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डॉ० सुषमा गुप्ता की लघुकथाएँ

डॉ० सुषमा  गुप्ता की लघुकथाएँ

उसने एक कागज़ पर जितने अक्षर सीखे थे, सब लिख दिए और अपने आँगन से उसके आँगन में फेंक दिया, फिर अपने गेट से निकलकर तेज़ी से उसके घर की तरफ़ गई। उसके आँगन में पड़ी अपनी चिट्ठी को देख, खुशी से चहकती हुई, उसके घर के अंदर गई।

एक- संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण

2 मार्च 2021

पिताजी बहुत बीमार हैं। आप सभी की दुआओं की बहुत ज़रूरत है।
(अस्पताल में लेटे बीमार पिता जी की फोटो के साथ उसने फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया।)

3 मार्च 2021

पिताजी की हालत लगातार बिगड़ रही है। तन, मन,धन से जितना कर सकता हूँ, सब कर रहा हूँ।"
(इस बार उसने अपने थके निराश चेहरे की फोटो के साथ स्टेटस अपडेट किया।)

5 मार्च 2021

पिताजी नहीं रहे। मैं अपनी सब कोशिशें करके भी हार गया। मेरा संसार लुट गया।
(श्मशान से पिता की चिता के आगे अपने आँसुओं से भरे चेहरे के साथ उसने स्टेटस एक बार फिर अपडेट किया)

16 मार्च 2021

पिताजी की आत्मा की शांति के लिए बहुत बड़ी पूजा रखी और 51 पंडितों को भोज कराया।

(हार चढ़ी पिताजी की फोटो के सामने कुछ पंडित खाना खा रहे हैं और उन्हें खुद खाना परोसते हुए की फोटो के साथ इस बार का स्टेटस अपडेट हुआ।)

शाम ढले वह अपनी प्रोफाइल पर आए ढेरों कमेंट पढ़ रहा था जिसमें उसे एक बेहद संवेदनशील आज्ञाकारी बेटे के खिताबों से नवाज़ा गया था। 

साथ वाले कमरे में माँ खाँस-खाँस के दोहरी होती हुई अब भी इंतज़ार कर रही है कि बेटा खत्म हुई दवाइयाँ फिर से कब ला कर देगा। पति के खाली बिस्तर की तरफ देखते हुए उसकी आँखें भीग गई हैं। 

काँपती आवाज़ में माँ ने बेटे को आवाज़ दी, दवाइयों की गुहार की।बेटे ने मुंह बनाया और झिड़कते हुए कहा
"बहुत व्यस्त हूँ मैं। पापा के मरने के बाद जो इतना तामझाम फैला है अभी वह तो समेट लूँ। समय मिलता है तो ला कर दूँगा।"
कह कर एक बार फिर से वह फोन में व्यस्त हो गया। पाँच मिनट में नया स्टेटस अपडेट हुआ।
'पिताजी के बाद अब माँ की हालत बिगड़ने लगी है। हे ईश्वर ! मुझ पर रहम करो। मुझ में अब, और खोने की शक्ति नहीं बची है।'

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दो- पूरी तरह तैयार

लड़का पूरी तरह तैयार हो कर आया था... सूट, टाई और पॉलिश से चमकते जूते।

"कहाँ जाना है? " रोबीली आवाज़ ने पूछा। 
"ऊपर जाना है।"
"क्यों जाना है ऊपर... अभी तुम उसके लिए तैयार नहीं दिखते ।"
"मैं पूरी तरह तैयार होकर आया हूँ... मेरे पास सारी डिग्रीयाँ हैं ।"
"वो काफ़ी नहीं ।" आवाज़ ने हिकारत से कहा। 
"डिग्रियां काफ़ी नहीं तो फिर और क्या चाहिये ?" लड़का कन्फ़्यूज़ दिखने लगा।
"ऊपर जाने के लिए तुझे अपने कुछ हिस्से देने होंगे।" सपाट और ठण्डा जवाब आया।
"हिस्से...! मतलब?" लड़के की आँखें कुछ ज़्यादा ही फैल गईं
"अच्छा, ज़रा उचक कर दफ्तर के अंदर दाईं तरफ देखो और बताओ क्या हो रहा है?" उसने आदेश दिया।
लड़के ने पंजों पर सारा भार डाला और ध्यान से सुनने लगा। " अरे ! वो दफ्तर का बाबू उस दूसरे आदमी से फ़ाइल आगे सरकाने के पैसे मांग रहा है।"
आवाज़ आग बबूला हो चिल्लाई "कान निकाल दोनों और रख यहाँ दहलीज़ पर । ये अंदर के माहौल के लायक नहीं हैं ।"
लड़के ने सहम कर कान निकाल कर रख दिए ।
आवाज़ एक बार फिर गूँजी..."अब बाईं तरफ़ देख कर बता कि वहाँ क्या हो रहा है ?"
उसने भरसक प्रयत्न किया... जो कुछ देखा उसे अवाक् करने के लिये काफ़ी था।
"बोल न क्या देखा ?"
"वो बड़े साहब किसी आधी उम्र की युवती के साथ अश्लील ..."
"चुप ,चुप ,चुप जाहिल । तू तो बिल्कुल लायक नही अंदर जाने के । निकाल, अभी की अभी निकाल ये आँखें और रख यहाँ पायदान के नीचे। अंदर बस बटन एलाउड हैं।"
"जी "
उसने मिमयाते हुए कहा और आँखें निकाल कर दे दीं । अंधेरे को टटोलते हुए पूछा "अब जाऊँ ?"
"अभी कैसे । ये पैर भी काट कर रख। "
"फिर मैं चलुंगा कैसे?" अब वह लगभग बदहवास हो चला था।
"अंदर बैसाखियाँ दे दी जाएँगी रैड-टेपीज़म ब्रांड की । चल-चल जल्दी कर और भी हैं लाइन में वरना ।"

लड़के ने पैर भी काट कर दे दिए।

गरीबी मुस्कुराते हुए दफ्तर के द्वार से हट गई और बोली "जा अब तू पूरी तरह तैयार है।"

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तीन- मोहपाश

"आ गया लगता है । जा दरवाज़ा खोल दे।"
"नहीं जी , कोई नहीं आया।" 
"अरे खिड़की पर लाइट चमकी अभी गाड़ी की। देख ध्यान से वही होगा। कार साइड लगा रहा होगा।"
"ओहो!! कह तो रही हूँ कोई नहीं है, तुम तो फिजूल की रट ही लगा लेते हो ।" 
"तू रहने दे, मैं देखता हूँ । बूढ़ी हो गई है कतई जो यूँ ही सारा दिन खाट तोड़ती है।"
"हाँ क्यों नही , तुम बड़े जवान हो न, जाओ खुद ही देख लो।"
"बाहर तो कोई नहीं है पर लाइट तो हमारे गेट पर ही चमकी थी ।"वह बेहद निराश हो बोला
"मैं तो पहले ही कह रही थी कोई नहीं है। क्या पता कोई रैम्प पर से गाड़ी बैक कर रहा हो ।"
"हम्ममम.."
"चलो अब सो जाओ। जब आना होगा आ जाएगा । बहू खोल देगी अपने आप। यूँ ही बेटे के मोह में रात काली करते हो।"
"क्या करूँ ,नींद ही नहीं आती वह जब तक घर नहीं आता। "
"पापा जी .."
"हाँ बहू"
"आप सोए नहीं अब तक? तबीयत तो ठीक है ?"
"हाँ बस ऐसे ही । बुढ़ापे में नींद कम ही आती है ।
तू कैसे नहीं सोई बेटी ?" वह बहुत प्यार से बोला।
"वो ऊपर जग में पानी खत्म हो गया था वही लेने आई थी नीचे रसोई में। और अब सो जाइए आप दोनों भी। कल इनकी बरसी है । आने जाने वालों का तांता लगा रहेगा फिर आराम नहीं मिलेगा आप दोनों को।"

लाइट फिर चमकी खिड़की पर , और बुढ़ा फिर सजग हो गया कि शायद अब की ........।

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चार- अतीत में खोई हुई वर्तमान की चिट्ठियाँ

चार साल की बच्ची का मन मासूम था। अपने घर की खिड़की से अक्सर वह सामने वाले घर की बालकनी में कुछ खेल होते देखती थी। एक रोज़ उसने सामने वाली दीदी से पूछा-"आपने सामने क्या फेंका?"

दीदी के चेहरे की हवाइयाँ उड़ गईं। कुछ सोचकर उन्होंने कहा-"वह सामने वाले घर में मेरा दोस्त रहता है। कभी मैं उसे कुछ कहना भूल जाती हूँ, तो इस तरह लिख कर संदेश दे देती हूँ। दोस्तों में ऐसे संदेश देना चलता रहता है।"

उस नन्ही बच्ची को यह बात बहुत सुंदर लगी। उसने नया-नया अक्षर-ज्ञान लेना शुरू किया था। उसका एक ही दोस्त था, साथ वाले घर में रहने वाला दो साल का नन्हा बंटी। वह सोचने लगी उसको संदेश भेजती हूँ, पर यह सोचकर उदास हो गई कि उसको अभी पढ़ना नहीं आएगा। अगले ही पल यह सोचकर मुस्कुरा दी कि तो क्या हुआ, मैं ही पढ़कर सुना दूँगी।

उसने एक कागज़ पर जितने अक्षर सीखे थे, सब लिख दिए और अपने आँगन से उसके आँगन में फेंक दिया, फिर अपने गेट से निकलकर तेज़ी से उसके घर की तरफ़ गई। उसके आँगन में पड़ी अपनी चिट्ठी को देख, खुशी से चहकती हुई, उसके घर के अंदर गई।

वह टीवी के सामने बैठा कार्टून देख रहा था। लड़की ने उसका हाथ थामकर कहा-"तेरे लिए कुछ है।"

नन्हे बंटी ने बाल-सुलभ जिज्ञासा से तुतलाहट भरी आवाज़ में पूछा "त्या?"

लड़की हाथ पकड़के उसको बाहर की तरफ़ खींचने लगी, "आ दिखाती हूँ।"

छोटे-छोटे दो कंगारू फुदकते हुए बाहर आँगन की तरफ़ बढ़ गए। आँगन में शहतूत का पेड़ भी था, काले शहतूत का पेड़। चिट्ठी उड़कर उस पेड़ के नीचे जा गिरी थी।

हवा तेज़ थी। अनगिनत पके शहतूत, पेड़ के नीचे पड़े थे। काले धब्बों से ज़मीन पटी हुई थी। चिठ्ठी उड़कर उन काले शहतूतों से लिपट गई थी। लड़की ने आहिस्ता से उसको उठाकर देखा। शहतूत के धब्बों से कागज़ जामुनी हो गया था और बहुत से अक्षर उस रंग में घुलकर काले हो, लुप्त हो चुके थे। बच्ची का मन बुझ गया। इतने मन से उसने वह चिट्ठी लिखी थी हालाँकि उसको याद था कि उसने उसमें क्या लिखा है पर...

इतनी छोटी उम्र में भी उसको यह तो पता था कि नन्हा बंटी उस चिट्ठी को पढ़ नहीं पाएगा, चिट्ठी उसी को पढ़कर सुनानी थी। उसके बावजूद खो गए शब्द उसके लिए किसी खोई हुई अपनी सबसे सुंदर गुड़िया से कम नहीं थे, जिसका दु:ख बहुत बड़ा था।

लड़की की नन्ही-नन्ही हिरनी-जैसी आँखों में बड़े-बड़े आँसू तैर गए। छोटा लड़का तो कुछ भी नहीं समझ पा रहा था। वह टुकुर-टुकुर बस देख रहा था। जब छोटी लड़की रोने लगी, तो उस छोटे लड़के के दिल में भी कुछ हलचल हुई। उसने धीरे से उसको हिलाकर अपनी मीठी तोतली ज़ुबान में पूछा-"त्या हुआ!"

काले जामुनी धब्बों से भरी हुई चिट्ठी जो उस लड़की की नन्ही हथेली में रखी थी, उसने लड़के के आगे कर दी। लड़के को तब भी समझ ना आया कि हुआ क्या है। उसने फिर पूछा-"त्या हुआ?"

लड़की ने मुट्ठी बंद की और अपने घर की तरफ़ दौड़ गई। सीधे अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर फूट-फूट कर रोने लगी।

शब्दों के गुम जाने के बाद दिल टूटने की यह उसकी ज़िंदगी की पहली घटना थी। 

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रचनाकार परिचय

सुषमा गुप्ता

ईमेल : 327summi@gmail.com

निवास : फ़रीदाबाद (हरियाणा)

नाम- डॉ सुषमा गुप्ता  
शिक्षा- एम.कॉम,एमबीए, एलएलबी,पीएचडी। 
जन्मस्थान: दिल्ली
संप्रति-  मानव संस्थान एवं कानून की व्याख्याता(2007-2014) 
वर्तमान में बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्रबंध निदेशक 
प्रकाशन-
कविता संग्रह- 'उम्मीद का एक टुकड़ा' 
कहानी संग्रह- 'तुम्हारी पीठ पर लिखा मेरा नाम'  
उपन्यास- क़ितराह 
अनेक सांझा लघुकथा  संग्रह , कविता संग्रह व कहानी संकलन प्रकाशित । समाचार-पत्रों एवं देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं हंस, नया ज्ञानोदय, पाखी ,कथादेश, कादंबिनी, हिंदी चेतना एवं हरियाणा साहित्य अकादमी की प्रतिष्ठित पत्रिका हरिगंधा में भी कविता , कहानियाँ, आलेख, समीक्षाएं  प्रकाशित।
सम्मान-
* लघुकथा रत्न सम्मान 2017
* हरियाणा साहित्य अकादमी प्रथम पुरस्कार कहानी प्रतियोगिता 2018
* लिट-ओ-फेस्ट मुंबई का सर्वश्रेष्ठ पांडुलिपि अवार्ड 2019
* साहित्य में दैनिक जागरण वूमेन एचिवर्स अवार्ड 2022
* रेड क्रॉस सोसायटी ,भारत विकास परिषद एवं अनेक सामाजिक व साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।

पता-
327/16ए, फरीदाबाद
हरियाणा, पिनकोड 121002