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प्रमोद पवैया के गीत

प्रमोद पवैया के गीत

हमें स्वर्ग का मूल्य चुकाकर
नर्कवास को ठुकराना है,
और अदेखी वैतरणी में
सतत डूबना-उतराना है,

व्यापारी को
संत मानकर,
ख़ुश रहना है।

गीत- एक 

राजमहल को वह छोड़े जो
राजमहल से ऊब चुका हो,
किंतु हमारा कच्चा घर इस घटना के अनुकूल नहीं है।

राजभोग वह छोड़े जिसकी
थाली में हठ कर आया हो,
वह क्या छोड़े जिसे भाग्य ने
चौखट-चौखट भटकाया हो,

महक चुभे उसको जो हर विधि
नीलकमल से ऊब चुका हो,
किंतु हमारे मन-उपवन में ऐसा कोई फूल नहीं है।

जिसने सब कुछ बोल लिया हो
वह अब जाकर मौन साध ले,
जो पूरा बह चुका ख़ुशी से
अपने ऊपर बाँध बाँध ले,

ध्यान रमे वह जो जीवन की
उथल-पुथल से ऊब चुका हो,
किंतु ध्यान में बहे हमारा दुःख इतना निर्मूल नहीं है।

हमें श्वास के पथ पर चलती
बाधा दौड़ सही लगती है,
और हमारी यशोधरा भी
हर दिन नई-नई लगती है,

हो जाए वह हृदय तथागत
जो काजल से ऊब चुका हो,
किंतु हमें कजरी आँखों में दिखती कोई भूल नहीं है।

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गीत- दो 

भेड़ तंत्र का
पंथ मानकर,
ख़ुश रहना है।

हमें स्वर्ग का मूल्य चुकाकर
नर्कवास को ठुकराना है,
और अदेखी वैतरणी में
सतत डूबना-उतराना है,

व्यापारी को
संत मानकर,
ख़ुश रहना है।

पीड़ाओं के प्रतिनिधियों का
अलग अभी आवरण हुआ है,
समुदायों में भय अशांति का
निर्मित वातावरण हुआ है,

इसी आदि को
अंत मानकर,
ख़ुश रहना है।

उपवासों के श्रम अक्सर ही
सदाव्रती को छल जाते हैं,
ऋषि की सिंहासन लिप्सा का
हरिश्चंद्र प्रतिफल पाते हैं,

सत्यकथाएँ
दंत मानकर,
ख़ुश रहना है।

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गीत- तीन 

घिर गया है मन, तिमिर के दायरों में,
चौखटों पर दीप जलते रह गए।

पर्णकुटियों में रखे थे घट भरे
प्रेम के, सम्मान के, विश्वास के,
बाहरी वातावरण में धूप थी
भीतरी में नृत्य थे मधुमास के,

ले गए सब लूटकर अपने सगे ही,
सब लुटेरे हाथ मलते रह गए।

मूर्तियाँ मुँह फेरकर बैठी रहीं
जल चढ़ाकर लौट आईं पीढ़ियाँ,
दक्षिणाओं की दिशा में मुड़ गयीं
आज मंदिर की पुरानी सीढ़ियाँ,

बँट गए वरदान अग्रिम पंक्तियों में,
और हम पीछे उछलते रह गए।

शाख पर आँधी रुकी जो रात भर
घोंसले सारे ज़मीं पर आ गिरे,
स्वर्ग तककर तीर जो छोड़े गए थे
देखकर अवसर हमीं पर आ गिरे,

उड़ गया छप्पर हवाओं में उलझकर,
नींव के खम्भे सँभलते रह गए।

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गीत- चार 

पंछी ज़रा सँभल कर आना
अमराई में जाल छिपे हैं।

जहाँ तुम्हारा नीड़ वहीं कुछ
व्याधों की भी तैयारी है,
ठाँव तुम्हारे ज़ाहिर करना
उपवन की ही अय्यारी है,

फूलों पर शुभ-लाभ लिखा है
पत्तों में बेताल छिपे हैं।

सदा सरलता की छाती पर
विश्वासों के घाव लगे हैं,
निर्दयता के बाज़ारों में
चीखों के तक भाव लगे हैं,

सत्य यही है मुस्कानों के
पर्दों में भूचाल छिपे हैं।

उद्धारों के पावन पथ अब
मलिन हो चुके युग के छल से,
आशाओं की साँझ हो गयी
बुद्ध नहीं लौटे जंगल से,

उन्हें बताते दरबारों में
असली अंगुलिमाल छिपे हैं।

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गीत- पाँच  

एकलव्यों भौंकने दो श्वान,
अन्यथा संकट खड़े हो जाएँगे।

भर दिए मुँह में अगर
तुमने नुकीले तीर,
काँप सकते हैं कथाओं
के सुपोषित वीर,

योग्यताओं
को समझ व्यवधान,
पार्थ पीछे हट खड़े हो जाएँगे।

देखकर अपने अशंकित
निर्णयों पर चोट,
तैरने मुख पर लगेंगे
द्रोण-मन के खोट,

साधना के
खींचने परिधान,
दक्षिणा के नट खड़े हो जाएँगे।

राजगुरुओं के अहं
जब-जब हुए हैं पुष्ठ,
एकलव्यों के कटे हैं
दाहिने अंगुष्ठ,

सोच लो
तुम पर गया यदि ध्यान,
फिर पुराने हठ खड़े हो जाएँगे।

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1 Total Review

राजेश पाली 'सर्वप्रिय'

20 November 2024

बहुत ही अद्भुत गीत आदरणीय भैया

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रचनाकार परिचय

प्रमोद पवैया

ईमेल : pramodpabaiya@gmail.com

निवास : उदयपुरा (मध्यप्रदेश)

जन्मतिथि- 1987
शिक्षा- स्नातक
संप्रति- प्राथमिक शिक्षक
लेखन विधा- गीत
प्रकाशन- गीत गागर, मुक्तक, राजनीतिक, क्रांति, काव्यमृत आदि पत्रिकाओं में गीतों का प्रकाशन।
निवास- ग्राम दीघावन, तहसील- उदयपुरा, ज़िला- रायसेन (मध्यप्रदेश)- 464776
मोबाइल-9685904049