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एक आदिम चरवाहा गाँव की दास्तान- शशि काण्डपाल

एक आदिम चरवाहा गाँव की दास्तान- शशि काण्डपाल

एक गौरव गाथा,एक पल्लवित समाज और उसके पलायन/ उन्नति की कीमत का निर्मम इतिहास- डॉ गिरिजा किशोर पाठक द्वारा लिखित पुस्तक “एक आदिम चरवाहा गाँव की दास्तान” की समीक्षा। 

कभी कभी आप किसी किताब,विचार को इतना आत्मसात कर लेते हैं कि वो आपको अपना देखा,भुगता सच लगता है.उस पर दो शब्द भी लिखने की हिमाकत करने से पहले अपनी योग्यता पर शक़ होता है। एक छोटी सी किताब जो कि सिर्फ एक गाँव को केन्द्रित करके लिखी गई है पूरे कुमाऊ समाज का आईना बन जाती है। आप चाहे तो उस किताब को उस अंचल को समझने के लिये एक सन्दर्भ की तरह प्रयोग कर सकते हैं.नयी पीढ़ी खासकर अपना शाब्दिक,सामाजिक ज्ञान बढ़ा सकती है।

बात करते हैं डॉ गिरिजा किशोर पाठक द्वारा लिखित पुस्तक “एक आदिम चरवाहा गाँव की दास्तान” की जिस के लेखक से मेरा परिचय पुराना है, एक ही अंचल के होने की वजह से कई विषयवस्तु के प्रति समान विचार होना स्वाभाविक सा है लेकिन इतना पारदर्शी होना और उन यादों के साथ अपनी जड़ों को हूबहू लिख देना एक साहसिक व्यक्ति की पहचान है. न जाने कितने लोगों को अपने से जुड़े तथ्यों को छुपाते और उन पर चर्चा न करते देखा है लेकिन एक पूरे कालखंड को विलुप्त करना कहाँ की समझदारी है?

लेखक मध्यप्रदेश के प्रशासनिक पद पर होने की वजह से इतने व्यस्ततम व्यक्तियों में से आते हैं कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानना एक तरह से नामुमकिन ही था.ये निश्चित था कि आईपीएस की हैसियत क्या होती है और आम जन तथा ब्यूरोक्रेट्स के मध्य कितना फासला होता है. सोच,ज्ञान और पहुँच में कितना अंतर होता है लेकिन डॉ० पाठक हमेशा अपनी प्रशासनिक छवि के विपरीत बेहद सरल नजर आते रहे.बातों में पहाड़ी सी सरलता और अपने काम में पहाड़ सी दृढ़ता का परिचय देते रहे। डॉ पाठक विदेश नीति के जानकार,अर्थशास्त्र,दर्शन शास्त्र के ज्ञाता और एक स्पष्ट वक्ता के रूप में अपनी पहचान रखते हैं। इसका परिचय हम सभी को उनके सारगर्भित, गंभीर लेखों से मिलता रहता है जो विभिन्न अख़बारों, पत्र पत्रिकओं में छपते रहते हैं और वो अपने दार्शनिक/वर्तमान परिपेक्ष्य में सटीक दृष्टिकोण से हम सभी मित्रों को हतप्रभ करते आयें हैं।

हतप्रभ तो उन्होंने रिटायर्मेंट के बाद इस किताब को लिखकर किया। उन्होंने अपने लेखन और किताब को सिर्फ दशौली/भादीणा जहाँ उनका बचपन गुजरा पर केन्द्रित रखा। किताब जब हाथ में आई तो उनके समर्पण के शब्दों की बानगी अदभुत थी, प्रकृति की इतनी खूबसूरत व्याख्या थी कि लगा ये कहीं एक पद्यात्मक वर्णन तो नहीं? अपने गाँव, उसके परिवेश के परिचय के बाद लेखक ने उसके आसपास होने वाली घटनाएँ, रहवासियों की कठिनाइयाँ, परिस्थितियाँ और उस समय की सामाजिक व्यवस्था का बड़ा रोचक वर्णन किया है। नयी पीढ़ी जिन सन्दर्भों को जानती तक न होगी उनके लिये एक दस्तावेज बनकर ये किताब आई है।

शुरुआत उनके अपने जन्मस्थान भदीणा के वर्णन से होती है। उस समय के अनुसार जैसी भी परिस्थियां किसी गाँव की हो सकती थीं उनमें अपने बचपन, पढाई, अभाव,विकास की कमी तथा कठिन संघर्षों का जीवंत वर्णन किया है.कुमाऊँ का इतिहास,भूगोल,जाति व्यवस्थाओं, परम्पराओं का भी परिचय दिया है। लेखक ने अपने प्रारंभिक दिनों का परिचय मौत के लट्ठा पुल जैसे सन्दर्भ के साथ दिया है. कुछ ऐसी प्रथाएं जिनपर शायद आज की पीढ़ी विश्वास न कर पाए मसलन आग का उपलब्धता कितनी कठिन थी। आज लाइटर,माचिस है लेकिन तब शौका नाम के घुमंतू व्यापारी अपने पास चकमक पत्थर और एक लोहे का टुकड़ा रखते थे जिसे ठीनका कहते थे,सूखी घास “बकौल” से आग जलाना ही आग की उपलब्धता थी, गाँवों में आग सेती जाती थी मतलब घर घर में आग तापने के लिये रखे रौनो में राख के नीचे दबाकर,ढक कर रखी जाती थी और जब जरूरत होती तो उसे छिलुक की सहायता से जला लिया जाता। जब एक बार पूरे गाँव में आग बुझ गई तो गाँव की दो स्त्रियाँ करीब बीस किलोमीटर दूर जाकर आग लाई तब कहीं पूरे गाँव ने खाना पकाया, आज कोई विश्वास करेगा? ये सन 1932 की बात है।

वस्तु विनिमय चलन में था,काम के बदले अनाज और एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु मसलन नमक के लिये अनाज का अदल बदल किया जाता था। नमक भी काफी मुश्किल से मिलने वाली चीज हुआ करती थी जिसे आन्वाल और भोटिये लेकर आया करते थे.ढाकर यानि बकरियों के झुण्ड अपनी पीठ पर सामान गाँव गाँव बेचने आते थे और व्यापार तिब्बत की तरफ से हुआ करता था और उस समय का तौल सिस्टम तथा मुद्रा के हिसाब के लिये एक अद्भुत् प्रक्रिया थी जिसके लिये वो किताब पढनी होगी।

गर्मियों के बाद बरसात होने की कामना हर इंसान करता है लेकिन पहाड़ पर बारिश अलग ही कहर ढाती थी, खिसके रास्ते/पहाड़,बह गए पुल और बाधित आवा जाही लोगों की मुसीबत बहुत बढ़ा देती थी। सडकों का टूटना आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में बाधक बनता था और कभी कभी अतिवृष्टि में गाँव ही जलप्लावित हो जाया करते थे।

एक कृषि प्रथा ईजर या झूमिंग पद्धति शायद बहुत कम लोगों को पता होगी लेकिन उन्होंने इसका वर्णन और पर्यावरण पर इसका विपरीत असर पर बात की है। इस खेती में कितने ही गांवों के जंगल उजड़ गए और प्राकृतिक असंतुलन का संज्ञान लेते हुए सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा और वनों को बचाया गया। लोगों के रोजगार भी वनों पर ही निर्भर थे सो रोजी रोटी का भी संधान होना था। गाँव वासी अपनी जरूरतों के लिये आत्मनिर्भर थे, यहाँ तक कि गन्ने की भी खेती होती थी। ग्रामवासी अनाज, बीज, एक दूसरे के काम, जरूरत अनुसार अदल बदल कर आपस में लिया दिया करते थे. पैंचा लेना शर्म की बात न थी,अगली फसल होते ही चुकाने का रिवाज था और न चुका सके तो काम में मदद कर अहसान उतर जाता था लेकिन आज हम ये सब सोच भी नहीं सकते, आज स्वार्थ जीवन,दूसरे के कष्ट, उसके सम्मान से बड़े हो गए हैं और दिल बहुत छोटे। गाँव में कपड़े किस चीज से धोये जाते थे, जीवनोपयोगी चीजें किस कच्चे माल से बनाई जाती थी,सर धोने और नहाने का क्या जुगाड़ था वो भी इस किताब में पढ़ने लायक है, हाँ कामगारों,शिल्पकारों,लोहार, तेली, हलिया, टम्टा सहायक थे और उनमें से कोई भूखा न सोये ये पूरे गाँव को ध्यान रहता था कुल मिलाकर मानवतावादी दृष्टिकोण था।

पलायन न के बराबर था तो ग्रामवासी अपने गाँव खेती को समर्पित थे.गाँव के देवी देवता भी खुश और गाँव की व्यवस्था हेतु खावक ढुंग/ धत्ती ढुंग, ध्यान केंद्र के रूप में उसकी उपयोगिता और महत्ता का सुन्दर वर्णन है। लेखक इस किताब के साथ अपने बचपन में चले जाते हैं जहाँ से आज तक का सफ़र बड़ा अविस्मरणीय, आश्चर्यजनक लगता है। अपने गाँव से दिखने वाली चोटियों को लेखक प्रातः स्वर्ण मुकुट और संध्या समय रजत मुकुट की उपमा देते हैं तो उसके नैसर्गिक सौन्दर्य की कल्पना की जा सकती है।

लेखक ने आज प्रचलित जातियों,उनके प्रादुर्भाव, उनके इतिहास और उपयोगिता के साथ अन्य जातियों के साथ उनके व्यवहार और स्वार्थ पर भी कटाक्ष किया है जिसे पढ़ा जाना बहुत जरूरी है। मज़े की बात ये है कि पहाड़ में रहना और पहाड़ को अपने अन्दर जीना ये दो अलग बाते हैं.इस किताब को उत्तराखण्ड में पाए जाने वाले समस्त पक्षी,पेड़ों के नाम, जानवरों का परिचय, लुप्तप्राय अनाज, फल तथा वनस्पति के नामों के लिये भी जाना जायेगा, जो भी पहाड़ का परिचय चाहेगा उसे इस किताब को देखना ही होगा।

उस वक़्त के त्यौहार जो कि आज भी हैं लेकिन उनको मनाने वाले अब उच्च शिक्षित होकर पहाड़ों को छोड़ चुके हैं लेकिन तब त्यौहार कितनी खूबसूरती से मनाये जाते थे, होली का कितना महत्त्व और समाज को जोड़ने का दायित्व था, बेटियों को मायके से भेजी जाने वाली भेंट भिटौली,कृषि औजार, नंदा देवी का महात्म्य, घर बनाने की प्रक्रिया और आपसी सहयोग, श्रमदान की उपयोगिता, पेयजल की समस्या और उस समय की साफ़ सफ़ाई की कमी का उल्लेख किया है. स्थानीय पकवान,देवी देवता, गाँव में रात को उजाले की व्यवस्था के साथ साथ पारंपरिक वेशभूषा,जेवर के साथ स्त्रियों की स्थिति,उनका पहाड़/परिवार को योगदान और उनकी पीड़ाओं का बहुत संवेदनशील तरीके से विश्लेषण किया है। हालाँकि पहाड़ की जिंदगी किसी की आसान नहीं होती लेकिन स्त्रियाँ जो कि पहाड़ की रीढ़ हैं को ज्यादा कठिनाइयाँ सहनी होती हैं।
ऋतुओं अनुसार प्रकृति और बदलता जीवन बड़ा सुन्दर बन पड़ा है। दण्ड के तरीके और “क्वीड” जैसी मनोरंजक बात का भी उल्लेख है। रिश्ते जिन्हें हम अब प्रचलित हिंदी भाषा में पुकारने लगें हैं को जानना रोचक है। अपने परिवार के परिचय के साथ, गाँव का इतिहास, एक अनसुनी दास्तान को शब्द देना सा है। बड़ा दिल दुखता है जब लगता है इतना सुन्दर,खिलखिलाता गाँव अब उजाड़ है हालाँकि वहां से निकले बच्चों ने अपने योगदान से पूरे भारत को अपनी सेवाएँ दीं और उच्च पदों पर गए।

किताब के आख़िरी हिस्से में कुछ संस्मरणों का संकलन है जो कि इस किताब को और भी समृद्ध करते हैं। प्रवासी इन संस्मरणों को पढ़कर खुद पर गर्व कर सकते हैं क्योंकि संस्मरण हम सबकी थाती, रिश्ते और जीवन जीने की कला को प्रस्तुत करते हैं।

“आमा के हिस्से का पुरुषार्थ” में चार भाग है जिसमें आमा का समस्त व्यक्तित्व,अपने घर परिवार समाज के लिये प्रेम,उनकी पीड़ा और बुद्धिमत्ता का अभूतपूर्व वर्णन है, सच में स्त्री हर परिवार की धुरी है.आमा के हिस्से का पुरुषार्थ में लेखक ने उस कालखंड की एक विधवा स्त्री की व्यथा को उकेरा है.आमा एक संघर्षरत नायिका है जिसके सर पर घर गृहस्थी का पूरा बोझ है। आमा का दुःख उत्तराखंड की हर महिला का दुख है.वह सभ्यता, संस्कृति की पुरोधा है.संघर्ष से पूरे परिवार को आगे निकाल तो लेती है लेकिन सुख चैन उसके भाग्य में नहीं, जब सब बदल जाता है तो वो दुनिया छोड़कर चली जाती है।

“मौत का लट्ठा पुल” पढ़कर हम कितना भी कांपें लेकिन वो पुल उस गाँव के यातायात का साधन था,उनका रोजमर्रा का जीवन का हिस्सा था और आज जब पानी,बिजली,पुल,सड़क सब आ गया तो लोग नहीं हैं।
“उजाड़ बाखई” पलायन का दर्द बताती है तो “सिंगडूआ तू बता धै” लेखक के बचपन की याद दिलाती है.सामाजिक व्यंग्य “ज्ञान का और उनकी बरसी” बड़ा स्वाभाविक सा प्रश्न उठाती है और “पलायन से दरकते लोक सभ्यता और संस्कृति” चिंतित करती है।

किताबें बहुत सी लिखी गईं, लिखी जानी हैं लेकिन एक सम्पूर्ण पैकेज के साथ पूर्ण किताब बहुत कम आती है.मैंने इससे बहुत कुछ सीखा,जाना जबकि मैं अपनी संस्कृति/भाषा से अनजान नहीं हूँ फिर भी बहुत कुछ नया पाया। एक पैतृक गाँव केंद्र में होते हुए भी ये किताब पूरे समाज को पढने का जरिया है। जो अपने पहाड़ को जानना चाहते हैं और जो पूरे पहाड़ को जानना चाहते हैं, वहाँ के पूरे फ़्लेवर को महसूस करना चाहते हैं (क्योंकि इसकी भाषा को स्थानीय रंग के साथ लिखा गया है और आखिरी पन्नों में कुमाउनी शब्दों के अर्थ दिए गए हैं सो जो इस भाषा से अनभिज्ञ हैं वो भी सहज तरीके से पढ़ने का आनंद ले सकेंगे।) उन्हें यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए।

लेखक को इतनी उपयोगी, रुचिकर किताब लिखने के लिये साधुवाद,शुभकामनाएँ!

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समीक्ष्य पुस्तक- 
एक आदिम चरवाहा गाँव की दास्तान
लेखक-
डॉ गिरिजा किशोर पाठक (सेनिवृत्त आइपीएस)

प्रकाशक- सर्व भाषा ट्रस्ट
पृष्ठ संख्या- 173
मूल्य- रु. 250/

 

 

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Umesh mehta

10 July 2024

Bahot khub Shashi

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रचनाकार परिचय

शशि काण्डपाल

ईमेल : kandpalshashi@gmail.com

निवास : लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

जन्मस्थान- अल्मोड़ा
शिक्षा- स्नातक तथा शिक्षण/कला/फ़ैशन डिजायन/टेक्सटाइल डिजायन में डिप्लोमा
संप्रति- देश के कई शहरों/राज्यों में अध्यापन,अब पूर्व अध्यापिका, स्वतंत्र लेखन। 
प्रकाशन- पत्र पत्रिकाओं में कविताएं,समीक्षा,संस्मरण,सामाजिक सरोकारों पर लेख और यात्रा संस्मरण प्रकाशित।
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं,वेव पत्रिकाओं में किताबों की समीक्षाएं और संस्मरण प्रकाशित। कविता कोश में कविताएँ प्रकाशित।
1-संपादन रूपसिंह चंदेल के उपन्यास एक दृष्टि, 2- कहानी संग्रह: मुस्तरी बेग़म, 3- मेरी चुनिन्दा रचनायें,
विशेष- लगभग दस वर्षों से दिव्यांग बच्चों के लिए काम कर रही संस्था शाश्वत जिज्ञासा नामक NGO से संबद्ध।
संपर्क-14/1005,इंदिरा नगर,लखनऊ,उत्तर प्रदेश 226016
मोबाइल- 9839685441