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देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम' की कहानी 'आख़िरी हँसी'

देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम' की कहानी 'आख़िरी हँसी'

गँवई-गाँवों में ज़्यादातर लोगों के नामों के शुरुआती शब्दों को तोड़-मरोड़, काट-छाँटकर कहने- बोलने का चलन सदियों से है। दरअसल इससे कहने-बुलाने में बड़ी सुविधा और सरलता होती है और आत्मीय निकटता मानी-समझी जाती है। मसलन, राजेश को रज्जू, रमेश को रम्मू, बड़े बेटे को बड़कुर, बड्डू या बड़का, छुटके को लहुरा, छोटू या चुट्टू। लड़कियों के नामों की भी काट-छाँट कर दी जाती है। सीता- सितिया हो जाती है, पूर्णिमा- पुनिया और शीला- सिल्ली।

मौली काका से जुड़ी कोई बात करनी हो तो कहाँ, किस सिरे से शुरू करना सही होगा? यह एक सवाल हर बार, किसी के दिमाग को अरझा देता है। मैं भी तो अरझा ही हूँ। .....कहाँ से सुनाऊँ? मैं बेटू और मेरी तीन बहनों के सम्मान्य, प्यारे चन्द्रमौलि काका!

गँवई-गाँवों में ज़्यादातर लोगों के नामों के शुरुआती शब्दों को तोड़-मरोड़, काट-छाँटकर कहने- बोलने का चलन सदियों से है। दरअसल इससे कहने-बुलाने में बड़ी सुविधा और सरलता होती है और आत्मीय निकटता मानी-समझी जाती है। मसलन, राजेश को रज्जू, रमेश को रम्मू, बड़े बेटे को बड़कुर, बड्डू या बड़का, छुटके को लहुरा, छोटू या चुट्टू। लड़कियों के नामों की भी काट-छाँट कर दी जाती है। सीता- सितिया हो जाती है, पूर्णिमा- पुनिया और शीला- सिल्ली। जैसे कि क्रिकेटर वीरेन्द्र सहवाग को वीरू, हरभजन को उनके फैन ने भज्जी, महेंद्रसिंह धोनी को माही कर दिया, वैसे ही हमारे 'चन्द्रमौलि' काका के नाम को 'मौली' किया गया। उनके नाम को लेकर पहली मर्तबा किसी को भी यह सवाल परेशान करता ही है कि चन्द्रमौलि को कायदे से चंदू होना था। फिर उनको उनके पीछे के आधे नाम से उन्हें क्यों बुलाया जाता है? अब इसका हमें क्या पता? हाँ, शायद वही लोग क़ायदे से बता-समझा सकते होंगे, जिन्होंने हरभजन सिंह को 'हर्रू' न कहके 'भज्जी' कहा होगा।

हास- परिहास के हल्के- फुल्के, अच्छे मूड में बरसों पहले काका ने ही अपना नाम 'मौली' रखे जाने का प्रसंग अपने साले को यानी हमारी काली काकी के भाई, श्यामू भैया के पिता, हमारे बड़े मामाजी को बताया था। साले-बहनोई के बीच हुए उस वार्तालाप को छुटपन में मन्जो ने सुन लिया था। अब यह मन्जो कौन है! अरे, वही हमारी बड़की मंजुला दिदिया। उसी ने छुपके जो- जैसा, जितना सुना था, जस का तस यह चन्द्रमौलि से 'मौली' नाम रखे जाने के पीछे का वाक़या हमारी घरेलू बालमण्डली से मजे लेकर कह सुनाया था।

काका के नामकरण को पधारे वर्तमान कुलपुरोहित चुट्टू महराज के स्मृतिशेष पिता 'कल्लू महराज' यानी 'कालिका प्रसाद चौबे' ने जन्म नक्षत्र, राशि के हिसाब से 'च' अक्षर से कई नाम सुझाये। हमारे बाबा गणेशदत्त मिसिर शिव के परम भक्त जो ठहरे, सो उन्हें 'च' से शुरू होनेवाले कई नामों में से एक यह 'चन्द्रमौलि' ही खूब सुहाया। कल्लू पंडिज्जी ने तो एक आसान सा, पापुलर नाम 'चन्द्रशेखर' भी सुझाया था। पर दस गाँव के दायरे में में यह एकदम नया और कुछ अलग सा 'चन्द्रमौलि' नाम ही हमारे बाबा को खूब सुहाया।......मौली काका ने मामाजी से बताया था, जो मन्जो दिदिया ने बरोठे के किंवाड़ों की ओट में खड़े होकर सुना था। काका मामा से कह रहे थे .....' यदि हम तब दुधमुँही उमर के अबोध बचवा न होते, तो अपना नाम जरूर 'चन्द्रशेखर' ही रखते........'

दरअस्ल मौली काका 'महात्मा गाँधी' को जितना मान देते हैं, उससे राई- रत्ती कमतर नहीं मानते 'सुभाषचन्द्र बोस', 'बिस्मिल',अशफ़ाक़उल्ला 'चन्द्रशेखर आज़ाद' और 'भगतसिंह' जैसे कई बलिदानियों को। ........खैर, उनके नामकरण के बाद ही जब दादी ने 'चन्द्रमौलि' को बड़े दुलार से 'चंदू' कहके टेरा, तो बाबा की हजामत को आये झल्ली नाई ने ये कह बाबा को हुल्ला दिया, " बब्बूजी, गाँवे माँहीं तौ पहलेन से दुई ठे चंदू हँय। एक तौ बूचा बरऊ का पोता, दूसरे घीसल काछी के लरिका। अपना सोची, भला बबुआ का ई 'चंदू' कहब क़ुच्छू निकहा फबी का ?"

बस, सुनते ही बाबा हुड़क गए। तत्काल घोषणा कर दी, "या चंदू- फन्दू कौनो ना कही- बोलाई। आज से हमरे पोता का 'मौली' कहिके सब कोऊ बोलाई, सबहीं सुन-समझ लिहेन।" उसी दिन से चन्द्रमौलि काका, हो गए 'मौली'। अब मौली ठहरे हमारे इकलौते काका! हमारे बाबूजी हेतराम मिसिर के एक ठो छोटका भाई। हमारी बऊ के दुलारे देवर। दो सालों के इकलौते बहनोई। दो सलहजों के लाड़ले नन्दोई। कोई ऐरे-गैरे मामूली आदमी तो हैं नहीं। काली काकी के मायके के परिवार के पूज्य मान-दामाद, उस पर रिटायर्ड फौजी और सोच- विचार से पूरे बागी। मौली काका तमाम गाँव- समाज, जात-बिरादरी के तमाम दकियानूसी रीति-रिवाज़ों, ढकोसलों के सख्त और मुखर विरोधी। वे चालीस बरस पहले के अंडर ग्रेजुएट हैं। धर्म-आस्था उनके लेखे किसी शख्स का निहायत निजी मामला है। वे ईश्वर को मानते थे पर उनका ईश्वर आदमी का बनाया ईश्वर नहीं था। उनका ईश्वर इसी धरती और धरती के ईमानदार, सच्चे ,मेहनती आदमी में रहता है। खेत-खलिहान, मिट्टी, नदी-नाले, झील-झरने, पेड़-जंगल, पर्वत-सागर,आग-पानी, सूरज-आकाश ही सच्चे और प्रामाणिक प्रत्यक्ष ईश्वर हैं। यद्यपि किसी के व्यक्तिगत विश्वास, धर्म से उन्हें कोई एतराज न था लेकिन किसी ईश्वर, ख़ुदा के नाम पर खून-खराबे, द्वेष, पाखण्ड, लूट, धर्म-मज़हब के नाम पर सियासत,और लोगों में आपसी फूट, रार-तकरार के सख्त खिलाफ थे। अपने विचारों को सिद्धांत के स्तर पर ही नहीं, अपने आचरण में भी सख़्ती से अमल में लाते थे। मौली काका की शख्सियत की इन खासियतों के बावजूद वे बड़े ही उदार, साफदिल, बेजोड़ हँसोड़ और विनोदप्रिय हैं। उनकी ठट्ठेमार उन्मुक्त हँसी की खूब ख्याति है। गाँव के हर उम्र के लोगों से उनका तालमेल हो जाता है। शर्त यह कि सामने वाला किसी भी जाति-वर्ग, धरम-मज़हब, सम्प्रदाय-पंथ का, बच्चा-बूढ़ा, जवान-अधेड़, अमीर-गरीब, साक्षर-निरक्षर हो या औरत-मर्द, अपनी सूरत और सीरत, कथनी और करनी में भीतर- बाहर से एकरूप हो। वैसे भी पेट में दाँत रखनेवाले दोगलों से भिड़ने में फूफा को कोई भय नहीं लगता है। गाँव के ही कई बड़े रसूखदार ओहदेदारों, दबंग नेता, सियासती सफेद पोशों और बिगड़ैल, बेलगाम शोहदों, अमीरज़ादों से ताउम्र भिड़ते-टकराते ही उनकी ज़िंदगी गुज़री लेकिन अब वह एकदम से बुढ़ापे की दहलीज पर आ खड़े हैं।........
बरसों पहले सी काका की सेहत भी नहीं रही। अब कितनी चीजें, बातें, वाकये वे बिसर जाते हैं। पिछले बरस काली काकी के देहावसान के बाद से तो वे माह दर माह तेजी से टूटते और बुढ़ाते जा रहे हैं। तुनकमिजाज़ ही नहीं, अब कुछ- कुछ सनक गये-से भी लगते हैं। दिन-ब-दिन उन पर विस्मृति अपना असर दिखाने लगी है। इसलिए मौली काका से उनकी विधुर अवस्था के इस पड़ाव पर हर किसी को अधिक ही सचेत रहना पड़ता है। कभी किसी विषय पर उनसे बहस करनेवाले की हाज़िर दिमागी, सूझ- समझ और माकूल वक़्त पर इस्तेमाल की गई हाज़िरजवाबी की चातुरी पर ही उसकी दुर्गति या सुगति टिकती है। सीधे-सरल शब्दों में कहें कि काका के सोच-समझ, सम्वेदन-सरोकारों वाले उनके हमख़यालों की ही उनसे निभती-पटती है। चतुर, चालाक किस्म के दोमुँहे-दोगले उनसे जहाँ कतराते हैं, वहाँ गाँव के आम खेतिहर- मजूर, ठेले- पटरी, फेरीवाले, छोटे-मंझोले रुज़गारी और सच्चे, मेहनती लोग उनसे बेखौफ़ कहीं, कभी भी निर्द्वंद्व मिलते बतियाते और खूब हँसी-मज़ाक करते देखे जाते हैं। अक्सर जब अतिविश्वासी लोग चूक जाते हैं, तब मौली काका ऐसे नादान मुँहझौंसियों का कोर्ट मार्शल कर, लम्बे वक्त तक उन्हें ज़ुबान पर लगाम लगाकर सिर्फ सुनने-गुनने और बेहतर सीखने के लिए निलंबित कर देते हैं। ........

शायद इसी वजह से उनका सरपुत श्यामानन्द, हमारी काली काकी के बड़े भाई सत्यप्रकाश मामा का बड़ा बेटा है, जो अब तक उनके हत्थे नहीं चढ़ा। श्यामू भैया को आये दो दिन हो गए, पर वह इधर- उधर करते मानो उनसे बचते रहे हैं। पहले दिन की लौटती दोपहर में जब वह आये थे, तब ही मौली काका से पाँयलगी कर, आशीष ले हड़के बछेड़े जैसे भागकर हमारी बउ और अपनी अम्माँ-काकी के पास चले गए थे।
" बेटू, पास-पड़ोस और गांव भर में इस-उस के पास सींग घुसाते रहे हैं अपने आस्ट्रेलियन बबुआ!" अपने तौर पर कुछ ऐसा ही सोचकर उस घड़ी मुझसे कहा था काका ने!

दरअसल गाँ व में श्यामू भैया के हायर सेकण्डरी स्कूल के दिनों के कितने ही दोस्त सहपाठी इस गाँव से भी हैं। यहाँ से बारह किलोमीटर फ़ासले पर तब के बड़े गाँव आज के तहसीली कस्बे में नया हायर सेकंडरी स्कूल खुला था। आसपास के मिडिल स्कूलों वाले गाँवों के सैकड़ों विद्यार्थी वहाँ भर्ती हुए। तब के दोस्तों से मिलने- जुलने और गप-शप में ही उनका वक्त ज़ाया हो गया। श्यामानन्द ने अपने दोस्तों से इन दो दिनों में अपने मौली फूफा की बदली शख्सियत और स्वभाव का पूरा विवरण जान-समझ लिया है। गलतफहमी दूर करने के नेक इरादे से श्यामू भैया, आज मौली काका के सामने आने को खुद को तैयार कर सके हैं..........

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आखिरकार श्यामू भैया आज दोपहर के खाने के दौरान धर लिये गए। उनके लिए फ़ौजी आदेश हो गया मौली काका का, "आज शाम की चाय की बैठक के विशिष्ट अतिथि हमारे आस्ट्रेलियन सरपुत बबुआ श्यामानन्द होंगे। कोई शक?"
"नो स'र !" खाने पर जुटी बच्चों-बड़ों की हमारी पूरी पारिवारिक पंगत ने फौजी रंगरूटों की भाँति सहमति दी। ज़ोर का ठट्ठा मारकर हँसते काका के साथ सब दिल खोलकर हँसे। मौली फूफा के उस पूर्व परिचित हँसी-ठट्ठे पर श्यामानन्द भी अपनी हँसी रोक नहीं सका किन्तु उसका दिमाग उलझ गया था। फूफा तो इतने नेह-छोह से उमगते बोल रहे थे, मानो सरपुत श्यामानन्द से उन्हें कोई नाराज़गी ही नहीं। यही तो उनका खास अंदाज है, जो कई बार लोगों को भयाक्रांत भी करता है। फूफा अपने ऐसे ठट्ठों के पीछे जाने कितने अनुत्तरित प्रश्न, असमंजस, सन्देह और रहस्य छुपा लेते हैं।......... मुझसे अपनी जिज्ञासा जाहिर की थी श्यामू भैया ने," बेटू, मौली फूफा तो लगता ही नहीं कि मुझसे नाराज़ हैं। तुम कह रहे थे कि...."
मैने हँसकर कहा, "अरे श्यामू भैया, काका इन दिनों भुलक्कड़ हो गए हैं न। वे भूल गए होंगे। किसी-किसी को तो उसके चेहरे से नहीं पहचानते। नाहक अपनी जान हलकान कर रहे हो आप।"

दरअसल हमारे ममेरे भाई श्यामानन्द कुछ साल से आस्ट्रेलिया में हैं। सुना है वह लाखों रुपये महीने की नौकरी करते हैं। बीवी-बच्चे भी साथ रखते हैं। पिछली बार, काली काकी के दशगात्र पर श्यामू भैया की पत्नी, हम सबकी 'शील' भाभी ही आई थी। शोक संदेश मिलने के बाद जैसे-तैसे दशगात्र के दिन वह अकेली ही यहाँ पहुँची थीं। मृत्यु के बाद दुख- पीड़ा के कारुणिक माहौल में रोते- बिलखते नात-रिश्तेदारों के बीच अपने बच्चों को न ले जाने का सुझाव भाभी को श्यामानन्द ने ही दिया था। तमाम कोशिशों के बाद भी उन्हें छुट्टी नहीं मिल सकी थी। लेकिन भैया ने उसी वक्त फूफू की वर्षी में आने का निश्चय कर लिया था। ..........
अब कल के दिन फूफू की वर्षी होगी। उसके बाद एक दिन अपने गाँव- घर में ठहर वह अगले दिन दिल्ली से आस्ट्रेलिया लौट जाएँगे, यह बात आने के कुछ देर बाद ही उन्होंन बरसी में आये अपने पिता, काका-काकी और दोनों भाइयों को भी बता दी थी। यह जानकारी प्रत्यक्ष तौर पर मौली काका को किसी ने नहीं दी या टाल गए लेकिन हमारे काका ठहरे रिटायर्ड फौजी। जुगाड़ से वे यह सच जान ही गए कि ऑस्ट्रेलियन पंछी बरसी के एक दिन बाद ही उड़ जाएगा। इसीलिए मौली काका ने आज शाम के चाय दरबार में श्यामू भैया की हाजिरी अनिवार्य कर दी थी।

मौली काका कोई एलियन या खतरनाक हिंस्य वनैले तो हैं नहीं, न उनके सींग उगे हैं। वे पागल, सरफिरे कतई नहीं। बस,ज़रा जज़्बाती,अतिभाषी और ठट्ठेबाज हैं। उनके साले पीठ पीछे उन्हें 'बकलोल बहनोई' कहकर खूब मजे लेते हैं। यूँ सामने से हर कोई उनसे बिचकता-डरता है। वाग्जाल फेंक फँसाने में माहिर मौली काका से सब परास्त हो चुके हैं। वकील होते तो जाने क्या कर गुज़रते। पर उनको तो देशसेवा का ज़ुनून चढ़ा था। एक बरस ही स्कूल मास्टरी की। घर में किसी को बिना बताए उस बरस अनूपपुर में खड़ी भर्ती से रंगरूट हो गए। फौज में जाने के पन्द्रह दिन बाद एक अंतर्देशीय पत्र काली काकी के नाम से भेजकर फौजी बनने की खबर दे, अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी।..........

साल में दो मर्तबा छुट्टी पर घर आते थे काका। जब आते सबको कुछ न कुछ स्पेशल उपहार अवश्य लाते। जितने दिन छुट्टी पर रहते, घर में खूब गहमागहमी रहती। गाँव के स्कूल के प्लेग्राउंड पर रोज शाम को बॉलीबाल का खेल होता था। मौली काका वहाँ जाकर खेलते और युवा खिलाड़ियों को नए नियमों का पालन कर लगन से खेलने का अभ्यास कराते। ...........

विवाह के बाद के शुरुआती सात वर्षों में काली काकी की कहने को कोख दो बार हरियाई, किन्तु उनका मातृत्व का सपना अधूरा ही रह गया। बड़े जीवट के थे दोनों। अपने बड़के हेतराम भाई यानी मेरे बाबूजी के बच्चों पर अपना सारा ममत्व-वात्सल्य लुटाते। काली काकी और मौली काका के स्वभाव में बेहद समरूपता थी। काका कहें ग्यारह खर्च कर दो, तो काकी कहें इक्कीस करो न ! काकी कहें सवा पाव मीठा, एक नारियल लाना है, तो काका बाज़ार से दो नारियल और सवा किलो मीठा ले आये। जब काकी ने पूछा," मीठा तो ठीक लाये पर ये नारियल दो काहे लाये महाराज ?" काका ने ठट्ठा मारकर इसका सकारण समाधान किया, " जब हमारी-तुम्हारी जोड़ी कायम है तो भला नारियल एक क्यों, जोड़ा काहे न फोड़े जाएँ।" उस दिन से काकी जब भी भगवान को नारियल की मनौती बदें, तो यही कहें,"हे भगवान, भोलेशंकर, हमरे बेटू को अव्वल नम्बर से पास कर दिह्या। हम जोड़ा नारियल चढ़उबै!"

अब यह बेटू कौन? अरे भाई, जब से बेटू ही तो 'मौली- कथा' बखान रहा है यानी 'मैं'। मैं ज़हीन तो था लेकिन पढ़ने से लापरवाह खेलने में ही मस्त रहता था। उन दिनों गाँव-गँवइयों में भी क्रिकेट की घुसपैठ हो चुकी थी।..... गिल्ली-डंडा, डंडहाव-गड़हा गेंद, नदी तैरते मुड़थपकी जैसे कई पिछली पीढ़ी के पुराने फैशन के खेल अब कोई भी नहीं खेलता था। हाँ, बॉलीबाल, कबड्डी अभी भी चुनौती थे क्रिकेट के लिए। इनके प्रति गाँ व में लोगों की पूरी दिलचस्पी आज भी कायम है। .
दरअसल मैं थोड़-थाड़, कामचलाऊ पढ़कर ही ठीकठाक नम्बरों से पास हो जाता था। काली काकी मेरी बाऊ से कहतीं, "थोड़ा खिलंदड़पन से हटकर पढ़ने में वक्त लगाएँ, तो प्रथम श्रेणी ला सकते हैं हमारे बेटू।"

तीन बहनों का एक लाड़ला छोटा भाई जो था मैं। जब हाई स्कूल बोर्ड परीक्षा का रिजल्ट आया, तो मेरी काकी के शंकर जी ने अपनी साख बचाई या काली काकी की मनौती पूरी की, वही जानें। लेकिन मैं प्रथम श्रेणी में पास हुआ। नम्बर थे इकसठ प्रतिशत। काकी ने दावा किया था,"बेटू, यह एक-दो प्रतिशत जो नम्बर ज्यादा पाकर अव्वल आये हो न! यह मेरे शंकर जी ने ही दिया है।"
मेरे बाबूजी, बाऊ और मौली काका ने सन्तोष ज़ाहिर किया था।
"अभी तो हाई स्कूल है, हायर सेकण्डरी में देखना कमाल करेंगे बेटू।" काकी ने तब मुझे पानी धराया,
"काहे बेटू, बारहवीं में अच्छे नम्बरों से अव्वल अउबै ना?" सुनकर मैं परेशान और संजीदा हो गया था। क्या कहूँ? तभी काकी ने मानो मुझे हवा में खड़ा कर दिया, " काहे बेटू, अपनी काली काकी का विश्वास तो न तोड़बै। बारहवीं में पचहत्तर-अस्सी प्रतिशत नम्बर तो लाकर रहबै। बेटा किसका है अपनी काकी और फौजी काका का!" उस पल का मुझे कुछ होश-हवास नहीं। कैसे मेरे मुँह से किसने बोल दिया, "क्यों नहीं काकी, लाएँगे। हम जरूर लायेंगे। अस्सी परसेंट से भी ज्यादा नम्बर लाकर दिखाएँगे।" मुझे खूब याद है, कैसे नेह से हुलस- उमग कर काकी ने छाती से छुपका लिया था मुझे और शंकर जी को जोड़ा नारियल, सवा पाँच किलो लड्डू चढ़ाने की मन्नत कर दी थी......

मौली काका तथा काली काकी के सन्तानहीनता के दर्द की दवा बन गए हम सब। दोनों का ममत्व सार्थक होने लगा। दोनों इसी नेह-छोह और हृदय की उदारता की राह पर चलकर आनन्द और सुख-संतृप्ति के ऐसे मकाम पर पहुँचे, जहाँ औलादवाले भी कमतर ही पहुँचते हैं। वे घर-परिवार के तमाम बच्चों में ऐसे रमे कि कब वक्त गुज़र गया, हमें आभास ही नहीं हुआ।

हमारी उम्र अब विवाह के लायक हो गयी है। बाऊ चिंता जाहिर करती है। तीन बहनों में सबसे छोटी और मुझसे बड़ी बहन अंजो का विवाह कर उसका कन्यादान लेने की सलाह हमारे परिवार, बिरादरी ही नहीं, मामा लोगों ने भी काली काकी और मौली काका को जब दी, तो काकी की खुशी का ठिकाना न था। काका कैसे न स्वीकृति देते। काकी की खुशी के लिए वे सर्वस्व लुटा दें। ...... किन्तु यहाँ भी एक पेंच फँस गया। बड़ी बाधा खड़ी कर दी, जाति-बिरादरी, परिवार, रिश्तेदार और हमारे कुलपुरोहित ने।

दरअसल फौज में जाने के कारण मौली काका-काकी ने अब तक गुरुमंत्र नहीं लिया था। बरस-दर-बरस वह टलता गया। अब भतीजी के विवाह में गुरुमंत्र लेने की अनिवार्यता का बड़ा दुर्गम पहाड़ सा मानो अड़कर खड़ा हो गया।

"गुरुमंत्र नहीं लेने पर आप दोनों कन्यादान नहीं कर सकेंगे यजमान!" कुलपुरोहित ने अंजो दिदिया के वर का टीका-तिलक करने जाने की तैयारी के दौरान जब यह घोषणा की थी। सुनते ही मौली फूफा बिगड़ैल साँड़ की भाँति एकबारगी बिफर उठे,"यह कनफुक्का कराने से तो हम रहे महाराज !"
"तो फिर कन्यादान ?"
" अरे कइसन कन्यादान हो पंडित दादा?" काका ने अपने अकाट्य तर्क का वजनी लट्ठ ठोंक दिया, "काहे हो? ई बिटिया हवै कै कौनो चीज-बसत या रुपिया- पइसा? बतावा, ई कौनो नाज-बीज, ओह्ना-कपड़ा हवै कै गइया-बछिया, जेहिका हम दान दई देउब।"
"अरे मौली, कुच्छू हमारौ तौ सुनबै। बिटिया पराया धन होवत हय। कन्यादान पुरातन-परम्परा हय । निवाहें का परत हय भाई।" बाबूजी ने उन्हें समझाने का असफल यत्न किया था। मौली काका ने नहीं माने और बरोठे में लगी उस बैठक से उठ आये थे।......

अंजना मेरी तीसरी बहन है। दिन -ब-दिन टूटती, घाटे पर घाटे देती परम्परागत धान- गेहूँ की खेती के बूते भला कोई खेतिहर कितने व्याह कर सकेगा?। मेरी हायर सेकेंड्री और अंजो दिदिया की नर्सिंग की पढ़ाई का पूरा व्यय भार काका ने अपने सर पर ले रखा है।

बाबूजी ने दो बेटियों मंजुला और मृदुला को जैसे- तैसे कुछ बड़ी उम्र के शहर में पुरोहिताई करते दो सगे भाइयों से व्याह दिया था। वे शहर में रहते हैं। पंडताई से अच्छी कमाई है मेरे दोनों बहनोइयों की। वह तो भला हो मौली काका का, जो तीसरी बेटी अंजो के व्याह का व्ययभार उठाने को वे सहज ही मान गए। अपने बड़े भाई को उद्धारने को तैयार मौली काका कहने को तो हैं बड़े ही दुर्हठी, सिद्धांत के पक्के लेकिन उन्होंने अंजो का विवाह खूब खुले हाथों और धूमधाम से किया। किन्तु काका- काकी ने न तो गुरुमंत्र लिया, न ही कन्यादान किया। काली काकी भी मौली काका की पक्की अनुगामिनी निकली। न कोई दुख, असंतोष, न ही ग्लानिबोध। घर-परिवार, न समाज, बिरादरी से किसी भी तरह का शिकवा-गिला। सगे पिता की तरह ही दिल खोलकर खर्च किया है। ..........

इधर अंजो की विदाई हुई, उधर मेरा रिजल्ट निकला। पनियाई आँखों से अखबार में मेरा रोल नम्बर देखने लगे काका। मैं तो घबराहट, उत्तेजना, आशंका के मारे वहाँ से भाग लिया। अटरिया में जाकर बिस्तर पर औंधे मुँह तकिए में चेहरा छुपाकर पड़ गया था। कुछ पल बीते कि एकाएक मौली काका अखबार हवा में उछालकर आनन्द और उत्तेजना से चिल्लाए, "अरे बेटू, कहाँ है तू? कमाल कर दिया तूने यार! फर्स्ट डिवीजन आया है तू! "
आँगन से काका की आवाज़ सुन भागा मैं। सीढ़ियों पर ही काका ने भर लिया आगोश में। काली काकी पूजाघर के द्वार पर माथा टेक रही थी। फौरन मौली काका भागे बाज़ार। दूकान में जितना लड्डू था, सब तुलवाकर घर भेजने को कहा और नारियल खरीदने चले गए।.......

नौ किलो लड्डू और जोड़ा नारियल शिवजी के मंदिर में काली काकी चढ़ाकर लौटीं। मोहल्ले में धूम मच गयी। कहाँ तो अभी अभी अंजो को विदा कर सब दुखी और उदास थे, कहाँ अब सब मुझे बधाई-आशीष देते अघा ही नहीं रहे। कुछ रिश्तेदार अभी भी थे। मैं सबकी चरन रज ले रहा है। पूरे घर का माहौल बदलकर आनन्दमय हो रहा है। काका ने मेरी इस सफलता पर उत्साहित होकर आशीष के रूप में अपनी घड़ी कलाई से उतारकर मुझे पहना दी.....

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शाम की चाय पर सब आ जुटे और आत्मविश्वास से भरे-पूरे श्यामानन्द भैया भी! मौली काका के हर सवाल का नपा तुला और अपने संक्षिप्त जवाब से समाधान करने को वे मन ही मन तैयार होकर आए हैं।

बाबूजी कुछ बेसब्र सा होकर मुझ पर हौंके, "ससुर हिएँ बइठे दंतनिपोरी करत हय। चार बजि गवा के ना। उठिके जाइ देखा के तोहार मौली काका अबहुँ सोय के काहे नाहीं उठा?"
मैं उठ के अटरिया की सीढ़ियों की ओर लपका। बन्द द्वार तक पहुँचने से पहले ही गुहार लगाई, "काका,अबै नाहीं उठ्या का? हरबी उठि के नीचे आवा। ऑस्ट्रेलियन मुजरिम पेशी पर आइ गये हैं।"
मैं हैरान हो गया, कमरे में काका की जगाहट की कोई आहट-आभास नहीं, न कोई जवाब। मैंने ऒढ़के हुए किंवाड़ों पर धक्का दिया। किंवाड़ खुल गए। देखा मौली काका करवट लिए पड़े हैं। दक्षिणी दीवार पर खुलती खिड़की से दूर तक खेतों का लंबा सिलसिला दीखता है। काकी के न रहने पर कई मर्तबा जागने के बाद देर तक काका उन्हीं खेतों की छोर तक देखते रहते हैं, जहाँ यह सिलसिला डोंगरिया के पाँव तले खत्म होता है, वहाँ भितरीगढ़ की पहाड़ियों की श्रृंखला के आँचल की घाटियों से बहकर आये नाले के इस पार हमारे बड़े परिवार का पुश्तैनी श्मशान है। गये साल काली काकी का दाह संस्कार वहाँ किया गया था। मुझे लगा काका रोज की तरह जागकर लेते हुए उसी ओर देख रहे आज भी देख रहे हैं।......अनाहट पलंग के पास पैताने रुककर मैंने देखा; काका जिस तरह बेहरकत पड़े खिड़की के पार देख रहे हैं, आज उनका वह वैसे देखना मुझे कुछ अजीब और अस्वाभाविक सा लगा, "काका !" मैंने धीरे से पुकारा। कुछ आशंकित हो मैंने न चाहते हुए भी जोर से उन्हें पुकारा, "काका.........! " काका ने इस बार भी कोई जवाब नहीं दिया। मेरे शरीर में अब अजीब सी दहशत हुयी और मेरा शरीर अबूझ सिहरन से भर गया। एकबारगी शरीर के समूचे रोंये तन्ना उठे। मैंने पलंग के पास जा मौली काका के पाँवों को पकड़कर हिलाया, "काका?" मेरे धड़कते सीने के भीतर कोई हवा का गोला सा मानो अँड़सकर रह गया। अब व्यग्र हो मैंने सामने से जा काका के दोनों कंधे को पकड़ लिया और जोर से हिलाया। काका उतान होकर रह गए। मेंने अब उनकी दोनों बाँहैं झकझोरते हुये फूटती रुलाई के साथ गुहार लगाई,"काका....आ!....आ.....!"

काका वहाँ होते तो बोलते न। मैं उनकी छाती से बेतहाशा लिपट हिलक-हिलककर रोने लगा, "काका, ......काका........आ !......काका.......आ !.......मेरे रोने का आर्त स्वर सुन समूचा घर अटरिया की ओर बदहवास दौड़ा। "के भवा हो बेटू? काहे रोउते हए?" सब अधीर होकर पूछते, सीढ़ियां चढ़ने लगे। सबसे पहले श्यामू ने अटरिया के भीतर पहुँचकर जो देखा, तो उनकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। कितना असह्य, मर्मभेदी और अविश्वसनीय सच उसके सामने है। चार- पाँच घण्टे पहले दोपहर को ठट्ठे मारते फूफा सहसा ऐसे एकबारगी खामोश हो गये। कल ही तो काली फूफू की बरसी है और आज मौली फूफा विदा ले फूफू के पास पहुँ च गये।.. ......

बाबूजी को तो सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते ही गश आ गया। दो जन कंधों से थामकर उन्हें अटरिया के भीतर लाये। छोटे भाई को इस नाउम्मीद अवस्था में देखते ही वे चकराकर काका के पलंग के सिरहाने ही ढह गए .....। श्यामनन्द की मति कुंठित हो गयी। किसे सम्भाले? बेटू रो रहा है। बड़े फूफा बदहवास पड़े साँसें लेते लेते खाँसने- हाँफने लगते है। तभी आँधी-पानी-सी अटरिया के द्वार पर बड़ी फूफू आ खड़ी हैं और अपने लाड़ले देवर मौली के इस मजाक पर छाती पीटती बार बार पुकारती और रोती है,"आपन भउजी से अइसन हँसी-ठट्ठा ना करा हो बेटवा मौली।...... अरे विधाता! .....ई कइसन बज्जुर मारि दिहे हम पर रे.......ए!.......ए! .....अब उठि तौ परा हो मौली .....ई !....ई!........आपन भौजी के टेर तौ सुना हो मौली !"........ई!.........ई!.... .....श्यामू भैया की माँ- काकी उन्हें संभालती और रोये जा रही हैं।........और श्यामानन्द? उसे तो यकीन ही नहीं ही रहा कि मौली फूफा आज उसकी सुनवाई किये और कोई सज़ा सुनाए बिना ही क्यों चले गये! वह बाउर- सा कैसी हैरानकुन निगाहों से अपलक देख रहा है मौली फूफा को। वह मन ही मन अपराधबोध की गहन ग्लानि से भर रहा है। उसे लगा, फूफा कह रहे हैं, 'बेटे, जब से आये हो, हमसे बच-बचाकर गाँव भर में घूमने निकल लेते हो। काहे कटे-कटे रहते हो बबुआ? तुम तो हमारे सामने नहीं आये, न ही घड़ी भर नेरे बैठ के कुछ बोले- बतियाये! लो बबुआ, हम ही निकल लिए! हम भी तुम्हारे फूफा जो ठहरे! क्यों बबुआ, अब भी अपनी फूफू की बरसी के दूसरे दिन तुम ऑस्ट्रेलिया जा सकोगे?........ मन में यह सब सोचकर उसका मन ग्लानिजन्य आत्म धिक्कार और अथाह पीड़ा से भर गया। सहसा वह जोर-जोर से हिलक-हिलककर जलस्रोत सा फूट पड़ा। फफक-फफक धाराधार रोते हुए मौली फूफा के दोनों पैर अपनी छाती से सटाकर वह साष्टांग लोट गया, मानो फूफा से क्षमादान की याचना कर रहा है......

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रचनाकार परिचय

देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम'

ईमेल : devendrakpathak.dp@gmail.com

निवास : कटनी (मध्य प्रदेश)

जन्मतिथि- 27 अगस्त 1956
लेखन विधा- वरिष्ठ कथाकार, कवि
संप्रति शिक्षक पद से सेवानिवृत्त। अब अध्ययन, लेखन, काश्तकारी।
प्रकाशनउपन्यास, कहानी, कविता, व्यंग्य, कथेतर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित। चार दशक से लेखन, पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन।
सम्मान- विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित
संपर्क- 1325, साईपुरम कॉलोनी, कटनी, मध्यप्रदेश
मोबाइल- 8120910105