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डॉ० अमिता दुबे की कहानी- छल

डॉ० अमिता दुबे की कहानी- छल

सौमित्र के आने के बाद हमारी दिनचर्या रसमय हो गयी थी। अब अपेक्षाकृत अनिंद्य और अरुशी हमें कम याद आते थे। सौमित्र ने वह स्थान ले लिया जो मेरे बच्चों के बाहर जाने से रिक्त हुआ था। मेरी ममता फल-फूल रही थी। अभिजीत ने भी कभी मुझे कुछ नहीं कहा। एक प्रकार से उसके प्रति मेरी बढ़ती ममता को उनकी भी स्वीकृति प्राप्त थी।

 ‘वो’ छलिया था उसने मेरी ममता को छला। वो यानि सौमित्र। मैं सुमित्रा और वह मेरा लाड़ला बेटा सौमित्र। पहली बार जब मैंने उसका नाम सुना तो मेरे मन में अचानक यह विचार आया कि मैंने अपने बेटे अनिंद्य का नाम सौमित्र क्यों नहीं रखा। शायद उस समय मुझे सूझा ही नहीं था या यों कहिये पति अभिजीत के नाम के प्रथम अक्षर ‘अ’ को महत्त्व देते हुए मैंने अपनी बेटी को ‘अरुशी’ और बेटे को अनिंद्य नाम दिये। दोनों ही सुन्दर नाम हैं लेकिन ‘सौमित्र’ सुनकर मुझे अनायास अपना नाम और अस्तित्व स्मरण हो आया अन्यथा घर-गृहस्थी के दायित्वों के बीच मैं ऐसे रच-बस गयी थी कि कुछ भी याद नहीं रह गया था। आगे चलकर सौमित्र मेरा बेटा ही बन गया। भले ही उसे मैंने नौ महीने कोख में नहीं रखा न ही पाला-पोसा लेकिन उसे अपना पुत्र मानने में मुझे एक क्षण भी नहीं लगा।

     सौमित्र से मेरी भेंट पाँच वर्ष पुरानी है। 23-24 वर्ष का स्वस्थ-सुन्दर व्यक्तित्व का स्वामी सौमित्र अभिजीत के घनिश्ठ मित्र प्रतुल के साढ़ू भाई का बेटा है। एक बहु-राष्ट्रीय कम्पनी में बिक्री-प्रचारक के रूप में उसकी नियुक्ति हुई थी। धनबाद का रहने वाला वह पहली बार दिल्ली में नौकरी करने आ रहा था। माता-पिता की चिंता स्वाभाविक ही थी लेकिन बच्चे का उज्ज्वल भविष्य उनकी ममता पर बाँध बना रहा था। प्रतुल भइया का सिफारिशी पत्र लेकर उसने हमारे दरवाजे पर दस्तक दी। प्रतुल भइया का आग्रह था- ‘अभिजीत और भाभी! इसकी देखभाल की जिम्मेदारी तुम्हें सौंप रहा हूँ। रहने-खाने की उचित व्यवस्था करवा देना। अपनी माँ का बहुत लाड़ला है घर छोड़ते समय फूट-फूट कर रोया था पगला। जरा भावुक है इसे तुम्हीं लोगों को सहेजना होगा। पहली बार घर से बाहर जा रहा है न।‘

     प्रतुल भइया का पत्र पढ़कर अभिजीत थोड़ा गम्भीर हो गये। मेरे दोनों बच्चे आजकल बाहर थे। अनिंद्य बैंगलोर से एम०बी०ए० कर रहा था और अरुशी, डाॅक्टरी की पढ़ाई पढ़ने के लिए बनारस में थी। दोनों छुट्टियों में आते थे। लेकिन जैसे-जैसे पढ़ाई बढ़ रही थी उनके आने की अस्वस्ति कम होती जा रही थी। हमारा घर न बहुत छोटा है और न बड़ा। दो कमरे, लैटरीन, बाथरूम, किचन और लाॅबी नीचे और एक कमरा अटैच लैटरीन बाथरूम ऊपर। जबतक अनिंद्य यहाँ था ऊपरी कमरे में उसका कब्जा था। अरुशी नीचे पीछे वाले कमरे में पढ़ती और सोती थी। लाॅबी को हमने ड्राइंगरूम के रूप में सजा रखा था।

     अभिजीत की गम्भीरता में विद्यमान दुविधा को मैं समझ रही थी। मेरे ऊपर आने वाले अतिरिक्त भार को वह महसूस कर रहे थे। मैंने ही पहल की - ‘अभि ! अगर हम सौमित्र के लिए ऊपर का कमरा ठीक कर दें तो।’ ‘लेकिन अनिंद्य के आने पर समस्या होगी’ अभिजीत ने हल्का सा प्रतिवाद किया जिसे मैंने यह कहकर नकार दिया कि अनिंद्य अब आता ही कितना है और यदि आयेगा भी तो हम लाॅबी में सो जायेंगे उसे बेडरूम दे देंगे। इस प्रकार सौमित्र हमारे घर में स्थापित हो गया और धीरे-धीरे हमारे जीवन का हिस्सा बन गया। मुझे याद है पहले दिन जब वह ड्यूटी पर जा रहा था तब मेरे पास झिझकते हुए आकर खड़ा हो गया- ‘आण्टी, मैं भगवान के पैर छूना चाहता हूँ।’ मैंने उसे पूजा की अलमारी बता दी। भगवान जी से निपटकर वह मेरे पास आया और झटके से मेरे पैर छूकर तीर की तरह बाहर चला। मैं मुस्करा उठी।

     ऐसी ही छोटी-छोटी बातें हमें तेजी से समीप ला रही थीं। सौमित्र अनिंद्य की अपेक्षा अधिक चंचल था। एक ही सप्ताह में वह हमसे घुल-मिल गया। घर से जुड़े छोटे-मोटे काम उसने अपने मजबूत कंधों पर उठा लिये। वह सुबह जल्दी उठ जाता। जब तक मैं चाय बनाती वह मोटर चलाकर पानी की टंकी भर लेता। ऊपर गमलों में लगे पौधों को पानी देना अब उसका काम हो गया था। अभिजीत को अदरक तुलसी की चाय बहुत पसन्द थी। इसलिए हमारे घर में बारहों महीने सुबह की पहली चाय अदरक-तुलसी की ही बनती थी। सौमित्र भी हमारे साथ वही चाय पीता था।

     सौमित्र के आने के बाद हमारी दिनचर्या रसमय हो गयी थी। अब अपेक्षाकृत अनिंद्य और अरुशी हमें कम याद आते थे। सौमित्र ने वह स्थान ले लिया जो मेरे बच्चों के बाहर जाने से रिक्त हुआ था। मेरी ममता फल-फूल रही थी। अभिजीत ने भी कभी मुझे कुछ नहीं कहा। एक प्रकार से उसके प्रति मेरी बढ़ती ममता को उनकी भी स्वीकृति प्राप्त थी।

     एक दिन दोपहर को अभिजीत के कार्यालय से फोन आया। वह कार्यालय में काम करते-करते बेहोश हो गये थे। उन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा था। मेरे हाथ पैर फूल गये। मैंने सौमित्र को फोन किया वह अभि के पास मुझसे पहले पहुँच गया था। बार-बार मुझे सांत्वना देता जा रहा था। और एक बेटे की पूरी जिम्मेवारी निभा रहा था। कहाँ कितना खर्च हुआ डाॅक्टर ने क्या दवा बतायी ए.सी. कमरे का किराया कितना है इन बातों के बारे में मैंने कुछ जानना चाहा तो उसने साधिकार मुझे टोक दिया आपको क्या करना है जो कुछ भी है सब मैं देख रहा हूँ ना। अभि को एक सप्ताह अस्पताल में रहना पड़ा था। घर आने के बाद भी उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था। सौमित्र अब ऑफ़िस के अलावा घर से बहुत कम बाहर निकलता पहले कभी-कभी किसी दोस्त वगैरह के पास हो आता था। लेकिन अब जैसे अभिजीत के आसपास ही रहता। वह अभिजीत से ढेरों बातें करता उसने उनसे ‘पापा’ कहने की छूट ले ली थी। उसने अनिंद्य और अरुशी को फोन भी नहीं करने दिया था। दोनों की परीक्षाएँ निकट थीं। वह मुझे भी माँ कहने लगा था। मेरे बच्चे मुझे ‘मम्मा’ और अभि को ‘डैड’ कहते हैं। सौमित्र के मुँह से पापा और ‘माँ’ हमारे कानों को बहुत भला लगता। धीरे-धीरे हम उसके आदी हो रहे थे। उसकी पसन्द का खाना बनाने में मुझे बहुत खुशी मिलती थी।

     अभिजीत के गिरते स्वास्थ्य से मुझे बहुत अधिक चिंता हो रही थी। लेकिन सौमित्र के होने से बहुत सहारा भी था। अभिजीत अभी मेडिकल लीव पर चल रहे थे। उनके साथी उन्हें अक्सर से देखने आते थे। कभी फोन पर बातें होतीं। सबकी राय थी उन्हें अभी छुट्टी बढ़ानी चाहिए। लेकिन अभिजीत तैयार नहीं हो रहे थे। घर में लेटना उनके लिए एक सजा की तरह था। लेकिन भगवान ने उन्हें दोबारा ऑफ़िस जाने का मौका नहीं दिया। दशहरे से पहले शनिवार की रात वे हमसे बातें करते हुए सोये। उस दिन अनिंद्य और अरुशी भी आये हुए थे। उनके आने का सुनकर सौमित्र अपने घर चला गया था। पिछले पाँच महीनों में वह केवल एक दिन के लिए धनबाद गया था। उसके घर से शिकायती फोन आ रहे थे लेकिन उसने उनका जिक्र भी हमसे नहीं किया। अनिंद्य और अरुशी हमारे साथ ही सो गये। अभिजीत बहुत संतुष्ट थे। बच्चों से अपने बचपन की बातें करते रहे। कैसे हमारी शादी हुई कैसे अनिंद्य के जन्म के समय हम बारी-बारी से अनाड़ियों की तरह उसको रात भर गोद में लिये बैठे रहते थे कहीं बच्चा जग न जाय।

     किसे पता था कि अभिजीत सुबह हमारे बीच नहीं होंगे। सुबह मैं उठी तो देखा वे सो रहे थे। मैं धीरे से बाहर आ गयी। मोटर चलाकर पानी भरा गमलों में पानी डाला। चार कप अदरक, तुलसी की चाय बनायी। अरुशी और अनिंद्य अभी तक सो रहे थे। उन्हें जगाया। अभिजीत को दो-तीन आवाज़ें दीं वह नहीं बोले। मेरी आवाज़ में घबराहट मिल गयी। अरुशी ने मुझे हटाकर अपने डैडी की नब्ज देखी। भाई-बहन की आँखें मिलीं। अनिंद्य तेजी से बाहर भागा। कुछ ही क्षणों में हम पास के नर्सिंग होम में थे। डाॅक्टर ने अभिजीत का परीक्षण कर बताया सोते में ही रात को किसी समय उनकी साँस रुक गयी थी। हमारे लिए इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता था। अनिंद्य और अरुशी हतप्रभ थे। मैंने सौमित्र को फोन मिलाने को कहा बहुत कोशिश की गयी लेकिन उसे फोन नहीं मिला।

     अभिजीत की अस्थियाँ लेकर अनिंद्य अभी श्मशान से लौटा है। शाम को उसे हरिद्वार जाना है। ‘अरे सौमित्र भइया ! तुम्हें तो रविवार को आना था’ अरुशी की आवाज़ कानों में पड़ती है। ‘हाँ लेकिन न जाने क्यों वहाँ मेरा मन नहीं लगा। छुट्टी बाकी होने के बाद भी लौट आया। अब तुम लोगों के साथ छुट्टी बिताऊँगा। यह बताओ घर में इतना सन्नाटा क्यों है। पापा और माँ कहाँ हैं ? अनिंद्य सौमित्र को बता रहा है लेकिन मुझे कुछ सुनायी नहीं दे रहा है। शायद मैं बेहोश हो गयी थी। जब आँख खुली तो तीनों बच्चे मुझे घेरे खड़े थे। सौमित्र पर निगाह पड़ते ही मैं फफक-फफक कर रोने लगी। उसने मुझे एक छोटे बच्चे की तरह अपनी छाती से चिपका लिया - माँ! तुम चिन्ता क्यों करती हो, हम सब हैं।’ ‘सबकुछ कैसे होगा सौमित्र!’ ‘पापा के अधूरे काम मैं पूरा करूँगा माँ! तुम्हारा बड़ा बेटा हूँ तो तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होने दूँगा।’

     सच में उसने निभाया भी। अनिंद्य और अरुशी मुझसे अकेले छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। लेकिन सौमित्र ने उन्हें जबर्दस्ती भेजा और मेरा पूरा दायित्व अपने ऊपर ले लिया। जल्दी ही अभिजीत की जगह मुझे नौकरी मिल गयी। उनकी सेवानिवृत्ति में अभी दस वर्ष शेष  थे। जीवन ढ़र्रे पर चलने लगा। मैं निश्चिन्त हो घर में रहती थी अभी ऑफ़िस की भाग दौड़ शुरू हो गयी। सौमित्र अपनी गाड़ी से मुझे ऑफ़िस छोड़ देता। शाम को लेने भी आ जाता। हम माँ-बेटे मिलकर घर का काम करते अपने सुख-दुःख बाँटते। अनिंद्य और अरुशी बराबर फोन करते। छुट्टियों में जब कभी अनिंद्य आ जाता तो सौमित्र धनबाद चला जाता। उसके घर वाले जब भी फोन करते वह खीजकर एक ही बात कहता माँ को यहाँ अकेले कैसे छोडूँ।’

अभिजीत की मौत ने मुझे समझदार बना दिया था। अच्छा-बुरा समझने लगी थी। कभी-कभी सौमित्र का माँ-माँ की रट लगाकर लाड़ दिखाना मुझे अटपट लगने लगा था। इधर मेरे मन में बराबर यह विचार आने लगा था कि यह लड़का अपनी माँ के इतने आग्रह कैसे ठुकरा लेता है। जबकि मेरे मुँह से कोई बात निकलते ही उसे पूरी करने दौड़ता है। अबकी बार जब वह घर से आया तो हँसकर बताने लगा, ‘माँ! वहाँ सब लोग मेरी शादी करना चाहते हैं। उन्होंने लड़की भी देख ली है। मैंने तो कह दिया मेरी पत्नी तो माँ की पसन्द की होगी। माँ कोई लड़की यहीं की देख लो न जिससे मुझे यहाँ से जाना न पड़े। शादी यहीं हो जाय और तुम्हारी छत्रछाया बनी रहे। मैं निहाल हो गयी। मैंने लड़की देखने का काम शुरू कर दिया। सुकन्या मुझे जँच गयी। सौमित्र को भी पसन्द आ गयी। सुकन्या अनिंद्य से कुछ छोटी ही होगी। लड़की वालों को धनबाद भेजने के बजाय सौमित्र ने अपने मम्मी-पापा को यही बुला लिया बात पक्की करने के लिए। वह भी मेरे बहुत कहने पर वरना वह तो मुझसे ही गोदभराई करने का आग्रह कर रहा था।

     सौमित्र के मम्मी-पापा निर्धारित तिथि की सुबह हमारे घर आ पहुँचे। सौमित्र के पापा ने तो ठीक प्रकार से बातचीत की लेकिन उसकी माँ कुछ नाराज लग रही थीं। मैं उनसे दो चार-बार मिली हूँ कभी भी उन्होंने इतनी रुखाई से मेरी बातों का जवाब नहीं दिया। मैं कंधे उचकाकर नाश्ते की तैयारी करने लगी। सौमित्र अपनी मम्मी को ऊपर कमरे में ले गया । मैं उन्हें बुलाने ऊपर आ गयी कि तभी कमरे से आती सौमित्र की आवाज़ मेरे कान में पड़ी- ‘मम्मी! तुम तो बेकार में गुस्सा कर रही हो। यदि वे माँ-माँ कहने से मुझे बढ़िया खाना, रहने की जगह अैर सभी सुख सुविधाएँ दे रही हैं तो मेरा क्या जाता है। घर का किराया, खान-पान का पैसा मैंने बचा लिया है। मेरा बैंक बैलेंस देखो, कल को हम सबके ही काम आना है। और तो और जब शादी उनकी पसन्द से होगी तो वह तो अपनी लाड़ली बहू को बहुत कुछ देंगी। जब तक हम यहाँ रहेंगे सब खर्च बचा रहेगा। जब मेरा ट्रांसफर हो जायेगा तब यहाँ कौन आने वाला है। वैसे भी पाँच साल हो गये हैं अब ट्रांसफर का नम्बर है। मैंने धनबाद के आसपास पोस्टिंग के लिए आवेदन कर रखा है।

     मुझे लगा मेरा दिल डूब रहा है। चारों ओर काँच ही काँच हैं और मेरा रोम-रोम घायल है। मैंने मजबूती से अपने को सम्हाला। चुपचाप नीचे उतर आयी और अपने कमरे में बिस्तर पर गिरकर फूट-फूट कर रोने लगी। जल्दी ही मुझे अपनी बेवकूफी का आभास हो गया। किस प्रकार अपने भोलेपन और अपनी भावुकता के कारण मैं पिछले चार-पाँच वर्षों से छली जा रही थी। मैं सोचती थी कि मुझ पर नेह लुटा रहा है। अब लग रहा है कितना नाटककार है वो। कैसे मेरी गोद में सिर रखकर माँ-माँ करता था और कैसे उसने अपनी माँ के सामने मेरी ममता के परखच्चे उड़ा दिये।

     बाहर दरवाजे पर दस्तक हो रही है। सौमित्र ही होगा लेकिन अब मुझे मजबूत बनना है। मैंने दरवाजा खोला वह भोला चेहरा बनाकर कह रहा था- “माँ ! तुम सो गयीं थीं क्या मैं तो डर ही गया था।” “ हाँ सौमित्र ! मैं गहरी नींद सो गयी थी मीठे-मीठे स्वप्न देख रही थी लेकिन अब नींद से जाग गयी हूँ।” यह कहकर मैं बाहर निकल आयी। सौमित्र की माँ सोफे पर बैठी थीं। मैं उनके पास बैठ गयी और बड़े स्नेह से उनके हाथ थामकर बोली - ‘बहन ! सौमित्र तो पगला है कहता है मेरी पसन्द की बहू लायेगा। लेकिन हमारे रीति रिवाज और खान-पान से आपके रीति-रिवाज और खान-पान भिन्न हैं। यहाँ की लड़की आपके परिवार में रच-बस नहीं पायेगी। अच्छा होगा इसके लिए लड़की आप अपने ही क्षेत्र में ढूढ़े। हाँ सुकन्या मुझे बहुत पसंद है वह ही मेरी बहू बनेगी। उसे मैंने अनिंद्य के लिए चुन लिया है। बहुत प्यारी बच्ची है। आप देखेंगी तो मुग्ध हो जायेंगी। यह कहकर उन्हें अचम्भित होता छोड़ मैं अनिंद्य को फोन करने उठ आयी हूँ। उसकी राय लेकर शाम को सुकन्या की गोद भरने भी तो जाना है। मुझे विश्वास है अनिंद्य मुझे निराश नहीं करेगा।

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4 Total Review

शशि श्रीवास्तव

06 August 2024

बहुत शिक्षा प्रद व पठनीय कहानी किसी पर भी जरूरत से ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए

I

Ira johri

01 August 2024

बहुत सुन्दर रचना

S

Seema Singh

25 July 2024

अपने साथ बहाकर ले गई कहानी। जैसे जैसे आगे बढ़ी वैसे वैसे उत्सुकुता बढ़ती गई। अंत झकझोर देने वाला है। कोई कैसे भावनाओं से इस तरह खेल सकता है। मानना होगा मीना दी और अल्का जी आप दोनों के श्रम को,क्या चुन चुन कर कमाल की कहानियां लाईं हैं।

A

Anita Maurya

14 July 2024

पढ़ते पढ़ते आँख भर आयी.. ऐसे मतलबी लोग भी होते हैं.. 😔

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रचनाकार परिचय

अमिता दुबे

ईमेल : amita.dubey09@gmail.co

निवास : लखनऊ (उत्तरप्रदेश)

जन्मतिथि- 15 मार्च, 1967
जन्मस्थान- लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- एम० ए०(हिन्दी, अर्थशास्त्र), एल० एल० बी०, पी० एच०डी०
संप्रति- प्रधान सम्पादक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान
प्रकाशन- पाषाणी, नयन दीप, सिलवटें, पुनर्वास, सुखमनी, सीढ़ी धनुक के रंग, सम्भावना के जुगनू (कहानी संग्रह), समझौते की दुनिया, राह मिल गयी (बाल कहानी संग्रह), कलम से क्रान्ति (बाल साहित्य), उलझन, एकांतवासी शत्रुघ्न, अमृतायन (उपन्यास), ये ‘काश‘ ही है, ऐसा मन करता है, कुछ तो बचा है, माँ हो जाना, यादें पिता की (काव्य संग्रह), कविता की आहटें, कविता की पदचाप, कविता की अनुगूँज, कविता की प्रतिध्वनि, कहानी की करवटें (समीक्षा संग्रह), छायावादी काव्य पथिक: महादेवी, निराला, आक्रोश के कवि मुक्तिबोध, अनुभूति के विविध रंग, दीपक-सा मन, कहानीकार मुक्तिबोध, अनूठे सर्जक मुक्तिबोध, अभिव्यक्ति के इन्द्रधनुष, सृजन के सोपान: डाॅ० योगेश प्रवीन, संवेदनशील रचनाकार: डाॅ० शंभु नाथ, शब्द झरने लगे (डाॅ० सरोजिनी कुलश्रेष्ठ की सृजनात्मकता), शब्द-शब्द संवेग, निराला का निराला सृजन, अर्थ अर्थ संवेद, व्यंजना सृजन की सहित 46 कृतियाँ प्रकाशित
सम्पादन- नीरव लोक
अनुवाद- सुखमनी (कहानी संग्रह) का श्रीमती सुनीता पाटिल द्वारा मराठी में अनुवाद। ‘माँ हो जाना‘ (कविता संग्रह) का श्री यशपाल निर्मल द्वारा डोगरी में अनुवाद। यादें पिता की (कविता संग्रह) का श्री यशपाल निर्मल द्वारा डोगरी में ‘चेते पिता दे‘ शीर्षक से अनुवाद।
सम्मान- डाॅ० सरोजिनी कुलश्रेष्ठ कथाकृति सम्मान-2014
राष्ट्रधर्म गौरव सम्मान-2016
गजानन माधव मुक्तिबोध सम्मान-2016
नीरज सम्मान, 2018
शिक्षाविद् पृथ्वीनाथ भान साहित्य सम्मान-2021

विशेष- 'डाॅ० अमिता दुबे व्यक्तित्व एवं कृतित्व‘ पर लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा प्रियंका मिश्र को एम फिल की उपाधि।
संपर्क- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 6 महात्मा गांधी मार्ग, हज़रतगंज, लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
मोबाइल- 9415551878