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वेद प्रकाश शर्मा 'वेद' के गीत

वेद प्रकाश शर्मा 'वेद' के गीत

देखता गुमसुम समय
यह फेसबुक की घुड़चढी है

लक्ष्य कहीं है, तीर कहीं

बात हुई होती मंदिर-मस्जिद की तो
कुछ बात न थी
दुःख तो यह है लक्ष्य कहीं है,
धनुष कहीं है तीर कहीं

मूल रूप की माला जपते,
गिरगिट धर्मी वाद मिले
सप्तपदी ली संवादों ने
शिशु अवैध परिवाद मिले

रोग विवादों के असाध्य यदि होते
तो कुछ बात न थी
दुःख तो यह है चोट कहीं है,
घाव कहीं है पीर कहीं

जिन्हें कुटुंब लगी वसुधा
वे मंत्र सभी दम तोड़ रहे
व्यक्ति निष्ठता के मंदिर में
खड़े नारियल फोड़ रहे

दुर्ग बने होते निष्ठालय में,
फिर भी कुछ बात न थी
दुख तो यह है कहीं तोपची,
तोप कहीं, प्राचीर कहीं

काया साथ चली श्रद्धा की
पर हर छाया इड़ा मयी है
मनु के रक्त मांस की गरमी
जलप्लावन तक लौट गयी है

इंद्र कुपित कितने भी, कैसे भी होते
कुछ बात न थी
दुःख तो यह है गरज कहीं है
चमक कहीं है, नीर कहीं

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मंगल टोला

नए स्वप्न ले नया घोंसला
बनने वाला है
हरियाया मन पुलक-पुलक तन
उड़न खटोला है
पेड़ यह मंगल टोला है

पत्ती पत्ती में थिरकन है
शाख-शाख में नर्तन
कलियाँ कुचीपुड़ी, कत्थक से
करतीं आगत अर्चन

सभी घोंसलों ने यादों का
बुगचा खोला है
पेड़ यह मंगल टोला है

मलय पवन ने बांधे घुँघरू
होठों पर सरगम है
शरद चाँदनी के पनघट पर
किरणों की छमछम है

डाल-डाल पर रास रंग का
मुर्ग़ा बोला है
पेड़ यह मंगल टोला है

इंद्र धनुष आँखों में उतरे
मन में उगीं ऋचाएँ
आशीषों के मंत्र-कवच से
लेतीं सभी बलाएँ

नयी महक ने चहल-पहल को
अम्बर खोला है
पेड़ यह मंगल टोला है

यही कामना पेड़ रहे यह
नित नव मानसरोवर
मोती चुगते रहे हंस ये
इसमें उतर उमर भर

सदा लगे गठबंधन यह
रमणीक हिंडोला है
पेड़ यह मंगल टोला है

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महामहीम

चलो तुम्हारी इच्छा है
कह देते हैं तुमको अप्रतिम

कितनी कविता, कितना किस्सा
कितना इसमें है समाचार
कितनी ताली, कितनी गाली
इसका भी करना क्या विचार

शाबास, मुबारक का कोई
हो लॉलीपॉप नहीं अंतिम

बस रेल-पेल का रेला है
इस ओर और उस ओर रोज़
तरह-तरह के व्यंजन से
सजता कविता का महाभोज

करते जो श्रद्धा सुमन भेंट
सब हैं तुमसे ही महामहिम

दिन दूनी, रात चौगुनी हो
सर्जन (?) की भावुक जगर-मगर
घी पिये जिये जब तक जमकर
यह सरल, दुधारू, आम डगर

मूरख हैं जो तपते, रचते
पगते, पकते मद्धिम-मद्धिम

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फेसबुक की घुड़चढी

वोट में
ताकत बड़ी है

फैसला
करती रही है
संसदों का, संसदों में
घुस रही अब
कलावंतो की
कला के मसनदों में

रैलियाँ करती क़लम
क्या ताजपोशी- हड़बड़ी है

साधने
इसको लगा है
हर बड़ा-छोटा खिलाड़ी
हाँ, अभी भी देखते भर
खेल यह
कुछ धुर अनाड़ी

सामयिक, सुंदर झड़ी, पुचकार
इसकी फुलझड़ी है

क्या कहा, क्या देखना
बस नाम को
आशीष देना
रोज़ दिखना
और टिकने
दौड़ से हर होड़ लेना

देखता गुमसुम समय
यह फेसबुक की घुड़चढी है

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वह चयन भी आपका था

वह चयन भी आपका था
यह चयन भी आपका है
सब करो स्वीकार
कैसी शर्म, हाहाकार!

दृष्टि बिंबों के नियामक
आज तुम, कल भी तुम्हीं थे
हाँफ़ते मृग को छकाते
रेत में जल भी तुम्हीं थे

वह नयन भी आपका था
यह नयन भी आपका है
तब रहा आचार
अब क्यों लग रहा व्यापार

जो सुना था क्या गुना था
तब नहीं श्रीमान तुमने
अनसुनेपन से बुना था
या कहीं उपमान तुमने

वह नमन भी आपका था
यह नमन भी आपका है
तब रहा उस पार
अब क्यों दिख रहा इस पार!

हाथ में समिधा दिखी तो
यज्ञ में न्यौता तुम्हीं ने
पात्रता को दे भुलावा
कर दिया होता तुम्हीं ने

वह हवन भी आपका था
यह हवन भी आपका है
मंत्र का आचार
अब क्यों तंत्र से साभार!

खींचते, खिंचते-खिंचाते
डोर के साधक रहे तुम
'ठीक है, सब ठीक ही' के
व्यर्थ आराधक रहे तुम

बाँसवन भी आपका था
काँसवन भी आपका है
व्यर्थ है उपचार
अब उपचार बस स्वीकार!

हम तुम्हारे इंगितों पर
आँख मूँदे चल रहे थे
पर कहीं गंतव्य तुमको
आँख खोले छल रहे थे

वह अयन भी आपका था
यह अयन भी आपका है
तब रहा साकार
अब है छाँव भर विस्तार

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रचनाकार परिचय

वेद प्रकाश शर्मा 'वेद'

ईमेल : vpsh85@gmail.com

निवास : ग़ाज़ियाबाद (उ०प्र०)

जन्मतिथि- 01 जुलाई, 1954
जन्मस्थान- सिक्का, शामली (उ०प्र०)
शिक्षा- एम० एस० सी० (रसायन शास्त्र)
सम्प्रति- सेवा निवृत्त अधीक्षक, केन्द्रीय उत्पाद शुल्क
विधाएँ- गीत, ग़ज़ल एवं दोहा
प्रकाशन- आओ नीड़ बुनें, नाप रहा हूँ तापमान को, अक्षर की आँखों से (गीत संग्रह) हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गीत प्रकाशित। पं० देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' द्वारा संपादित काव्य संकलन 'हरियर धान रुपहले चावल' तथा योगेन्द्र दत्त शर्मा द्वारा सम्पादित नवगीत संकलन ‘गीत सिंदूरी गंध कपूरी’ में रचनाएँ सम्मिलित।
विशेष- गीति-काव्य को समर्पित संस्था 'गीताभ' के महासचिव।
निवास- सी-1, शास्त्री नगर, ग़ाज़ियाबाद (उ०प्र०)
मोबाइल- 9818885565