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देवेन्द्र पाठक 'महरूम' के गीत

देवेन्द्र पाठक 'महरूम' के गीत

अस्ताचल पर बुझा अंगारा,
धुँधला हर परिदृश्य हो रहा,
बोध नहीं पथ, दिशा, समय का
गहन तिमिर में लक्ष्य खो रहा;


गीत- एक

पाँव पहाड़ लगे होने

यात्रा पूरी नहीं हुई पर
पाँव पहाड़ लगे होने,
हाथ- अंगुलियाँ पकड़ खो रहीं,
डब- डब आँखों के दोने।

अस्ताचल पर बुझा अंगारा,
धुँधला हर परिदृश्य हो रहा,
बोध नहीं पथ, दिशा, समय का
गहन तिमिर में लक्ष्य खो रहा;

असमंजस से घिरा- भरा मन,
आस- भरोस लगे खोने।
पांव- पांव पर सांस फूलती,
नस-नस दर्द मुरेर रहा है,
जर्जर अस्थि-बाड़ को मानो
रह- रह वात उरेर रहा है;

निराकार भय- सा दुबका है
अंतस के आंतर - कोने।

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गीत- दो

भाव कौड़ियों हाट लुटा दी

हम कितने आरोप धर रहे,
कभी समय पर कभी नियति पर;
अपनी होती हर इक क्षति पर।

हमने स्वयम गंवा दी अपनी
मूल्यवान पूंजी युव- वय की,
नही साध पाए हम अपनी
गति सांसों की अन्तर्लय की;

अपनी उन्नति पर इतराये,
रोये किस्मत को अवनति पर।

पद- मद- मदिरापान किया,
मर्यादा की हर रेख मिटा दी,
पुरखों की बहुमूल्य सम्पदा
भाव कौड़ियों हाट लुटा दी;

समय सत्य को भेज रहे हैं
सौ- सौ लानत हम दुर्गति पर।

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गीत- तीन

जो गोपन था सब ओपन है

शयनकक्ष से पूजाघर तक
काबिज़ अब बाज़ार हो गया,
सुखमय घर- परिवार खो गया।

जिसकी नहीं जरूरत थी कल
आज जरूरी बहुत लग रही,
लोभ- लाभ की हुलक- पुलक
अब खुल्लम- खुल्ला हमें ठग रही;

आभासी सम्बन्ध बन रहे,,
रिश्तों का संसार खो गया।

मर्यादाएं तार- तार हैं,
जो गोपन था सब ओपन है,
बचपन की है समझ सयानी,
यौवन के हिस्से भटकन है;

सारा मन- संवेदन पथराया,
कौन दिलों में ख़ार बो गया ?

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गीत- चार

हमने दुख को मीत बनाया !

हाथ हिला, कह 'हैलो' हँस दिया,
सुखाभास भुजपाश कस लिया,
पर अछोर आकाश दुखों का
दो आंखों में नहीं समाया,

नयनकोर से बहा अश्रु बन
शोकगीत निःशब्द सुनाया।

जब भी हुआ पारिभाषित सुख
दुख के ही सापेक्ष हुआ,
पर दुख सदा स्वयं सत्यापित,
स्वानुभूत, निरपेक्ष हुआ।

आखिर सुख के अट्टहास का
आँसू पर ही हुआ समापन,
हर बासंती राग विरागी
आतप के आगोश समाया।

यह जड़हीना अमरवल्लरी सा
जंजाल जीव जग जीवन,
फूल फल रहा दुख धरती पर
हर दिशि, हर पग,हर दिन,पल-छिन।

दुख के पास कभी जा बैठें,
उसका साक्षात्कार कर सकें,
दुख में भी सुख सिरज रहे हैं
हमने दुख को मीत बनाया।

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गीत- पाँच

लहालोट भेड़ों की रेहड़

समय हुआ कब भला- बुरा,
कब किसके पक्ष- विपक्ष हुआ;
समय - आरसी में हम हैं जो
वह ही सत्य समक्ष हुआ।
आशय- अर्थ बदल शब्दों के
मनमाफ़िक परिभाषा गढ़ ली,
वाग्चातुरों ने अमानुषिक
लिप्साओं की सीढ़ी चढ़ ली;

अंतिम जन के सुख सपनों का
स्वीकृत लक्ष्य अलक्ष हुआ।

खैराती चारे पर होती
लहालोट भेड़ों की रेहड़,
औंधेमुँह गिर रहीं गर्त में
धार छुरों पर देते बूचड़;

मात्र छाँव का आश्वासन है
छल खजूर का वृक्ष हुआ;

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रचनाकार परिचय

देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम'

ईमेल : devendrakpathak.dp@gmail.com

निवास : कटनी (मध्य प्रदेश)

जन्मतिथि- 27 अगस्त 1956
लेखन विधा- वरिष्ठ कथाकार, कवि
संप्रति शिक्षक पद से सेवानिवृत्त। अब अध्ययन, लेखन, काश्तकारी।
प्रकाशनउपन्यास, कहानी, कविता, व्यंग्य, कथेतर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित। चार दशक से लेखन, पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन।
सम्मान- विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित
संपर्क- 1325, साईपुरम कॉलोनी, कटनी, मध्यप्रदेश
मोबाइल- 8120910105