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गीता गुप्ता 'मन' के गीत

गीता गुप्ता 'मन' के गीत

कुछ अनबुझे कुछ अनजाने, कुछ लगते जाने पहचाने,
मन को मंदिर कर देते है, कुछ गीतों के बोल सुहाने।

एक- पात्र सारे भूल बैठे

पात्र सारे भूल बैठे,कौन किसका है सहायक?
पूर्ण हो कैसे कथानक?

थे सभी व्यक्तित्व चुंबक,
था सहज कितना निभाना।
थे सभी परिचित स्वयं से,
दूसरे को क्या बताना।

सहजता थी आपसी संबंध भी मजबूत लगते,
फिर लगाए क्यों गए हैं चिह्न इतने प्रश्न वाचक?
पूर्ण हो कैसे कथानक?

भूमिका के अंश से था,
मिल रहा प्रांजल समर्पण।
सुरमई थे साँझ के स्वर,
मन हरें संवाद क्षण-क्षण।

औपचारिक कार्यक्रम भी पूर्ण अब तक हो चुके थे,
फिर अवांछित संक्रियाएँ घटित होती हैं अचानक!
पूर्ण हो कैसे कथानक?

वितत अवितत घोर विस्मय!
क्षोभ, दुख,गहरी निराशा।
स्वप्न की टूटी तिजोरी,
हो रही अब क्षीण आशा।

बंधनों से ही बंधी हर एक सामाजिक प्रणाली।
टूटती कड़ियाँ जुड़ेंगी फिर भला क्यों तोड़ मानक?
पूर्ण हो कैसे कथानक?

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दो- मेघा बरस रहे घनघोर

मेघा बरस रहे घनघोर

भीग रहा अंबर तल पल पल।
उमड़ उठा थल में जल ही जल।
वन उपवन तरु विटप विशाखा,
पुहुप प्रसून कली कुल कोंपल।

मोद प्रमोद करें हर छोर।


तृषित हृदय की मिटी पिपासा।
दौड़ा जब बादल उजला सा।
धाराधर उपकार तुम्हारा,
बूँदें बनती फिरें बतासा।

लपक चमक गर्जन का शोर।

भीग रहा चिड़ियों का जो दल।
मन में खिला रहा है उत्पल।
कलरव नित आनंदित करता,
धरा बिखेर रही है संदल।

पंख खोलते मन के मोर ।

रिमझिम-रिमझिम मेघा बरसे।
बूंदें निकल पड़ी हैं घर से।
स्थापित मन मंदिर में है जो,
नयन निगोड़े जिसको तरसे।

आया करने भाव-विभोर।

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तीन- करो प्रणाम राम को

करो प्रणाम राम को मिले न स्वर्ग तो कहो
सदैव राम नाम पुण्य पाठ सा गहो गहो।

प्रतीक पुण्य के विशेष एक मात्र मंत्र हैं।
समस्त रीति नीति हेतु राम मुख्य तंत्र हैं।
नहीं कहीं मिला विवेक राम सी प्रबुद्धता।
स्वरूप है प्रणम्य दिव्य भाव पूर्ण शुद्धता।

जपो तपो अगाध प्रेम धार में बहो बहो।

प्रभात आरती भरे सु रम्य भक्ति राम की।
प्रशस्ति गा रही निशा अमोल कीर्ति धाम की।
अविज्ञ!राम नाम का महत्व जान मान लो।
अतुल्य नाम का प्रभाव है अशोक जान लो।

प्रभो करें कृपा अनन्य भक्ति में सदा रहो।

अनादि आदि सत्य है कि दिव्य राम नाम है
अनेक रंग रूप भाव भक्ति एक धाम है।
विनीत दीनबंधु प्राण के प्रमाण राम जी
कृपा करें हरें समस्त दुःख त्राण राम जी।

सभी चलो न राम धाम को न दुःख में दहो।

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चार- कुछ गीतों के बोल

कुछ अनबुझे कुछ अनजाने, कुछ लगते जाने पहचाने,
मन को मंदिर कर देते है, कुछ गीतों के बोल सुहाने।

कुछ लगते अपने-अपने से, लगता मुँह की बात छीनते।
कुछ बदले-बदले से लगते,इधर उधर से भाव बीनते।
अधकच्चे-अधपक्के है पर बाँधे हैं भावों की शक़्कर,
कुछ राहों से भटक गए है कुछ धरती पर लाए जलधर।

हैं कुछ सरल सहज मनभावन कुछ तीखे कुछ बड़े सयाने।

जीवन में ठहराव मना है, कुछ इस पर बल देते रहते।
बन सुख दुख के सहगामी कितने ही हल देते रहते।
कुछ दुविधा के द्वार बने तो कुछ मन की दुविधा हर लेते।
कभी निराशा घर कर जाती आशा के जुगनू भर देते।

कई श्रेणियों में दिख जाते नए नवेले जाने-माने।

भाषा का सौंदर्य कहीं पर मन को मोहित करने वाला।
कहीं शिल्प की मीनाकारी ने भावों को है रँग डाला।
कुछ शब्दों के कोष स्वयं बन शब्दो को जीवन देते हैं।
सरल सहज सुन्दर सुबोध हो कुछ मन भर कर मन देते हैं।

छा जाते है ह्रदयाँचल में, मत तौलो अब नए पुराने।

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पाँच- दीप

दीप सुनो! जगते रहना तुम,
घोर घटा नभ अंचल छायी।
रात अमावस की गहरायी।

है क्षिति प्रांगण रिक्त सुधाकर,
आज बनो प्रहरी अलबेले।
साधक सा बन सज्य रहो तुम,
बुद्ध बनो धर धैर्य अकेले।
तेज हवा झकझोर रही पर,
वीर वही हँस जो सब झेले।
पार विपत्ति गया डट के जब,
धीर मिले शत उत्सव मेले।

सक्षम हो प्रतिरूप दिवाकर,
आज परीक्षण की ऋतु आयी।

मौन निशा तम व्याप्त धरा पर,
किंतु नहीं क्षण में घबराना।
सूझ नहीं कुछ आज रहा पर,
है सबको बढ़ राह दिखाना।
भूल स्वयं भटके कुछ जीवन,
है उनकी पहचान बताना।
आश्रय माँग रहे पथिकों पर,
भाव सहायक पूर्ण जताना।

कार्य सभी इस भांति करो सब,
लोग कहें विधि ये मन भायी।

प्रेरक जीवन के परिचायक,
ध्येय सदा परमार्थ रहा है।
सज्जनता सुखकारक सेवक,
सा मन का निहितार्थ रहा है।
मंद हुए क्षण में कुछ दीपक,
ज्यों उपजा निज स्वार्थ रहा है।
संस्कृति का उपहार अलौकिक,
पाकर विश्व कृतार्थ रहा है।

है अमरत्व मिला जग में जब
द्रोह बना तन ये सुखदायी।

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रचनाकार परिचय

गीत गुप्ता 'मन'

ईमेल :

निवास : उन्नाव (उत्तर प्रदेश)

जन्मस्थान- उन्नाव 
लेखन विधा- छन्द एवं गीत 
संप्रति- शिक्षिका