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कथाकार प्रेम गुप्ता 'मानी' से कल्पना मनोरमा की बातचीत

कथाकार प्रेम गुप्ता 'मानी' से कल्पना मनोरमा की बातचीत

प्रेम गुप्ता 'मानी' सुप्रसिद्ध लेखक और 'यथार्थ कथा संस्थान' की संस्थापिका रहीं, जिन्होंने कविता, कहानी, लघुकथा समेत साहित्य की सभी विधाओं में क़लम चलाई। 'बाबूजी का चश्मा' उनका चर्चित कथा संग्रह है। उनके कथा साहित्य ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। प्रेम गुप्ता मानी जी की कहानियों में किस्सागोई का आनंद तो मिलता ही है, साथ में उनकी कथाएँ सीधे-सीधे समाज में आमजन से जुड़ती हैं। मानी जी एक दोस्त लेखक रहीं। उनकी लिखी कहानियों से पाठक झटपट जुड़ जाता है। मानी जी बहुत ही मृदुभाषी स्वभाव की लेखिका रहीं। उनसे बात करके ज्ञात होता रहा कि वे प्रौढ़ साहित्य के साथ बाल साहित्य लिखने में भी रुचि रखती थीं। उनका साहित्य कल्पना के साथ यथार्थ की भी बात करता है। प्रेम गुप्ता मानी जी के साहित्य को पढ़ते हुए बार-बार जिज्ञासा उत्पन्न होती रही कि इतनी सुंदर कृतियाँ सिरजने वाली मानी जी का अपना जीवन कैसा रहा होगा? उन्होंने लेखन की प्रेरणाएँ कहाँ से प्राप्त की होंगी, जो उन्हें साहित्य सृजन ही नहीं साहित्य सेवा की राह पर लेकर आईं। मानी जी ने बड़े खुलेपन और साफगोई से मेरे प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। इसके साथ ही उनके जीवन के कुछ ऐसे पहलू भी जानने को मिले कि मुझे लगा, मैं उन्हें एक नए रूप में जान रही हूँ।

प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की प्रमुख स्तंभ प्रेम गुप्ता मानी जी से कल्पना मनोरमा के द्वारा लिया गया साक्षात्कार, जो उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं के उद्घाटन के साथ-साथ साहित्य की कई गंभीर सवालों की भी पड़ताल करता है।

कल्पना मनोरमा- प्रेम दीदी, आपके नाम का चयन किसने किया और तख़ल्लुस किसने दिया?
मानी- कल्पना, आम तौर पर हर बच्चे का नाम उसके माता-पिता या ददिहाल-ननिहाल में से किसी के द्वारा रखा जाता है, सो मेरा नाम भी मेरे पिता द्वारा ही रखा गया पर इसके पीछे एक मज़ेदार कहानी है। जबसे मैंने होश सम्हाला, अपने आसपास के लोगों के बीच अपने पिता का सम्मान देख-देखकर मैं भी उनकी विद्वता की कायल हो गई। माँ अक्सर पुरानी बातें और घटनाएँ बताती, जिन्हें सुनकर मैं अपने पिता के प्रति गर्व से भर जाती थी। एक बेहद रईस और ज़मींदार ख़ानदान से ताल्लुक़ रखने के बावजूद पिताजी ने पैसे के ऊपर अपने सपनों को चुना। छोटी-सी उम्र में ही बाबा के सामंती स्वभाव के प्रति विद्रोह करते हुए अपनी उच्च-शिक्षा प्राप्त की और फिर धन-दौलत के अम्बार के बीच वापस लौटने की बजाय उन्होंने इलाहाबाद में सरकारी नौकरी ज्वाइन कर ली। मेरे बाबा और ताऊजी वगैरह जितने कट्टर और पुरातनपंथी विचारधारा के थे, मेरे पिता उतने ही प्रगतिशील और खुले विचारों के थे। उस समय परिवार में बेटी के जन्म के समय उस तरह से ख़ुशी नहीं मनाई जाती थी, जिस तरह ख़ानदान को आगे बढ़ाने की उम्मीद में एक बेटे के जन्म पर मनाई जाती थी। पर माँ बताती हैं कि दीदी और फिर मेरे जन्म पर भी पिताजी को कोई निराशा या परेशानी नहीं हुई। सच कहूँ तो अपने भाईयों के मुकाबले मैं हमेशा अपने पिता की आँख का तारा रही।

अब बात बताती हूँ अपने ‘प्रेम’ नामकरण की। वैसे आमतौर पर ‘प्रेम’ नाम लड़कों के लिए होता है और लड़कियों को अगर यह नाम देना भी हुआ तो ‘प्रेमा’ बना दिया जाता है। पर हम सब भाई-बहनों के नामकरण में भी पिताजी की विद्वता और तर्कशीलता झलकती है। उस ज़माने के दस्तूर के हिसाब से माँ-पिताजी मानो बालपन में ही विवाह के बंधन में बाँध दिए गए थे, सो उस कच्ची उम्र में उस रिश्ते को गहराई से न समझने के कारण मेरी दीदी का नाम ‘विनोद’ रखा। परिवार शुरू हो जाने और एक अनजान शहर में पत्नी के साथ अकेले रहने के कारण समय के साथ आपसी प्रेम पनपा, सो मेरा नाम ‘प्रेम’ रख दिया। इसी तरह ज़िन्दगी के विभिन्न पड़ावों के हिसाब से पिताजी ने बाकी भाई-बहनों के नाम भी उसी हिसाब से रखे, पर वह फिर कभी।

कल्पना, तुम्हारी तरह ही कई लोगों को यह उत्सुकता है कि आखिर मेरे उपनाम 'मानी' का मेरे नाम के साथ जुड़ना कैसे हुआ? या फिर क्या किसी और के सुझाव से मैंने यह तख़ल्लुस चुना? पर ऐसा कुछ भी नहीं है। यह उपनाम तो मेरा ख़ुद का रखा हुआ ही है। दरअसल, जब मैंने नया-नया लिखना शुरू ही किया था तो अक्सर सुनती थी कि दूसरे लेखकों को पढ़ना भी बेहद ज़रूरी है। कोई साहित्यिक पृष्ठभूमि न होने के कारण मैं उस समय वही पढ़ती थी, जो मन को भाता था। उसी क्रम में मैं महान लेखिका शिवानी जी के साहित्य से परिचित हुई और उनका लेखन मुझे इतना पसंद आता था कि मैं एक तरह से उनकी दीवानी हो गई। मन के किसी कोने में एक सपना भी पल रहा था कि काश! कभी मैं भी उनकी तरह बन सकूँ, उनके लेखन का सौंवा हिस्सा भी मेरी क़लम में उतर सके तो बस्स...कमाल हो जाए। अब उतना ठीक-ठीक याद नहीं पर इसी रौ में कभी किन्हीं पलों में मैंने ‘शिवानी’ से तुक मिलाते हुए अपने लिए ‘मानी’ उपनाम चुन लिया। यह तो बहुत बाद में जाकर अहसास हुआ कि इसका एक अर्थ ‘स्वाभिमानी’ भी होता है (हँसते हुए) और मैं स्वाभिमानी तो हूँ। पर उस दौर में, उस उम्र में ऐसा कुछ सोचा-विचारा ही नहीं।

कल्पना मनोरमा- आप ज़मींदार ख़ानदान से ताल्लुक रखती हैं लेकिन आपके स्वभाव में इतनी नरमाहट और अपनत्व के संस्कार किसने बोये?
मानी- कल्पना, यह सच है कि मैं बहुत ही बड़े-रईस ख़ानदान से ताल्लुक रखती हूँ, पर अब न तो मेरे ज़मींदार बाबा हैं और न उनका रोब-दाब। यहाँ तक कि उनकी रईसी शानो-शौक़त को बरक़रार रखने वाले ताऊ-चाचा भी इस दुनिया में नहीं हैं। यद्यपि आज भी मेरे ताऊ-चाचा के बेटे मिर्ज़ापुर के जाने-माने रईसों में गिने जाते हैं पर न जाने कैसे मेरे पापा उन सबसे अलग थे। जहाँ बाबा का स्वभाव काफी कड़क था और उनके अन्दर बड़े-छोटे का बहुत भेद था, वहीं मेरे पापा उनसे उलट थे। शादी के बाद बाबा से विद्रोह करके उन्होंने अपनी सारी सुख-सुविधा को त्याग कर इलाहाबाद में लेबर इन्स्पेक्टर की छोटी-सी नौकरी कर ली। सरकारी नौकरी में पैसा काफी कम था पर बाबा के कहने के बावजूद उन्होंने कभी उनकी सहायता स्वीकार नहीं की। मेरे पापा की निगाह में ग़रीब-अमीर का कोई भेद नहीं था। वे वैसे भी स्वभाव से बहुत नम्र और मिलनसार प्रकृति के थे। बाद में एक बड़े पद से रिटायर होने के बाद जब वे कानपुर के प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित लेबर-लॉ एडवाइजर बने, तब जिस तरह बड़े-बड़े मिल-मालिकों से वे पूरी सहजता से मिलते थे, उसी तरह आर्थिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति से भी पूरी विनम्रता से पेश आते थे और उसकी ख़ातिरदारी में भी कोई कमी नहीं रखते थे। कहते हैं कि अपने बच्चों में अच्छे संस्कार के बीज उनके माता-पिता बोते हैं। मेरे संस्कार कैसे हैं, मैं नहीं जानती पर छोटे-बड़े से सामान रूप से मिलकर उनके साथ घुल-मिल जाने की आदत मेरे माता-पिता की देन है और इसे मैं हमेशा अपने स्वभाव में बनाए रखना चाहूँगी।

कल्पना मनोरमा - बचपन में आपका भाई-बहन और माता-पिता के साथ जुड़ाव और अपनत्व के बारे में क्या कहना चाहती हैं?
मानी- मैं स्वभाव से अति-संवेदनशील हूँ। अक्सर अपने जीवन में आने वाले अच्छे लोगों से मैं दिल से जुड़ जाती हूँ...उनके छोटे-से-छोटे दुःख मुझे कष्ट पहुंचाते हैं...तो फिर तुम तो मेरे माता-पिता और भाई-बहनों की बात पूछ रही...जिनकी बात ही अलग है। अगर अपने माता-पिता की बात कहूँ तो बस उनके लिए एक ही बात मेरे ज़ेहन में आती है कि उनकी बेटी के रूप में जन्म लेना मेरे लिए बहुत सौभाग्य की बात है...उनके जैसा शायद दूसरा कोई न मिलता मुझे...। एक बेटी के रूप में जितना प्यार-दुलार मुझे मिला, बहुत कम लड़कियों को मिलता है शायद। अपनी अंतिम साँस तक उन्होंने मुझे वैसे ही सम्हाला, जैसे मेरे बचपन में वे मेरा सहारा बना करते थे। मेरे माता-पिता दोनों ही इस दुनिया से मानो अचानक ही गए और इसे मैं अपना अच्छा नसीब ही मानूँगी कि उन दोनों ही असामयिक घटनाओं के समय मैं उनके पास थी। मेरे माता-पिता से मेरा जुड़ाव शायद जन्म और कर्म के अलावा आत्मिक भी था, तभी शायद ईश्वर ने मुझे यह मौका दिया कि मैं उनके अंतिम क्षणों में भी उनका सानिध्य पा सकूँ...।
अब रही बात भाई-बहनों से जुड़ाव और अपनत्व की...तो कल्पना, तुम तो जानती ही हो कि पहले के समय में परिवार अच्छे-खासे बड़े हुआ करते थे। आज की तरह नहीं कि बस एक-दो बच्चे ही हों...। हमारा भी भरा-पुरा परिवार था...हम बारह भाई-बहन थे। जैसा कि हर जगह होता है, हम आपस में एक दूसरे का ध्यान भी रखते थे और कभी-कभी छोटी-छोटी बातों पर आपस में मारपीट भी हो जाती थी। एक-दूसरे को निकोट लेना या बाल पकड़ के गुत्थम-गुत्था हो जाने वाली लड़ाइयाँ तभी थमती थी जब खीज कर माँ आती और दोनों पक्षों को एक-एक धौल पड़ती। पर ये लड़ाइयाँ भी कुछ पलों की होती थीं...ऊपर-ऊपर होकर निकल जाने वाली...। वो चिढ़ और गुस्सा कभी दिल तक पहुँचा ही नहीं । सच कहूँ तो आज हम सब इतने बड़े हो चुके हैं...नाती-पोते वाली उम्र है, पर अभी भी हमारे मतभेद मनभेद में कभी तब्दील नहीं हुए । हम अक्सर बहसें करते हैं, कई बार बेबात की बातें भी होती हैं, पर समय पड़ने पर एक-दूसरे के सुख-दुःख में हम सारे इकट्ठे खड़े होते हैं। इस जुड़ाव को तुम इससे भी समझ सकती हो कि मुझसे दो छोटी बहनें एक-दो महीने चली बीमारी से हमसे बिछड़ गई...और उन दोनों के ही उन आखिरी दिनों में हर पल मैं उनके साथ रही, बिना अपने घर-परिवार की चिंता किए हुए...। आज उन दोनों को गए बहुत साल हो गए, पर अक्सर खुशी के पलों में उनकी कमी महसूस करके मेरी आँखें अब भी भर आती हैं। अपने माता-पिता, दीदी और उन दोनों छोटी बहनों का ऐसे असमय काल-कवलित हो जाना, मैं आज भी भुला नहीं पाई हूँ।

कल्पना मनोरमा- मानी जी, 'मनोरमा' और 'अवकाश' जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद आपने साहित्य को किस प्रकार गंभीरता से लिया और कौन आपका सहयोगी बना?
मानी- कल्पना, जिस समय मैंने लेखन की शुरुआत की, उस समय उसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया था। छोटे-मोटे लेख, छिटपुट कहानियाँ यूँ ही लिखती रही और वे खूब प्रकाशित भी होती रही। दैनिक अख़बारों और सरिता-मुक्ता जैसी प्रसिद्ध महिलापयोगी पत्रिकाओं में छपते हुए मैं बहुत ख़ुश भी थी। इसी के साथ मेरी लेखकीय ज़िंदगी में भी कुछ मोड़ आना शुरू हो गए थे। इसे मैं अपना सौभाग्य समझूँ या पूरे घरेलूपन और शिद्दत के साथ लोगों से जुड़ जाने की मेरी आदत...रचनाओं के साथ (खास तौर से ‘गिल्लू’ कहानी के प्रकाशन के बाद) छपे मेरे पते को देखकर कई ऐसे कहानीकार और कवि मेरे घर आए, जो उस समय तक लगभग स्थापित हो चुके थे। साथ ही कुछ ऐसे लेखक भी, जो ख़ुद अपने शुरुआती दौर में थे और समय के साथ उन्होंने साहित्य-जगत में बहुत बड़ा नाम बनाया, भी अक्सर मेरे घर एक पारिवारिक सदस्य की तरह आने लगे थे। इसी बीच मेरी एक लघुकथा 'पुरस्कार', जब 'सारिका' जैसी बड़ी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हुई तो इन्हीं लेखकों में से कुछ ने मुझे लेखन को गंभीरता से लेने की सलाह देते हुए साहित्यिक और गैर-साहित्यिक पत्रिकाओं का अंतर भी समझाया। धीरे-धीरे मैंने भी साहित्यिक पत्रिकाओं की ओर ध्यान देना शुरू किया। लेखन को जहाँ मैं पहले हलके रूप में लेती थी, वहीं अब उसके प्रति भी गंभीर हो गई। धीरे-धीरे देश भर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में मुझे स्थान मिलना शुरू हो गया।

यहाँ पर मैं एक बात और कहना चाहूँगी कल्पना कि पारिवारिक स्तर पर मेरे घर आने वाले कई ऐसे लेखक भी थे, जो समय के साथ देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक बने, पर पारिवारिक और आत्मीय होने के बावजूद मैं अपनी कहानियाँ हमेशा उनको भेजने से परहेज़ करती रही क्योंकि मेरा हमेशा से मानना रहा है कि किसी भी कला के क्षेत्र में सिर्फ आपकी प्रतिभा ही आपको आगे बढ़ा सकती है, कोई रिश्ता नहीं।

कल्पना मनोरमा- साहित्य सृजन की प्रेरणा कब मिली और आपने लिखना कब से शुरू किया?
मानी- अगर उस तरह की प्रेरणा की बात करूँ कल्पना, जो तुम पूछना चाह रही हो तो वैसी प्रेरणा तो मुझे कहीं से नहीं मिली क्योंकि मेरे पूरे परिवार या ख़ानदान में दूर-दूर तक किसी का भी साहित्य से कोई लेना-देना नहीं था। मैं भी प्रत्यक्ष रूप से साहित्यिक अभिरुचि वाली नहीं थी। समय काटने के लिए महिला पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियाँ, लेख वगैरह पढ़ लिया करती थी। सच कहूँ तो मेरा असली सपना तो एक महान कत्थक नृत्यांगना बनने का था, जो आठ साल की नन्हीं-सी उम्र में महान अभिनेत्री और नृत्यांगना सुश्री वैजयन्ती माला जी से कत्थक की डिग्री लेते समय मेरे अन्दर जन्मा था। बचपन में अपने कत्थक गुरु स्व० श्री वृन्दावनलाल जी के मार्गदर्शन में अनगिनत स्टेज शो किए, ढेर सारे पुरस्कार जीते तो लाज़िमी है, उसी क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहती थी। पर किस्मत में तो शायद कला के उस क्षेत्र की जगह इस लेखन के क्षेत्र में आना लिखा था। तभी तो एक मामूली-सी लगने वाली बात ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी।

जैसा कि हर घर में होता है, पत्नी कमाती नहीं और अपनी या परिवार की हर छोटी-बड़ी ज़रूरत के लिए पति के आगे हाथ फैलाती है। मैंने भी शायद किसी काम के लिए गुप्ताजी से पैसे माँगे और बदले में उन्होंने बड़ी रुखाई से जवाब दिया- "जब देखो तब हाथ फैलाकर खड़ी हो जाती हो। ख़ुद कभी एक रुपया भी कमाकर देखो तब पता चले, कितनी मेहनत लगती है पैसे कमाने में।"

कल्पना, मैं ठहरी स्वाभिमानी। होने को तो यह हर दूसरे घर में होने वाली बात ही थी पर जाने क्यों मुझे चुभ गई। उसके बाद के किन्हीं पलों में मैंने एक घरेलू मुद्दे पर जाने कैसे एक लेख लिखा और बिना किसी अनुभव के सीधे उस समय निकलने वाली प्रसिद्ध पत्रिका 'मनोरमा' में भेज दिया और फिर भूल भी गई। सुखद आश्चर्य तो तब हुआ जब वह लेख न केवल छप, बल्कि मेरी ज़िंदगी की पहली कमाई के रूप में मुझे उसका पारिश्रमिक भी मिला। उस पल जो ख़ुशी महसूस की, वो शब्दों में बताई नहीं जा सकती।

हाँ, कहानी लिखने के लिए प्रेरणा मुझे किसी पत्रिका के सम्पादक से मिली थी। अब ठीक से याद नहीं कौन थे वो क्योंकि मेरे लेख में मैं घटनाओं का वर्णन जिस तरह से करती थी, उसमें उनको कहानी के तत्व नज़र आए। तो उन्होंने ही मुझे पत्र में लिखा कि मेरे अन्दर एक कहानीकार बनने की पूरी सम्भावना है और मुझे कहानियों की तरफ ध्यान देना चाहिए। इस बात से उत्साहित होकर मैंने एक सच्ची घटना को आधार बनाते हुए अपनी पहली कहानी लिखी- गिल्लू, जो उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका 'अवकाश' में छपी और उस कहानी पर मुझे कई बड़े-बड़े साहित्यकरों की भी इतनी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएँ मिली कि मैंने भी तय कर लिया कि अब लेखन को पूरी गंभीरता से लेना ही है।

कल्पना मनोरमा- आपकी शादी की प्रकृति कैसी है? यानि कि 'लव या अरेंज मैरिज'?
मानी- कल्पना, सच मानो, जब मेरी शादी हुई थी तब यह भी नहीं पता था कि शादी की असली प्रकृति होती कैसी है। मैं नौंवी कक्षा में थी, जब मेरे सबसे बड़े मामा-मामी द्वारा लाए गए एक रिश्ते के लिए माँ-पिताजी ने 'हाँ' कर दिया। उस समय न लड़की से पूछा जाता था, न उसे कुछ बताने की ज़रूरत समझी जाती थी। सो पारंपरिक रूप से सगाई हो गई और दसवीं तक आते-आते शादी भी कर दी गई। मैं खुराफ़ात की हद तक शरारती थी। पिता के लाड़ और माँ की कड़ाई के बीच बचपने से भरी हुई। मुझे बस इतना पता था कि एक ज़मींदार ख़ानदान के इकलौते लड़के से मेरी शादी तय हुई है। तो मेरे लिए तो शादी का मतलब था, नए-नए कपड़े-गहनों का मिलना, बड़ी-सी हवेली में रहने का मौक़ा मिलना। वो तो बाद में पता चला कि ज़मींदारी भले चली गई थी पर सामंती स्वभाव का प्रयोग घर की बहू पर भी किया जा सकता था।

कल्पना मनोरमा- ससुराल में जब आप आईं तो वहाँ के परिवेश और नए लोगों के बीच आपने अपनी रचनाधर्मिता को कैसे सहेजा और जारी रखा?
मानी- कल्पना, जैसे कि मैंने पहले ही बताया है कि मेरा साहित्य और लेखन से जुड़ना शादी के बहुत बाद एक संयोग से हुआ। कहाँ तो सपना देखती थी कि एक बहुत नामी और सफल कत्थक नृत्यांगना बनूँगी, कहाँ बन गई लेखिका! तो नए लोगों या परिवेश के बीच रचनाधर्मिता को सहेजने की बात तो आती ही नहीं, पर हाँ, अपने मायके के बिलकुल उलट परिवेश और माहौल के बीच ख़ुद को ज़रूर सहेजना पड़ा। मेरी माँ परम्परावादी भले थी, पर उस परम्परा में मर्यादा और संस्कार वाली बात थी। किसी को मानसिक रूप से दबाना नहीं था। मेरे पिता उच्च-शिक्षित थे तो माँ कामचलाऊ शिक्षा ही पाई हुई थी पर बावजूद इसके वो अपनी सीमा में रहते हुए खुले विचारों की भी थी। तभी तो जितना उनका सामर्थ्य और सोच जा सके, वो-वो चीज़ें हमको सिखाने में वो कभी पीछे नहीं हटीं। उस समय के फैशन को करने से हम किशोरवय बेटियों को उन्होंने कभी नहीं रोका। उसके विपरीत ससुराल अपनी सामंती मानसिकता से उबर नहीं पाया था। वहाँ बहू-बेटियाँ घूँघट के ऊपर भी सिल्क की चद्दर ओढ़ कर चारों तरफ से बंद बग्घी में ही कहीं निकल सकती थी। इस घर में खाने-पीने में भी नियम थे, मतलब हर पल में एक अजीब-सी घुटन। तुम समझ सकती हो कल्पना, उस माहौल में जाकर मेरा क्या हाल हुआ होगा। बहुत विस्तार में जाऊँगी तो यह साक्षात्कार मेरी आत्मकथा बन जाएगा (हँसते हुए) पर इन सब चीज़ों का असर मेरे स्वास्थ्य पर होता देख कर पिताजी को बस एक ही रास्ता नज़र आया कि मेरी छूटी हुई पढ़ाई को पूरा कराया जाए। तो बस उनके मार्गदर्शन और सहयोग से मैंने प्राइवेट तौर पर अपनी पढ़ाई शुरू की और आखिरकार डबल एम०ए० करके ही रुकी।

कल्पना मनोरमा- दीदी, जैसा कि आपने बताया कि आपने सपना देखा कत्थक नृत्यांगना बनने का और बन गई लेखिका। आपको किस प्रकार के द्वन्द का सामना करना पड़ा?
मानी- हाँ, मैं बड़ी होकर कत्थक नृत्यांगना बनना चाहती थी। सोते-जागते बस इसी का सपना देखती। अपने गुरुजी के मार्गदर्शन में नृत्य के अनेकों कार्यक्रमों में भाग लेकर न केवल दर्शकों की वाह-वाही मिली बल्कि उस नन्हीं-सी उम्र में कई पुरस्कार भी जीते। इन सबने मेरे इस सपने को और पुख्ता ही किया। पर कहते हैं न कि हर सपना पूरा होने के लिए ही नहीं होता। कभी-कभी मुझे लगता है कि सपना उस पारदर्शी शीशे की तरह होता है, जिसके पार अपनी इच्छाओं का अक्स दिखता है और कई बार उस अक्स को मूर्त रूप देने की ललक, शीशे को चूर-चूर करके सच को सामने ला खड़ा करती है।

सात-आठ साल की उस उम्र में ही मैंने कत्थक की शिक्षा पूरी करके उसमें निपुणता हासिल कर ली थी। उस समय में भी मेरे माता-पिता खुले विचारों के थे इसलिए मुझे कभी भी स्टेज पर अपनी कला के प्रदर्शन से रोका नहीं बल्कि मेरी हर सफलता पर मुझे सदा उत्साहित ही किया। पंद्रह साल की उम्र में गोरखपुर में मैंने आखिरी बार मंच पर कत्थक नृत्य किया और फिर जो सपना बचपन से मेरी आँखों में पल रहा था, संकीर्ण और सामंती विचारों वाले परिवार में जाकर वह सपना चूर-चूर हो गया।

कला के प्रति मेरा रुझान इतना था कि नृत्य पर बंदिश लगी तो मैंने तबला-हारमोनियम से नाता जोड़ लिया पर गृहस्थी की तंग गलियों में वह भी कहीं पीछे छूटता गया। अन्दर कहीं कोई ख़लिश थी, सो पापा की सहायता से अपनी अधूरी पढाई की ओर ध्यान दिया। शिक्षा पूरी करने के साथ-साथ गृहस्थी की आपाधापी में इस तरह उलझी कि ‘कला’ शब्द को ही भूल गई। फिर बेटी का जन्म, उसे पाल-पोसकर बड़ा करना, उसकी शिक्षा की ओर ध्यान देना। ज़िंदगी में जैसे सबकुछ था पर 'कला' कहीं नहीं थी। लेकिन यह सोचना शायद मेरी भूल थी। वह भीतर घुट ज़रूर रही थी पर पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुई थी क्योंकि अगर कला का दम घुट चुका होता तो शायद मैं लेखिका नहीं बनती। क़स्बाई माहौल से बाहर आकर मेरी कला ने भी जैसे खुली हवा में साँस ली। मैं जब कहानियाँ लिखने और छपने लगी तो भी अक्सर मन में एक दुविधा रहती कि पता नहीं कैसा लिख रही हूँ? शादी के बाद जिस तरह के माहौल में रही, उसमें मेरा आत्मविश्वास पूरी तरह डगमगा गया था। मज़े की बात यह है कि इतने सालों बाद भी अपनी हर कविता या कहानी को लिखकर मैं इसी दुविधा में पड़ जाती हूँ (हँसते हुए) क्या करूँ अपने स्वभाव का?

रही बात नृत्य के सपने के अधूरा रहने और लेखिका बनने से सम्बंधित मेरे द्वन्द का सामना करने की, तो इस बारे में बस इतना ही कहूँगी कि लेखन को गंभीरता से लेने से पहले तो शायद कहीं न कहीं अपने उस सपने को लेकर मन में एक हताशा या कुछ अधूरेपन का अहसास तो था ही, स्वाभाविक है न! लेकिन जिस दिन से मैंने लेखन विधा को पूरी गहराई से अपनाया, वो ख़लिश या अधूरेपन का अहसास जैसे ग़ायब हो गया। देखो कल्पना, नृत्य में भी हम दर्शकों तक एक भाव, एक कहानी को विभिन्न मुद्राओं, हाव-भाव और चेहरे के माध्यम से संप्रेषित करते हैं और लेखन में भी हम अपने मनोभावों को शब्दों के माध्यम से पाठक तक पहुँचाते हैं। तो अगर गहराई से देखो तो लेखन और नृत्य, दोनों की मंज़िल तो एक ही हुई न! बस उस मंज़िल तक पहुँचने का तरीका अलग है, रास्ते जुदा हैं। दोनों ही कलाओं में आपको उस भाव, उस अनुभूति में ख़ुद भी डूब जाना पड़ेगा, तभी आप सामने वाले को भी उसका अहसास उतनी ही गहराई और शिद्दत से करा सकते हैं।

कल्पना मनोरमा- आपकी साहित्यिक यात्रा किन-किन पड़ावों से होते हुए यहाँ तक पहुँची है?
मानी- पड़ावों की बात करूँ कल्पना, तो वो तो हर यात्रा में आते ही हैं। चाहे सफ़र ज़िंदगी का हो या फिर इस साहित्य का। बीच में आने वाले कुछ पड़ाव इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि सफ़र को एक नई दिशा ही दे देते हैं, कुछ इतने मामूली कि समय बीतने के साथ वो स्मृति के किसी कोने में जाकर लगभग बिसरा दिए जाते हैं।

अपनी साहित्यिक यात्रा के पड़ावों में तो मेरी दृष्टि में जो ख़ास रहे, उनमें से पहला था, जब बिना किसी प्रयास के मेरा पहला कहानी संग्रह 'लाल सूरज' प्रकाशित हुआ। उसमें मेरी सत्रह कहानियाँ सम्मिलित थीं। वो मेरे लेखन का शुरुआती दौर ही था। लगभग तीन-चार साल ही हुए थे मुझे कहानी-लेखन में आए हुए। मतलब ‘गिल्लू’ के बाद का दौर। एक रविवार अचानक कहीं मेरी कोई कहानी पढ़कर, उसमें मेरा पता देखकर एक नए प्रकाशक अपने आप ही मेरे घर आ गए और उन्होंने मेरे कहानी संग्रह को छापने का प्रस्ताव दे दिया। सोचो कल्पना, एक नई लेखिका, जिसे कुछ भी नहीं पता था कि संग्रह कैसे निकलता है, किससे संपर्क करना होता है, उसे घर बैठे ऐसा प्रस्ताव मिले तो कैसा लगा होगा? आज का समय तो था नहीं कि उँगली से एक क्लिक किया और आपके सामने पूरी दुनिया की अनंत संभावनाएँ आ जाती हैं। तो उस एक पल को मैं अपनी साहित्यिक यात्रा का एक ऐसा बड़ा पड़ाव मानती हूँ, जिसने मुझे रोका नहीं बल्कि बस पल भर को थम कर दुगुनी गति से अपने सफ़र पर आगे बढ़ने को प्रेरित किया।

दूसरा महत्वपूर्ण पड़ाव कहूँगी, कहानी पर केन्द्रित साहित्यिक संस्था 'यथार्थ' का गठन। बिना किसी साधन और अनुभव के गठित की गई मेरी यह संस्था ‘यथार्थ’ चौदह वर्षों तक लगातार पूरी ऊर्जा के साथ सक्रिय रही, जिसमें न केवल कानपुर शहर के प्रतिष्ठित और वरिष्ठ लेखक-लेखिकाएँ पूरी शिद्दत से शामिल थे बल्कि समय-समय पर दूसरे शहरों के प्रतिष्ठित साहित्यकार भी शामिल होते रहे। फिलहाल 'यथार्थ' संस्था का पूरा ज़िम्मा मेरी बेटी प्रियंका सम्हाल रही है।

अब रही बात और कुछ पड़ावों की, तो चूँकि ज़िंदगी और साहित्य दोनों की यात्रा समानान्तर ही होती है, जब-जहाँ ज़िन्दगी की व्यस्तताओं, ज़िम्मेदारियों और परिस्थितियों के चलते कुछ पड़ाव आए, वहाँ अक्सर मेरे साहित्य के सफ़र ने भी थोड़ा विश्राम ले लिया। सच कहूँ तो इन पड़ावों या ठहराव से मुझे कभी कोई शिकायत नहीं रही क्योंकि वे सभी पल, वो हरेक दौर अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण था और उन सबने मेरी ज़िंदगी की किताब में कई यादगार पन्ने भी जोड़े। फिर चाहे वो बेटी की शादी से बदली परिस्थितियाँ हों या फिर मेरे नाती के जन्म के बाद बढ़ी ज़िम्मेदारियाँ या फिर पुश्तैनी संपत्ति में अपनों का दग़ा झेलकर जीतना हो, ईंट से ईंट जोड़कर अपना घरौंदा बनाना हो या फिर कुछ अपनों को खोना। हर एक दौर, हर एक पड़ाव ने मुझे कुछ सिखाया ही, शायद कई मामलों में पहले से ज़्यादा मज़बूत ही बनाया है। इनके बीच भी मेरा लेखन चला, थोड़ा रुक-रुक कर ही सही पर चलता रहा। मेरे कुछेक संग्रह और आए। यहाँ तक कि कविता का भी (हँसते हुए) जो मैंने सोचा भी नहीं था।

हाँ, अगर रुक जाने की बात चली है तो बस इतना कहना चाहूँगी कि जाने क्यों पिछले दो-तीन सालों से (सन 2018 के बाद के लगभग तीन साल) मेरा मन साहित्य से एकदम उचाट-सा हो गया था। लेकिन मैं जिस तरह की जुझारू इंसान रही हूँ तो शायद ईश्वर को मेरी यह उदासीनता पसंद नहीं आई। तभी तो जाने कैसे कानपुर से निकलने वाली प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'निकट' के सम्पादक श्री कृष्ण बिहारी की 'नई कहानी ही चाहिए' के दृढ़ आग्रह ने मेरे अन्दर एक नई ऊर्जा का संचार किया, जिसके फलस्वरूप मेरे रुके हुए लेखन ने एक बार फिर क़लम उठा ली और पिछले कुछ महीनों में मैंने कुछ कहानियाँ और लिख डालीं। अब मेरी कोशिश यही रहेगी कि मेरी आगे की साहित्यिक यात्रा में पड़ाव भले आएँ, लेकिन कोई ठहराव न आए।

कल्पना मनोरमा- मानी दीदी, अभी आपने अपने कथा साहित्य की संस्था ‘यथार्थ’ का भी ज़िक्र किया। तो इसके गठन और गतिविधियों के बारे में भी कुछ बताएँ?
मानी- कल्पना, स्वभाव से मैं बहुत पारिवारिक हूँ। घर-परिवार, उनके दायित्व, यह सब मेरी प्राथमिकता भी रहे और मानो मेरे अन्दर पूरी तौर से रचे-बसे भी रहे। यही वजह है कि जब मैंने लेखन को गंभीरता से लेना शुरू किया, उस समय अपने शहर के कई नामचीन साहित्यकारों से मेरा मिलना हुआ। उनमे से अधिकतर साहित्यकार मेरे घर आया करते थे और किसी परिवार के सदस्य की तरह ही उनका मेरे यहाँ उठना-बैठना होता था। मज़े की बात यह है कि उन सभी को पूरा सम्मान देने के बावजूद हमारे घर में कभी भी उन सबके साथ बड़े साहित्यकार या मेरे जैसी नई लेखिका के बीच जैसा कोई औपचारिक माहौल नहीं होता था। जो भी आता, मैं अपने गृहणी होने का फ़र्ज़ निभाते हुए उनके चाय-नाश्ते आदि के प्रबंध में जुटी रहती और जब साथ बैठती भी, तो अक्सर दुनिया-जहान की आम बातें होती। वो लोग अक्सर अपनी बातचीत के दौरान किसी साथी साहित्यकार से कहानी आदि पर हुई चर्चा का भी ज़िक्र करते। मसलन किसको उन्होंने अपनी कोई नई रचना सुनाई या पढ़ाई, किसकी सुनी-पढ़ी वगैरह-वगैरह। मन तो मेरा भी होता था कि अपनी नई कहानी किसी को सुनाऊँ ताकि मुझे भी उस रचना की अच्छाई या कमी का पता चल सके लेकिन स्वभावगत संकोच मुझे हमेशा ही ऐसा कुछ करने से रोक देता था। घर में भी साहित्यिक सलाह देने वाला तो कोई था नहीं उस समय। मैं परिवार क्या, दूर-दूर तक अपने पूरे ख़ानदान की अकेली लेखिका जो थी। ऐसी ही बातों के बीच एक दिन मुझे अहसास हुआ कि ऐसे कितने नए-पुराने लेखक होंगे, जो अपनी रचना पर किसी और लेखक की राय जानना चाहते होंगे और शायद उनके पास भी ऐसा कोई अवसर नहीं होता होगा। तो क्यों न अपने ही घर में, अपने ही परिवार के बीच उन तमाम ऐसे लेखकों को एक ऐसा साझा मंच दिया जाए, जहाँ आकर किसी औपचारिक गोष्ठी में जाने का नहीं बल्कि अपने परिवार के सदस्यों के बीच अपने लेखकीय गुण-दोषों की परख हो पाने का अहसास हो। जहाँ आने वाला हर कोई अपने रुतबे, अपने पद और अपने बड़े होने के अहसास से परे जाकर समभाव पर सबसे मिले-जुले। अपनी बात कहे और दूसरे की सुने। जहाँ गंभीर साहित्यिक चर्चा तो हो पर पारिवारिक सदस्यों के मिल-बैठने के समय होने वाला सहज हास्य और उल्लास भी हो। जहाँ देर से आने पर जगह न मिले तो पूरी बेतक्कलुफी से ज़मीन पर भी बैठने से किसी को गुरेज न हो और अपनी रचना की कमियाँ जानकर किसी का पारा भी न चढ़े। तो बस इन्हीं सब बातों को सोचकर बरसों पहले 23 जून, 1984 को यूँ ही एक पारिवारिक-साहित्यिक संस्था यथार्थ' का गठन कर डाला। चौदह वर्षों तक लगातार हर महीने एक पारिवारिक माहौल में बिना किसी आर्थिक सहयोग के मेरे ही घर में ‘यथार्थ’ की घरेलू गोष्ठियाँ होती रहीं, जिनमें उस समय के न केवल हिंदी के, बल्कि उर्दू और पंजाबी के भी कई वरिष्ठ साहित्यकार पूरे उत्साह, पूरी शिद्दत से शामिल होते थे। ‘यथार्थ’ के ही तत्वाधान में मैंने कई बड़े साहित्यिक आयोजन भी किए। कई गोष्ठियों में समय-समय पर देश के अन्य कई बड़े साहित्यकार भी शामिल हुए लेकिन समय के साथ कुछ बदली परिस्थितियों के चलते बीच में ‘यथार्थ’ शिथिल भले हुआ, पर उसका सफर अब भी जारी है। फिलहाल उसका संचालन मेरी बेटी प्रियंका कर रही है और सौभाग्य से ‘यथार्थ’ की इस नई यात्रा में उसे भी बहुत अच्छे साहित्यकारों का साथ मिल रहा है।

कल्पना मनोरमा- दीदी, जैसा कि कहा जाता है जब लेखक बनकर आपने क़लम उठा ली, फिर चाहे रचनाकार के व्यक्तिगत प्रेम प्रसंग हों, चाहे दुःख, पुरुष फिर भी लिख देता है लेकिन आज भी स्त्री संकोच करती है या जिन्होंने खुलकर लिखा, उनको सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया, इसके बाबत आपका मत क्या है?
मानी- कल्पना, हमारा समाज शुरू से ही पुरुष प्रधान रहा है। घर-परिवार हो या बाहरी दुनिया, हर जगह पुरुष की प्रधानता रही है। इसी के चलते वह बहुत हद तक स्वच्छंद भी हो गया। वह जो चाहे करे, समाज व परिवार उस पर जल्दी ऊँगली नहीं उठाते पर विपरीत इसके, यदि स्त्री कुछ करती है तो लोग उसका जीना हराम करने में पीछे नहीं हटते। हालाँकि अब पहले के मुकाबले समय बहुत बदल गया है। कई स्त्रियों ने तमाम संघर्षों के बावजूद अपने-अपने क्षेत्र में ऊँचाई हासिल करके न केवल समाज में अपना वर्चस्व कायम किया, बल्कि उनका नज़रिया भी बदला है।

अब रही बात हाथ में क़लम उठा लेने की तो मेरे विचार से जब हाथ में क़लम आ जाती है तो स्त्री-पुरुष का भेद मिट जाता है। उस समय हम सिर्फ़ एक लेखक, एक साहित्यकार होते हैं और एक लेखक को अपनी बात कहने का पूरा हक़ है। यह हक़ उससे कोई नहीं छीन सकता। वह जब अपनी रचना के माध्यम से कुछ कहता है तो उस समय वह ‘स्व’ से ऊपर उठकर सिर्फ एक रचनाकार रह जाता है। हाँ, यह बात भी सही है कि आज भी कुछ महिला रचनाकार अपने प्रेम-प्रसंग या बीते हुए कल के बारे में खुलकर कुछ लिखने से हिचकिचा जाती हैं। सच लिखने की बात ही क्यों कहें, कई बार तो प्रेम की गहन अनुभूतियों से ओतप्रोत कोई ऐसी काल्पनिक कहानी लिखने से भी वे डर जाती हैं कि कहीं समाज उसे उनका ही जीवन-अनुभव न मान ले। उस समय उनके ज़ेहन में बस यही बात होती है कि उनके लिखे सच (या काल्पनिक कथा) को पढ़कर उनके परिवार के बच्चे-बड़े, रिश्तेदार, यह समाज उन्हें ग़लत समझकर नीची निगाह से न देखे। पर मेरे विचार से उनका यह डर बेबुनियाद है क्योंकि ऐसी तमाम महिला साहित्यकार हैं, जिन्होंने किसी की परवाह किए बिना बिंदास न केवल अपनी मर्ज़ी की ज़िंदगी जी बल्कि अपने जीवन की अनगिनत सच्चाइयों को खुले-आम दुनिया के सामने स्वीकारा। ये सच्चाई चाहे उनके दुखों से जुड़ी हुई हो या उनके प्रेम से, उन्होंने उनके बारे में लिखा भी और अपनी क़लम की शक्ति से इसी समाज में अपने इज्ज़त और सम्मान को भी अर्जित किया।

कल्पना मनोरमा- आप अपने लेखन को किसी वाद के घेरे में देखती हैं?
मानी- मैंने जब लिखना शुरू किया तो उस समय मेरा पूरा ध्यान अपनी रचना की ओर था। जो कुछ मैंने समाज में घटित होता देखा या मेरे जीवन से जुड़ी जो भी बातें थी, उन्हें कहानी या लेख के माध्यम से काग़ज़ पर उकेरा। उस समय मैं सिर्फ़ एक लेखिका थी। लेखक बनने के बाद मैंने साहित्य को अपने तरीके व अनुभव से समझने की पूरी कोशिश की। इस दौरान अक्सर जब सुनती कि कोई किसी ख़ास वाद का लेखक है, तो मुझे समझ नहीं आता था। रचना तो सिर्फ रचना होती है और वह ज़िन्दगी की ही किसी घटना से जुड़ी होती है, फिर उसे किसी वाद के घेरे में क्यों कसना? मेरी कथा-संस्था ‘यथार्थ’ में हर वाद के लेखक आते थे, पर वहाँ आकर वे भी सिर्फ़ एक लेखक होते थे, किसी भी वाद के नहीं। मैंने भी अपने लेखन को हर वाद के घेरे से मुक्त रखा।

कल्पना मनोरमा- 'बाबूजी का चश्मा' की कहानियों से गुज़रते हुए आपके 'ऑब्जरवेशन स्किल' के बारे में गहरे से जाना। एक अच्छी कहानी के लिए परिदृश्य बुनना ज़्यादा ज़रूरी है या किरदारों के आत्मिक संवाद? या सफल कहानी के लिए दोनों ज़रूरी हैं?
मानी- कल्पना, किसी कहानी को ड्राफ्ट करने का हर लेखक का अपना तरीका होता है। कई बार किसी रचना की सशक्त अभिव्यक्ति के लिए किसी एक तत्त्व का सहारा भी लिया जा सकता है। कई बार सिर्फ संवादों के माध्यम से रची कहानी भी पाठक के दिल को बहुत गहरे से छू लेती है तो कई बार परिदृश्यों के बावजूद कहानी बेअसर-सी होती है। इसलिए मेरे विचार से ज़रूरी तो दोनों हैं पर शायद इस बात को नियमबद्ध नहीं किया जा सकता। मुख्य बात तो यह है कि कोई कहानी पाठकों तक अपने भावों को कितने अच्छे से संप्रेषित कर पाई है, फिर चाहे शिल्प, शैली और उसका गठन कैसा भी हो।

कल्पना मनोरमा- दीदी, आजकल कई औसत रचनाकार भी अपनी रचनाएँ धड़ाधड़ प्रकाशित करवाता दीखता है, वहीँ आप, जो कि भाषा, भाव और विचारों की एक सुदृढ रचनाकार है, की लिखने की गति बहुत धीमी है, क्यों?
मानी- कल्पना, जब लेखन की शुरुआत की तब उम्र कम थी। युवावस्था की शक्ति, उस समय का जोश ही कुछ ऐसा था कि पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए भी ख़ूब लिखती थी, ख़ूब छपती थी। जबकि उस समय सबकुछ हाथ से ही करना होता था। कहानी लिखना, उसे सुधारना, री-ड्राफ्ट करना और फिर साफ़-सुथरे ढंग से उसे फेयर करके डाक से भेजना। आज के हिसाब से सोचो तो कितनी मेहनत करनी पड़ती थी। उसके विपरीत आज की पीढ़ी तो सीधे लैपटॉप पर ही लिखकर पल भर में मेल कर सकती है। लेकिन अपने लेखन की तब और अब की गति में अंतर आने का मुख्य कारण, मेरा वर्तमान टेक्नोलॉजी से अनजान होना और उम्र के साथ स्वास्थ्य का ख़राब होना। इसी स्वास्थ्य की समस्या के चलते बीच के कुछ साल मेरा लेखन बाधित रहा लेकिन दो हज़ार इक्कीस से लेखन ने फिर से गति तो पकड़ी, लेकिन अब भी टेक्नोलॉजी की समस्या ही मुख्य समस्या है (हँसते हुए) मेरी रचनाएँ, मेल वगैरह सब प्रियंका ही टाइप करती है पर उसका अपना भी लेखन है, पारिवारिक दायित्व हैं और तमाम ऐसी व्यस्तताएँ भी कि कई बार मेरी कहानियाँ तो लिखकर रखी होती हैं पर वो ही उसे टाइप नहीं कर पाती।

कल्पना मनोरमा- एक पाठक के रूप में आप साहित्य की किस विधा को पसंद करती हैं? आप जिन पुस्तकों से प्रभावित रही हैं, उनके बारे में बताइए।
मानी- जैसा कि तुमको अन्दाज़ा हो ही गया होगा, पाठक के रूप में भी मुझे कहानियाँ पढ़ना ज़्यादा पसंद है। रही बात पसंदीदा पुस्तकों की तो किसी एक पुस्तक का नाम क्या बताऊँ। अलग-अलग किताबों, पत्र-पत्रिकाओं में बहुत सारी कहानियाँ पढ़ीं, जिन्होंने बहुत प्रभावित किया।

कल्पना मनोरमा- क्योंकि आप कानपुर और इलाहाबाद से सघनता से जुड़ी रही हैं तो कहाँ की पृष्ठभूमि साहित्य के लिए उर्वर मानती हैं?
मानी- कल्पना, अगर अन्य लेखकों के संस्मरण और अनुभवों की बात करूँ तो हर दृष्टि से इलाहाबाद से ही हिंदी के अनेक मूर्धन्य साहित्यकार हमें मिले। लेकिन मेरे लेखन की नींव कानपुर में पड़ी। यहीं के वरिष्ठ साहित्यकारों से मेरा संपर्क रहा और मैंने जो कुछ लिखा, यहीं रहकर लिखा। तो उस तरह से कानपुर भी हिंदी साहित्य के कई बड़े लेखकों की कर्मभूमि रहा। यहाँ भी सशक्त रचनाकारों की कोई कमी नहीं रही। उस हिसाब से किसी एक स्थान को तो मैं पूरा क्रेडिट नहीं देना चाहूँगी, फिर भी सामान्य दृष्टि से देखते हुए, पुराने समय की बात सोचते हुए इलाहाबाद की पृष्ठभूमि अधिक उर्वर मानी जाएगी।

कल्पना मनोरमा- कहा जाता है कि समय कोई भी हो, एक महिला पुरुष के बल पर ही खड़ी हो सकती है। इस बात को आप कहाँ तक सच मानती हैं?
मानी- हमारे समाज में यह तो बड़ी आम-सी धारणा है लेकिन इस बात से मैं पूरी तौर से सहमत नहीं हूँ। कोई भी इंसान, चाहे स्त्री हो या पुरुष, सही मायने में तो अपनी योग्यता के बल पर ही सफल हो सकता है। हाँ, यह बात सही है कि अगर अपने कैरियर, शौक़ या काम के लिए उसे अपने परिवार के सदस्यों का और वो भी अपने जीवनसाथी का सहयोग मिल जाए तो उसके उस क्षेत्र में अपना सम्पूर्ण योगदान दे पाने में कुछ सरलता हो जाती है। क्योंकि ऐसे में अपने क्षेत्र में अपना हंड्रेड परसेंट देते समय आपको घर के मोर्चे पर संघर्ष नहीं करना पड़ता। पर कोई महिला, पुरुष के बल पर ही खड़ी हो सकती है, इस बात में 'ही' पर मैं असहमत हूँ।

कल्पना मनोरमा- आज भी जबकि आम इंसानों के जीवन में मशीनी हस्तक्षेप अपनी सीमाएँ लाँघ रहा है, इस भयानक स्वच्छंद समय में स्त्री परिवार, बच्चों, रिश्तेदारों के कारण स्वयं को ब्लैकमेल होता पाती है। क्या परिवार ही उसकी मुक्ति में रूकावट है? आप क्या सोचती हैं?
मानी- तुम्हारे इस प्रश्न के सम्बन्ध में मेरे विचार कुछ अलग हैं कल्पना। मशीनी हस्तक्षेप तो बहुत बढ़ गया है, इसमें कोई दो राय नहीं है। घर-बाहर, हर जगह, हर क्षेत्र और हर रूप में हम मशीनों के जाल में। एक तरह से उसके अधीन होकर रह गए हैं। स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े, शिक्षित, अशिक्षित सब उसके घेरे में हैं। लेकिन इस घेरे के अन्दर कितनी गहराई तक जाना है, इसका निर्णय हमारा हो सकता है। यह तो हुई एक बात- अब बात तुम्हारे प्रश्न के अगले हिस्से की तो मेरे हिसाब से यहाँ 'ब्लैकमेल' शब्द थोड़ा ग़लत हो जाएगा। ब्लैकमेलिंग हमारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम करवाने के लिए दिए गए दबाव को कहते हैं, जहाँ हमारे मन के किसी कोने में एक भय का भाव भी होता है। हम स्त्रियाँ (हर स्त्री नहीं, अधिकाँश स्त्रियाँ) स्वभावगत पारिवारिक होती हैं, चाहे भले ही कामकाजी हों, अपने बच्चों और परिवार के विषय में हम सहज रूप से ‘concerned’ होते हैं। हाँ, अपवादस्वरूप कुछ महिलाओं को घर-परिवार या बच्चों से भी कोई लेना-देना नहीं होता। ज़रूरी नहीं कि वे महिलाएँ कामकाजी हों ही। जहाँ तक रिश्तेदारों की बात है तो वे भी इसी समाज का हिस्सा हैं तो जो समाज की मानसिकता, वही उनकी भी धारणा। अब समाज के किसी वर्ग या ऐसे रिश्तेदारों से कैसे डील करना है, यह भी हर किसी की व्यक्तिगत परिस्थिति, मन:स्थिति और संघर्ष करने की क्षमता पर निर्भर करता है। किसी भी काम को करने के लिए सबसे पहली रूकावट हमारे ही अन्दर से आती है, अगर हमारे अन्दर इतना आत्मिक और मानसिक बल है कि हम किसी भी परिस्थिति का सामना करते हुए आगे बढ़ सकें तो हमारी राह में रोड़े अटकाने वाले भी एक दिन ख़ुद ही थक कर बैठ जाएँगे। यह बात मैं कोरे ज्ञान के रूप में नहीं कह रही बल्कि ज़िंदगी ने मुझे यही सिखाया है। इसलिए परिवार या बच्चों को मैं रूकावट नहीं मानती, ख़ास तौर से बच्चों को। इसका सबूत अपने देश और विदेश में मौजूद तमाम सफल महिलाओं, जो एक बहुत अच्छी माँ भी हैं, के रूप में हमें मिलते ही रहते हैं।

कल्पना मनोरमा- नए रचनाकारों को कोई सन्देश, जो उनकी रचनाधर्मिता को पुष्टि प्रदान कर सके, दीजिए।
मानी- (हँसते हुए) कल्पना, नई पीढ़ी के रचनाकार अपनी नई शैली, थीम और सोच के साथ ख़ुद ही इतना अच्छा लिख रहे हैं कि किसी-किसी की रचना पढ़कर तो अचम्भा होता है। हर काल का अपना सच होता है, जो उस काल-खंड के साहित्य में ख़ुद ब ख़ुद झलक जाता है। रचनाधर्मिता के लिए बस इतना ही कहूँगी कि जो लिखें, डूबकर लिखें और किसी शॉर्ट-कट के चक्कर से ख़ुद को बचाकर चलें। बाकी तो मैं अभी ख़ुद को इतना बड़ा मानती ही नहीं कि किसी और को कुछ सिखा सकूँ, अभी तो मैं भी कितना कुछ सीख ही रही और सीखती भी रहूँगी।

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रचनाकार परिचय

कल्पना मनोरमा

ईमेल : kalpanamanorama@gmail.com

निवास : द्वारका (नई दिल्ली)

जन्मतिथि- 4 जून, 1972
जन्मस्थान- अटा, औरैया (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- डबल एम० ए० एवं बी० एड (हिंदी साहित्य व भाषा)
सम्प्रति- अध्यापक (सेवानिवृत्त)
प्रकाशन- 'कब तक सूरजमुखी बनें हम' (नवगीत संग्रह, 2019), बाँस भर टोकरी (कविता संग्रह, 2021) एवं 'नदी सपने में थी' (कविता संग्रह, 2023) प्रकाशित। वनमाली कथा, कथाक्रम, समावर्तन, निकट, नवनीत, सोच विचार, हिंदी चेतना, यूपी मासिक, विश्व गाथा, वागर्थ, अहा ज़िंदगी, दैनिक जागरण, न्यूज 18 आदि पर कहानियाँ, लेख, कविताएँ, यात्रा वृत्तांत प्रकाशित। कई कहानियाँ उड़िया, नेपाली व पंजाबी में अनूदित, प्रकाशित।
संपादन- 'सहमी हुईं धड़कनें' एवं 'काँपती हुईं लकीरें' (पुरुष विमर्श पर दो कथा संग्रहों का सम्पादन)। एजुकेशन पब्लिसिंग हाउस में लगभग एक से दो वर्ष तक सीनियर सम्पादक के रूप में कार्य।
पुरस्कार-
अखिल भारती कुमुद टिक्कू प्रतियोगिता, 2022 में कहानी 'पिता की गंध' साहित्य समर्था पुरस्कार से पुरस्कृत।
माँ धनपती देवी स्मृति कथा साहित्य सम्मान प्रतियोगिता, 2023 में कहानी 'कोचिंग रूम' पुरस्कृत।
सम्मान-
दोहा शिरोमणि सम्मान (खटीमा उत्तराखंड, 2014)
लघुकथा लहरी सम्मान (वनिका पब्लिकेशन, 2016)
नवगीत गौरव सम्मान (वैसबारा शोध संस्थान, 2018)
'कब तक सूरजमुखी बनें हम' नवगीत संग्रह को सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला सम्मान (सर्व भाषा ट्रस्ट, 2019)
काव्य प्रतिभा सम्मान (हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी, 2019)
आचार्य सम्मान (जैमिनी अकादमी, पानीपत हरियाणा, 2021)
संपर्क- बी- 24, ऐश्वर्ययम आपर्टमेंट, प्लाट नं०- 17, सेक्टर- 4, द्वारका, नई दिल्ली-110075
मोबाइल- 8953654363