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एकला चलो रे- पल्लवी त्रिवेदी

एकला चलो रे- पल्लवी त्रिवेदी

घुमक्कड़ी की तलब एक ऐसी तलब है कि एक यात्रा ख़त्म होती नहीं कि कैलेंडर में आगे के महीनों की छुट्टियों पर नज़र घूमने लगती है। एक ऐसी हार्मलेस तलब जो जिस आदमी को लग जाए उसका जीवन बदल दे। दस पैसे खर्च करके सौ पैसे की समृद्धि लाने वाली शै है घुमक्कड़ी। तो इस तलब के मारे हम अक्टूबर में नवम्बर के महीने को खोले बैठे थे सरकारी  कैलेंडर में और तीन छुट्टियाँ लगातार देखकर आँखें चमक उठीं। बस दो दिन की छुट्टी ले लूं तो पांच दिन में कहीं घूमने जाया जा सकता है।

घुमक्कड़ी की तलब एक ऐसी तलब है कि एक यात्रा ख़त्म होती नहीं कि कैलेंडर में आगे के महीनों की छुट्टियों पर नज़र घूमने लगती है। एक ऐसी हार्मलेस तलब जो जिस आदमी को लग जाए उसका जीवन बदल दे। दस पैसे खर्च करके सौ पैसे की समृद्धि लाने वाली शै है घुमक्कड़ी। तो इस तलब के मारे हम अक्टूबर में नवम्बर के महीने को खोले बैठे थे सरकारी  कैलेंडर में और तीन छुट्टियाँ लगातार देखकर आँखें चमक उठीं। बस दो दिन की छुट्टी ले लूं तो पांच दिन में कहीं घूमने जाया जा सकता है।

पर कहाँ?

पिछले दो साल से लगातार परिवार और दोस्तों के साथ घूमने जा रही थी तो इस बार पहले से ही तय था कि यह एक सोलो ट्रिप होगी। आठ नवम्बर से बारह नवम्बर, बस पांच ही दिन हाथ में हैं तो लिहाज़ा यह ज़रूरी है कि ऐसी जगह चुनी जाए जहाँ जाने में वक्त ज़ाया न हो। जो अन-देखी हो। जो ट्रांसपोर्ट के लिहाज़ से भी बेहतर हो और लड़कियों के हिसाब से सुरक्षित भी। तो अनदेखी जगहों को दिमाग में सोचते सोचते एकदम से कौंधा 'कलकता'। गुरुदेव,शरद बाबू, सत्यजित रे, रितुपर्णो घोष और मदर टेरेसा का कलकता। बाउल, रवीन्द्र संगीत, तांत, काथा का कलकत्ता। मिष्टी, दोई,सोन्देश और रोशोगुल्ला का कलकत्ता। हुगली और हावड़ा ब्रिज का कलकत्ता।

कलकत्ता के साथ ही अपनी पुरानी विशलिस्ट से निकल कर आया 'सुन्दरबन'।

अहा परफेक्ट– दो दिन कलकत्ता और दो दिन सुंदर-बन नेशनल पार्क के डेल्टा में सफारी। इससे बेहतर क्या हो सकता है। उसी वक्त फ्लाइट की आने जाने की टिकिट्स बुक करवाई गयीं और होटल भी कलकत्ता और सुन्दरबन में बुक करवा लिए गए। दोस्तों के साथ सारी ट्रिप अनप्लांड करती आई हूँ लेकिन अकेले जा रही हूँ तो सब प्लान्ड रहे तो बेहतर है। नवम्बर का मौसम भी सबसे खुशनुमा मौसम है कलकत्ता घूमने के लिए। हल्की सर्दी की आमद और बदन पर मखमली धूप का स्पर्श। सिटी ऑफ जॉय को एन्जॉय करने के लिए सबसे सुंदर वक्त बस महीने भर बाद ही आने वाला था।

 पहला दिन (बुलबुल के आने की आहट)

दोपहर दो बजे हवाई-जहाज कलकता के आसमान पर अपनी आमद दर्ज करा चुका था और मैं देख रही थी विंडो से कि गहरे काले घने बंजारे बादलों का पूरा कुनबा कलकता शहर के ऊपर डेरा जमाये हुए था। हवाई-जहाज से बादल सुंदर दिखते हैं। 'चलो अच्छा है, मौसम सुहाना होगा और धूप में तेजी भी नहीं होगी' मैंने मन ही मन सोचा। कलकत्ता एयरपोर्ट पर उतरते ही देखा कि रिमझिम बारिश हो रही थी। कूल...मज़ा आएगा। नवम्बर में बारिश देखना भी एक आह्लाद भरे कौतुक की तरह है।

लेकिन उतरते ही यह कौतुक सदमे में बदल गया। पता चला कि बुलबुल नाम का साइक्लोन भी नवम्बर के सुहाने मौसम में कलकत्ते की सैर को आ पहुंचा है। यह रिमझिम बारिश इसके आने की सूचना लेकर आये कारिंदे मात्र हैं, तूफ़ान साहब शाम तक कलकत्ता पधारेंगे। दो दिन लगातार भारी बारिश और तूफ़ान की चेतावनी मौसम विभाग जारी कर चुका है। माथे पर उभर आयीं चिंता की दो लकीरों को इस आशाभरी योजना के साथ मैंने मिटाया कि 'कोई नहीं। बीच बीच में जब बारिश रुकेगी तब खुले में घूमेंगे और बाकी टाइम म्यूजियम और इंडोर जगहों को देखा जाएगा। परसों सुंदरवन चले जायेंगे और जब 11 तारीख को सुन्दरवन से लौटेंगे तब तक बुलबुल उड़ चुकी होगी और तब मज़े से बचा हुआ कलकत्ता घूमा जाएगा'। मगर शाम होते होते सुंदरबन से फोन आ गया कि तूफ़ान के कारण सारी बुकिंग्स और सफारी रद्द कर दी गयी हैं। आपका पैसा आपके अकाउंट में पहुंचा दिया जाएगा।

लो, सुंदरवन भी गया। चिंता की दो लकीरें अपने साथ दो लकीरें और लाकर माथे पर विराजमान हो गयीं। शाम छह बजे होटल की वॉल साइज़ खिड़की से बाहर नज़र डाली तो बाहर बारिश तेज़ हो गयी थी और पेड़ों की तेज़ हिलती हुई शाखें बता रही थीं कि तूफ़ान भी शहर का मेहमां हो चुका है। क्या किया जाए ऐसी तूफानी रात में? तभी साहित्यकार और दोस्त अलका सरावगी जी का संकट मोचक फोन आ गया। वो डिनर के लिए बुला रही थीं। वाह...! आज की शाम तो बढ़िया गुज़रेगी। कल का कल से देखा जाएगा। और वही हुआ। अलका जी के साथ मटर के बढ़िया परांठे खाते हुए उनसे ढेर सारी बातें हुईं और जब देर रात मैं होटल वापस लौटी तो तूफ़ान मुझ पर बे-असर था। क्योंकि इस मौसम में मैं एक बेहतरीन शाम गुज़ार के आ चुकी थी।

 दूसरा दिन (एक लड़की भीगी-भागी सी)

सुबह आठ बजे आँख खुली और उठते ही सबसे पहले एक चमत्कार की उम्मीद में  

खिड़की के बाहर नज़र डाली। शायद रात भर में बुलबुल उड़ गया हो,शायद एक सुनहरा दिन मेरे स्वागत के लिए मुस्कुराता हुआ खड़ा हो। मगर कोई चमत्कार नहीं हुआ। सुबह का रंग गहरा सलेटी था और बारिश इतनी तेज़ थी मानो विशालकाय बुलबुल समन्दर में डुबकी लगाकर आने के बाद अपने पंख कलकत्ता के ऊपर झटक रहा हो। सूरज की किरणों पर बादलों का अभेद पहरा था और हवा इतनी तेज़ मानो पूरे शहर को उड़ा ले जायेंगी।

मन उदास हो गया। अब क्या करुँगी? न कलकत्ता घूम सकती और सुन्दरवन भी कैंसिल हो गया है। आना ही बेकार हुआ। अपनी बदकिस्मती पर चिढ़ आने लगी।

'बुलबुल भाई...! तुम दो-तीन दिन बाद आ जाते तो हम ट्राम में बैठ चेतना पारीक को याद कर लेते, कलकत्ते की सड़कों पर भटक लेते, हावड़ा ब्रिज पर अपने फोटो खींच लेते, सुहानी धूप में विक्टोरिया मेमोरियल पर सुबह गुज़ार लेते। बुलबुल कहीं का...अभी आना था इस दुष्ट को।' 

चलो...अभी तो कॉफ़ी पीकर नाश्ता करते हैं। दो घंटे बाद देखा जाएगा कि क्या करना है।

ये मन भी ना, बहुत प्यारी चीज़ है। जितनी जल्दी उदास हो बैठता है, इसे बस थोड़ा थपक दो, थोड़ा सहला दो तो फिर से चहकने लगता है।    

चल रे मेरे मनवा...दुखी न हो। अब एक छाता खरीदेंगे और भीगते-भीगते पार्क स्ट्रीट में घूमेंगे, विक्टोरिया मेमोरियल भी देखेंगे और इंडियन म्यूजियम भी देखेंगे।

फिर क्या था ? बुलबुल तेज़ बारिश और हवा लेकर कोलकाता में भटकता रहा और हम एक छाता लेकर निकल लिए पैदल भटकने। इसी बारिश में न्यू मार्केट, विक्टोरिया मेमोरियल और इंडियन म्यूज़ियम देखे। कितना सुंदर है विक्टोरिया मेमोरियल। ब्रिटिश स्थापत्य कला की धवलता और भव्यता का एतिहासिक स्मारक। बड़े-बड़े हरे लॉनों और खूबसूरत तालाबों के बीच बना यह मेमोरियल अलसाती धूप में सारा दिन बिताने लायक है। इन्डियन म्यूजियम से बड़ा म्यूजियम मैंने नहीं देखा। इसकी सैर करना ऐसा है जैसे टाइम मशीन में बैठकर जीवों की उत्पत्ति से लेकर अब तक दुनिया के जैविक,वानस्पतिक इतिहास से आज तक का सफ़र तय कर लिया हो। इसे भरपूर समय लेकर देखना चाहिए।

एक फेमस रेस्टॉरेंट 'आहेली' में बंगाली थाली खाई। हांलाकि कीमत बहुत ज़्यादा थी। टैक्स जोड़कर 2100 रुपये की पड़ी। सोचा कि कीमत अच्छी है तो थाली भी बेहतरीन होगी। पर ठगी है विशुद्ध। थाली में चार सब्ज़ियां, एक दाल, चावल, दही, भटूरे और मात्र एक मिठाई रसमलाई थी। पांच सौ रुपये से एक पैसा ज़्यादा नहीं बनता था।

रास्ते भर तेज़ हवा और छाते में संघर्ष चलता रहा। छाते को उड़ने से बचाते हुए आधे से ज़्यादा तो हम भीग ही गये। खिलखिलाते मन में गाना चलता रहा-

सर भीगा है, तन गीला है

इसका कोई पेंच भी ढीला है।

वैसे पेंच ढीला हो तो सही रहता है। तनाव नहीं रहता। प्लान की हुई यात्रा अन-प्लांड हो जाये तो सरप्राइज़ हो जाती है। हमारी यात्राओं को किस्मत ही प्लान करेगी, यह तय हो गया था। शाम जब होटल में लौटे तो यह नहीं पता था कि कल क्या किया जाए। लेकिन किस्मत को ही जब प्लान करना है तो हमें क्या फिकर! शाम तक छोटी बहन की दोस्त ऋतु का फोन आ गया –

'दीदी...मैं पानागढ़ में आर्मी बेस में रहती हूँ। शान्ति निकेतन यहाँ से करीब है। आप यहाँ आ जाइए। शान्ति निकेतन घूमने।'

मैंने तत्काल स्वीकृति की मोहर लगाई। अब मन से सुंदरवन न घूम पाने का मलाल जा चुका था और गुरुदेव की भूमि शान्ति निकेतन को छूकर आने का उत्साह जाग गया था। रात 8 बजे की बस पकड़कर अगले तीन घंटे बाद मैं पानागढ़ की आर्मी मेस में रात गुज़ार रही थी।

कहाँ तो सिर्फ अनदेखी जगह की यात्रा प्लान करके चली थी और अब एक अनसुनी जगह पर दो रातें गुज़ारने जा रही हूँ। वाह री किस्मत!

 तीसरा दिन (गुरुदेव की चौखट, बाउल और हाट बाज़ार )

आज की सुबह बेहद खूबसूरत थी। ख़ालिस नवम्बरिया सुबह। चेहरे को चूमती मीठी धूप वाली सुबह। आज का सारा दिन शान्ति निकेतन के नाम होने वाला है। संगीत,साहित्य से जिनको ज़रा भी लगाव है, शान्ति निकेतन उनके लिए मक्का से कम हरगिज़ नहीं। टैगोर के घर जा रही हूँ मैं,यह सोचने मात्र सिहरन हो रही थी। 1700 रूपये में पानागढ़ से टैक्सी हुई जो शान्ति निकेतन ले जायेगी और वापस छोड़ेगी। उल्लसित मन से मैं सुबह 12 बजे शान्ति निकेतन पहुंची। वहां पहुँचते ही भारी मात्रा में जगह-जगह पुलिस बल दिखाई दिया। बड़ी सुरक्षा है इस स्थान की। पहला विचार यही कौंधा।

'आज राष्ट्रपति महोदय शान्ति निकेतन भ्रमण के लिए आ रहे हैं जिसके कारण आज और कल शान्ति निकेतन आम सैलानियों के लिए बंद रहेगा।'

टिकिट काउन्टर पर जाते ही यह सूचना वज्र की तरह हृदय पर गिरी।

'क्या...! शान्ति निकेतन बंद है ? नहीं जा सकेंगे?' मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। यह सच नहीं हो सकता।

पर यही सच था। इस बार शायद किस्मत पूरी तरह फिरकी लेने के मूड में थी।

दस मिनिट तो माथा पकड़कर वहीँ बैठी रही। अब सचमुच मूड बेहद खराब हो गया था। अब क्या करूँ ? पूरा दिन पड़ा है। दस मिनिट बाद मन को फिर समझाया और सोचा कि गुरुदेव का घर नहीं तो उनका शहर ही घूम लिए जाए। फिर आसपास के कुछ स्थल शिल्प ग्राम और डियर पार्क देखे। शिल्प ग्राम में बाउल गाते एक कलाकार के गीत पर नृत्य किया। एक मीठे गले के लोक गायक के सामने बैठकर एकमात्र श्रोता के रूप में 'एकला चलो रे' सुना। डियर पार्क में कैमरा उठाकर इस मकसद से घूमी कि शायद पश्चिम बंगाल में पायी जाने वाली खूबसूरत चिड़िया डॉलर बर्ड मिल जाए तो ट्रिप सार्थक हो जाए। मगर मैना, ट्री पाई और वुड पैकर के अलावा कोई नया परिंदा नहीं दिखा। लौटते हुए इतवार को लगने वाली स्थानीय कारीगरों की हाट में चली गयी। जहाँ लिनेन और खेस की साड़ियाँ, टेराकोटा की ज्वेलरी और हस्तशिल्प के अन्य सामान खरीदे। अब बढ़िया लग रहा था। एक स्थानीय रेस्टोरेंट में खाना खाने गयी तो मैंने पूछा कि वेज खाने में क्या-क्या मिलेगा?

उसने पूछा, "वेज या प्योर वेज ?"

मैंने कहा, "प्योर वेज ।"

तब सिर्फ उबली दाल और जीरा आलू की सब्जी के साथ चावल आया। वेज भोजन में मछली भी शामिल होती है यहाँ।

शाम के चार बजे शान्ति निकेतन को दुबारा आने का वादा कर डूबते सूरज की नारंगी,गुलाबी आभा में लिपटे ग्रामीण बंगाल को देखते हुए वापस पानागढ़ की ओर चल दी।

यूँ न कहूँगी कि कोई अफ़सोस नहीं था लेकिन मन ने होनी को स्वीकार कर लिया था। रात ऋतु के घर डिनर था और ऋतु, उसके पति शशि और दो प्यारी बच्चियों के साथ खाते पीते और गाने गाते कैसे रात हुई, पता नहीं चला। इस एकल यात्रा के पांच दिनों में से तीन दिन बीत चुके थे।

 चौथा दिन (गरियाहाट, शोमेन दा और सोन्देश)

आज वापस कलकत्ता जाना और वहीँ घूमना तय किया है। मौसम विभाग बता रहा है कि कलकत्ता में बढ़िया धूप खिली हुई है।

सुबह दस बजे उस पानागढ़ के हाइवे पर अपना लगेज लेकर खड़ी मैं कलकत्ता जाने वाली बस का इंतज़ार कर रही थी जिसका कल से पहले कभी नाम भी न सुना था। ये है मज़ा धार के हवाले खुद को कर देने का। जब अपने बनाए प्लान फेल हो जाएं तो किस्मत की योजनाओं को खुशी-खुशी स्वीकार कर लेना चाहिए। किस्मत के प्लान फुल ऑफ सरप्राइज़ेज़ है। नए अनुभव, नई जगहें, नए दोस्त। आंखों और दिमाग को नएपन की छुअन से तरोताज़ा कर देना सुखद है। पानागढ़ से कलकत्ता के रास्ते में बर्दवान आया जहाँ पहली बार झालमुड़ी लेकर खाई। भेलपूरी की सूखी और स्वादिष्ट बहन झालमुड़ी।

दोपहर दो बजे तक कलकता आकर मैं होटल आकर सो गयी। शाम से शहर घूमने निकला जाएगा।

पांच बजे शाम मुझे बालीगंज से गरियाहाट जाना था। रोड पर आकर ऊबर से टैक्सी बुक करने लगे। 348 रुपये बता रहा था सात किमी के।

तभी सामने सिटी बस आकर रुकी। कंडक्टर गेट से बाहर लटका सवारियों को आमंत्रित कर रहा था।

“गरियाहाट जाएगी क्या बस।” हमने पूछ लिया।

“जाएगी।“

हम चढ़ गए बस में। खचाखच भरी बस में सामने की लेडीज़ सीट खाली थी। बैठ गए और कंडक्टर से किराया पूछा।

“नौ टका।“ 

“कितना...!” हमने अविश्वास में पूछा।

“नाइन रुपया।“ उसने हमें गैर बंगाली समझ अंग्रेज़ी में बोला।

हमने दस टके का नोट दिया और टिकिट और एक टका वापस पाया।

339 रुपये बचा लिए। कितना मज़ा आ रहा है। रुकती-चलती बस में शहर दर्शन भी हो रहे हैं। पब्लिक टॉन्सपोर्ट ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए। जेब और पर्यावरण दोनों के लिए बढ़िया। गरियाघाट बाज़ार बहुत देर तक पैदल-पैदल घूमते रहे। बाज़ार कोई बहुत खास नहीं लगा। घर की ज़रूरतों के सामान वाला सस्ता सामान्य-सा लेकिन बहुत बड़ा बाज़ार है। चलते-चलते हमने पुचके खाये और इस नतीजे पर पहुंचे कि हमारे भोपाल की फुल्की ज्यादा स्वादिष्ट है।

अब बारी थी बंगाल की मिठाइयों के रसास्वादन की। बालीगंज की बेस्ट मिठाई शॉप का पता किया और ऑटो के लिए सड़क पर खड़े हो गए। पास से गुजरते एक सज्जन ने बताया कि दूसरी तरफ से मिलेगा ऑटो। पास ही है बालाराम मलिक कि मिठाई शॉप। अगर पैदल जाओगी तो भी दस मिनिट लगेगा। मैं तो पैदल ही जा रहा हूँ।

“आपको एतराज न हो तो मैं भी पैदल चलूं आपके साथ ?”  मैंने पूछा।

वो तैयार हो गए।और यूँ बारह मिनिट की एक वॉक और वार्ता उनके साथ हुई। उनके दो बेटे हैं और दोनों भारत से बाहर हैं। बेटों के बाहर रहने की तकलीफ बार-बार उनकी बातों में आ रही थी।

“कहने को तो दो बेटे हैं पर अब बुढ़ापे में कोई साथ नहीं। मैं अगले साल रिटायर हो रहा हूँ।“

“बढ़िया है ना। आप चले जाया करिए उनके पास।“

“जाते हैं ना हम। जाते रहते हैं। अभी जब बेटे के कंधे की हड्डी टूटी थी तब हम ही गए थे। जब भी उनको काम पड़ता है तो हम जाते हैं।“  कहते कहते उनकी आवाज़ में एक अजीब-सा ठंडा खालीपन आ गया था।

अगर पेरेंट्स और बच्चे दोनों के नज़रिए से देखा जाए तो दोनों अपनी जगह सही हैं। मगर विदेश में रहने वाले बच्चों के अकेले रह गए ज्यादातर माता-पिता ऐसी ही भावनाओं के साथ जीते हैं।

उनको जब पता चला कि मैं अकेले कलकत्ता घूम रही हूँ तो बहुत आश्चर्य हुआ उन्हें। 

“ध्यान से घूमना। रात में अकेले पैदल मत निकलना।“  उन्होंने चिंता में कई हिदायतें दे डालीं।

उनका घर पीछे छूट गया था पर मुझे दुकान तक पहुंचाने वे मेरे साथ आगे तक चले आये थे।

दूर से मिठाई शॉप दिखाई उन्होंने और मैंने शुक्रिया कहते हुए उनका नाम पूछा

“शोमेन विश्वास।”

उन्होंने बताया और एक प्यारी-सी पप्पी हवा में ही मुझ तक पहुंचाकर लाड़ भरा आशीर्वाद दिया-

“खुश रहो और अपने माँ-पापा का ख़याल रखना।“ आह...फिर से वही टीस।

“जी..आप भी ख़याल रखियेगा अपना।“

मुझे लग रहा था कि काश वो कह दें कि मेरे घर चलो चाय पीने तो मैं उनके घर जाऊं और उनकी और उनकी पत्नी के साथ बैठकर देर तक उनकी बातें सुनूं। 

शायद यही चाहते हैं अकेले रह गए वृद्ध। कोई हो, जो ख़याल रखे, उनके पास बैठे और उनकी बात सुने, कुछ अपनी बात शेयर करे।

अच्छा लगा शोमेन दा से मिलना। कब कौन अजनबी आपके जीवन के एक छोटे हिस्से का साथी बनेगा,पता नहीं होता। और यात्राओं से बेहतर यह काम कौन कर सकता है भला। अगले दो मिनिट बाद मैं बालाराम मलिक की प्रसिद्ध मिठाई की दुकान पर थी। वहां रेस्तरां नहीं था केवल दुकान थी जहाँ बैठकर नहीं खाया जा सकता था लेकिन मेरे अनुरोध पर काउन्टर बैठे एक बालक ने मुझे हर मिठाई का एक-एक पीस वहीँ काउन्टर पर खड़े होकर खाने के लिए देना सहर्ष स्वीकार किया और फिर एक-एक करके मैंने छह छेने की मिठाइयां खाईं और आधा किलो संदेश पैक करवा लिया।

लौटते हुए होटल जाने के लिए टैक्सी की और उसको बोला कि हावड़ा ब्रिज दिखाते हुए ले जाए। बड़ा सहृदय ड्राइवर था। उसने न केवल हावड़ा ब्रिज बल्कि ईडन गार्डन, रेसकोर्स और रात की रौशनी में जगमगाता विक्टोरिया मेमोरियल भी दिखाया। मन तृप्त हो गया।

पाँचवा दिन (डलहौजी रोड, वाटरलू स्ट्रीट और गंगा घाट)

रात को ही सोचकर सोए थे कि सुबह जल्दी उठकर गंगा घाट जाना है। सुबह की गुनगुनी धूप में गंगा में पैर डालकर बैठने का सुख ही अलग होगा। ठंड शुरू हो गयी है तो शायद माइग्रेटेड बर्ड्स भी आ गयी हों। 

नींद बहुत देर से लगी थी। लेकिन 7 बजे उठ गए। कैमरा, मोबाइल और कुछ पैसे जेब में डालकर स्लिपर पहनकर निकल लिए। रोड पर आकर सबसे करीबी घाट का रास्ता पूछा तो बाबू घाट बताया गया। करीब ही था होटल से करीब डेढ़ किमी। पैदल ही चल पड़े सुबह-सुबह का शांत कलकत्ता देखते हुए, वरना कलकत्ता के बारे में सोचते ही भीड़भाड़, शोर शराबे का दृश्य पहले बन जाता है। यह डलहौज़ी इलाका कहलाता है और हमारे होटल की स्ट्रीट वाटरलू स्ट्रीट।

आगे बढ़े तो चौड़ी सड़क क्रॉस करते ही गवर्नर हाउस दिखा। जितना बड़ा गवर्नर नहीं होता, उससे कई गुना बड़े उनके घर होते हैं। यह पूरा सरकारी भवनों वाला इलाका है। बरगद के पेड़ों पर लाल-लाल फल आये हुए हैं अभी। चिड़ियों की भीड़ टूटी पड़ रही है नाश्ता करने। मैना,कौवे और बैबलर ज्यादा संख्या में नज़र आ रहीं। लेकिन बारबेट और गोल्डन ओरियोल की आवाज़ सुनाई दे रही कहीं पास ही। देखने की कोशिश की मगर विशाल बरगद के पत्तों में कहीं छुपे बैठे होंगे। कौवे तो सारी सड़क घेरे बैठे हैं और अचानक इतनी नीची उड़ान भरते हैं कि लगता है कि बोलूं-

“अबे, मुँह में ही घुस जाएगा क्या?”

करीब एक किमी तक तो चप्पल चटकाते हुए ब्रिटिशकालीन बड़ी-बड़ी इमारतों से गुजरते हुए अच्छा लग रहा था। पर जैसे ही ऑर्डिनेंस फेक्ट्री क्रॉस हुई और जैसे सारा दृश्य ही बदल गया। मानो गुरुदत्त के सिनेमा में किसी मसाला साउथ इंडियन मूवी की रील जुड़ गई हो। यह बाबू घाट के समीप आने की घोषणा थी।

घाट के बाहर सड़क से ही श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी पड़ रही थी। तिलक लगाए स्त्री पुरुष, सफेद केन में गंगा जल लिए जाते भक्त, सपरिवार मंजन कुल्ला करते, कपड़े बदलते लोग। उफ्फ...कितने लोग। जैसे-तैसे इस भीड़ से गुज़रकर घाट पहुंचे पहली सीढ़ी से आखिरी सीढ़ी तक रंग-बिरंगे कपड़ों के ऊपर सैकड़ों काले सर नज़र आ रहे थे। घाट पर जगह-जगह फूल, प्रसाद, अगरबत्ती बिछाकर पूजा कर रहे थे लोग। सीढ़ियों से लेकर नदी तक गाद ही गाद। मेरी न तो हिम्मत हुई और न ही इच्छा कि नदी तक जाऊं। घाट के दाहिने किनारे पर एक स्त्री नहाने के बाद कपड़े बदल रही थी और ठीक उसके बगल में उसकी ओर पीठ किये एक पुरुष मूत्र विसर्जन कर रहा था। हावड़ा ब्रिज बाईं तरफ दिखाई दे रहा था और दाहिनी ओर द विद्यासागर सेतु दिखाई देता था। खूब सारी फैरी लगी थीं घाट पर। नदी के दूसरी ओर बड़ी बड़ी इमारतें। जून में ही बनारस के घाटों पर भी कुछ वक्त बिताया था। वहां भी धार्मिक माहौल था पर घाट इतने बड़े थे कि अपना एकांत खोजा जा सकता था और घाट पर घटते दृश्यों को साक्षी भाव से देखा जा सकता था। यहां यह एकांत नहीं पाया जा सकता और भीड़ से खुद को अलग कर पाना भी सम्भव न था।

घाट से बाहर आये और हावड़ा ब्रिज का पूरा फोटो लेने घाट के फुट ओवर ब्रिज पर चढ़ गए। यहां खाली था ब्रिज। सिर्फ एक बन्दा हमारी तरह कैमरा लेकर फोटोग्राफी करने आया था। दस मिनिट ब्रिज से हावड़ा ब्रिज और हुगली के फोटो लेने के बाद मैं वापस होटल की ओर चल पड़ी ।लौटते वक्त भीड़-भाड़ से निकलते हुए याद आती रहीं ज्ञानेन्द्रपति की कविता 'ट्राम में एक याद' की पंक्तियाँ –

'देखता हूँ अब के शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है'

दो मिनिट बाद ही शोर मचाता कलकत्ता फिर शांत हो गया। जैसे खुद ही भीड़ से उकताकर इधर चला आया हो। बरगद के पेड़ पर एक हरे परिंदे की उड़ान ने ध्यान खींचा। नज़र घुमाई तो ब्लू हैडेड बारबेट नज़र आया। पत्ती के आकार और पत्ती के ही रंग का यह बारबेट सिर्फ अपने गले के नीले रंग और सर पर चटख लाल रंग से पहचान में आ रहा था। बहुत खुश होकर दो-तीन फोटो लिए। 

आगे बढ़े तो एक सफाई कर्मचारी कचरा उठाते हुए भुनभुना रहा था।बड़े ग़ुस्से में मालूम होता था। उसकी ओर चलकर आते दूसरे सफाईकर्मी को देखकर उसका गुस्सा फूट पड़ा-

“ये बिनोद भी चूतिया-पन्ती के काम करता है हमेशा।“

“चूतिया आदमी चूतिया-पन्ती के काम नहीं करेगा तो हम लोग करेंगे क्या?”

दूसरे वाले ने यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि बिनोद ने आखिर क्या किया।

पहले वाला भी यह सुनकर खुश हो गया कि बिनोद चूतिया है और वह नहीं है। अब ठीक था। दोनों कचरा समेटते हुए हँस रहे थे।

चलते-चलते वाटरलू स्ट्रीट आ गयी थी। सारी स्ट्रीट पर नज़र घुमाई तो इतिहास जगह-जगह अपनी कहानी कह रहा था। इतनी पुराने घर कि उनकी दीवारों के भीतर से बरगद की बड़ी बड़ी जड़ें झूल रहीं थीं।

ईंट, पेड़ और मनुष्य एक साथ रह रहे थे। सह-जीवन का अच्छा उदाहरण।

कितनी भली और खुशनुमा सुबह थी। कलकत्ता की आख़िरी सुबह। 

हासिल-ए-सफ़र

पांच दिन की छुट्टी लेकर अकेले कलकत्ता घूमने जाना ,उसमें भी साइक्लोन के कारण दो दिन खराब होना, सुंदरबन सफ़ारी रद्द हो जाना, 160 किमी दूर सफर करके शांति निकेतन पहुंचना और उसे भी उस दिन बन्द पाना, ये सारी बातें किसी भी यात्रा का हासिल हों तो उस यात्रा को कितने स्टार दिए जाएंगे?

मैं देती हूँ पूरे फाइव स्टार।

सारी मुश्किलों और बने हुए प्लान्स के फेल होने के बाद भी इस यात्रा ने इतना समृद्ध किया मुझे जितना शायद योजना के मुताबिक घूमना नहीं कर पाता। मेरे लिए यह यात्रा खुद को एक्सप्लोर करना था। 

अगर दो दिन लगातार बारिश न होती तो मैं कैसे जान पाती कि मैं उस बेहद ख़राब मौसम में होटल में बैठ स्पा का आनन्द लेने की बजाय छतरी खरीदकर भीगते हुए शहर में पैदल घूमना पसन्द करती हूँ।

अगर सुंदरबन सफ़ारी जो कि मेरा सपना था कई बरसों से, कैंसिल न होती तो कैसे जान पाती कि अपनी प्रिय चीज़ न मिल पाने का दुख महज पन्द्रह मिनिट का था और तुरन्त दिमाग उसका विकल्प ढूंढने लग गया था।

अगर शांतिनिकेतन बन्द न मिलता तो कैसे जानती कि हर नई जगह अद्भुत है और नया शहर, नए लोग, नई संस्कृति को जानना कभी मायूस नहीं करता, भले ही जहाँ आप जाना चाहते थे, वहां न पहुंच पाए हैं। ये कैसे जानती कि मुझे कुदरत ने ऐसे मन से नवाज़ा है जो सामने उपस्थित विकल्प पर आनन्दित होना जानता है।

अगर टैक्सी का मोह छोड़ ,अपना कम्फर्ट ज़ोन छोड़ बसों में सफ़र नहीं करती तो कैसे जान पाती कि असुविधाएं सिर्फ दूर से ही डराती हैं। जब उनका सामना करो तो वही अच्छा लगने लगता है। परेशानियां तभी तक परेशानियां हैं, जब तक उनका लुत्फ न लिया जाए।

अगर सिर्फ खूबसूरत स्थान ही चुन-चुन कर देखती और शहर की तासीर और उसकी आत्मा को समझने गलियों,बाज़ारों और घाटों पर न गयी होती तो कैसे जानती कि मुझे सिर्फ खूबसूरत स्थानों में नहीं बल्कि जगहों को ठीक वैसे ही जानने में रुचि है,जैसे वे हैं। 

इस एकल यात्रा की राहें खुद के भीतर की ओर जा रहीं थीं। इसने मुझे मजबूत किया, आत्मविश्वास बढाया, खुद की ताकत जानने का अवसर दिया और खुद की कम्पनी एन्जॉय करने की सुंदरता से परिचित कराया।

इससे ज्यादा सफल और सार्थक यात्रा कोई हो सकती है क्या भला? 

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रचनाकार परिचय

पल्लवी त्रिवेदी

ईमेल :

निवास : मध्यप्रदेश

नाम- पल्लवी त्रिवेदी
जन्मतिथि- 8 सितम्बर, 1974
जन्मस्थान- ग्वालियर, मध्यप्रदेश"
प्रारम्भिक शिक्षा मुरैना व शिवपुरी में हुई। उच्च शिक्षा मंडला और शाजापुर में हुई। 1999 में उनका चयन राज्य पुलिस सेवा में उप पुलिस अधीक्षक के पद पर हुआ।
सम्प्रति- मध्यप्रदेश में राज्य पुलिस सेवा की अधिकारी। वर्तमान में आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ में ए.आई.जी. के रूप में पदस्थ।
प्रकाशन
प्रकाशित कृतियाँ-

‘अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा’ (व्यंग्य-संग्रह);
‘तुम जहाँ भी हो’ (कविता-संग्रह)
'ख़ुशदेश का सफ़र' ( यात्रा वृत्तांत)
'ज़िक्रे यार चले' ( प्रेम कथा संग्रह)
उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रही हैं। लेखन के अतिरिक्त वे यात्राओं, संगीत व फ़ोटोग्राफ़ी का शौक रखती हैं। बर्ड फ़ोटोग्राफ़ी में उनकी विशेष रुचि है।
सम्मान- ‘तुम जहाँ भी हो’ पुस्तक के लिए उन्हें 2020 में मध्यप्रदेश के ‘वागीश्वरी सम्मान’ से सम्मानित किया गया। सराहनीय कार्य के लिए उन्हें ‘राष्ट्रपति पुलिस पदक’ से सम्मानित किया जा चुका है।