित मृदभाण्ड ३०० - २०० ईसा पूर्व का माना गया है। जाजमऊ से प्राप्त मृदभाण्ड में हस्तिनख का अंकन भी प्राप्त है। बौद्ध धर्म से संबंधित हस्तिनख प्राय: कुषाणकालीन बुद्ध प्रतिमाओ में मिलता है। उक्त मृदभाण्ड मे मयूर का अंकन मौर्यवंशी केन्द्र की सूचना देता है। अशोक के समय (२७३ से २३२ ई०पू०) का व सारिपुत्त उपतिस्स के महत्व का परिचायक जाजमऊ बुद्धकालीन अग्गलपुर है |

जाजमऊ से उत्खनन मे कुषाण व गुप्तकाल के अवशेष प्रचुरता मे मिले है | एक मुद्राछाप ( सीलिग) मे बौद्ध धर्म का मूल सूत्र अंकित मिला, जो इस प्रकार है- ....

"ये धर्मा हेतु प्रभवा हेतु तेषा तथागतो ह्यवदत,
तेषा च यो निरोधो एवं वादि महा श्रमण:"

उपरोक्त मुद्राछाप (सीलिग) में मूल सूत्र अंकन के ऊपर तीन स्तूप बने हुए हैं। बायीं ओर चित्रित स्तूप मे एक नाग बना है। मुख्य स्तूप और उसके दाहिने अंकित स्तूप के मध्य भी एक नाग टेढ़ी मेढ़ी रेखा के रुप मे बना है। मुद्राछाप के तीन स्तूपों में मुख्य स्तूप के दायें बायें लघु स्तूप बने हैं,ये तीनों स्तूप बुद्ध व उनके दो अग्र श्रावक सारिपुत्त और मौदगल्यायन के प्रतीक चिन्ह हैं। उपतिस्स अंकित मृदभाण्ड की सार्थकता भी सिद्ध होती है। गुप्त युग मे नाग बौद्ध धर्म के संरक्षक व शक्ति संपन्न थे। गुप्तकाल मे प्रत्येक बौद्ध विहार स्तूप मे उपरोक्त सूत्र को सन्निधानित करना प्राण प्रतिष्ठा मानी जाती थी, अस्तु जाजमऊ के विहार व स्तूप की प्रतिष्ठा बौद्ध सूत्र के साथ की गई होगी। इसी प्रकार एक स्टोन सील मे ब्राह्मी लिपि मे 'समघा' (SAMGHA)अंकित भी प्राप्त है जो जाजमऊ मे बौद्ध भिक्षु संघ का प्रतीक है। जाजमऊ से बुद्ध की एक पाषाण प्रतिमा भी मिली है, जो राज्य संग्रहालय मे संरक्षित हैं।

जाजमऊ में ही दिल्ली के पहले सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के एक मुसलमान फ़कीर मखदूम शाह की दरगाह है। यह दरगाह प्राचीन हिन्दू इमारतों की सामग्री से निर्मित है परन्तु इस रुप में उसे बनवाने का श्रेय फ़िरोजशाह तुगलक (१३५१- ८८ ई०) को दिया जाता है, जिसने संभवत: दरगाह मे चंदन के दरवाजे लगवाये थे। संभवत: बंगाल विजय (१३५९ ई०) अभियान मे जाजमऊ होता हुआ गया होगा। दरगाह की बाहरी दीवार पर उक्त बादशाह के तीन लेख लगे हैं। उनसे पता चलता है कि उक्त सुल्तान वहाँ आया और मखदूमशाह के वंशज सदरुश्शहीद गियासुल हक मुहम्मद बिन यूसुफ को ज़मीन प्रदान की थी। उक्त लेख की तिथि ७६१ हिजरी या सन् १३५८ ई०है। दरगाह के पार्श्व मे ही काजी खानदान के मकान हैं जो फारुकी शेख हैं और मखदूमशाह के वंशज कहलाते हैं। मखदूमशाह के वालिद काजी सिराज-उद्दीन की कब्र भी दक्षिण मे स्थित कब्रगाह में है, जिसे गंजे-शहीदान या शहीदों का विश्रामस्थल कहा जाता है। मखदूमशाह के भाई के संबन्ध मे कहा जाता है कि वे काफिरों के विरुद्ध लड़ते हुए मारे गये और उनका कटा हुआ सिर वहाँ से उड़ता हुआ जाजमऊ मे आकर गिरा, जहाँ उसे मखदूमशाह के मकबरे के बगल मे एक छोटी सी कब्र के भीतर दफना दिया गया।

शहंशाह हुमायूँ अपने पिता बाबर की ओर से सन् १५२६ ई० मे आगरा से जाजमऊ आया, उसके आने पर यहा के नसीर खां आदि अफगान अमीर किला छोड़कर भाग गये। वाकेआती मुश्ताकी के मुताबिक हुमायूँ ने किले मे दाखिल होकर नदीतट पर विश्राम किया था। आईने अकबरी के मुताबिक शहंशाह अकबर के समय इलाहाबाद सूबे मे कोड़ा सरकार के अन्तर्गत जाजमऊ एक महाल (परगना) था। जाजमऊ :- बीघा ६२१९५-१०, राजस्व ३१०६.३४६ दाम। घाल दाम सुयूर १३९९३६। गंगा के किनारे किला बना है। घुड़सवार २००, पैदल ४०००, हाथी ०७, जातिय़ाँ- अफगान, लोदी, राजपूत, वैस। जाजमऊ टीले पर एक जिन्नातों की मस्जिद है जो औरंगजेब के सदरेजहां (सेनापति) कुलीच खां ने सन् १६७९ मे बनवायी थी। कहा जाता है कि औरंगजेब ने (१६८१ - ८२ ई०) ने यहाँ की य़ात्रा की थी।

कानपुर के कलेक्टर रावर्ट मांटगोमरी की (१८४७- ४८) की रिपोर्ट के मुताबिक- 'Purgunuh Jajmow derives it's name from one Rajah Jydad Pooree, who lived many centuries ago, and resorted to the river Ganges, close to where the present village stands, for the purpose of bathing in the stream. Before his death he built a fort and village, and cut down a thick jungle. Jajamow of the present day is a corruption of Jydad.

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रचनाकार परिचय

अनूप कुमार शुक्ल

ईमेल :

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 13 जुलाई 1971
जन्मस्थान- मैथा, मारग कानपुर देहात
लेखन विधा- स्थानीय इतिहास / पुरातत्त्व/साहित्य/संस्कृति
शिक्षा- परास्नातक हिन्दी
सम्प्रति- राजकीय सेवा एवं स्वतंत्र लेखन 
प्राकाशन- स्फुट
सम्मान- बहुत सी संस्थाओं से मानपत्र व सम्मानोपाधियों से अलंकृत
विशेष- "लिविंग इन्सक्लोपीडिया " के रूप में ख्यात
संपर्क- केनाल कालोनी गोविन्दनगर कानपुर नगर
मोबाइल- 9140237486