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डॉ० रमेशचंद्र की कहानी 'भाई साहब का आशीर्वाद'

डॉ० रमेशचंद्र की कहानी 'भाई साहब का आशीर्वाद'

भाई साहब कभी कभी मस्ती के मूड में आ जाते हैं तो मुझसे कुश्ती लड़ते है, सिर पर चढ़ जाते हैं, कंधे पर बैठ कर मुझे नीचे पटकने की कोशिश करते हैं। इतना ही नहीं कभी कभी सचमुच में पटक भी देते हैं। जब मैं पलंग पर लेट जाता हूँ तो भाई साहब घुड़सवारी करते हैं। दस बीस मिनट तक घोड़ा बना कर दौड़ाते रहते हैं और मारते भी है।

मेरे प्यारे साहब, हर दिन कोई न कोई नया कारनामा करते रहते हैं। कभी -कभी कोई रोचक काम कर दिखाते हैं, जिससे मुझे हँसी भी आती है और उनकी कुशाग्र बुद्धि की प्रशंसा भी करनी पड़ती हैं। वे कोई न कोई ऐसे नये और अनूठे शब्द का प्रयोग करते हैं कि मुझे आश्चर्य होता है, क्योंकि ऐसे शब्द तो बड़े लोग भी नहीं कर पाते हैं, जैसे 'अचानक' तथा 'सिंहासन' शब्द का प्रयोग करना। कभी कभी वे अपने कपाल पर उँगली रख कर कहते हैं कि मैं कुछ सोच रहा हूँ। फिर कह उठते हैं कि मेरे दिमाग़ में एक नया आईडिया आया है। वे अंग्रेजी शब्द का भी इस खूबी के साथ प्रयोग करते हैं जैसे वे बहुत अच्छी अंग्रेजी जानते हैं। वे कोई भी काम हो जाने पर थैंक्यू अवश्य बोलते हैं। यदि उनसे कोई ग़लती हो जाती है तो सारी कहना नहीं भूलते। नित्य नये हिन्दी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करके हम सबको चकित कर देते हैं। फल और सब्ज़ी के नाम वे अंग्रेजी में ही बताते हैं। कई बार तो मुझे भी समझ नहीं पड़ता कि इसका अर्थ क्या है। बनाना, लेडी फिंगर, वाॅटर मेलन आदि तो उनकी ज़बान पर धरे रहते हैं।

भाई साहब, यानि मेरे पोते, जो कि मेरे मित्र भी हैं। वे मेरे अंतिम मित्र है, क्योंकि उनके बाद मैंने किसी को अपना प्रिय मित्र नहीं बनाया। इस प्रिय मित्र की उम्र अभी मात्र चार साल की है, किंतु बुद्धि, चातुर्य और वाक्पटुता में वे बहुत अधिक उम्र के प्रतीत होते हैं।उनके हर दिन की गतिविधि की यदि मैं कहानी लिखने बैठूं तो वह महाग्रंथ बन सकता है,जो कि किसी भी दशा में संभव नहीं है। मैं उन्हें प्यार से भाई साहब कह कर संबोधित करता हूँ। वैसे उनका नाम है आदित्य। परिवार के लोग उन्हें आदि कह कर बुलाते हैं। चूँकि उनके स्कूल की अभी छुट्टियाँ चल रही है इस कारण वे घर पर ही पूरे समय रहते हैं। कभी कभी अपनी नानी से मिलने उज्जैन चले जाते हैं तो आने के बाद मेरे पूछने पर बताते है कि वे उज्जैन गये थे। अभी दो दिन पहले ही भाई साहब उज्जैन से लौट कर आए थे कि उन्हें किसी ने कह दिया कि आपके पापा उज्जैन गये हैं। तब वे मेरे पास आकर बोले- "दादाजी, आप मुझे अपने स्कूटर से स्टेशन पर छोड़ सकते हो?"

मैंने पूछा- "क्यों, क्या कहीं जाना है?"

तो भाई साहब बोले- "हाँ मुझे उज्जैन जाना है, पापा भी वहाँ गये हैं।"
मैंने पूछा- "आप अकेले ट्रेन में बैठ कर उज्जैन चले जाओगे?"
वे बोले- "हाँ, मैंने सब देखा है, मैं अकेला ही चला जाउँगा।"
अब भाई साहब को स्टेशन पर ले जाना क्या संभव था? जैसे तैसे उन्हें बहला फुसला कर उनके उज्जैन जाने की योजना को टालना पड़ा।

कभी -कभी भाई साहब को मनाना बड़ा कठिन हो जाता है जब वे किसी बात की जिद़ पकड़ लेते है। कभी स्कूटर पर घुमाने तो कभी किसी दुकान पर कोई चीज़ खरीदने की ज़िद। घर में उनकी ज़िद का नमूना आपको सुनाता हूं। जैसे वे कहते हैं कि मेरा ढोल लेकर आओ या जूते या कोई खिलौने आदि। जब वे इस तरह की माँग करते हैं तो मैं कहता हूँ कि आप स्वयं लेकर आओ। तब वे ग़ुस्से से बोलते हैं- "तुम लेकर आओ, तुम.. तुम...!"

उनकी ज़िद के आगे मुझे झुकना पड़ता है और उनकी ज़िद पूरी करनी पड़ती है।

भाई साहब की सबसे बड़ी ज़िद होती है मेरा मोबाइल लेना। वे किसी भी तरह से नहीं मानते। जब ज़्यादा ही ज़िद पकड़ते हैं तो वे कहते हैं- "मुझे ग़ुस्सा आ रहा है। देखो..!" यह कह कर वे अपने चेहरे को दिखाते है, जिसमें उनकी आँखें ग़ुस्से से भरी होती हैं। वे आँखें, भौंहे और अपने चेहरे को इतना आवेशमय बना लेते हैं कि उनकी बात मान कर उन्हें मेरा मोबाइल देना ही पड़ता है। मोबाइल के बिना उनका काम चलता भी नहीं है। वे मोबाइल को हर हाल में ढूँढ भी लेते हैं।मैंने कई बार अपना मोबाइल अलमारी के ऊपर, किताबों के नीचे छिपा कर रखा, लेकिन भाई साहब उसे ढूँढ ही लेते हैं। कई बार मोबाइल की रिंगटोन से वे समझ जाते हैं कि मोबाइल कहाँ छिपा कर रखा है। वे ढूँढ लेते है और फिर मुझसे उसका लाॅक खुलवा कर अपना मनपसंद कार्टून प्रोग्राम देखते हैं। उनके मनपसंद कार्टून है ओगी, माशा और डोरोमान आदि।

मज़े की बात यह है कि वे केवल मेरा ही मोबाइल लेते और माँगते हैं। वे अपनी मम्मी और पापा का मोबाइल नहीं लेते और न उनसे माँगते हैं। वे ज़िद कर कह देते हैं कि मुझे तो दादाजी का ही मोबाइल चाहिए। मेरे मोबाइल को लेने के बाद वे फिर आसानी से वापस नहीं करते, जब तक कि वे अपने कार्टून प्रोग्राम पूरी तरह से देख नहीं लेते।वे मोबाइल माँगते समय बड़े शांति और विनम्र बन कर कहते हैं- "मैं आपका मोबाइल पाँच मिनट में देख कर वापस कर दूँगा।"

उनके पाँच मिनट आधे घंटे से कम नहीं होते। इसी तरह वे अपने घर जाते समय भी मेरा मोबाइल साथ में ले जाते हैं और यह कह कर कि मैं बाद में वापस कर दूँगा। लेकिन वे घंटे आधे घंटे के बाद ही वापस करते हैं वह भी तब जब उनके मम्मी पापा कहते हैं तब।

भाई साहब अपना घर बनाने का खेल खेलते हैं, कभी-कभी मुझसे खेल खेलने का कहते हैं। मुझे उनके खेल में शामिल होना पड़ता है। उनके खेल भी एकदम से नये होते हैं। पता नहीं कहाँ से सीख लेते हैं। जब कभी वे अपना ढोल गले में लटका कर बजाते हुए आते हैं तब वे एक कुशल ढोली बन कर ऐसा बढ़िया ढोल बजाते हैं कि वाह वाह कहना पड़ जाता है। जब कभी कोई डांस वाला गीत टी वी पर आता है तब वे उछल उछल कर नाचते है और मुझे भी नाचने के लिए उकसाते हैं। उनकी यह इच्छा मुझे इधर उधर हाथ पैर हिला कर पूरी करनी पड़ती हैं। आजकल भाई साहब देर रात तक जागते रहते हैं और ढोल बजाते रहते हैं। उनके मम्मी पापा और दीदी सो नहीं पाती है। भाई साहब कभी-कभी रात के एक और दो बजे तक जागते है और ढोल बजाते है। फिर सुबह देर तक सोते रहते हैं।

मेरे पीछे के कमरे में बिस्तर पेटी पर रज़ाई और गादी आदि रखते हैं। भाई साहब वहाँ एक कुर्सी लगा कर बैठ जाते हैं और कहते हैं कि यह मेरा महल है और यह मेरा सिंहासन है। उनकी बात मान कर हम उनकी तारीफ़ करते हुए कहते हैं- "आपका यह महल बड़ा सुंदर है और आपका सिंहासन भी बहुत अच्छा है आप सचमुच के राजा हो।" कभी कभी मैं उनको राजा साहब भी कह देता हूँ।

भाई साहब की आवाज़ भी बड़ी तेज़ होती है और वे ज़ोर से चिल्ला कर मुझे बुलाते हैं- "दादाजी, कहाँ हो, इधर आओ।"

मुझे तुरंत उनके सामने एक ग़ुलाम की तरह हाथ बाँध कर हाज़िर होना पड़ता है तब वे मुझे बुरी तरह से डाँटते हुए कहते हैं - "कहाँ गये थे?" मुझे जवाब देना पड़ता है। मैं उनके सामने कभी कभी घबरा भी जाता हूँ और हाथ जोड़ कर उनसे माफी माँगता हूँ। मैं अपने भाई साहब के सामने एक साधारण सेवक की तरह पेश होता हूं। आखिर मैं हूँ तो उनका सेवक ही। वे मुझे प्यार भी बहुत करते हैं। कोई भी चीज़ ज़ब वे खाते हैं तो मुझे भी ज़बरदस्ती मुँह खोल कर खिलाते है। फिर पूछते हैं- "कैसी लगी ?"

मैं कहता हूँ- "बड़ी अच्छी लगी।
वे खुश हो जाते हैं।
भाई साहब जैसे मेरे मित्र हैं, वैसा ही मैं भी उनका मित्र हूँ। इसलिए वे कभी कभी मुझसे नाराज़ होने पर कह उठते हैं - " आप मेरे फ्रेंड नहीं है मैं अब आपसे अपनी फ्रेंडशिप नहीं रखूँगा। "

मैं उनको बड़े लाड़ प्यार से मनाता हूँ। तब वे थोड़ी सी ना नुकर के बाद मान जाते हैं। उनकी नाराज़गी भी सचमुच बड़ी प्यारी होती है। जब वे खुश होते हैं तब उनकी हँसी और खुशी दोनों ऐसी लगती है जैसे यही सच्चा बचपन है, यही सबसे बड़ा आनंद है। मैं अपने भाई साहब के बिना नहीं रह पाता हूँ और यही दशा उनकी भी है। वे मुझे बहुत चाहते हैं और प्यार भी करते हैं। कभी कभी मैं सोचता हूँ कि यदि भाई साहब न होते तब मेरा क्या होता?

भाई साहब का एक प्लास्टिक का हाथी है जो चार पहिये पर चलता है। वे उस पर बैठ कर मेरे साथ किराना दुकान पर जाते हैं और मनपसंद चीज़ लाते हैं। इसमें आलू भुजिया, पोप रिंग तथा कुरकुरे और टाॅफ़ी आदि होते हैं। वे यह सामग्री अपने हाथी के पेट में रखते हैं और उसी पर बैठ कर घर आते हैं। घर आने पर वे अपनी प्यारी चीज़ें हाथी को भी बड़े प्यार और आग्रह से खा ले खा ले कह कर खिलाते हैं। लेकिन हाथी राजा कैसे खाते? जब भाई साहब स्वयं ये चीज़ें खा लेते हैं और स्वयं पानी पीते हैं तब वे अपने हाथी को भी पानी यह कह कर कि पी ले पी ले कह कर उसकी सूंड के आगे गिलास ले जाते हैं और इस तरह हाथी को पानी पिलाते हैं। उनका यह हाथी प्रेम पूरे परिवार को मालूम है।

भाई साहब कभी कभी मस्ती के मूड में आ जाते हैं तो मुझसे कुश्ती लड़ते है, सिर पर चढ़ जाते हैं, कंधे पर बैठ कर मुझे नीचे पटकने की कोशिश करते हैं। इतना ही नहीं कभी कभी सचमुच में पटक भी देते हैं। जब मैं पलंग पर लेट जाता हूँ तो भाई साहब घुड़सवारी करते हैं। दस बीस मिनट तक घोड़ा बना कर दौड़ाते रहते हैं और मारते भी है। मारने में वे यह नहीं सोचते कि वे अपने दादाजी को मार रहे हैं, बल्कि यह मानते हैं कि वे अपने पालतू घोड़े को मार रहे हैं।

वे पीठ के ऊपर खड़े होकर जो धुनाई करते हैं कि मेरी हालत ख़राब हो जाती है। डर लगता है कि कहीं रीढ़ की हड्डी टूट न जाए या कुछ और न हो जाए। भाई साहब कंधे पर चढ़ कर घर में मुझे चक्कर लगवाते हैं और बात बात में कोई ऐसी बात कर जाते हैं जिसे साधारण बच्चे कभी कर भी नहीं पाते। बहुत कुशाग्रबुद्धि के भाई साहब हैं।

आज भाई साहब को न जाने क्या सूझी। बड़ी देर तक वे घर तकिये इकट्ठे करके घर बनाते और खेलते रहे। फिर सारे गाव और तकिये एक के ऊपर एक जमाते हुए उस पर बैठ गये। बैठने के बाद न जाने क्या सूझी कि वे एक हाथ की उँगली को खड़ा करके और दूसरे हाथ से आशीर्वाद की मुद्रा बना कर बोले कि मुझसे आशीर्वाद ले लो।

मैं चकित होकर बोला- "क्या आप भगवान हो या महात्मा?"

इस पर वे गंभीर मुद्रा बना कर बोले- "मैं भगवान हूं और मेरी इस उँगली में चक्र है देखो।"

मैंने देखा वे उँगली से चक्र की तरह घुमा रहे थे। मैंने तुरंत उनके श्रीचरणों में शीश झुकाया और उन्हें प्रणाम किया तो भाई साहब ने बाक़ायदा मुझे आशीर्वाद दिया।

फिर मैंने अपनी धर्मपत्नी को बुलाया जो यह सब नाटक देख और सुन रही थी। वह भी हँसती हुई आई और भाई साहब ने उसे भी अपने अभय हाथ से आशीर्वाद दिया।

इसके बाद भाई साहब के बड़े भाई कोचिंग जाने के लिए नीचे आए और छोटे भाई साहब को आशीर्वाद की मुद्रा में बैठा देख कर वे भी उनके चरणों में शीश झुका कर आशीर्वाद लेने लगे तो भाई साहब ने उन्हें भी आशीर्वाद देकर खुश कर दिया और बोले- "जल्दी जल्दी बड़े होओ और बड़े आदमी बनो।"

यह सुन कर हम सभी चकित भी हुए और हँसी भी आई। फिर भाई साहब ने आदेश दिया कि मोबाइल से उनका फोटो खींचो अतः उनके आदेश को शिरोधार्य करके मैं मोबाइल लाया और उनकी उसी आशीर्वाद की मुद्रा में उनका फोटो खींचा। उन्होंने कहा- "मुझे अपना फोटो दिखाओ।"

अतः मैंने मोबाइल से खींचा हुआ उनका फोटो दिखाया। फोटो देख कर भाई साहब बोले- "वाह, कितना सुंदर फोटो आया है।"

उनकी बात सुन कर हम सभी मुस्कुराए।

इसके बाद भाई साहब ने नया आदेश दिया कि मेरे मम्मी पापा को आशीर्वाद लेने के लिए बुला लाओ। यह आदेश मेरे लिए था। इसलिए मुझे विवश होकर मुझे उनकी मम्मी को बुलाने जाना पड़ा। उनकी मम्मी आईं और अपने बेटे को आशीर्वाद देने की स्थिति में देख कर खुश हुईं। फिर हँसते हुए उनके चरणों को प्रणाम करके बोली आशीर्वाद दो महाराज।

महाराज ने बिना किसी झिझक के आशीर्वाद दिया और सब उनकी मुद्रा देख कर हँसने लगे। फिर भाई साहब के पापा को बुलाने का आदेश हुआ तो मुझे उनको भी बुलाना पड़ा। वे आए और बड़े आदर के साथ उनके चरणों को प्रणाम करके आशीर्वाद लिया। फिर कुछ बातचीत करने के बाद वे भाई साहब को प्यार से गोद में उठा कर अपने साथ घर में ले गये। मैंने ठंडी साँस ली। आज भाई साहब ने सबको आशीर्वाद देकर खूब हँसाया, आनंदित किया और उनकी इस नवीन कल्पना की मन ही मन प्रशंसा की मैं सोचता हूँ कि बच्चे भगवान की तरह होते हैं शायद आज भगवान ने भाई साहब के रूप में हम परिवार के लोगों को आशीर्वाद ही दिया था।

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रचनाकार परिचय

रमेशचंद्र

ईमेल :

निवास : इंदौर(मध्य प्रदेश)

नाम- डॉ० रमेशचंद्र
संपर्क- 'ईश-कृपा'
100- सी,  पार्श्वनाथ नगर, 
अन्नपूर्णा मार्ग,  
इंदौर-. 452-009
मोबाइल- 8319782218