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डॉ० आरती लोकेश गोयल की कहानी- प्रत्यावर्तन

डॉ० आरती लोकेश गोयल की कहानी- प्रत्यावर्तन

दुनिया भर में लोग नौकरियों से निकाले जा रहे थे। हवाईजहाज़ हवाई अड्डों पर खाली खड़े थे जैसे बूढ़ी गाय बस खूँटा गाढ़कर घर में बँधी रहती है। वह किसी के काम की नहीं रहती और कोई उसका ध्यान नहीं रखता। यात्राएँ ही नहीं तो बुकिंग क्लर्क की ही जॉब कहाँ बची थीं। ट्रैवल एजेंसी भी एक ही कर्मचारी से सारा काम चला रही थी। अंग्रेज़ी बोलने वाला उस समय मौजूद नहीं था। कॉल सेंटर पर केवल पाकिस्तानी अटैन्डेंट था जो सूज़ी आंटी की अर्मेनियन अंग्रेज़ी को समझ नहीं पा रहा था।

आज भी होटल में कुछ खाना नहीं मिला।”

व्हाट्सएप के इस संदेश को पढ़ सुनेत्रा सुन्न पड़ गई। इन शब्दों ने उसे शरीर से जड़ कर दिया और भीतर से चलायमान। उसे कोई जवाब देते नहीं बना। कोई उपाय हो तो जवाब दे। उसकी मन:स्थिति और चिंता को वार्तालाप के उस छोर तक पहुँचा सके, ऐसा कोई ईमोजी अभी ईजाद होना शेष था। अशेष थी तो बस प्रतीक्षा, अंतहीन मार्ग पर घर आने का मार्ग तलाशती हुई। परिणाम नियंता से संचालित हैं, चेष्टा ही मनुष्य के हाथ में है पर वह निष्चेष्ट हो नवनीत की स्थिति के बारे में सोचने लगी। खाने की दस मिनट की भी देरी उसे चिड़चिड़ा बना देती थी। घर पर वह हमेशा मुस्तैदी से खाना तैयार रखती थी।

तालाबंदी को एक माह हो चला था। नवनीत का व्यवसाय वित्तीय परामर्श का व्यापार था। हर माह ही उसे किसी न किसी देश की यात्रा करनी होती थी। फरवरी में ही वह साऊदी अरब में पंद्रह दिन बिताकर आया था। समाचार तो तब से ही फैल रहा था कि इस महामारी से बचने की एक ही उपाय है कि घर से बाहर न निकला जाए। तब तक इतनी संजीदगी से सुनेत्रा ने भी कहाँ लिया था।

फरवरी के अंत में तो घर में मेहमान भी थे जो दुबई घूमने आए हुए थे। वे भी आराम से पूरा दुबई-दर्शन कर सके थे। कहीं कोई रोक-टोक नहीं थी। नवनीत को मार्च में अर्मेनिया जाना था। अगले दो माह के उसके दौरों की टिकटें बुक ही रहती हैं। दुबई में अभी लॉकडाऊन जैसी कोई बात भी न उठी थी तो उसे अर्मेनिया का दौरा कर, अपना यह कार्य निबटा लेना ही उचित जान पड़ा था। पता नहीं फिर कब ऐसा सुयोग बने। सुनेत्रा भी कहाँ अनुमान लगा सकी थी इस भयावह स्थिति का। इधर नवनीत का हवाईजहाज़ अर्मेनिया उतरा कि संसार भर में हवाई यात्राएँ अवरुद्ध होने की तैयारी होने लगी।

कुछ देशों में रखा अनाज खत्म हो गया तो खाने के लाले पड़ गए। उधर कुछ अन्य देशों में निर्यात रुक जाने से अन्न सड़ने लगा। पूरा आहार-चक्र ही बिगड़ गया था। अर्मेनिया में भी कुछ यही स्थिति थी। होटलों की रसोइयों में ताले लग गए थे। रसोइए अपने-अपने घर चले गए थे। सबको खिलानेवालों को भी भूखों मरने की नौबत आन पड़ी थी। दिन में एक बार होटल से निकलने की छूट रहती तो नवनीत कुछ बिस्कुट व क्रोसाँ आदि लाता जिनका दाम सोने के बराबर हो चला था। उसी से गुज़र हो रही थी। घर से लेकर आए हुए थेपले व खाखरा के खाली लिफ़ाफ़े मुँह चिढ़ाते दिखते थे।

आखिर कोई बीमारी कितने दिन तक फैली रह सकती है। पंद्रह-बीस दिन में सब पुन: यथावत हो जाएगा ऐसा सोचकर नवनीत अपने काम में लगा रहा। सुनेत्रा सूचना प्रोद्योगिकी से जुड़े होने के कारण अत्यधिक से अधिक व्यस्त हो चली थी। दुबई में भले ही लॉकडाऊन शब्द का इस्तेमाल न किया गया था किंतु घर से बाहर निकलना ‘ममनू’[1] था। विद्यालयों में ऑनलाइन कक्षाएँ लेने का प्रशिक्षण देते-देते सुनेत्रा को पता ही न चलता था कि कब दिन हुआ और कब रात।

नवनीत के माता-पिताजी कुछ समय पूर्व ही भारत रवाना हो गए थे। घरेलू सहायिका के आने की भी मनाही थी। सुनेत्रा के लिए यही राहत बहुत बड़ी थी कि सास-श्वसुर की जिम्मेदारी इस घोर संघर्ष के समय में नहीं है। शुक्रवार की छुट्टी वाले दिन ही वह झाड़ू को हाथ लगा पाती थी। चिंता थी तो बस नवनीत की कि खाने की समस्या का समाधान कैसे हो।

सुनेत्रा घर में अकेली बस लैपटॉप से और उस पर आती हुई आवाजों से जूझती रहती। एक विद्यालय को ‘मीट’ पर कक्षाएँ आयोजित करवानी थीं, दूसरे को ‘टीम’ पर तो तीसरे को किसी और पोर्टल पर। प्रधानाचार्यों से लेकर हज़ारों छात्रों तक के रातों-रात आई-डी निर्माण करनी और उनको इस्तेमाल करना सिखाने में उसका ‘खाना’ कहीं न था। उसे खाना पकाने का होश ही न था। वह स्वयं दो वक्त ब्रेड खाकर बस इस इंतज़ाम में लगी रहती कि उसके आधीन स्कूलों की पढ़ाई सुचारु रूप से चल सके।

एक दिन दरवाज़े की घंटी बजी तो वह हैरान रह गई। विचार किया कि बिल्डिंग का चौकीदार हो सकता है। वह सुबह छ: बजे से ही सारणी के अनुसार प्रशिक्षु अध्यापकों के सत्र लेना आरंभ कर दिया करती थी। बहुत दिनों से मुख्य द्वार खोला ही न था। संभव है कि समाचार-पत्र के ढेर लगे देखकर चौकीदार ने घंटी बजाई हो।

उसने की-होल से झाँककर देखा तो कोई दिखा नहीं। पास वाले फ़्लैट के दरवाज़े पर एक स्त्री दिखाई दी। उसने डरते हुए और कुछ आशंका से दरवाज़ा खोला।

“हाऊ आर यू?” स्त्री ने धीमी आवाज़ में पूछा।

वह एक अधेड़ उम्र की छोटे कद की गोरी-चिट्टी वज़नी महिला थी। देखने से लग रहा था कि कहीं देखा है। सुनेत्रा कुछ कहती उससे पहले ही उसकी विस्फारित आँखें बोल उठीं जिन्हें शायद उस स्त्री ने सुन लिया था।

“आई एम सूज़ी। ...सूज़ी डोकमेज़ी।” वे मुस्कुराईं।

सुनेत्रा की दृष्टि उस दरवाज़े पर लगी नामपट्टी की ओर उठी। यह डोकमेज़ी शब्द तो कुछ पहचाना-सा लग रहा है। पुन: उसकी दृष्टि की भाषा को पढ़ते हुए सूज़ी दरवाज़े से थोड़ा दूर खिसक गई और अपनी नामपट्टी पर इशारा करते हुए बोली-

“107... दिस इज़ माई फ़्लैट। ...हाऊ आर यू?” उसकी मुस्कान में एक खिंचाव था कि सुनेत्रा न चाहते हुए भी उसे एकटक देखती रही।

सुनेत्रा का अहसास हुआ कि वह उसकी दाहिने बगल वाली पड़ोसिन है। अपने फ़्लैट 108 नं से लिफ़्ट तक आते-जाते वह अकसर इस तख़्ती को पढ़ने की अधूरी-सी कोशिश करती है। दो शब्दों में से पहला ‘बेद्रोस’ ही पढ़ पाती है, डोकमेज़ी को पढ़ पाने से पूर्व ही अपने दरवाज़े तक पहुँच जाती है। 

“ओह! हैलो आंटी! प्लीज़ कम इन!” कोविड-19 की ताकीदों को भूल, आत्मीयता से भर, वह कह उठी।

सूज़ी आंटी को न पहचान पाने की हिमाकत पर उसे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। पर वह मजबूर भी थी। दो माह पहले ही घर बदला था। कामकाजी भी थी। सिर उठाने की फुर्सत ही कहाँ थी।

“नो-नो डियर! डोंट कॉल एनीवन नाओ-ए-डेज़!” कहकर वे हँसी। वे स्वयं भी तो घंटी बजाकर अपनी देहरी पर जाकर खड़ी हो गईं थी। यही उचित व आवश्यक व्यवहार था कि गजभर की दूरी बनाए रखी जाए।

“हाऊ आर यू आंटी?” सुनेत्रा ने औपचारिकता निभाई।

उसका ध्यान लगातार टीम पर चल रही मीटिंग की ओर था जिसे बीच में ही छोड़कर वह घंटी बजानेवाले को देखने आई थी। आँख की कोर से उसने लैपटॉप से आती आवाज़ को सुन, उस ओर देखा ही था कि सूज़ी आंटी ने उसकी व्यस्तता पढ़ ली और एक कुशल परीक्षार्थी की तरह उसके समस्त मौन प्रश्नों के उत्तर दे दिए।

“जस्ट वांटेड टू टैल यू, यू आर नॉट अलोन। कॉल मी फॉर एनी हेल्प।” अपना काम ज़ारी रखने की सलाह देती हुई वे हाथ हिलातीं अपने घर के अंदर चली गईं।

सुनेत्रा ने आभासी माध्यम पर उपस्थित प्रशिक्षुओं से व्यवधान के लिए क्षमा माँगी और प्रशिक्षण चालू कर दिया।

दो-तीन दिन बाद ऑनलाइन मीटिंग के मध्य फिर दरवाज़े की घंटी बजी तो सुनेत्रा जान गई थी कि हो न हों ये सूज़ी आंटी ही होंगी। वह अपना लैपटॉप हाथ में उठाकर सिखाते-सिखाते ही दरवाज़ा खोलने पहुँची और मुस्कराते हुए दरवाज़ा खोला।

“कैरी ऑन, कैरी ऑन! जस्ट चैकिंग इफ़ यू आर ऑलराइट!” वे स्क्रीन के उस पार बैठे लोगों को हाथ हिलाकर अपनी चौखट में चली गईं।

कुछ दिनों बाद विद्यालयों में ऑनलाइन कक्षाएँ चल पड़ीं तो उसे भी साँस आई। अब शाम के छ:-सात बजे तक काम खत्म हो जाता। वह शाम को नवनीत से बात करती तो वह हँसता-

“जिस मनोयोग से तुम ऑनलाइन क्लासेज़ करवा रही हो, एक दिन स्कूलों की बिल्डिंग बिकवाकर छोड़ोगी।”
“ऐसा हो पाता तो बहुत पहले ही हो जाता, इस आपदा का इंतज़ार न करना पड़ता।” वह जवाबी प्रहार करती।  
“तब शौकिया था, अब अनिवार्य है।” नवनीत भी नहले पर दहला लगाता।
“हा...ह! यही कुछ तो तुम्हारे साथ भी घटा है नवनीत!” कहते ही सुनेत्रा ने अपनी ही ज़बान काटी।

कुछ देर को टेलीफ़ोन के दोनों ओर चुप्पी छा गई।

“तुम्हारी नई सूज़ी आंटी का क्या हाल है? आई नहीं कई दिन से तुम्हारे हाल पूछने।” नवनीत ने विषय बदला और साथ ही सुनेत्रा को छेड़ने की कोशिश की।
“हाँ यार! वे हैं तो बहुत अच्छी। बहुत ध्यान रखती हैं। पर कभी बोझ-सा हो जाता है उन्हें रोज़-रोज़ अपनी खैरियत का ब्योरा देना।” अच्छे होने के लाभ-हानि से वह अनजान न थी।  
“आजकल भी रोज़ घंटी बजाती हैं?” नवनीत ने हैरानी ज़ाहिर की।
“वे बता रही थीं कि आती तो रोज़ हैं। दरवाज़े से कान लगाकर सुन लेती हैं कि मैं ट्रेनिंग दे रही हूँ तो घंटी नहीं बजातीं। कभी आराम कर रही होती हूँ तो शांति देखकर घंटी बजा देती हैं।” बताते हुए भी वह झल्ला रही थी।
“शुक्र करो कि कोई पूछ रहा है। इस कोरोना ने तो अपनों को गैर बना दिया। कोई गैर है जो फ़िक्रमंद है। ...तुम किसी को जानती ही कहाँ थी। इस बहाने एक पड़ोसी से तो दोस्ती हो गई।” नवनीत ने तसल्ली दी।
“सही कहते हो। पड़ोसी होने का फ़र्ज़ भी वह ही अदा कर रही हैं। मैं कभी उनके हाल पूछने नहीं जाती जबकि वे मम्मी की उम्र की हैं।” सुनेत्रा को अपने व्यवहार पर तनिक पछतावा हुआ।
“ये लोग हैं किस कंट्री के?” नवनीत की जिज्ञासा बढ़ रही थी।
“कनाडा की हैं।”
“न! कनाडा की तो नहीं लगतीं।” नवनीत ने असहमति जताई।
“उन्होंने खुद ही बताया था। वर्ना मुझे क्या पड़ी है जानने की कि कौन कहाँ का है।” वह तुनकी।
“मैंने उन्हें लिफ़्ट में और पार्किंग में देखा है कई बार अपने पति को पकड़-पकड़कर ले जाते हुए। वे बीमार रहते होंगे शायद।”

सुनेत्रा नवनीत से बात कर ही रही थी कि घंटी बजी। ‘आज इतनी देर से...!’ वह चकित थी। दरवाज़ा खोला था तो सूज़ी आंटी ही थीं।

उसने मोबाइल की स्क्रीन सूज़ी की ओर घुमाकर नवनीत से उनका परिचय और बात करवानी चाही।

“वेयर इज़ अंकल?” नवनीत ने पूछा।
“अंकल इज़ स्टक इन अर्मेनिया।” कहते हुए सूज़ी आंटी के चेहरे पर दर्द की लकीर उभर आईं।
“व्हाट? वेयर इन अर्मेनिया? फ़्रॉम व्हैन? आय एम टू स्टक हीयर।” नवनीत का विस्मय अपने चरम पर था।

यह एक अदभुत रहस्योद्घाटन था। सूज़ी आंटी तो हर बार नवनीत के हाल पूछती थीं और वह ‘ठीक हैं’ बताकर टाल देती थी। उसने कभी अंकल के बारे में जानने की ज़हमत ही नहीं उठाई।

सूज़ी आंटी ने तत्काल सैनिटाइज़र से हाथ मले और सुनेत्रा से आज्ञा लेकर मोबाइल अपने हाथ में ले लिया। उनकी आँखों में तरलता भर आई जब उन्होंने नवनीत को बताया कि अंकल अपने देश अर्मेनिया में इलाज कराने गए थे और वहीं फँस गए हैं। उनके पास कनेडियन पासपोर्ट है। उन्होंने लाख समझाया था अंकल को कि कनाडा में इलाज करवाएँगे पर उन्हें अपने जन्मस्थान पर अधिक भरोसा था। वे न माने और अकेले ही चले गए। वह भी जाने वाली थीं किंतु बेटी की सर्जरी  होने के कारण जा न सकीं। वह अबु धाबी में रहती है। अंकल के जाते ही वे बेटी की मदद के लिए अबु धाबी उसके पास चली गईं। जब दुबई वापस आईं और अर्मेनिया जाकर अंकल को लाने की योजना बनाई, तो उड़ानें बंद हो गईं। बताते-बताते उनकी आँखों में एक दरिया तैर गया। सुनेत्रा यह सब सुनकर सकते में आ गई। इतने दिन से वह यह भी न जान सकी थी कि उनके परिवार में कौन-कौन है। वह चुपचाप नवनीत और आंटी का वार्तालाप सुने जा रही है। 

“देखो, मैं क्या कहता था इनकी राष्ट्रीयता के बारे में, वही सच निकला न!” नवनीत ने शुद्ध हिंदी का प्रयोग कर सुनेत्रा से कहा।

सुनेत्रा ने आँखें तरेरीं। सूज़ी आंटी के उदास चेहरे पर भी यह देख मंद-मंद मुस्कुराहट आ गई। नवनीत ने पुन: सूज़ी आंटी से बात करनी शुरु की और चिंता जताई कि अंकल किस प्रकार खाने का प्रबंध करते होंगे। यहाँ तो अनाज की भारी किल्लत आन पड़ी है।

सूज़ी आंटी ने बताया कि उनका  पुश्तैनी मकान अभी भी अर्मेनिया में है। अंकल अपने घर पर ही हैं और पहले से बेहतर हैं। उनके भाई के बच्चे उनका ध्यान रख रहे हैं। भरा-पूरा परिवार होने से उन्हें ऐसी कोई समस्या से दो-चार नहीं होना पड़ रहा है। अब वे स्वस्थ भी हैं और बिना सहारे के घर भर में घूम-फिर लेते हैं। उन्हें वहाँ मेरी चिंता हो रही है कि मैं अकेली हूँ और मुझे उनकी हो रही है कि वे वापस कैसे आएँ, उड़ानें तो रद्द हुई पड़ी हैं।

“एव्रीवन इज़ सफ़रिंग, संवे और दी अदर।” कहते हुए नवनीत ने अपनी व्यथा सूज़ी आंटी को सुनाई।

सूज़ी आंटी ने अर्मेनिया में अपने घर में कहकर उसके खाने का प्रबंध करवा दिया। सुनेत्रा की जैसे जान में जान आई। अब प्रतिदिन एक समय नवनीत को खाना मिलने लगा।

“आज सूज़ी आंटी के घर से लेंटिल सूप, इमर पिलाफ़ (जौ का पुलाव), बकव्हीट खुब्ज़ (कुट्टू की चपाती), किनुआ सलाद आदि आया है।” नवनीत के इस संदेश को पढ़कर सुनेत्रा के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी।
“उन्हें कैसे पता चला कि तुम वेजीटेरियन हो?” उसने पूछा।
“अंकल का फ़ोन आया था। उनसे बात हुई। बहुत भले लोग हैं। उनका भतीजा होटल आकर दे गया।” उसने बॉटिम पर कॉल मिलाकर बात की।

संतोष की लहर दोनों ओर बह गई। कई माह इसी तरह निकले। नवनीत रोज़ ही बताता कि आज उसने क्या खाया और सूज़ी आंटी और अंकल का ढेरों धन्यवाद करता।

“अब हवाई यात्राएँ भी खुलने लगी हैं पर बहुत मारामारी है। अभी बुक कराओगे तो दस दिन बाद की ही सीट मिलेगी। जल्दी से बुक करा लेना।” सुनेत्रा ने सूचना दी।

दरवाज़े की घंटी बजी। सुनेत्रा ने दरवाज़ा खोला तो सूज़ी आंटी ही थीं।

“कैन यू टॉक टू हिम इन हिंदी?” सूज़ी आंटी अपने फ़ोन को स्पीकर पर डालते हुए बोलीं।
“हू इज़ देयर आंटी?” उसने जिज्ञासा से पूछा।
“ट्रैवल एजेंट। आई एम आस्किंग हिम टू बुक माई टिकट फ़ॉर अर्मेनिया बट ही इज़ नॉट एबल टू फ़ॉलो।” आंटी परेशान दिखीं।

दुनिया भर में लोग नौकरियों से निकाले जा रहे थे। हवाईजहाज़ हवाई अड्डों पर खाली खड़े थे जैसे बूढ़ी गाय बस खूँटा गाढ़कर घर में बँधी रहती है। वह किसी के काम की नहीं रहती और कोई उसका ध्यान नहीं रखता। यात्राएँ ही नहीं तो बुकिंग क्लर्क की ही जॉब कहाँ बची थीं। ट्रैवल एजेंसी भी एक ही कर्मचारी से सारा काम चला रही थी। अंग्रेज़ी बोलने वाला उस समय मौजूद नहीं था। कॉल सेंटर पर केवल पाकिस्तानी अटैन्डेंट था जो सूज़ी आंटी की अर्मेनियन अंग्रेज़ी को समझ नहीं पा रहा था।

“व्हाय यू वांट टू कम हीयर? आंटी!” नवनीत बोला जो फ़ोन पर इंटरनेट कॉल से सब सुन रहा था।
“हाइ नवनीत! आई हैव टू ब्रिंग बैक योर अंकल” वे बोलीं।
“नो आंटी! यू विल नॉट!” सुनेत्रा बोली।

सूज़ी आंटी अवाक् सुनेत्रा को देखती रहीं। अब प्रत्यावर्तन का समय था। सुनेत्रा ने यह जिम्मा उनसे लेकर नवनीत को सौंप दिया। सूज़ी आंटी ने सारे नियम ताक पर रख सुनेत्रा को गले लगा लिया।

पाँच माह की कोरोना-जनित विरह के बाद जब ‘एयर अरेबिया’ के हवाईजहाज़ ने शारजाह अंतरराष्ट्रीय हवाई-अड्डे की धरती भोर में छूई तो सुनेत्रा और सूज़ी आंटी की आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने देखा कि अंकल को व्हील चेयर पर बिठाकर नवनीत बाहर ला रहा था। प्रत्यावर्तित सूर्य आशा का प्रकाश छिटका रहा था।

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1 Total Review

शशि श्रीवास्तव

10 July 2024

बेहद सवेदनशील व पठनीय कहानी

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रचनाकार परिचय

आरती लोकेश गोयल 

ईमेल : arti.goel@hotmail.com

निवास : दुबई (यू ए ई)

नाम- डॉ आरती लोकेश गोयल 
संक्षिप्त परिचय
डॉ. आरती ‘लोकेश' चौबीस वर्षों से दुबई में निवास करती हैं। यू.ए.ई. के विद्यालय में वरिष्ठ अध्यक्ष होने के अतिरिक्त शोध-निर्देशिका भी हैं। अंग्रेज़ी-हिन्दी दोनों विषयों में स्नातकोत्तर होने के साथ ही हिन्दी में गोल्ड मैडलिस्ट हैं। ‘अनन्य यू.ए.ई.' पत्रिका की मुख्य संपादक हैं तथा अमेरिका, यू.ए.ई. व भारत की कई पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं तथा शोध जर्नल की संपादक, सह-संपादक तथा उपसंपादक भी हैं। इनके 4 उपन्यास, 4 कविता-संग्रह, 4 कहानी-संग्रह, 4 कथेतर गद्य, यू.ए.ई. के बालकों व वयस्कों की रचनाओं के संकलन की 5 संपादित मिलाकर 21 पुस्तकें प्रकाशित व 5 अन्य प्रकाशनाधीन हैं। इनके साहित्य पर पंजाब, हरियाणा, ओडिसा तथा यूक्रेन के विश्वविद्यालय में विद्यार्थी शोध कर रहे हैं तथा अनेक पुस्तकों पर अनुवाद किया जा रहा है। इनके साहित्य पर दो प्रवक्ताओं, डॉ. उर्मिला व डॉ. पूनम के सम्पादन में पुस्तक ‘डॉ॰ आरती ‘लोकेश’ की साहित्य सुरभि’ प्रकाशित हो चुकी है।
इन्हें भारत व मॉरीशस सरकार द्वारा सर्वप्रतिष्ठित सम्मान ‘आप्रवासी हिन्दी साहित्य सृजन सम्मान’ $2000 राशि सहित, ‘काव्य विभूषण’, ‘महाकवि प्रो॰ हरिशंकर आदेश साहित्य सम्मान’, ‘रंग राची सम्मान’, 'शब्द शिल्पी भूषण सम्मान', 'प्रज्ञा सम्मान', ‘निर्मला स्मृति हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’, ‘प्रवासी भारतीय समरस श्री साहित्य सम्मान’, ‘शिक्षा रत्न’ से नवाज़ा गया है। रेडियो ‘मेरी आवाज़’ द्वारा विश्व की 101 प्रभावशाली महिलाओं में नाम सम्मिलित है।

मोबाइल- +971504270752