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हिंदी कथा साहित्य : पारंपरिक पीठ आधुनिक ‘गुल गपाड़ा’- डॉ॰ सुनीता

हिंदी कथा साहित्य : पारंपरिक पीठ आधुनिक ‘गुल गपाड़ा’- डॉ॰ सुनीता

साहित्य में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं अस्तित्वगत नैरेशन में मोहन राकेश और कमलेश्वर सहज याद आते हैं। रचनात्मक पात्रों के द्वारा आंतरिक- वाह्य जीवन के नैतिक दुविधाएँ प्रत्यक्ष हैं। समकालीन हिंदी साहित्य में राजनीतिक, सामाजिक भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक गतिविधियों की आलोचना हुई है। हरिशंकर परसाई और मनोहर श्याम जोशी प्रमाण हैं। अगर ये दोनों वर्तमान में होते तो समाज और मशीनी राजनीति को बेखौफ़ बखूबी दर्ज करते।

“साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, उसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित एवं सुंदर हो, और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने के गुण हो।” प्रेमचंद के कथन के आलोक में ‘गुल गपाड़ा’ का पाठ अपरिहार्य है। अरे ये क्या? मैंने साहित्यिक हलके के बेतहासा ‘शोर’ को ‘गुल गपाड़ा’ कह दिया। शोर तो वक्त की वेदना छिपाने का ठिकाना भर है। ओह, ये क्या कह दिया? अन्तर्मन के प्रश्न को दोहराती,चकित इधर- उधर देखती हूँ। स्वाभाविक यथार्थ से इमेजरी शब्द थर्रा उठते हैं। आवेग के भाव वेदना की वेदी पर लेट जाते हैं। बेहद करीब खड़े शोर के बादल छंटकर ‘गुल गपाड़ा’ का चोला पहन गरिमावान ढंग से एकाकार की पंक्ति बना लेते हैं। हौले से साहित्यिक वातावरण में तनाव बढ़ने लगता है। एरोटिक शास्त्र में उलझा  बौद्धिक समाज झोपड़ी में भूखे लेटे मानस के करवट की पीड़ा पाठ से दूर खड़े प्रतीक भर रह जाते हैं। तेजी से मानवता, संवेदना और सरोकार की दीवार दरकती है। दरअसल गुल गपाड़ा! एक ऐसा शोर जिसमें गलाकाट प्रतिस्पर्धा चरम पर है। संवेदना सुप्त और मानवीयता बेहद लाचार। किताबों के ढेर में निचले तबके के शोषित, वंचित जन अचेत। शुतुरमुर्ग लेखकों की जमात गुल गपाड़ा में अलमस्त, चमकीली चर्चा में व्यस्त वक्त काट रहे हैं। मुखर की प्रतीक्षा में निरीह आँखें नीले गगन के तले ‘उपेक्षा में अपेक्षा’ की आत्मा पंक्तिबद्ध है। गुल गपाड़ा प्रक्रिया पाठ में नाइजीरियाई लेखक फेस्टस इयायी की पुस्तक ‘हिंसा’ याद आ रही है। दृश्य कल्पना में लेखक ने समाज के उस नब्ज पर हाथ रखा है जिस पर किसी का ध्यान कम ही जाता है। गुल गपाड़ा अर्थात बेतहासा शोर में गुम समस्त जन एक तमाशा है। साहित्यिक तमाशों का शिनाख्त करने की यात्रा जटिल है पर सुखद और दिलचस्प भी। क्योंकि तुरुही की धुन मानव जिद के आगे कमजोर पड़ जाती है। फिर देर किस बात की है, चलते हैं, उस सफर पे जिसमें सफरची तो हैं पर सफ़र का मजमून लापता है। लापता तथ्य स्त्री इतिहास के कर्जदार हैं। सूद बढ़ रहा है। निराश लोग निफ़िक्र नजर आने की जी- तोड़ कोशिश में बगले झाँक रहे हैं।

   हिंदी का साहित्यिक आकाश विस्तृत है। सूक्ष्म कड़ी की मजबूती ‘परंपरा और आधुनिकता’ है। इस शृंखला में मन, मानुष, समय- समाज समाहित है। साहित्यिक मानक जाँच में संवेदना का स्थान सर्वोपरि है। आत्मकेंद्रित प्रवृत्तियों की सघनता आप्त संवेदना को शुष्क बना रही है। सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंड, मूल्य-प्रथा और परम्परा में प्रतिबिंबित, संरक्षित व परिवर्तित पक्ष साहित्य में उभर रहे हैं लेकिन मानवीय धरातल पर बंजर है। समाज का आकलन साहित्य की महीन दृष्टिपरकता पर निर्भर है। किसी भी रचनात्मक तत्व का प्रथम कार्य पारंपरिक तत्वों को बनाए- बचाए रखते हुए समकालीन विषयों, शैलियों, चिंताओं और चेतनाओं को दर्ज़ करना है। मानक बिंदु के तौर पर ऐतिहासिक संदर्भ आवश्यक है। ऐतिहासिकता के परिप्रेक्ष्य में यह समझना होगा कि साहित्य, कैसे कला, संस्कृति को संरक्षित करता है? पारंपरिक मूल्यों, सामाजिक मानदंडों और ऐतिहासिक घटनाओं को किस रुप में चित्रित करता है? विकृत वक्त का कोरस, उपेक्षित पीड़ा का पाठ समुच्चय साहित्य का लोकराग है। जिसकी जड़ें परंपरा में विन्यस्त हैं जबकि आधुनिकता में परिलक्षित। यहाँ अवधेश प्रीत- ‘रुई लपेटी आग’ और मधु कंकरिया- ‘ढलती सांझ का सूरज’ उपन्यास का जिक्र लाज़मी है। ये दोनों उपन्यास ‘परंपरा और आधुनिकता’ के गुल गपाड़ा के मध्य मानवीय सरोकार की बड़ी खामोशी से शिनाख्त करती हैं। एक तरफ पोखरण परीक्षण से उपजे मर्मांतक दृश्य है, दूसरी तरफ किसान जीवन की त्रासदी है। अकूत आधुनिक विकास के बावजूद बहुतेरे समस्याओं का हल नहीं निकाला जा सका है। यह चिंतन और चेतना के स्तर पर विचारणीय है। उपन्यासों की गहराई उद्वेलित करती है।

साहित्य के मूल में नवाचार और प्रयोग अंतरपाठ्यता केन्द्रित है। मूल्यांकन की कसौटी में आधुनिक कार्य पद्धति पारंपरिक स्वरूपों को तोड़ती है। निर्माण की अंतर्ध्वनी कथा तकनीक, दृष्टिकोण और विषय प्रवेश- प्रस्तुति तय होती है। आधुनिक पाठ, पारंपरिक पाठ शैलियों से संदर्भित, पुनर्व्याख्या का एक पक्ष है। अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच का पल संवाद। पुल की बजरी सांस्कृतिक संश्लेषण, विश्लेषण और नैरेशन पर आधारित है। गौरतलब है कि साहित्य विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं के तत्वों को जोड़ता है जो स्थानीय- वैश्विक, पुरातन और नवीन के बीच गतिशील परस्पर क्रिया को दर्शाता है। विषयगत विकास में पहचान, लिंग भूमिका, जाति और धार्मिक संरचना जैसे विषय, विकासक्रम पर नज़र रखते हैं। पारंपरिक संदर्भों में निहित समकालीन सामाजिक परिवर्तनगत अनुकूलन दूरदर्शिता का संकेत है।

आधुनिक साहित्य में पारंपरिक रूपों जैसे महाकाव्य, कविता, सॉनेट या शास्त्रीय नाटक की कल्पना नहीं की जा जाती है। यह तो रूप- संरचना और अनुभव- अनुभूति के परस्पर जोड़ का घटक है। पुरानी साहित्यिक तकनीक में आधुनिक भाषा- शिल्प विषय विन्यास के विपरीत  परिदृश्य गढ़ते हैं। चेतनाधार और गैर- रेखीय आख्यानों को नए प्रारूपों में मिश्रित करना विधाओं का घालमेल है जो कि कॉकटेल टाइप रुप धारण कर लेता है।

  साहित्यिक आंदोलन स्वच्छंदतावाद, आधुनिकतावाद, उत्तर- आधुनिकतावाद चुपके से इतिहास बनते जा रहे हैं। इनका स्थान मल्टीमीडिया एकीकरण ने ले लिया है। नेटवर्किंग साइटस दबाव का असर धीरे- धीरे लत में तब्दील हो रहा है। मशीन प्रयोग से क्रूर बने मानव और अमानवीयता की पराकाष्ठा की कहानी आकांक्षा पारे काशिव- ‘शिफ़्ट+ कंट्रोल+ ऑल्ट= डिलीट’ है। आधुनिक यथार्थ बोध के जटिल तहों को कहानी सूक्ष्मता से कहती है। एडिक्शन कोई भी हो जानलेवा होता है। कहानी पारंपरिक से आधुनिक दृष्टिकोण में बदलाव का प्रतीक है। ऐसी रचनाएँ साहित्य- सिद्धांत को मौलिक आकार देती हैं। बेहद संक्षेप में कहें तो साहित्य के मानक- सांस्कृतिक विरासत और साहित्यिक सृजन के भीतर की नवीनता को अपनाने के बीच संतुलन और तनाव को संरक्षित करते हैं। इस क्रम में पंकज मित्र- ‘पड़ताल’, फणीश्वरनाथ रेणु- ‘पंचलाइट’, संजय खाती- ‘पिंटी का साबुन’ का उल्लेख परंपरा और आधुनिकता का विशिष्ट उदाहरण है। चमकीले रैपर में पुराना माल सप्लाई समस्या कम फैशन अधिक है। ‘समस्या और फ़ैशन’ के बरक्स साहित्य अछूता नहीं है।

साहित्य परंपरा और आधुनिकता के मध्य अंतरसंबंध विश्लेषण को समझने की दृष्टि से होमर कृत- ‘द इलियड’ और ‘द ओडिसी’ है। ये महाकाव्यात्मक रचनाएँ पश्चिमी साहित्य का आधारभूत ग्रंथ हैं। प्राचीन ग्रीक मूल्यों, पौराणिक कथाओं और वीरता का बाहुल्य है। जेफ्री चौसर- ‘द कैंटरबरी टेल्स’ कहानियों का संग्रह है। कहानियों में मध्ययुगीन अंग्रेजी समाज का एक विशद चित्रण है। अद्भुत कथा शैली, प्रशिक्षण शिविर जैसा है। मिगुएल डे सर्वेंट्स का ‘डॉन क्विक्सोट’ को प्रथम आधुनिक उपन्यास का श्रेय प्राप्त है। इसमें शूरवीर परंपराओं पर व्यंग्य है। स्पेनिश संस्कृति में आधुनिकता के प्रवेश का सूत्र प्रच्छन है। जेन ऑस्टेन- ‘प्राइड एंड प्रेजुडिस’ में 19वीं सदी के आरंभिक अंग्रेजी सामाजिक मानदंडों और लैंगिक भूमिकाओं पर मासूम निरीक्षण की सूक्ष्म आलोचना की है। ‘एक हजार और एक रातें’ मध्य पूर्वी लोक कथाओं का वृहद ग्रंथ है। ग्रंथ ने दुनिया के साहित्यिक परंपराओं को प्रभावित किया। कई शताब्दियों में संकलित कृति- वितान ईरान, भारत, तुर्क, यहूदी और ग्रीक तक फैला है। इसे ‘अरेबियन नाइट्स’ भी कहते हैं। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण, उपभोक्तावाद के भूमण्डलीकरण का मल्टीलैंविन दृष्टि पाठ अब आवश्यक है। 

  जेम्स जॉयस का ‘यूलिसिस’ व ‘द ओडिसी’ आधुनिकतावाद की पुनर्कल्पना है। चेतना और तकनीक के ‘डबलिन’ पर केंद्रित, 20वीं सदी की आरंभिक जीवन आहटें समाहित है। टोनी मॉरिसन- ‘बेलव्ड’ उपन्यास अमेरिका के दासता की विरासत एवं स्मृति- पहचान पर आधारित है। ऐतिहासिकता और जादुई यथार्थवाद का क्लासिक चित्र है। चिनुआ अचेबे- ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ में पारंपरिक इग्बो समाज की तुलना नाइजीरियाई यूरोपीय उपनिवेशवादी ईसाई मिशनरियों के विघटनकारी हालात से किया है। टी.एस.एलियट ने ‘द वेस्ट लैंड’ कविता में आधुनिकतावादी आधारशिला के बहुमूल्य पक्षों को उठाया है। जीवन के खंडित प्रकृति प्रतिबिम्बन, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परम्परा का अनुवाद मर्मस्पर्शी है। गेब्रियल गार्सिया मार्केज़- ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ यथार्थवाद का मौलिक भाव लैटिन अमेरिका के जटिल सांस्कृतिक विरासत के ऐतिहासिकता और कल्पना का सामूहिक संवाद है। वर्जीनिया वूल्फ़ का ‘मिसेज़ डैलोवे’ आधुनिकतावादी उपन्यास है। पात्रों के आंतरिक जीवन- चेतना के संक्रमणकालीन यथार्थ वर्णन अंदर तक झकझोरते हैं। पारंपरिकता में निहित कथात्मक संरचना का उनवान प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात का जीवन- शैली दृश्यमान है। विलियम फॉल्कनर- ‘द साउंड एंड द फ्यूरी’ उपन्यास संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी जीवन- जटिलताओं की गैर- रेखिए कथा है। यहाँ पारंपरिकता और आधुनिकता समानान्तर, समकक्ष हैं। अरुंधति रॉय- ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ में उत्तर- औपनिवेशिक दौर के जटिल यथार्थ को सप्रमाण रचा है। कथा के केंद्र में केरल है। भारतीय इतिहास, राजनीति और परिस्थितियों की  चक्की में पिसते मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन है और अंतर्संबंधों में संवेदना की तलाश है। सलमान रुश्दी का ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’ ऐतिहासिक और यथार्थवाद का मिलजुला रंग लिए है। उपन्यास ब्रिटिश उपनिवेशवाद और भारत स्वतंत्रता के संक्रमणकाल से संबन्धित है। राष्ट्रीय इतिहास एवं व्यक्तिगत जड़ों को आपस में सम्मिलित करती रचना विश्लेषण को बाध्य करती है। सांस्कृतिक परंपरा संरक्षण और आधुनिकता को अपनाने के बीच की कड़ी साहित्य है। जिसे तर्क, तथ्य और सत्य से समझना संभव है।

  सूचना तंत्र फैलाव से साहित्य- सृजन में एक अलग तरह का तनाव सम्मिलित हो रहा है।  कहानियों में शिल्प- शैली और भाषा के स्तर पर उत्तरोउत्तर आमूलचुल बदलाव हो रहा है। प्रारंभिक, आधुनिक रचनाओं में सामाजिक मुद्दे, सुधार और राष्ट्रवाद का बोलबाला रहा। प्रेमचंद के समकाल में गरीबी, जातिगत भेदभाव और ग्रामीण जीवन संघर्ष के विषय अधिक केंद्र में थे। धीरे- धीरे वैश्विक समाज बदला जिसका असर हिंदी साहित्य में परिलक्षित है। समकालीन हिंदी रचनाओं में शहरीकरण, वैश्वीकरण, लिंग गतिशीलता और मनोवैज्ञानिक अन्वेषण ने गति पकड़ा। आधुनिक लेखक पहचान, अस्तित्ववाद और प्रौद्योगिकी के प्रभाव में है। बहुस्तरीय मुद्दों से दो- चार हो रहा है। बेशक कथा शैली खूब विकसित हुई है। पारंपरिक दुनिया ने आधुनिक का चोला ओढ़ लिया है। कथा में तकनीक ने गहरी पैठ बना ली है। सामाजिक व राजनीतिक चेतना बहूरेखीय संदर्भ में खंडित संरचनाएं हैं। निर्मल वर्मा एवं कृष्णा सोबती के नई कथा शैली के गहरे मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि से साहित्य- समाज समृद्ध है।

   भाषा और उच्चारण दृष्टि से हिंदी रचनाओं में प्रयोगात्मक विविधता बढ़ी है। सदियों से साहित्य में औपचारिक हिंदी का बोलबाला है। धीरे- धीरे ‘नई वाली हिंदी’ नाम से प्रचलित है। वर्तमान में बोलियों, बोलचाल की भाषा और हिंदी- अंग्रेजी के कोड- स्विचिंग का प्रचुर मिश्रण सहज होने लगा है। समकालीन भारतीयों के बोल- चाल के तौर- तरीके को डिकोट किया है। विविध पक्षीय बदलाव ने रचनाओं को बहुसंख्यक पाठकों के लिए अधिक प्रासंगिक एवं सुलभ बनाया है। बेशक चरित्र विकास के नजर से जटिल हुआ है। प्रारंभिक दौर की रचनाओं में व्यापक सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करते आदर्श चरित्र मुख्य हुआ करते थे। आधुनिक साहित्य में प्रेरक किरदार बदले हैं। प्रेरणा और प्रेरक का नजरिया भी। क्रिएटर अर्थात लेखक दृष्टि पात्र के आंतरिक जीवन वाह्य तौर पर जाहिर हैं जबकि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विडम्बना सिरे से गायब है। पीड़ा- पाठ की बजाए चमकीली चर्चाएं चहुमुखी फैली हैं। अस्पष्ट व्यक्ति चरित्र के बहुआयामी रुप का नैतिक पक्ष सूक्ष्मता से प्रेषित के बावजूद उपेक्षित है। जटिल मानव स्वभाव में रिश्तों की जकड़बंदी, समृद्ध समाज की ओर उन्मुख हैं लेकिन भीतरी कुटिल चालें नश्तर में विन्यस्त हैं।

   धुनिक हिंदी साहित्य वैश्विक साहित्यिक प्रवृत्तियों से प्रभावित है। उत्तर आधुनिकतावाद, जादुई यथार्थवाद और अन्य अंतर्राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी साहित्य को अपने चपेटे में लिए हुये है। लेखक निरंतर वैश्विक आख्यानों से प्रेरित कदम उठा रहे हैं। शैली एवं विषय समिश्रण की  छाप स्पष्ट दिखती है। वैश्विक साहित्य प्रभाव दिनोंदिन बढ़ रहा है। वैश्वीकरण का आधुनिकता पर असर गहरा है। यह प्रकाशन- वितरण- उपभोग के तरीकों में नाटकीय बदलाव संग आकर्षण और विकर्षण का केंद्रबिंदु है। डिजिटल मीडिया, स्व- प्रकाशन प्लेटफ़ॉर्म और सोशल मीडिया के उदय ने प्रकाशन प्रक्रिया के लोकतांत्रिकता को काफी हद तक रहस्यमयी बनाया है। अधिकांश लेखक पारंपरिक प्रिंट परे अपनी पहुंच का विस्तार- ऑनलाइन पत्रिकाओं, ब्लॉगों और ई- पुस्तकों के माध्यम से पाठकों तक पहुँच बना रहे हैं। सांकेतिकता की कलाई सख़्त होती जा रही है।  

  डिजिटल प्रौद्योगिकी और इंटरनेट प्रसार ने रिश्तों को आभासी बनाया है। लेखक वास्तविकताओं से दूर स्वप्निल हिंडोले में हैं। ये भी सच है कि कहन का प्रारूप विकसित जरूर हुआ है लेकिन बहुत कुछ खोखला हो गया है। बेशक लेखक ऑनलाइन रचनाएँ प्रकाशित कर त्वरित वैश्विक समाज से जुड़ रहे हैं। वैश्विक साहित्यिक नेटवर्क की बढ़ती ‘कनेक्टिविटी’ से हिंदी लेखकों को वैश्विक साहित्यिक नेटवर्क मिला है। अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक उत्सवों का हिस्सा बन दुनिया भर के व्यापक साहित्यिक श्रृंखला तक पहुंचने में सक्षम हुए हैं। इससे लेखक समृद्ध हो रहे हैं। बस करुणा की पगडंडी से दूर अंतर- सांस्कृतिक साहित्यिक आदान- प्रदान तक सिमटते जा रहे हैं। साहित्य में प्रतिनिधित्व उत्तरोत्तर परिवर्तित हो रहा है। विविध स्वर उठ रहे हैं। हाशिए के समुदाय के लेखन अपनी व्यथा- कथा स्वयं कह रहे हैं। स्त्रियाँ और एलजीबीटीक्यू के लोग अपने हिस्से के किस्से बता रहे हैं। अनुभवजनित लेखन ये दृष्टिकोण की वजह से खासा लोकप्रिय हो रहा है। अनुराधा बेनीवाल- ‘आजादी मेरा ब्रांड’ अनुभव साहित्य का ‘थ्योरी’ और ‘थेरेपी’ है। समकालीन समाज के बदलते वास्तविकताओं और संवेदनाओं के अनुरूप लेखक ढल रहे हैं। ढले लोग ढलान में ढुलके डिहुर रहे हैं।

  वैश्वीकरण साहित्य से ‘प्रवासन और पहचान’ की आवाजाही सीमा के पार बढ़ी है। यह हिंदी साहित्य में परिलक्षित है। प्रवासन, प्रवासी और सांस्कृतिक पहचान संकट से प्रत्येक इंसान जूझ रहा है। सांस्कृतिक जड़ों के बीच विस्थापन की भावना और अपनेपन की तलाश की चुनौतियों से नास्टेल्जिक हैं। अप्रवासियों के जीवन पर स्थानीय समुदाय के वैश्विक संस्कृति का प्रभाव रचनाओं में रचा- बसा है। हालांकि वैश्वीकरण ने शहरीकरण और आधुनिकीकरण का कलेवर बदला है। सब कुछ ‘मेगासिटी’ शैली में तब्दील हैं। समसामयिक शहरी जीवन विस्तृत हो रहा है। महानगरीय जीवन की गुमनामी, आधुनिकता- परंपरा के बीच टकराव, सामाजिक- आर्थिक और विभाजन के मुद्दे उभार ले रहे हैं। प्रज्ञा का उपन्यास ‘गूदड़ बस्ती’, ‘धर्मपुर लाज’ और ‘काँधों पर घर’ सटीक उदाहरण हैं।

  वैश्विक आर्थिक बदलाव ने भारत में नई वर्ग गतिशीलता और आर्थिक यथार्थवाद का निर्माण किया है। आर्थिक असमानता, उपभोक्तावाद और नवउदारवादी नीतियों के प्रभाव में सब डूबे हुए हैं। वैश्वीकरण से लाभान्वित लोग हाशिए के समाज का वेदना पढ़ने में नाकाम हैं। प्रतिकूल प्रभावों से संघर्षरत जन आर्थिक परिवर्तन और वर्ग संघर्ष की दृष्टि से विभूति नारायण राय- ‘शहर में कर्फ्यू’, शाह आलम- ‘बीहड़ में साइकिल’, विमल चंद पाण्डेय- ‘मस्तूलों के इर्दगिर्द’, पूनम सिंह- ‘खरपतवार’, उमा शंकर चौधरी- ‘दिल्ली में नींद’ आदि वक्त के टीसते हुकों को करीने से दर्ज करती हैं। अलहदा वक्त का शिनाख़्त करती रचनाएँ विचलनों के हाथ- पैर बांधने का हुनर देती हैं।

  वैश्वीकरण दबाब से पर्यावरणीय मुद्दों को प्राथमिकता मिली है। लेखक समूह औद्योगीकरण, जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक गिरावट के प्रभाव को न केवल महसूस कर रहे हैं बल्कि उसे रेखांकित भी कर रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण संघर्ष केंद्रित रचनाएँ कम हैं, लेकिन जो हैं वो चेतना दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। ‘रंगभूमि’ में भूमि शोषण और किसान केंद्रीय हैं। ‘धरती आबा’- पर्यावरण संरक्षण, जंगल क्षरण एवं आदिवासी जीवन दुर्दशा को बयां करती है। समकालीन साहित्य में पर्यावरण और पारिस्थितिक प्रकृति संरक्षण, जलवायु परिवर्तन प्रभाव, मनुष्य व प्रकृति के सहसंबंध कारगर हैं। विनीता परमार- ‘तलछट की बेटियाँ’ में आर्सेनिक जल संकट से उत्पन्न परिदृश्य का मार्मिक चित्रण किया है। सृजन आलोक में समृद्ध हिंदी की विविधता जगजाहिर है। दरअसल वैश्वीकरण आधुनिक साहित्य- समाज का त्रिनेत्र है।  

    प्रतिनिधित्व के विविधता ने समानता व समावेशन को गति दी है। एकबारगी देखने में लेखक समाज संवेदनशील नजर आता है लेकिन बहुस्तरों पर निरकुंश और निष्ठुर हैं बावजूद सामाजिक गतिविधियों में सक्षमता के साथ लिंग, कामुकता, जाति- धर्म और राजनीतिक- सांप्रदायिकता के मुद्दों मुखर भी हैं। परस्पर जुड़ी दुनिया का प्रतिबिम्बन हिंदी साहित्य में दृष्टिगत है। संरचना क्षितिज व्यापक है। आधुनिक हिंदी साहित्य पर वैश्विक साहित्य का प्रभाव सकारात्मक है। वैश्विक भूगोल को साहित्य की नजर से देखें ‘रूसी साहित्य’ ने समस्त साहित्य- समाज को दिशा दिया। जिसमें लियो टॉल्स्टॉय, फ्योडोर दोस्तोवस्की और एंटोन चेखव जैसे दिग्गज लेखक हैं। हिंदी साहित्य- समाज आज भी इनके असर में है। रूसी साहित्य की गहरी मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि ने सामाजिक यथार्थवाद से रचनाओं को आप्लावित किया है। प्रेमचंद के साहित्य में मौजूद सामाजिक मुद्दे और मानव स्वभाव की खोज रूसी साहित्य के सन्निकट है।

  लैटिन अमेरिकी लेखक गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ और जॉर्ज लुइस बोर्गेस के जादुई यथार्थवाद ने हिंदी लेखकों को रहस्यमय सांसारिकता का खूबसूरत तोहफा दिया। कहानियों में अतियथार्थवादी तत्व का समावेशन नया नहीं है। यह निर्मल वर्मा और कृष्णा सोबती के दौर से चला आ रहा है। पश्चिमी आधुनिकतावाद में जेम्स जॉयस, वर्जीनिया वूल्फ और फ्रांज काफ्का जैसे पश्चिमी आधुनिकतावादी लेखकों की कथा शैली ने हिंदी साहित्य में विशेष दखल दिया। खंडित आख्यान और अस्तित्व संबंधी बिन्दु का उम्दा उपयोग अज्ञेय और कमलेश्वर की रचनाओं में परिलक्षित है। उत्तर- औपनिवेशिक साहित्य में अफ्रीका, कैरेबियन और दक्षिण एशिया का उपनिवेशवाद और प्रतिरोध हिंदी लेखकों में समवेत स्वर में  गूँजता है। चिनुआ अचेबे और सलमान रुश्दी जैसे लेखकों ने हिंदी लेखन में उत्प्रेरक का कार्य किया। जो कि स्वतंत्रता के पश्चात पहचान के संकट और सांस्कृतिक संक्रीणता से निपटने का टूल बना।

  जापानी साहित्य के हारुकी मुराकामी और युकिओ मिशिमा ने न्यूनतम व गहनतम  चिंतनशील शैली से समकालीन हिंदी लेखकों को दूरदर्शी बनाया। अलगाव, अस्तित्वगत खोज और यथार्थ के अतियथार्थ सन्निकट आए हैं। फ्रांसीसी अस्तित्ववाद अल्बर्ट कैमस और ज्या पॉल सात्र के माध्यम से हिंदी साहित्य में सघन हुआ। अमेरिकी लेखक जॉन स्टीनबेक का यथार्थवाद और थॉमस पिंचन के उत्तर- आधुनिकतावाद के विविध परिदृश्य ने हिंदी रचनाओं को अपने घेरे में लिया। अमेरिकी स्वप्न, सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक आलोचना के बिन्दु ऑक्टोपस बन बैठे। मध्य पूर्वी साहित्य के कहन शैली की परंपरा, पहचान, संघर्ष और लचीलेपन का प्रतिनिधित्व नागुइब महफूज और ओरहान पामुक की कृतियों में झलकता है जिसकी अनुगूँज हिंदी में सुनाई देती है।

  फ्रीकी साहित्य के न्गुगीवा थिओंग और चिमामांडा नगोजी अदिची अपने देश के समृद्ध मौखिक परंपरा व उत्तर- औपनिवेशिक आख्यान से हिंदी लेखन परंपरा और आधुनिक सांस्कृतिक स्मृति सघनता को केंद्र में ले आते हैं। इससे हिंदी साहित्य का दायरा गहरा एवं व्यापक हुआ है। विचारों के परस्पर- परागण ने स्थानीय और वैश्विक के संवेदनात्मक पक्ष से एक- दूसरे के समाज को अवगत कराया है।

  हिंदी कथा साहित्य ऐतिहासिक और आधुनिक तत्वों का कुशलतापूर्वक प्रतिनिधित्व करता है। भारत की अक्षुण सांस्कृतिक विरासत और समकालीन यथार्थ का प्रस्फुटन मिलता है। बागनी स्वरुप श्रीलाल शुक्ल- ‘रागदरबारी’ है। एक व्यंग्यात्मक उपन्यास। कथा के केंद्र में उत्तर प्रदेश का छोटा सा गाँव है। गाँव में सामाजिक- राजनीतिक परिदृश्य पारंपरिक सत्ता संरचना के मानदंडों को लक्षित करता उपन्यास आधुनिक नौकरशाही, राजनीतिक भ्रष्टाचार के अक्षमताओं की कटु आलोचना करता है। भीष्म साहनी का ‘तमस’ सन 1947 के भारत- विभाजन की सच्ची तस्वीर में ऐतिहासिक आघात और सांप्रदायिक हिंसा का पड़ताल समाहित है। मनुष्य पहचान और अंतर- सामुदायिक संबंधों पर विभाजन के प्रभाव से द्रवित हृदय चीत्कारता है। मुंशी प्रेमचंद के ‘गोदान’ को कैसे भूल सकते हैं। हालांकि मुख्य रूप से स्वतंत्रता- पूर्व भारत में ग्रामीण जीवन चित्रण मिलता है। वर्तमान का आर्थिक शोषण, सामाजिक पदानुक्रम और किसानों के संघर्ष के मुद्दे कालजयी कहन में कहाँ हैं? आंदोलनरत किसानों के आह में ‘गोदान’ के होरी की अनुगूँज दिखाई- सुनाई पड़ती है। आधुनिक भारत का कृषि संकट ‘कॉर्पोरेट कंट्री’ के जमीनी दोहन का परिणाम है। काशीनाथ सिंह ‘काशी का अस्सी’ में वाराणसी के अस्सीघाट क्षेत्र के मध्यम से जीवंत छवि गढ़ी है। आधुनिक, वैश्वीकरण और पर्यटन के प्रभाव से परिवर्तित परिदृश्य और चुनौतियां उपन्यास में बखूबी उभरा है। बनारस की संस्कृति, परंपरा और रोजमर्रा की जिंदगी का चित्रण भारतेन्दु काल से ही चला आ रहा है। भारतेन्दुकालीन अद्वितीय ‘मल्लिका’ उपन्यास से मनीषा कुलश्रेष्ठ बनारस की गलियों को नई ख़ुशबू से नवाजती हैं। गुमनाम स्त्री उपन्यास से केंद्र में आ जाती है। ‘लापता लेडीज’ का अपता धीरे- धीरे पता में तब्दील हो रहा है।

   कमलेश्वर ‘कितने पाकिस्तान’ में प्राचीन से आधुनिक काल के बहुतेरे ऐतिहासिक कालखंडों को समेटे हैं। विभाजन से उपजे अपहचान की अवधारणा संबंधित गंभीर प्रश्न समकालीन समाज के नए विभाजन व विस्थापन का प्रतिरूप है। यहाँ इतिहास और आधुनिकता समानान्तर खड़े हैं। राही मासूम रजा ने ‘आधा गांव’ में समस्त भारत के गाँव की आत्मा का अनुवाद किया है। यह उपन्यास मूलत: भारत- विभाजन के दौरान उत्तर प्रदेश के एक मुस्लिम गांव- समाज के जीवन पर आधारित है। यह पारंपरिक ग्रामीण जीवन विभाजन युग के अशांत परिवर्तनों से जुड़ा है। ऐतिहासिक और आधुनिक परिवर्तन का सूक्ष्म दृष्टिकोण चकित और विचलित करता है। विक्रम सेठ ने ‘ए सूटेबल बॉय’ में स्वतंत्रता के बाद के भारत का वास्तविक और मार्मिक दृश्य रचा है। महाकाव्य उपन्यास अंग्रेजी से हिंदी में ‘कोई अच्छा सा लड़का’ नाम से प्रकाश में आया। उपन्यास से चार परिवारों के जीवन, परंपरा, आधुनिक तनाव, व्यवस्थित विवाह, राजनीतिक परिवर्तन और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के बिन्दु उभरते हैं। जो समाज का कड़वा सच है। जैनेंद्र कुमार के ‘त्यागपत्र’ का नायक मृणाल का जीवन पारंपरिक मूल्यों और आधुनिक आकांक्षाओं के टकराहट, समाज का यथार्थ है। विवाह और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबंध, सामाजिक मानदंडों की चुनौती सूक्ष्म आकार में एक व्यापक घटक से जुड़ता है। इन रचनाओं के ओट में भारत की  ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जड़ता की नई खिड़की खुलती है जहां से परंपरा अपने आधुनिक ठसक में अवतरित है। अतीत- वर्तमान के मध्य स्थापित संवाद ऐतिहासिकता और आधुनिकता के अंतरसंबंध को प्रगाढ़ करते हैं। विकसित हो रहे भारतीय समाज की समझ व्यापक जनसमूह का हिस्सा है।

  नए दौर के साहित्य को सामाजिक- सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, उपभोक्तावाद, बाजारवाद और सूचना क्रांति के सोशल नेटवर्किंग ने प्रभावित किया है। वर्गीकृत संदर्भों को  श्रेणियों की शैली में समकालीन साहित्य के विविधता का शिनाख़्त संभव है। शहरी यथार्थवाद में आधुनिक जीवन की जटिलताएँ गुमनाम हैं। शहरों में सामाजिक- आर्थिक विभाजन जेंडर केन्द्रित है। उदय प्रकाश की रचनाओं में शहरी समाज- जीवन गहराई से स्पंदित है। शहरी परिवेश के लोगों के संघर्ष, सपने के साथ- साथ भारतीय समाज के निचले तबके का जनमानस की सूक्ष्म संवेदनात्मकता सघन है। उत्तर आधुनिक प्रायोगिक दृष्टि से मेटाफिक्शन बढ़ा है। इससे वैश्विक साहित्यिक रुझानों का प्रभाव आत्मविश्लेषणात्मक आख्यानों पर पड़ा है। लिंग और परस्पर मैत्री समकालीन साहित्य का तीव्रगामी विषय है। हाल- फिलहाल साहित्य में लिंग, कामुकता, पहचान, नारीवाद और LGBTQ+ पर बहुतायत में लिखा जा रहा है। पारंपरिक लैंगिक की भूमिका गूढ़ है। गीतांजलि श्री, राजकमल चौधरी के पश्चात नए दौर में जया जदवानी अग्रणी हैं। अतिसंवेदनशील विषय सामाजिक तौर पर बेहद अहम है। गत दो साल से किंशुक गुप्ता अपने संग्रह ‘ये दिल चोर दरवाजा’ से एलजीबीटी लेखन से ध्यान खींचा है। दलित साहित्य अर्थात ‘अछूत’ के अनुभव, संघर्ष और प्रतिरोध अलहदा है। ओमप्रकाश वाल्मिकी, अजय नावरिया से अनीता भारती के बाद भी जातिगत भेदभाव एवं गैर- बराबरी का संघर्ष जारी है। समाज से सम्मान और समानता की तलाश अपेक्षित है। उपेक्षित दृष्टिकोण वाले शैक्षिक प्रगति के बावजूद कुंठा वमन से भरे पड़े हैं।

  संस्कृतियों, बोलियों और लोक परंपराओं की हृदयस्थली क्षेत्रीय लोक कथाएँ हैं। विविध भाषाई और सांस्कृतिक परिदृश्य का जीवंत दृश्य लोकराग है। फणीश्वरनाथ रेणु आज भी ग्रामीण- क्षेत्रीय जीवन के चितेरे हैं। रेणु के पश्चात मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में गाँव जीवंत है। नई पीढ़ी में सोनी पाण्डेय और सीनिवाली शर्मा ने अपनी कुछ रचनाओं में गंवई शैली को उठाया है। हालाँकि गंवई परिदृश्य के नजरिए से रणेन्द्र- ‘ग्लोबल गाँव का देवता’, शिवमूर्ति- ‘कुच्ची का कानून’ व ‘अगम बहै दरियाव’ में गाँव की बदलती छवि में बचा गाँव दर्शित है। गाहेबगाहे बहुतायत रचनाओं में गाँव सहज प्रस्फुटित है। किसी एक को रेणु का प्रतिसंसार नहीं कह सकते।

  साहित्य में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं अस्तित्वगत नैरेशन में मोहन राकेश और कमलेश्वर सहज याद आते हैं। रचनात्मक पात्रों के द्वारा आंतरिक- वाह्य जीवन के नैतिक दुविधाएँ प्रत्यक्ष हैं। समकालीन हिंदी साहित्य में राजनीतिक, सामाजिक भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक गतिविधियों की आलोचना हुई है। हरिशंकर परसाई और मनोहर श्याम जोशी प्रमाण हैं। अगर ये दोनों वर्तमान में होते तो समाज और मशीनी राजनीति को बेखौफ़ बखूबी दर्ज करते। साइंस फिक्शन और फंतासी में वेद प्रकाश शर्मा की काल्पनिक दुनिया की कल्पना में नई शैली विकसित हुई। फिलवक्त देवेन्द्र मेवाड़ी विज्ञान कथा रचना में अप्रतिम हैं। प्रवासियों के अनुभव और वैश्वीकरण से उत्पन्न प्रवासी कथाओं का प्रकाश वृत्त बढ़ रहा है। सांस लेता परिवेश भारत और वैश्विक दुनिया के बीच की खाई को पाटकर सेतु की भूमिका में दो संस्कृतियों का खूबसूरत दृश्य प्रबिम्बिन करते प्रवासी कलम की शृंखला लंबी है।

  लेखन का समकाल वैविध्यपूर्ण है। सामाजिकता और वैश्विक परिवर्तित प्रभाव हिंदी साहित्य में अपरिपक्व है बावजूद ठसक काबिलेगौर है। उत्कृष्ट रचना, भाषा- शैली का सहचर समाज है। समाज की झुर्री को पढ़े बगैर पाठक को बांधना नामुमकिन है। जोख़िम उठाने वाले कलमकार सम्मोहक पात्र, आकर्षक कथानक, सशक्त विषय- वस्तु और विचारोत्तेजक प्रसंगों से सिर्फ खेलते नहीं है बल्कि तलघर में उतरकर समाज को नया नजरिया देते हैं। मौजूदा लेखक अवांतर प्रसंग को रचना में उठाने से हिचकना छोड़ चुके हैं। सुसंगत स्वर- शैली रचना का प्राण तत्व है। उत्कृष्ट रचना में समय- समाज का परिप्रेक्ष्य एक अनोखे मोड़ से आता है। वक्त के आंवाँ में पका गद्य- स्पष्ट, संक्षिप्त और विचारोत्तेजक होता है जो अनुभव को प्रौढ़ करता है। रूपक, कल्पना और लय प्रभाव को माँजते हैं। करीने से गूँथे कथा सूत्र आंतरिक व वाह्य हृदय को झिंझोड़ते हैं। पाठ - उपपाठ की परतें उत्कृष्ट सृजन की पहचान है। सघन व्याख्या, सूक्ष्म संकेत और प्रतीकात्मक कथा सांगोपांग में परिस्थिति का निर्माण अहम है। भाषा की जीवंतता संवेदनाओं की वाहिका है और सम्प्रेषण कौशल ‘फैक्ट्री’ के स्थान पर अंदर की उपज है। तमामतर साहित्यिक गुल गपाड़ा के मध्य सृजन की गहराई ही टिकाऊँ होती है। जिसमें परंपरा और आधुनिकता संग- संग धड़कते हैं।  

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रचनाकार परिचय

सुनीता

ईमेल : drsunita82@gmail.com

निवास : नई दिल्ली

नाम- डॉ०  सुनीता