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डॉ० लता अग्रवाल 'तुलजा' की लघुकथाएँ

डॉ० लता अग्रवाल 'तुलजा' की लघुकथाएँ

इंस्पेक्टर ने हवलदार को इशारा किया। पास ही खड़ी कार से सूट-बूट पहने एक साहब अपनी मेम साहब के साथ कार से उतरे, उनकी गोद में चार साल का मँहगा सूट, बूट पहने एक गोलमटोल बच्चा था।

एक- ममता

“धनिया, पत्नी हरिराम प्रजापति! तुमने थाने में रिपोर्ट लिखाई थी,अपने बेटे के गुम हो जाने की?”

आज थानेदार दल बल सहित धनिया के झोपड़े के बाहर खड़ा था।

“मालिक दुई बरस हुए रपट लिखाये रहे, मगर कौनउ खबर नाही इब तलक।”
“जितना पूछा जाय उतना जवाब दो।”
“जी मालिक लिखाय रहे।”
“कहाँ गुमा था? कहीं ढुंढवाए थे?”
“हओ मालिक, ऊ पलासिया मेला दिखाने वास्ते ले गए रहल वहीं बिछड़ गईल हमार कुरमई, बहुत खोजे मालिक... मगर नाही मिलब।” कहते हुए धनिया छलक आये आँसुओं को धोती की किनारे से पोंछने लगी।”
“मगर... मालिक दुई बरस बाद आप? का कौनउ खबर  मिली हमार कुरमई की ?”
“कहा न जितना पूछे उसका जवाब दो , क्या उम्र थी तब उसकी ?” साथ खड़े सिपाही ने फिर झिड़का।
“अं... उ.. इही कोई दुई बरस।”
“कोई पहचान ?’
“पहचान ..!” स्मृतियों पर जोर डालते हुए धनिया बोली, मालिक हमार कुरमई की आँख भूरी रहिन , छंगा रहा हमार बचुआ, अउर हाँ मालिक, उ दिना मेले में हम उका हाथ मा भी अइसन ही तिरसूल गुदवाये रहल।” धनिया ने अपनी गोद के बच्चे का हाथ आगे करते हुए बताया |
“क्या अब पहचान सकती है अपने बच्चे को ?”
“मालिक,माई अपने कोखजने को न पहचाने, भला एसन हो सकत का |”

इंस्पेक्टर ने हवलदार को इशारा किया। पास ही खड़ी कार से सूट-बूट पहने एक साहब अपनी मेम साहब के साथ कार से उतरे, उनकी गोद में चार साल का मँहगा सूट, बूट पहने एक गोलमटोल बच्चा था।

“ई बाबू लोग कउन हैं मालिक?” धनिया गौर से देखते हुए बोली।

ये बैंक मेनेजर गुप्ता जी हैं ये उनकी पत्नी हैं , इस बच्चे को देखकर बताओ की क्या तुम्हारा बच्चा ऐसा दिखता था ?” इंस्पेक्टर ने बच्चे की ओर इशारा करते हुए कहा। धनिया ने गोदी के बच्चे को नीचे उतार उस बच्चे को गोद में ले लिया।

वैसी बिल्लौरी आँखें , हाथ में वही तिरसूल का निशान, प्यार से सहलाते हुए उसके हाथ बच्चे की हथेली पर टिक गये, हाथ में वही दो अँगूठे भी, धनिया की पकड़ बच्चे पर मजबूत होती जा रही थी।  “कितना सुंदर दिखल हो हमार बिटवा ,इहाँ आधे पेट रह रंग भी मंदा पड गयल रहा  अब इन लोगन के पोसन से कैसन निखर आया है। तू तो बहुत भागवान निकला रे कुरमई, जौन साहब लोगन के बीच पल रहा है।” मन ही मन बच्चे की नजर उतार रही थी धनिया। अचानक धनिया की नजरें साहब और मेम साहब से टकराई, दोनों की आँखों में एक डर देखा धनिया ने ...उसके फैसले का डर…

 तभी इंस्पेक्टर ने लगभग चिल्लाते हुए बच्चे को वापस छीन लिया।

“क्या देख रही है,पहचानती नहीं है?बता जल्दी !”
“अं ..नाहि नाहि मालिक, ई हमार बचुवा नाही , हमार कुरमई तो एकदम कठियाया रहा , उकी तो रंगत भी दबी रही मालिक ...इ..इ हमार बचुआ नाही ।” कहते हुए धनिया ने अपने पास खड़े दूसरे बच्चे को गोद में उठा जोर से सीने से भींच लिया।

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दो-
सत्य की अग्निपरीक्षा

अरे भाई कौन हो तुम और शहर से दूर यहाँ जंगल में ...इस झोपड़े में क्या कर रहे हो?"

 युधिष्ठिर ने वन में भ्रमण करते हुए एक झोपड़े के बाहर बैठे उदास, लाचार से दिख रहे उस व्यक्ति से पूछा।

 "मैं सत्य हूँ,आज कल यहीं रहता हूँ। यही मेरा झोपड़ा है।"
"आश्चर्य है, तुम यहाँ हो… तुम्हें लोगों के दिलों में रहना चाहिए। "
"वहाँ तो धर्मराज झूठ ने अपना स्थायी निवास बना लिया है और मुझे खोटे सिक्के की तरह बाहर निकाल फेंका है।"
"ओह ! यह तो बुरी खबर है तो तुम समाज में रह सकते हो ।"
"वहाँ सब मुझसे नफरत करते हैं ।"
"इसकी कोई वजह होगी। "
"हाँ ! वजह है मैं आईने की भांति लोगों को उनकी सही सूरत दिखाता हूँ। "
"तो उसमें हर्ज क्या है ? यह तो अच्छी बात है।"
"धर्मराज ! आज भ्रष्टाचार, चार सौ बीसी, रिश्वत खोरी आदि के इतने खतरनाक कॉस्मेटिक्स के लेप बाजार में आ गये हैं, जिनके प्रयोग से लोगों के चेहरे इतने भयावह हो गए हैं कि वे अपना चेहरा देखना पसंद नहीं करते । "
"तो कार्यालयों में चले जाओ वहाँ तो तुम्हारा होना बहुत आवश्यक है।"
"गया था धर्मराज ...मगर एक ही पल में उठाकर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया।"
"ओह! तब तो पक्का तुम्हें राजनीति में जाना चाहिए।"
"राजनीति? वह तो अब देश में कहीं बची नहीं।  कूटनीति का ही सर्वत्र साम्राज्य है। और कूटनीति को तो सदा ही से मुझसे परहेज रहा है।"
"बड़े आश्चर्य की बात है मैं तो सत्य की पताका लेकर ही स्वर्ग तक पहुँचा था।"
"आप भूल रहे हैं धर्मराज, वह द्वापर युग था अब कलयुग है।"
"तब तो पक्का तुम संचार विभाग (मीडिया) में चले जाओ वहाँ लोग तुम्हें सिर माथे बैठाएंगे।"
"वहाँ मेरे लिए नो एंट्री का बोर्ड लगा है धर्मराज।"
"ऐसा क्यों भला...?"
"क्योंकि मैं उन्हें विज्ञापन शुल्क जो नहीं दे पाता।"

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तीन-
करमजली भूख

"अरी ओ रमा ! बाहर आ तनिक, देख अपने लाल की करतूत।" पड़ोसन काकी ने रमा को आवाज लगाई।
"क्या हुआ काकी, काहे आसमान सिर पर उठा रखा है?"
"अरी! आसमान तो तेरे सर पर गिरेगा जब तेरे कल्लू की करतूत पता चलेगी।"
"अरी मैय्या! ये का हुआ रे कल्लू , इतना नील… का कहीं मार खाकर आ रहा है?"
"ह ओ...चौराहे वाले हलवाई ने मारा है दुकान से खाना चुरा रहा था।"
"क्यों रे कल्लू कह दे ये झूठ है। अब घुग्घू जैसा काहे खड़ा है, बोलता काहे नहीं।" रमा ने कल्लू को झंझोड़ते हुए पूछा।
"हाँ! मैंने हलवाई की दुकान से भजिये का चूरा उठाया था, उसके थाल में यूँ ही पड़ा था अम्मा।"
"नासपीटे! शरम न आई चोरी करते...चोर बनेगा। बता काहे गया था उधर मरने।"
"भूख लगी थी अम्मा, तुझसे कहता तू रोज की तरह कह देती बाप से माँग, बापू के पास जाता हूँ तो उसे दारू के नशे में कुछ सुनाई ही नहीं देता।"
"अरे! भूख ही लग रही थी ना… मर तो नहीं रहा था।"
"बहुत जोर की लगी थी अम्मा ।"
"इसका मतलब भूख लगेगी तो तू चोरी करेगा करमजले!" कहते हुए रमा कल्लू को पीटने लगी।
"मुझे क्यों मारती है, करमजली भूख को मार न जो बार-बार मुझे लग जाती है।" कह कल्लू बिलख-बिलखकर रोने लगा। 


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1 Total Review

डॉ. शबनम आलम

10 August 2024

तीनों लघुकथाएं लाजवाब.... एक संदेश देती... बहुत मुबारक

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रचनाकार परिचय

लता अग्रवाल ‘तुलजा’

ईमेल : agrawallata8@gmail.com

निवास : भोपाल (मध्यप्रदेश)

जन्मस्थान- शोलापुर (महाराष्ट्र)
शिक्षा- एम० ए० (अर्थशास्त्र एवं हिंदी), एम० एड, पी०एचडी (हिंदी)
संप्रति- महाविद्यालय में प्राचार्य, वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद
प्रकाशन- शिक्षा व साहित्य पर 75 से अधिक पुस्तकें विद्यालय और महाविद्यालय पाठ्यक्रम में। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर सक्रियता, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
निवास- 30, सीनियर एम०आई०जी०, अप्सरा कॉम्प्लेक्स, ए सेक्टर, इंद्रपुरी, भेल क्षेत्र, भोपाल (मध्यप्रदेश)- 462022
मोबाइल- 9926481878