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डॉ० पन्ना त्रिवेदी कि गुजराती कहानी- माजों

डॉ० पन्ना त्रिवेदी कि गुजराती कहानी- माजों

ट्रेन एक धक्के के साथ थोड़ी धीमी हो गई। माजो की चंचल आँखेँ और भी चमक से भर गईं। एक-एक डिब्बे को आगे धकेलती उसकी आँखेँ वापस लौट आईं। पास-होल्डर का डिब्बा नज़दीक आते ही उसकी बावरी आँखेँ राजा को ढूँढने लगीं।  ‘गॉगल्स’ पहने उसका राजा दरवाज़े के पास ही खड़ा था- ओह तो क्या आज भी उसे जगह नहीं मिली? माजो की आँखों में चमक आ गई| वह तो यही चाहती कि उसे कभी जगह ही ना मिले ताकि रोज़ उसे वह पूरा देख सके| फिर चाहे एक पल के लिए ही क्यों न हो?

भक् भक् की तेज़ आवाज़ के साथ गुज़रती ट्रेन गुजरी के नज़दीक आते ही धीमी हो गई |

     गुजरी के छोर से ही नदी का पुल शुरू हो जाता था। गुजरी के नज़दीक आते आते ट्रेन रोज़ाना यूँ ही धीमी पड़ जाया करती थी। उसकी तेज़ आवाज़ से गुजरी बस्ती का शोर कुछ पल के लिए मानो एकदम से ख़ामोश हो जाता था।

     रोज़ की तरह आज भी काई जमे हैंडपंप के पास बैठी बरतन माँजती सन्नो के हाथ धीमे पड़ गये और आँखें ट्रेन की पटरी पर जम-सी गईं। सिर नीचे रखे बिन्नी कूड़े का ढेर बीनती रही, और ऊबड़खाबड़ ज़मीन पर निक्क्मों के बीच उकड़ू  बैठे बुड्ढे ने बीड़ी का एक लंबा कश खींचा और फिर क़िस्मत को कोसते हुए एक ऊब के साथ ग़ुलाम का पत्ता फेंक दिया। कूड़े के बिलकुल बगल में कीचड़ से भरे एक गड्ढे के पास दारु से धुत शनिया बेहोश-सा पड़ा हुआ था और आदतन एकाएक ट्रेन की तेज़ आवाज़ से डरी हुई चार साल की नन्ही पारो यकायक रोने लग गई थी।  

     रोज़ सुबह गुजरी बस्ती अपनी औक़ात के मुताबिक़ यूँ ही हाँफती रहती। प्लास्टिक की डिब्बे-डिब्बियाँ, मिनरल पानी की खाली बोतलें, बीड़ी का धुँआ, चूने-तम्बाकू की पिचकारियाँ, ताशपत्ते के राजा, रानी, ग़ुलाम, इक्के की हो–हा, छप्पर पर रखे पुरानें टायर, खाली बोरियाँ और घर के बाहर रगड़ रगड़ के धोई हुई काँजी  की हुई साड़ियाँ....कुछ भी तो नहीं बदला था इतने सालों में इस बस्ती में! हाँ, जहाँ पक्की छत नहीं थी वैसे  किसी किसी घरों के छप्पर पर अब डिश टीवी के छाते टँगे दिख जाते थे। और एक चीज़ थी, जो बदलती रहती थी वह थी कच्ची दीवालों पर पक्के रंगों से रंगे इश्तेहार। गिरने की कगार पर खड़ी हुई दीवारें हाँफती हाँफती मानो कह रही हों– शौचालय बनाइये और इसका उपयोग कीजिये।

     ट्रेन की सीटी जब और ज़ोर से चीखी तब तीसरे घर में रहती तारा दौड़ पड़ी : ‘ओये माजो.....क्वीन आ गई... माजो देख देख, तेरी क्वीन आ गई...’ दौड़ लगाती हुई तारा पटरी के नज़दीक आकर खडी रह गई। सामने से, ‘क्वीन नहीं तारा...किंग...किं...ग..बोल किंग...। अरी राज्जा आया है मेरा राज्जा..’ का शोर मचाते हुए सत्रह साल की माजो अपनी सुरमेवाली आँखे नचाती, नखरे दिखाती, ट्रेन के यात्रियों को टाटा-बाय-बाय करने रोज़ की तरह ही खड़ी रह गई थी।

     ट्रेन एक धक्के के साथ थोड़ी धीमी हो गई। माजो की चंचल आँखेँ और भी चमक से भर गईं। एक-एक डिब्बे को आगे धकेलती उसकी आँखेँ वापस लौट आईं। पास-होल्डर का डिब्बा नज़दीक आते ही उसकी बावरी आँखेँ राजा को ढूँढने लगीं।  ‘गॉगल्स’ पहने उसका राजा दरवाज़े के पास ही खड़ा था- ओह तो क्या आज भी उसे जगह नहीं मिली? माजो की आँखों में चमक आ गई| वह तो यही चाहती कि उसे कभी जगह ही ना मिले ताकि रोज़ उसे वह पूरा देख सके| फिर चाहे एक पल के लिए ही क्यों न हो? कंधे पर बैग टाँगे खड़े लड़के को देखते ही माजो ने ज़ोर ज़ोर से आवाज़ दी: ‘ओये शाहरुख़...ओय ..ओय राज्जा ..ओय ओय ..’ माजो ने हाथ हिलाया पर उसका हीरो उल्टा घूम गया| माजो थोड़ी दूर तक दौड़ी। हीरो बहुत दूर निकल गया।  

     कुछ देर माजो और ठहर जाती मगर बिसलरी की बोतल का ‘लोटा’ देख वह वहीं रुक गई। भिनभिनाती मक्खियों बीच बैठ कोई बुढ्ढा हाजत कर रहा था मोजो को देखकर भी वह यूँ ही बैठा रहा, वापिस लौटती माजो बड़बड़ाई: ‘ज़रा दूर बैठता तो क्या बिगड़ जाता उसके बाप का.....’ पर माजो का मन अभी भी ट्रेन में टँगा हुआ था, वर्ना उसके कानों को ज़रुर सुनाई देता: ‘तेरे बाप ने लिख दी है ये ज़मीन? देखती नहीं है, उसकी भी जाने बैठी है तो ....’

     पर आज भी माजो गुलाबी गुलाबी हो गई थी। और क्यों न होती? उसकी आँखो को उसका हीरो देखना जो नसीब हुआ था! जब जब माजो ट्रेन में उस लड़के को देख लेती तब तब दिनभर वह दुगने ज़ोर से काम करती रहती| पर जाने क्यों, काम कर के टूट चुके उसके नाज़ुक बदन को थकान लगती ही नहीं थी! और तो और, गुजरी बस्ती की दूसरी औरतों की भाँति जब उसकी माँ पुराने कपड़े को काँजी करती तब भी वह बड़े चाव से मदद को दौड़ जाती। दिन ढले वह ज़रीपट्टे वाली पुरानी साड़ियों की किनारी से पट्टे पट्टे अलग करने लगती। पर उसकी खरी कमाई गुरुवार के दिन ही रहती। हालाँकि दुर्भाग्य से गुरुवार हफ़्ते में एक ही दिन आता था सो बाक़ी के दिन दोपहरी दोपहरी वह पुराने कपड़े और लेस बॉर्डर पट्टे का पोटला लिए जहाँ जगह मिलती वहाँ बैठ जाती। कोई लेसपट्टा सरका न जाए इसके लिए अपनी छोटी बहनों सन्नो और बिन्नी को साथ बिठाकर, नज़र कैसे रक्खी जाती है उसकी तालीम देती रहती| माँ का हाथ बटाने के लिए माणिक तो अभी बहुत छोटा था और बाप को जुए–दारू से फ़ुरसत कहाँ मिलती थी! दिल करता तो कभी-कभार दिहाड़ी मजदूरी कर आता। आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया! बस, बैठे-बिठाए बीवी की आमदनी को बीड़ी के कश के साथ बाहर फूँकता रहता। और जब जुए में खाली हो जाता तब माजो पर गालियों की बारिश करता  रहता। कभी कभी तो दारू के नशे में यह भी भूल जाता की वह माजो का बाप है। कहता: ‘.....पैसो बरस पड़े ऐसा सब कुछ तो है तेरे भीतर...कहीं आँख ठहरा दो तो.....’

     आज माजो को लगा कि शाम कुछ ही जल्दी ढल चुकी है। रात के चढ़ते अँधेरे में रोज़ की तरह ही वह सन्नो को साथ लिए मंगी के घर टी.वी. देखने निकली तब आदतन नन्ही पारो ने भी साथ जाने की ज़िद की। तो माजो पारो की उँगली पकड़े मंगी के घर की तरफ़ जल्दी से चल पड़ी।

     वैसे तो माजो को सूरज निकलने का जितना इंतज़ार रहता उतना ही इंतज़ार सूरज डूबने का भी रहता था। उसका एक ही सपना था, मंगी के घर से भी ब....ड़ा सा एक टीवी उसके घर पर भी आ जाये। फिर उठते बैठते फिल्लम ही फिल्लम..! फिर चाहे खटमल काट खायें या जितना जी चाहे उतना लहू चूस ले..किसे परवाह! उसे सुबह की क्वीन में जानेवाली लडकियाँ याद आ जातीं| माजो को लगता, ये लडकियाँ कितनी सजधज के निकलती हैं? पैंट-शर्ट-मोबाइल–पर्स-चमकते पंजाबी ड्रेस और मस्ताने दुप्पट्टे...हमेशा उसका दिल करता, एक दिन वह भी मोबाइल लिए ऊँची एड़ीवाले सैन्डल पहन बैठ जाए उसके हीरो के साथ। और फिर भक भक धख धख..।

     ....वैसे तो वह ट्रेन में अक्सर माँ के साथ ही जाती थी, महीने के किसी एक इतवार को। सस्ता कपड़ा और लेसपट्टे लेने सूरत से मुंबई की ओर। माँ-बेटी एक फेरा लगा ही लेते। बस्ती की दूसरी औरतों के साथ, वह भी बिना टिकिट ही शौचालय के पास डरते डरते बैठ जाती। कभी टिकिटवाले साहब अचानक से आ धमकते तो दो-तीन औरतें जल्दी जल्दी शौचालय में छुप जातीं। जो बाहर रह जातीं  उन औरतों को माँ-बहन की मोटी मोटी गालियाँ सुननी ही थी! ज़्यादा होता तो माजो की माँ तैश में आकर उछल-उछलकर बोलती रहती– ‘कमीने, तुझे दाना नसीब ना हो...रुपैया और नौकारिया का जोर है सब’ और फिर जब साहब सामान फेंक देने की धमकी देता या अगले स्टेशन उतर जाने को कहता तब माँ हाथ पैर जोड़ने लगती: ‘इस दफा जाने दे, हम गरीब लोगन को साहब! बैठ बैठ के तेरी सीट कहाँ घिस डाली हमने, बता तो...!’  ना-ना चलती रहती और धीरे से उसके फटे ब्लाउज़ में से पचास की नोट बाहर निकल आती| साहब दस गुना किराया वसूलने का डर दिखाते दिखाते सौ के अंक पर चिपक जाते : ‘क्यों हाय ले रहे हो साहब?’ जैसा कुछ धीमे धीमे बड़बड़ाती माँ पचास का नोट ब्लाउज़ में वापिस सरकाकर सौ का नोट निकालती। नोट ज़ेब में डालकर साहब गालियाँ थूकता वापस चला जाता। बैठे हुए ‘इज़्ज़तदार’ यात्रियों को कहता जाता : ‘मुफ़्त में बैठना है छिछोरियों को..धंधेवाली औरतें..साली..’ और आख़िरी शब्द सुनते ही माजो की माँ फिर से आगबबूला हो उठती : ‘जात को गिरौं नहीं रख छोड़ा तेरे आग्गे.... हरामी, तेरा बाप कमाधमा के डाल जाता है यहाँ? कहता है, धंधा करते हैं...कमज़ात! कमाल है! रुपये भी ठूँसते जाना और गालियाँ भी बकते जाना!’ डरी-सहमी माजो माँ से लिपट कर बैठ जाती। पर मन ही मन में वह सोचती रहती की एक दिन सच में वह ‘फस किलास’ की सीट को बैठ-बैठ के घिस ले।

     माजो मंगी के घर में गई तब घर में सोता पड़ा हुआ था। सब टीवी देख रहे थे। सँकरी जगह के बीच थोड़ी जगह बनाकर माजो सबसे आगे बैठ गई। अँधेरा था, घर की आँखें साए से आदमी पहचान लेने की आदती हो चुकी थीं दर के एक कोने में, बिजली के बल्ब का पीला प्रकाश हवा से ज़रा ज़रा हिलता हुआ साये बनाये जाता था। फ़िल्म चल रही थी–मिस्टर इण्डिया। इससे पहले भी माजो ने यह फ़िल्म देखी हुई थी फिर भी उसकी आँखें टीवी की स्क्रीन पर चिपक गईं। बीच बीच में अँधरे कमरे में हँसी के ठहाके सुनाई पड़ते थे।   

     एक पूरा आदमी ग़ायब हो जाता था और फिर लाल रंग में दिखाई देता था।  माजो भी ग़ायब हो जाती थी और लाल रंग में खो जाती थी। उसके ज़ेहन में दूसरी फ़िल्म के सीन भी घुलते गये। जिसमें हीरो एक दिन का प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अपनी मंजरी को लेने गाँव पहुँच जाता है। मंजर..मंजरी..माजो के चित्त ने कई बार मंजरी का नाम पुकारा। आँखों के सामने क्वीन दौड़ रही थी। तेज़ रफ़्तार से ट्रेन उसी की ओर आ रही थी। राज्जा गुजरी बस्ती में उतर पड़ा। वह पुकारता रहा ‘मंजरी...मंजरी..’ और दूर, एक कोने में खड़ी माजो के नज़दीक जा पहुँचा। अधीर आवाज़ में वह बोला : बोलती क्यों नहीं पगली? मैं आया हूँ तुझे लेने, इस नर्क से बाहर निकालने। मेरा हाथ थाम ले, माजो। गुजरी बस्ती में पैदा हुई तो क्या हुआ? सपने देखने का हक़ तुम्हारा भी तो है! माजो नहीं, मंजरी..तुम ही हो मेरी मंजरी....’ कहते बस्ती के बीचोबीच खुलेआम उसका हाथ पकड़ कर एक काले रंग की चमचमाती कार के पास खड़ा हो गया। माजो शरमा सी गई।

     फ़िल्म में ब्रेक पड़ा। इश्तेहार चल रहे थे- अपनी छत के सपनों को साकार करती, होमलोन का, जीवन सुरक्षा देनेवाले बीमा का, शुद्ध पानी के आर ओ का, जिस्म मह्काते इत्र का, रेशम से बाल बनाये रखते शैम्पू का, वजन घटाते केलोक्स का, शक्ति बढ़ाते बॉर्नवीटा का और अटरली बटरली अमूल.......।

     ‘तेरी माँ नहीं आई?’ यकायक मंगी की माँ की आवाज़ अँधेरा चीरती कानों में धँस आई। माजो चुप रही। कहती भी क्या? क्या यह कहती कि आज कपड़े काँजी कर कर के उसके बाजुओं पर सूजन आ गई है? या फिर यह कहती कि निक्कमे बुढ्ढे ने जुआ खेलने के लिए उसकी पीठ आज भी लाल कर दी है? सबको पता होता है...गुजरी बस्ती की दीवारें इतनी चौड़ी कहाँ होती हैं कि बातें छिपा सकें! दीवारें होते हुए भी बस्ती तो पूरी की पूरी नंगी! मंगी की माँ का कहना अनसुना कर माजो जवाब दिए बिना ही टी.वी. की ओर देखती रही– छू के देखो एक बार...मख्खन है यार! साबुन के एक विज्ञापन में अभिनेत्री विद्या बालन छोटा फ़्रॉक पहने रस्सी कूद रही थी। पास खड़ी दो छोटी लडकियाँ उससे कह रही थीं–मक्खन है यार! रोज़ की तरह ही उसकी नकल उतारते पारो ने भी गाया। अपने मनपसंद इश्तेहार से पारो घड़ीभर ख़ुशी से उछल पड़ी। माजो ने कुहनी मारकर ख़ामोश रहने का इशारा दिया पर अँधेरा उसका इशारा निगल गया। अचानक पारो और ज़ोर से बोली: ‘मक्खन कैसा होता है?’ माजो ने ज़ोर से चिमटी भरी। पारो चुप हो गई। साबुन–शेंपू-इत्र और फिर वही मिस्टर इण्डिया....

     हीरो ग़ायब होकर लौट आता था। पर माजो तो बैठे बैठे ही ग़ायब हो जाती थी। उसके भीतर अनजाना आसमाँ छा रहा था। इश्तेहारवाला फ़्रॉक दिखाई दे रहा था। माजो को याद आया कि उसका ‘फराक’ भी घुटनों के ऊपर तक ही तो है, पीछे के दो बटन टूटे हुए हैं और आगे की झालर से दो-तीन चुन्नटें भी सिलाई से निकल गई हैं। अब तक बड़ी मुश्किल से उसने घुटनों से नीचे तक फ़्रॉक खींच रक्खा था, पर तने हुए हाथों को ढीला छोड़ दिया। अँधेरे में इधर उधर देखा और फिर यकायक अपना फ़्रॉक विद्या बालन की तरह ही एक कंधे से थोड़ा नीचे सरका दिया। वह एक आलीशान बाथटब में नहाने बैठी। सुगंध वाले साबुन के झाग के दलदल में नर्म नर्म मक्खन जैसे जिस्म के साथ नीचे, और नीचे डूबने लगी।

     अचानक उसके खुले कंधे पर किसी का हाथ पड़ा और दूसरे ही पल उठ गया। माजो के मुँह से डर के मारे एक दबी चीख़ निकल पड़ी। अँधेरे में सवाल का एक तीर चला- क्या हुआ री? खटमल ने काटा क्या? बहुत परेशानी है खटमल की तो, क्या कहें? देख ना, इत्ते दूर बैठते हैं तब भी जाने कहाँ कहाँ से काटने दौड़े आते हैं मरे!’ माजो भय से काँप उठी। घबरा कर उसने पीछे देखा। सभी मिस्टर इण्डिया को देख रहे थे। माजो को जैसे लकवा मार गया। घर लौटते वक़्त भी उसे ऐसा ही लगा की मानो कोई उसका पीछा कर रहा हो और हाथ का पंजा उसके नंगे कंधो पर घूम रहा हो।

     दूसरी सुबह, क्वीन उसी रफ़्तार से गुज़र गई। एक आधे पल के लिए माजो ने अपने राजा को बैठे देखा। उसने हाथ हिलाए- ‘ओये...ओये..’। ट्रेन थोड़ी धीमी हुई कि माजो ने दौड़ना शुरू किया। अपनी बेसुरी आवाज़ में गीत गुनगुनाया: ‘बादशाह ओ बादशाह...’ पर ट्रेन की खिड़की के पास बैठे उस लड़के ने अपनी नाक पर रुमाल रख दिया और आँखें मूँदे बैठा रहा। गीत गुनगनाती माजो का स्वर मंद मंद होते होते अचानक ख़ामोश हो गया।

     माजो को लगा उसकी नाक पर नहीं, बल्कि उसकी ज़ात पर रुमाल रख दिया हो। वह खड़े खड़े ही सुलग उठी। अपनी मुठ्ठी में धूल भरकर दौड़ती ट्रेन की ओर फेंक दी। पर धूल तो उड़ उड़कर उसकी ओर ही आ रही थी। माजो बहुत देर तक आँखेँ मलती खड़ी रही उसने अपना एक कंधा थोड़ा ऊँचा किया और नाक के नज़दीक ले जाकर अपने आप को सूँघा– बदबू तो नहीं आती थी ..! पर उसके दिल ने दुगने ज़ोर से कहा- तो ख़ुशबू भी कहाँ आ रही है?...

     अचानक से माजो को पूरी गुजरी बद्बूदार लगी। रोम रोम रिस रहा था। अंग अंग सड़ रहा था। बदबू आँधी की तरह उससे लिपट गई।

     पूरी दोपहर माजो गुमसुम बैठी रही। उसने न तो माँ के कपड़े धुलवाए और न तो किसी काम में उसका हाथ बटाया। लगता था, सूरज का गोला मानो उसके सिर पर घूम रहा हो। अचानक हवा के तेज़ झोंके के साथ तम्बाकू की गंध घुस आई: ‘माजो....’

     माजो ने चौंककर पीछे देखा। मंगी का भाई भीखा था: ‘कल....कैसा करती थी तू? फिल्लम देखते वक्त...फराक उतारकर...? और.....किसी का हाथ.....’ माजो बौराई आँखों से देखती रही। भीखा शरारत से मुस्कुराया। अँधेरे में जो नहीं दिखाई दी थी वह ढीठता उसके चहेरे से टपक रही थी। भीखा और भी क़रीब आकर खड़ा रह गया। वो माजो के कानों में फुसफुसाया: ‘ऐसा ही फराक, टी.वी. वाला चाहिए तुझे? कहेगी तो एक नहीं दसियों मिल जायें...वह भी यूँ, चुटकियों में। एक रास्ता है मेरे पास....’

     माजो के उदास चेहरे पर थोडा सा तेज़ आ गया: ‘क्या?’

     ‘मै जानता हूँ ऐसे एक आदमी को। ई पिछवाड़े गोबिंद नगर तोड़कर जो नये बंगले बनाये हैं न, उसी में रहता है। उसके वहाँ जाने का, और वह जो कहे वह करने का। कोई पूछे तो बोल दइयो कि खाना बनाने के वास्ते जाती हूँ। और झूठ भी कहाँ है? खाना पकाने का ही तो काम है?.....पर देख माजो, कभी खाना बनना भी पड़ेगा बोल देता हूँ भाई..फिर खालीपीली कोई खिटपिट नक्को चलेगी...और तो और, बंगले की एक चाबी भी तेरे ही पास रहेगी। हमारी बस्ती का एक घर पूरा इकट्ठा कर लो उत्ते तो बाथरूम होत हैं उन लोगन के। और फिर.....अंदर पड़े पड़े नहाती रहना...’

     चाँदी की बिछिया पहनी हुए पैरों की उँगलियों से माजो नम ज़मीन के घास को उधेड़ रही थी। उधड़ी घास पर पैर रखते हुए भीखा फटाफट बोल पडा: देख, गोबिंद नगर के बाद अब टूटने की बारी इस गुजरी बस्ती की ही है। ये मुनसीपालटीवाले कब चले आयें और जाने कब तोड़ दें...बोले तो माणिक तो अभी इत्तू सा, ज़मीन में ही है, बुड्ढे को तो तुम जानती ही हो। साहब अगर ख़ुश रहेंगे तो दो दो कमरों का फिलेट देने की भी बात है। फिर ए, तुम फिलेट में ऊपर खड़े खड़े नीचे आते-जाते लोगों को हाथ हिलाती रहना। माजो को जऱा नरम पड़ते देख भीखा तुरंत बोला: ‘तो कोन्टरक्ट पक्का न?’

     ‘हम्मम...’ माजो के मुँह से निकल गया। उसने एक हाथ से अपना दूसरा हाथ सहलाया। चमड़ी मक्खन जैसी मुलायम लगी। चहेरे पर एक उजली मुस्कान आ गई।

     सूरज डूबने से पहले, उसी शाम माजो भीखा के साथ साहब के बंगले पहुँच गई। चालीस साल के साहब ने माजो को सिर से पाँव तक ग़ौर से देखा और फिर भीखा की और देखकर सिर्फ ‘हाँ’ में मुंडी हिला दी। माजो बंगले की दीवारें नापने में मसरूफ़ हो गई थी– फूलदानी–मलमल की कालीन–ख़ूबसूरत पेंटिंग्स–बड़े बड़े आईने –सफ़ेद सफ़ेद जालीदार मुलायम परदे, झूमर....साहब कुछ ज़रुरी सूचनायें दे रहे थे, पर माजो तो अपनी नुकीली आँखों से जाने कितनी देर तक घर ही नापती रही।

     उसी शाम, माजो ने साहब के बाथरूम का दरवाज़ा खोला था। खोलते ही उसकी आँखे हक्की बक्की रह गईं। उसको गुजरी बस्ती का टाट से ढका खुला ग़ुसलखाना याद आया। वह सोचती रही: बरसात के दिनों में बस्ती के खुले ग़ुसलखाने में नहाने के सिवा और कोई रास्ता ही कहाँ बचा था! जल्दी भी कितना उठना पड़ता?...नींद कहाँ? कच्ची नींद से उठो पर फिर भी बस्ती के निठल्ले मुए तो उससे भी जल्दी उठ जाते और फिर टाट के कोनों पर जगह जगह से हवस की आँखेँ फूट पड़तीं!....माजो का उलटी करने का जी किया पर फूलोंवाली टाइल्स देखते ही वह थूक निगल गई। उस शाम साबुन रगड़ रगड़ कर चिफरी हो गया तब तक माजो नहाती रही। और जब बाथरूम के आदमक़द आईने में ख़ुद को देखा तो देखती ही रह गई। मानो ख़ुद को पहली बार देखा हो। ‘मा.जजो..’ बोलते बोलते तो उसकी हैरान आँखें चौड़ी हो गईं। जिस्म संगमरमर का ज़िंदा मकबरा मालूम हुआ। उसने ख़ुद से कहा: ‘ओय होय माजो...बड़ी सुंदर लग रही हो तुम तो!’

     और दूसरे दिन गुलाबी चादर बिछे बिस्तरवाले बड़े कमरे का दरवाज़ा भी खुल गया।

     माजो का जी घबराने लगा। उसका जी किया कि वह दौड़कर उसकी कच्ची मिट्टी वाले घर में चली जाए और माँ के हाथों सुखाए कपड़ों में जा कर कहीं छिप जाए। माजो काँप उठी, उसने साहब के चहेरे पर एक नजर घुमाई लगा, इतने बुरे भी नहीं! उसने मन ही मन सोच लिया: आँखों पर थोड़े ही किसी का ज़ोर चलेगा? उसने आँखें बंद कर लीं। कमरे में कुछ अजीब सा संगीत बज रहा था, पर माजो ने तो ट्रेन की सीटी की आवाज़ और तेज़ कर ली। धीमी पड़ी ट्रेन को आँखों से ही गुजरी के पास मोड़ लिया और फिर साहब के बंगले तक और बड़े कमरे तक...। धक.. धक तेज धड़कन के साथ ट्रेन की भक भक आवाज़ें घुलने लगीं। बालों को खुला रखकर माजो हाथ में काले रंग का मोबाइल लिए अपने राजा के साथ बैठी हुई थी। गुजरी के पास आते ही उसने भी नाक पर रुमाल रख दिया। इश्तेहार की उस अभिनेत्री की तरह ही उसने भी रस्सी कूदी। एक छलांग के साथ ही आसमाँ में ऊँचे ऊँचे उड़ने लगी और नीचे आई तब वह मक्खन के दलदल में डूबती जा रही थी।

     जाने कितनी ही डूबती रातों में माजो यूँ ही जागती रही। उसके बदन पर भी अब फूलों के प्रिंटवाले मखमली कपड़े सज रहे थे। कभी सिल्क के चूड़ीदार कुर्ते और फुँदने वाले दुपट्टे डालकर निकलती तब माजो को देख बस्ती की लड़कियाँ जल मरतीं। माजो अब बाज़ार में लेस बेचने नहीं बैठती थी, पर वो ख़ुद क़ीमती लेसवाले कपड़े शरीर पर डालने लगी थी।

     माजो के निखरते रूप को देखकर उसकी सहेली को ऐसा लगा कि सच में एक दिन माजो का राजा क्वीन से उतरकर उसे ले जाएगा ..! उसने माजो को कहा: ‘अरी माजुड़ी..तुम इतनी गोरी कैसन होत जाय रही? मुझे भी तो अपने जैसा कुछ काम दिलवा दे, उपकार रहेगा तेरा, तुम्हें तो पता है कि खाना तो मैं तुमसे भी अच्छा पकाती हूँ....।’

     माजो काँप उठी। नजरें चुराती फुफकारती बोली: ‘तुम? लो, और सुनो! ये थोड़ी न कोई हमरे बस्ती के घरों की बात है? तुझे क्या पता? बंगलेवालों की बात ही कुछ ओर होत रही....मूड के हिसाब से चाहिए सबकुछ। कब फीका चाहिए और कब मिर्चीवाला! समझते देर लगेगी ..टरेनिंग लेनी पड़ेगी समझने की, समझी?’

     बोलते तो माजो बोल गई, एक गाली सुनाई दी। टिकिट चेक करनेवाला मानो हाथ लंबे कर कर के कुछ कहता हुआ दिखा। उसे अपना पिछला इतवार याद आ गया। जब वो आया था तब गुस्सा निकालती माँ को उसने बीच में ही रोक दिया था। और फटाक से दो नये कड़कड़ाते नोट धर दिये थे। और फिर ज़रा रुआब से, इज़्ज़त से बैठी थी वह ..पर फिर भी उस वक़्त उस आदमी ने जो नहीं कहे थे वही लफ़्ज़ पूरे रास्तें कानों में सुनाई दिए थे– ‘धंधेवाली’

     माजो की आँखेँ भारी हो गईं। वह ना-ना करती रही, पर तारा ने तो साथ जाने की ज़िद ही पकड ली। वह एकदम से बोली: ‘जा, तुझे तेरे राजा की क़सम..और फिर मैं कहाँ रोज़ आने की बात करती हूँ! आज के दिन की ही तो बात है!’ थकी हारी माजो को आख़िर उसकी बात माननी ही पड़ी! राजा की क़सम जो दी थी कमबख्त ने! उस शाम उसने तारा को साथ ले लिया।

     सुबह माजो क्वीन के इंतज़ार में खड़ी थी। क्वीन आई और उसी रफ़्तार से गुज़र गई। आज राजा नहीं दिखा था। अपनी उदास आँखों को न जाने कितनी देर तक जाती हुई ट्रेन की पटरी पर दौड़ाती रही।  

     एकाएक किसी ने उसके कंधों पर हाथ रखा। माजो डर गई। पीछे मुड़ी, तो भीखा ने उसके हाथों में रुपयों की गड्डी थमा दी: ‘माजो, तेरा हिसाब पूरा। साहब ने कहलवाया है कि कल तक बंगले की चाबी पहुँचा दीजियो..’

     बुत बनी माजो के नज़दीक जाकर भीखा बोला: ‘अब महकने के दिन तो तारा के आये...माजो!’ वह बुझ-सी गई। जैसे किसी ने अचानक ही गुजरी बस्ती के उसके कच्चे घर की दीवारों को भी गिरा दिया हो! खाली आँखों से वह भीखा की ओर देखती रही- तो क्या तारा उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत थी? उसकी नज़र के सामने तारा की गोश्त भरी काया उभर आई। अचानक सिर से पाँव तक ख़ुद से बदबू आने लगी।

     दिन के उजाले में भी भीखा ने माजो की आँखों के पीछे छिपी नमी को देख लिया। जरा सी हिम्मत दिखाकर उसने कहा: ‘माजो, अगर तुम कहो तो..’ माजो ने ऊपर देखा। भीखा ने कपकपाती आवाज़ में कहा: ‘..एक आदमी है दूसरा....लेकिन...’

     -‘....लेकिन?’

     -‘थोड़ा ज़्यादा बुड्ढा है ..उसके वहाँ खाना पकाएगी क्या?’

     -‘ह्म्म्म...चलेगा..’ माजो ने कह दिया।

     उस रात पारो की उँगली पकडकर मंगी के घर की ओर जाती माजो के भीतर क्वीन उसी रफ़्तार से दौड़ रही थी। नन्ही पारो चलती-कूदती गा रही थी- ये मक्खन क्या है यार? पर माजो ने अचानक उसे रोक लिया। उसने हैरान पारो की ओर देखा। माजो का गला भर आया पर वह बड़े धीमे से बोली: ‘मख्खन? बहुत ख़राब चीज होवत है पारो! उसका रंग काला काला होता है..बस एक बार ज़बान पर लग जाए...तो फिर न उगला जाता है न निगला जाता है....गले के बीचोबीच...काँटे की तरह चुभता रहता है रात दिन..।’

     और पारो की उँगली ज़ोर से पकड़कर माजो घने होते जाते अँधेरे की ओर चलने लगी.....।

 

 

 

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रचनाकार परिचय

पन्ना त्रिवेदी

ईमेल : pannatrivedi20@yahoo.com

निवास : सूरत (गुजरात)

नाम- डॉ० पन्ना त्रिवेदी
जन्मतिथि-
जन्मस्थान-
शिक्षा- एम. ए ., बी.एड . पीएच.डी.
( बी.ए – एम्..ए. गोल्ड मेडलिस्ट एवं यूजीसी- नेट, जे-आर.एफ ,स्लेट )
संप्रति- आसि. प्रोफ़ेसर
प्रकाशन-
• आकाशनी एक चीस (कहानी-संग्रह)
• रंग विनानो रंग (कहानी-संग्रह)
• सफ़ेद अंधारु (कहानी-संग्रह)
• सातमो दिवस (कहानी-संग्रह)
• एकांतनो अवाज (काव्य-संग्रह)
• खामोश बातें (काव्य-संग्रह- हिंदी )
• गुजराती साहित्यम रेखाचित्रोनी गतिविधि (आलोचना)
• प्रतिस्पंद (आलोचना)
• यथार्थ (आलोचना)
• चाँद के पार (आलोचना)
• गुजराती रेखाचित्रों का (सम्पादन )
• गुजराती कहानियाँ (2015- गुज. साहित्य परिषद) (सम्पादन)
• मारो परिवार (अनुवाद : मूल लेखिका :महादेवी वर्मा )
• भारत विभाजन संवेदन : नव्ल्क्थाकर अमृता प्रीतम तथा वार्ताकार गुलज़ार सन्दर्भे
• जवाहर टनल (अग्निशेखर कविता–अनुवाद)
पुरस्कार/ सम्मान-
• 2011-12 में गुजराती साहित्य परिषद्ने ‘ श्री दिनकर शाह कवि ‘जय’ पारितोषिक ‘ से काव्य संग्रह ‘एकांतनो आवाज” को पुरस्कृत किया है .
• 2014 में ‘कुमार’ ने कमला पारीख पारितोषिक से 2012 की सर्व श्रेष्ठ कहानी के लिए नवाजा है
• 2006 में साहित्य अकादेमी दिल्ली की और से ट्रेवल ग्रान्ट प्रदान की गई है
• ‘सफ़ेद अंधारु’-2014 सर्व श्रेष्ठ कहानीसंग्रह के लिए धूमकेतु अवार्ड
• ‘सफ़ेद अंधारु’ को गुजरती साहित्य परिषद की और से भगिनी निवेदिता अवार्ड
• ‘प्रतिस्पंद’ को गुजरती साहित्य अकादमी का विवेचन का प्रथम पारितोषिक
• ‘आँख’ कहानी के प्रथम पुरस्कार लिए केतन मुंशी अवार्ड
• डॉ० सुरेश जोशी अवार्ड ‘यथार्थ’ विवेचन संग्रह के लिए

पता- गुजराती डिपार्टमेंट
वीर नर्मद दक्षिण गुजरात युनि.
उधना मग्दाल्ला रोड
सूरत–395007
मोबाईल- 9409565005