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आकृति विज्ञा 'अर्पण' के गीत

आकृति विज्ञा 'अर्पण' के गीत

सच कहती हूँ सुनो साँवली,
तुमसे ही तो रंग मिले सब।
जब ऊँचे स्वर में हँसती हो,
मानो सूखे फूल खिले सब।

एक- सुनो बसंती हील उतारो

सुनों बसंती हील उतारो,
अपने मन की कील उतारो।
नंगे पैर चलो धरती पर,
बंजर पथ पर झील उतारो।

जिनको तुम नाटी लगती हो,
उनकी आँखें रोगग्रस्त हैं।
उन्हें ज़रूरत है इलाज की,
ख़ुद अपने से लोग ग्रस्त हैं।

सच कहती हूँ सुनो साँवली,
तुमसे ही तो रंग मिले सब।
जब ऊँचे स्वर में हँसती हो,
मानो सूखे फूल खिले सब।

बिखरे बाल बनाती हो जब,
पिन को आड़ा तिरछा करके।
आसपास की सब चीज़ों को,
रख देती हो अच्छा करके।

मुझे नहीं मालूम बसंती!
उक्त जगत का कौन नियंता?
पर तुमको अर्पित यह उपमा,
'स्वयं सिद्ध घोषित अभियंता'।

तुमने स्वयं गढ़े जो रूपक,
शब्द नहीं वो आलंबन हैं।
अर्थों के मस्तक पे बढ़कर,
अक्षर कर लेते चुम्बन हैं।

जिसको नीची लगती हो तुम,
उसकी सोच बहुत नीची है।

सुनो बसंती हील उतारो,
अपने मन की कील उतारो।

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दो- अभिनय करना पड़ता है

सघन पीर से हृदय भरा हो, और अधर मुस्काते हों।
भीड़ हज़ारों की समक्ष हो, हृदय-भाव घबराते हों।
तभी धीर का भारी पत्थर, मन पर रखना पड़ता है।
अभिनय करना पड़ता है।

मन का क्रंदन गीत बने जग बोले यह ऊर्जित है।
नैन ढरकना चाह रहे हों, समय कहे यह वर्जित है।
रूह कहे यह पीड़ा भारी, देने की क्या तुम अधिकारी?
सब भावों पर लगा के ताला, ख़ुद से लड़ना पड़ता है।
अभिनय करना पड़ता है।

सम्बंधों का सूर्य दीप्त हो, कितना सुंदर लगता है।
मगर दीप्ति का सब कुछ खोना किसको रुचिकर लगता है?
बहुत कथाएँ मिटती हैं तब, नयी कथा का सर्जन होता।
जहाँ दुखों को ख़ुद कह सुनकर, ख़ुद ही हरना पड़ता है।
अभिनय करना पड़ता है।

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तीन- स्वप्नगंधा ओ पलाशी

स्वप्नगंधा ओ पलाशी!
आज तुमको मुक्त करके,
मुक्ति का अपमान होगा,
क्या तुम्हें यह भान होगा?

क्या प्रिया तुम सुन सकोगी?
एक सरि का बर्फ होना।
गीत का अचके ठिठुरके,
मौन-सा इक हर्फ़ होना।

स्वर सधे सब चुप रहेंगे,
प्रेम का जब गान होगा।
क्या तुम्हें यह भान होगा?

संस्कृति तो देह-सी भर,
तुम सहजतम चेतना हो।
अश्रु गंगा इसलिये है,
क्योंकि तुम ही वेदना हो।

आज गुरूता को अचानक,
हीनता का भान होगा।
क्या तुम्हें यह भान होगा?

चंद्रबिंदी चाँद की ज्यों,
खींच कर जाये उतारी।
प्रश्न को वनवास देकर,
धर्म की हर नीति हारी।

भाव जिसमें दैन्यता के,
उसके हाथों दान होगा।
क्या तुम्हें यह भान होगा?

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चार- पेड़ अघोरी तू बरगद का

पेड़ अघोरी तू बरगद का, मैं इक चिरई ललमुनिया।
गीत बसे तेरी हर पाती, डूब-डूब के मैं सुनिया।

हवा तुझे सहलाये जब-जब,
सिहरन मुझको होती है।
कोरे नैन भीगते तेरे,
ललमुनिया यह रोती है।

तेरी अँखियों के दरपन में, देखी है मैंने दुनिया।
पेड़ अघोरी तू बरगद का, मैं इक चिरई ललमुनिया।

जाने कौन ठौर का नाता,
हम दोनो को एक किये,
बिन स्वारथ बहती इक नदिया,
दोनों तीरे तीर्थ बसे।

सब उपमाएँ मौन खड़ी हैं, मुस्कइयाँ अधरां ठईया।
पेड़ अघोरी तू बरगद का, मैं इक चिरई ललमुनिया।

मथुरा काशी से हम दोनों,
प्रेमी औ वैरागी हैं।
खोने-पाने से गाफ़िल,
दोनों ऐसे अनुरागी हैं।

जाने कौन काज की ख़ातिर ,क़िस्मत ने द्वय को चुनिया।
पेड़ अघोरी तू बरगद का, मैं इक चिरई ललमुनिया।

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पाँच- अश्रु मेरे धित् अभागे

अश्रु मेरे धित् अभागे,
ढूँढते दु:ख का निलय।
दृष्टि शर कुछ घूरते नित,
हाय मेरे नैन द्वय।

जग ये मुझसे मांगता है, भावसागर का पता।
रह रहे मन में जो मेरे, 'राधा नागर' का पता।
चैत की धरती मैं सूखी, अश्रु बनते भाप मेरे।
भीगते गुलदान चाहें, मुझसे बादर का पता।

मेघ भेजो दूत री!
उत्तरों की वृष्टि को,
पत्र में लिखते प्रलय।
स्याह! मेरे नैन द्वय।

जिस जगत को नैन भरके, मैं सदा थी देखती।
आँख में थी जिस जगत के, इक दुलारी रेख-सी।
स्वर्ण बिंदी-सी छपी थी, मैं सभी के भाल पर।
जिस जगत की भाव भूमि, पर छपे आलेख-सी।

शूल-सी कातर हुई,
उस जगत का सामना,
कर न पायी आज मैं।
आह! मेरे नैन द्वय।

जब स्वयं के अश्रु हैं, खारा कहें किससे कहें?
सब कहानी भूलकर, अब चैन से कैसे रहें।
आत्मा वैधव्य में है, जग समूचा उत्सवित।
राह निर्विकल्प है ये, निर्वहन जैसे करें।

जंग का खाया हुआ,
एक कजरौटा लिये,
दीप जलते स्वर्णमय।
वाह! मेरे नैन द्वय।

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रचनाकार परिचय

आकृति विज्ञा 'अर्पण'

ईमेल : vigyakriti78@gmail.com

निवास : गोरखपुर (उत्तरप्रदेश)

शिक्षा- बीएससी, एमएससी, बीएड
सम्प्रति- वनस्पति विज्ञान में शोधरत।
लेखन विधाएँ- कविता, गीत, कथा, पत्र, रिपोर्ताज आदि।
प्रसारण- दूरदर्शन, आकाशवाणी में अनेक कार्यक्रमों की उद्घोषणा व पाठ।
प्रकाशन- प्रेम पत्र संग्रह 'लोकगीत-सी लड़की' प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित।
निवास- गोरखपुर (उत्तरप्रदेश)