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लेखकों को नई ऊर्जा के साथ नए प्रतिमान स्थापित करने की अवश्यकता है- संदीप तोमर

लेखकों को नई ऊर्जा के साथ नए प्रतिमान स्थापित करने की अवश्यकता है- संदीप तोमर

संदीप तोमर देश की राजधानी दिल्ली में रहकर साहित्य सेवा कर रहे हैं। मूल रूप से वे उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फ़रनगर ज़िले के एक गाँव- गंगधाड़ी से ताल्लुक रखते हैं। लम्बे समय से लेखन से जुडे रहे हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं पर अध्ययन और लेखन उन्हें विशिष्ट पहचान देता है। लघुकथा, कहानी, उपन्यास, कविता, नज़्म, संस्मरण इत्यादि विधाओं पर उन्होंने अपनी क़लम चलाई है। वर्तमान में हिंदी उपन्यासों से उन्होंने साहित्य में एक अलग पहचान बनायी है। हाल ही में संदीप तोमर जी से शिक्षिका और कवयित्री सुमन युगल की लेखन पर विस्तृत बातचीत हुई, जिसमें श्री तोमर ने बेबाकी से अपनी ईमानदार राय रखी। प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के अंश।

सुमन युगल- संदीप जी, आप हमारे शहर यानी मुज़फ़्फ़रनगर में जन्मे, पले-बढ़े और महानगर को अपनी कर्म-स्थली बनाया। जानना चाहती हूँ इसके पीछे कोई ख़ास योजना थी या...?
संदीप तोमर- मेरे बचपन से लेकर उच्च शिक्षा तक की मेरे शहर की यादें मेरे ज़ेहन में हैं। यहाँ तक कि मेरे ई-मेल पते में भी मेरे गाँव का नाम दर्ज है। मुझे मेरा शहर बहुत प्रिय है, जिसकी भूमि सृजन की भूमि है। भले ही वह सृजन खेती से हो या क़लम से। इस भूमि ने कितने ही क़लमवीरों को जन्म दिया है। इसकी ख़ुशबू को कैसे भुलाया जा सकता है? जहाँ तक सवाल महानगर को कर्मस्थली बनाने का है- शारीरिक दायरे के चलते मुझे महसूस हुआ कि कनेक्टिविटी के चलते मेरे लिए राजधानी दिल्ली अधिक उपयुक्त स्थान है, अत: खतौली में सरकारी नौकरी मिल जाने के बावजूद मैंने महानगर का रुख किया। हाँ, यहाँ आकर समझ आया कि साहित्य के लिहाज़ से भी मेरे लिए यह महानगरीय जीवन अधिक आसान है।

सुमन युगल- महानगरीय जीवन शैली और ग्राम्य-जीवन शैली दोनों को आपने क़रीब से देखा, साहित्य रचते हुए इसका लाभ मिला?
संदीप तोमर- मेरे पहले उपन्यास 'थ्री गर्लफ़्रेंड्स' का नायक इन्हीं दो संस्कृतियों या कहूँ कि जीवन शैली की ही उपज है, कितनी ही लघुकथाओं, कहानियों में दो अलग-अलग संस्कृतियों का द्वंद्व आप देख सकते हैं। एक कहानी 'ताई', जिसे सेंटपीटर्सन से निकलने वाली पत्रिका 'सेतु' ने छापा था, उसमें भी गाँव और शहर दोनों के जीवन का अंतर स्पष्ट रूप से उपस्थित है।

सुमन युगल- आप एक शिक्षक हैं। अच्छे कथाकारों में आपकी गणना की जाती है। आपने कहानी, लघुकथा, उपन्यास, संस्मरण और काव्य बहुत कुछ लिखा है। इन सब पर कुछ सवाल हो तो आप क्या कहेंगे?
संदीप तोमर- अक्सर सुनता हूँ- 'सुंदर स्त्रियों से गुफ़्तगू/वार्तालाप करने का नाम ग़ज़ल है', उसी तर्ज पर मेरी नज़र में लघुकथा प्रेयसी संग बैठ किसी प्रसंग की गुफ़्तगू का नाम है। लघुकथा के साथ यह महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य है कि जब कोई रचना कथा-विकास के छोटे कलेवर में वांछित परिणति को सिद्ध करने तक पहुँचने में पूर्ण-रूपेण सक्षम हो तो उसे अनावश्यक विस्तार देने की कोई गुंजाइश/आवश्यकता नहीं होती। कहानी में इससे अधिक विस्तार सम्भव है लेकिन कहानी में फिर भी संक्षिप्तता होती है, एकपन होता है– एक घटना, जीवन का एक पक्ष, संवेदना का एक बिन्दु, एक भाव, एक उद्देश्य इसकी विशेषता है, इसमें मेरी समझ से समाधान का विशेष महत्व नहीं होना चाहिए। हाँ, इतना अवश्य है कि कहानी अपने अभीष्ट तक पहुँचे। उपन्यास में एक पूरी गाथा, एक या उससे अधिक जीवन को समेटा जा सकता है।

सामान्यत: किसी भी साहित्यिक आंदोलन का सूत्रपात निश्चित रूप से योजनाबद्ध न होकर सहज तथा स्वाभाविक होता है। ऐतिहासिक संदर्भ में विशिष्ट व्यक्तियों तथा विशिष्ट परिस्थितियों के फलस्वरूप ही कोई प्रवृत्ति साहित्य में परिलक्षित होती है। सशक्त होने पर यही प्रवृत्ति धीरे-धीरे एक धारा का रूप ले लेती है, तब जाकर उस धारा का नामकरण होता है। इस प्रकार लेखन की एक नई विधा अस्तित्व में आती है। तो कहानी के साथ ये आंदोलन बहुत पहले शुरू हुआ, तुलनात्मक रूप से लघुकथा बहुत बाद में अस्तित्व में आयी। उपन्यास भले ही पश्चिम की देन माना जाता हो लेकिन हमारे यहाँ महाकाव्य के रूप में यह पहले से विद्यमान रहा।

सुमन युगल- तोमर साहब आपकी कहानियों में अमूमन चित्रकारी/चित्रकार का ज़िक्र रहता है। ऐसा लगता है कि आप चित्रकारी से कहीं गहरे जुड़े हैं या फिर मात्र कल्पना?
संदीप तोमर- बचपन में मैं चित्रकारी से बहुत डरता था। स्कूल के काम भी बड़े भैया या दीदी से करवाता था। बदले में वे मुझसे कहीं अधिक श्रम करवा लेते थे लेकिन एक घटना ने मुझे चित्रकारी के निकट ला खड़ा किया। असल में हुआ यूँ कि 1998 में जब चलती बस से गिरने के कारण लिम्ब-फ्रेक्चर हुआ तो एक साल बिस्तर पर रहना पड़ा। तब एक मित्र (आप प्रथम प्रेमिका भी कह सकते हैं) के लिए स्केच बनाए, उसे स्केच बनाकर भेजता तो वह ख़ुश होती लेकिन अफ़सोस है कि वे स्केच उसने न कभी लौटाए, न ही संभाल कर रखे। उसके बाद कुछ स्केच काफी समय बाद बनाये, जिनमें से कुछ मेरे पास हैं।
मेरा मानना है कि कोई किसी भी कला का व्यक्ति हो, वह चित्रों से अवश्य ही लगाव रखेगा। अब देखिये न! जो कहानी या कथा हम लिखते हैं, वह सब स्वयं में एक रेखाचित्र ही तो होता है, जिसमें हम नए-नए रंगों से उसे आकर्षक और मोहक बनाते हैं।

सुमन युगल- अभी आपने प्रथम प्रेमिका का ज़िक्र किया। आपका जीवन प्रेम के मामले में काफी चर्चित रहा है। प्रेम के विषय में आपके क्या विचार हैं? कैसे परिभाषित करेंगे?
संदीप तोमर- प्रेम पर बहुत कुछ लिखा गया। कभी इसे शाश्वत कहा गया तो कभी इसे निष्काम कहा गया। कभी कहा गया कि प्रेम तो अंधी लालसा है। प्रेम अगर एक अंधी लालसा है तो हमें इस भ्रम में क्यों रहना चाहिए कि प्रेम हमें अनिवार्यतया उदात्त ही बनाएगा। प्रेम बहुधा आत्मा के पोषण का ईंधन भी होता है। ‘मुझे अमुक से प्रेम है।' यह वाक्य बहुधा किसी की व्याप्ति/प्राप्ति का साधन भी हो सकता है। मैं तो कहता हूँ कि प्रेम में जानने का भाव अधिक जुड़ा है, बिना जाने प्रेम सम्भव ही नहीं है। सच्चा प्रेम उसी व्यक्ति में हो सकता है, जिसने अपने आत्म को पूर्ण रूप से जान लिया है। लोग कहते हैं कि जहाँ प्रेम है, वहाँ श्रद्धा है, मुझे लगता है जहाँ श्रद्धा है, वहाँ भक्ति तो हो सकती है, प्रेम नहीं हो सकता।
विज्ञान की भाषा में एड्रिनलीन के स्राव के कारण हुआ एक रासायनिक परिवर्तन भी इसे कहा जा सकता है। कुछ लोग इसे दिमाग़ में होने वाला एक केमिकल लोचा तक कह देते हैं। कुछ को लगता है कि प्रेम एक आदत है किसी के साथ रहने की, किसी के क़रीब होने की। इतना अवश्य कहूँगा कि प्रेम को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। प्रेम स्वयं से होता है, निमित्त कोई भी हो सकता है।

सुमन युगल- कहा जाता है, साहित्य समाज का दर्पण है। इस दृष्टि से मौजूदा साहित्य कसौटी पर कितना खरा उतरता है?
संदीप तोमर- साहित्य और समाज को लेकर दो मत हैं। एक- दर्पण सिद्धांत, दूसरा- प्रतिबिम्बन। मैं दूसरे सिद्धांत का पक्षधर हूँ, मेरे विचार से साहित्य समाज का दर्पण न होकर प्रतिबिंब होता है, इसे वैज्ञानिक नियम से समझना होगा। दर्पण तो ख़ुद रचनाकार है, साहित्य वह है जो पाठक देख रहा है, यानी प्रतिबिंब। जो समाज में घट रहा है, वही तो साहित्य के रूप मे सामने है। लेकिन अगर आपकी बात को आशय के रूप में लेकर प्रश्न पर बात की जाये तो कहना होगा कि आज साहित्य समाज को दिशा देने की बजाय लेखकों की आत्ममुग्धता, खेमेबाज़ी, दलगत राजनीति, लेखकों का राजनीतिक संरक्षण इत्यादि के चलते अपना उद्देश्य खो चुका है। लेखकों को नई ऊर्जा के साथ नए प्रतिमान स्थापित करने की अवश्यकता है।

सुमन युगल- आपने अभी बात की राजनीतिक संरक्षण की, ये सच है कि लेखन या यूँ कहें कि साहित्य भी राजनीति से अछूता नहीं है। आप ख़ुद विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं की समझ रखते हैं। देश के मौजूदा हालात के विषय में कुछ कहना चाहेंगे?
संदीप तोमर- इस प्रश्न के जवाब को मैं दो भागों में बाँटकर रखना चाहता हूँ- पहला ये कि लेखक किसी एक विचारधारा या पंथ का नहीं होता। वह न वामपंथी होता है, न ही दक्षिणपंथी ही। न वह संघी है, न ही कांग्रेसी या कोई अन्य। लेखक की स्वयं की एक दृष्टि होती है। लेखक को चाहिए कि वह ग़लत का विरोध करे, न कि स्वयं को किसी एक विचारधारा में बांध ले। लेखक की नज़र में सब रहता है, उसकी दृष्टि से क्या कुछ छिपा रह सकता है। उसका कर्तव्य बनता है कि वह बिना किसी के प्रभाव या लालच में आए तटस्थ होकर लिखे।
दूसरा, मेरी नज़र में देश आज राजनीतिक रूप से बुरे दौर से गुज़र रहा है। व्यक्तिगत जीवन में सत्ता का इतना हस्तक्षेप न देखा है, न ही सुना था। किसी के पहनावे, खानपान, विवाह के फैसले, तलाक, लिव इन के चलन इत्यादि के फैसले अगर सत्ता को करने होंगे तो शिक्षा, स्वास्थ्य या रोज़गार इत्यादि का दायित्व किसका होगा? सत्ता का दायित्व जनता की बेहतरी से जुड़ा होना चाहिए न कि सेंसरिंग से। आर्थिक मोर्चों पर भी हम सरकारों की विफलताओं से परिचित हैं। मुद्रा का गिरना जारी है। महँगाई चरम पर है। स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल हमने हाल ही में देखा है। सरकारों के पास एक रेडीमेड जवाब है- जनसंख्या वृद्धि। मैं कहता हूँ जनसंख्या एक बड़ा संसाधन है। यकीन न हो तो कम जनसंख्या वाले देशो के आँकड़े उठाकर देखे जा सकते हैं। ज़रूरत है- समुचित नीति और समुचित उपयोग की। जिस मामले में हम बुरी तरह असफल हैं और अफ़सोस के साथ के साथ कहना पड़ेगा कि वर्तमान दौर कुछ लम्बा चलेगा।

सुमन युगल- राजनीति के बारे में आपकी व्यक्तिगत राय क्या है? यदि आपको राजनीति में आने का मौका मिले तो किस तरह के बदलाव करना चाहेंगे?
संदीप तोमर- अगर राजनीति पर मेरी राय पूछोगे तो मैं कहूँगा कि अभी हम पूरे विश्व के मुक़ाबले बहुत पीछे चल रहे हैं। अगर हमें परफेक्ट डेमोक्रेसी की ओर बढ़ना है तो हमें भारतीय राजनीति में बड़े परिवर्तन करने की ज़रूरत है। विश्व इतिहास बताता है कि पूंजीवाद समस्याओं को बढ़ाता है, कम नहीं करता। देश के जो वतर्मान हालात हैं, जो वैश्विक परिदृश्य में हमारी स्थिति है, वह भले ही हंगर इंडेक्स हो या भ्रष्टाचार, समाधान समाजवाद ही है। नेहरू जिस लोकतांत्रिक समाजवाद की बात करते थे, हमें उसे ग्रहण करना ही होगा, समाधान उसमें ही है।
रही बात मेरे राजनीति में आने की या मेरे सरोकार की तो ये स्पष्ट है कि हर व्यक्ति के राजनीतिक सरोकार होते हैं, मेरे भी है। अगर मैं एक्टिव राजनीति में हूँगा तो मैं शिक्षा, स्वास्थ्य और जीविका पर काम करना पसंद करूँगा क्योंकि मुझे लगता है कि ये अब बुनियादी ज़रूरतें हैं। अभी जो माहौल बना है, जिसमें लोगों को निजीकरण में समाधान दिखाई देता है, असल में वे किसी मुग़ालते में जी रहे हैं। निजीकरण कभी भी कल्याणकारी राज्य में विकल्प नहीं हो सकता। कल्याणकारी राज्य का ये दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य और संतुलित आहार उपलब्ध कराये। और ये सब समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। किसी भी समाज में शिक्षित जन का होना लोकतंत्र की मज़बूती है, ध्यान रहे हमने परफेक्ट डेमोक्रेसी की तरफ बढ़ना है।

सुमन युगल- तो ये माना जाये कि शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त किए बिना समतामूलक समाज की स्थापना एक दिवास्वपन है। फिर हम ये जानना चाहेंगे कि आधुनिक शिक्षा पद्धति के बारे में आपकी क्या राय है?
संदीप तोमर- हमारी शिक्षा पद्धति की समस्या ये है कि हम आज भी मैकाले के समय में जी रहे हैं। जहाँ शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ शासन चलाने के लिए सस्ते क्लर्क तैयार करना था, अफसोस है कि हम राजनीतिक आज़ादी के इतने सालों बाद भी अपनी शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन ही करते रहे। जो हमारे सरोकार हैं या जो हमारे समाज की अवश्यकताएँ हैं, उनके हिसाब से हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने का प्रयास ही नहीं किया। अगर आप मेरे विचार जानना चाहेंगे तो मैं कहूँगा कि हमें गाँधीजी की बुनयादी शिक्षा की ओर लौटना होगा। आवश्यकता इस बात की है कि हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को व्यावसायिक शिक्षा पर केन्द्रित करना होगा, आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए व्यावसायिक शिक्षा को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। स्कूली शिक्षा में अनिवार्य रूप से व्यावसायिक पाठ्यक्रम को लागू किया जाए। नई शिक्षा नीति- 1986 में दिये गए प्रावधानों को अगर पूरा कर लिया जाए तो अन्य किसी सुधार की गुंजाइश ही न रहे। स्कूली पाठ्यक्रम ऐसा हो कि पूर्वाहन में सैद्धांतिक विषयों की पढ़ाई कराई जाये और अपराह्न में प्रायोगिक ज्ञान दिया जाए। स्कूल में वर्कशॉप हों, जहाँ व्यावसायिक शिक्षा का समुचित प्रबंध हो। जिसमें रोज़मर्रा के जीवन से जुड़े काम व सामान का बनना, मरम्मत इत्यादि की शिक्षा दी जाए। छात्रों द्वारा तैयार किए गये माल के लिए सरकार बाज़ार उपलब्ध कराए। अधिक से अधिक को-ओपरेटिव स्टोर खोले जाएँ, जहाँ सरकार छात्रों के सामान को महंगे दामों पर ख़रीदकर उन्हें रियायती मूल्य पर बेचने का समुचित प्रबंध करे। छात्रों को स्किल्ड करने के बाद एक प्रमाण-पत्र जारी किया जाए कि वह अपने काम की दक्षता प्राप्त कर चुका है। यह भी सुनिश्चित हो कि दक्षता प्रमाण-पत्र के बिना किसी भी प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन इत्यादि को निजी काम या अनुबंधित काम करने की अनुमति न हो।

सुमन युगल- संदीप जी, आप मूलत: एक साहित्यिक व्यक्ति हैं लेकिन आपके राजनीतिक और शिक्षा पर विचार भविष्य के लिए आशान्वित करते हैं। हम पुन: साहित्य की ओर लौटते हुए पूछना चाहेंगे कि आपकी छवि एक यथार्थवादी लेखक की है। साहित्य में अतियथार्थवाद क्या पाठक को निराश तो नहीं कर रहा?
संदीप तोमर- सुमन जी, मैं आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ। कोरा यथार्थ या अतियथार्थ कहीं न कहीं मौलिक लेखन को तो अवरुद्ध करता ही है। साथ ही फैंटेसी और कल्पनाशीलता न होने के चलते सर्जना विलुप्त होती जाती है। पाठक हमेशा नयापन खोजता है, जिसके अभाव में एक नैराश्य की स्थिति उत्पन्न होती है। वर्तमान में साहित्य के साथ ये समस्या है कि अब आधिक्य में लिखा जा रहा है और गुणात्मकता ने गुणवत्ता को लीलने का काम किया है। लोग लिख रहें हैं, लगातार लिख रहे हैं, चिंतन-मनन का स्कोप ख़त्म कर दिया है। सिर्फ इसलिए लिखा जा रहा है क्योंकि लिखना है, छपना है तो ये जो लिखने और छपने की चाह है, ये साहित्य का नुक़सान अधिक कर रही है। जब तक पाठक को केंद्र में रखकर लेखन नहीं होगा ये स्थिति अधिक विकट होगी।

सुमन युगल- सुनने में आता है कि वर्तमान में चाहे वह नारीवादी लेखन हो या दलित लेखन या फिर मुख्याधारा का लेखन, आजकल अधिक विवादित लेखन हो रहा है, जहाँ विविधता को देखना भी ख़्वाब की तरह है। ऐसे में आपका लेखन विविधता से भरा है। कैसे आप ख़ुद को विवादों से अलग रख पाते हैं?
संदीप तोमर- देखिए, साहित्य जगत में एक स्लोगन चलता है, रातों-रात प्रसिद्धि पानी है तो विवादास्पद विषयों पर लिखें, आधा काम रचना। बचा हुआ काम आलोचक कर देंगे। अभी नारीवाद के नाम पर जो लेखन हो रहा है अगर अपवाद को छोड़ दें तो वह मात्र ख़ुद को विवादित करके चर्चा में बनाए रखने का उपक्रम मात्र है। हाँ, ममता कालिया, दीप्ति गुप्ता, सुधा अरोरा, उषाकिरण ख़ान, डॉ० सूर्यबाला सरीखी लेखिकाओं का लेखन हमें आश्वस्त भी करता है। इन्होंने बिना किसी हो-हल्ले के महिलाओं की पीड़ा को लेखन का हिस्सा बनाकर हमेशा अपनी ओर ध्यान आकृष्ट किया है। स्वयं की बात करूँ तो कहूँगा कि नारी-वेदना बेडरूम से बाहर भी उतनी ही पीड़ादायक है, जितनी बेडरूम के अंदर। प्रेम और उसके नाम पर होने वाले उपक्रम मेरी रचनाओं का हिस्सा बनते हैं क्योंकि मैंने समाज में बहुत बारीकी से इन सब का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। मेरे लिए प्रसिद्धि लेखन से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, लेखन आत्माभिव्यक्ति और अंतर्वेदना के प्रस्फुटन के लिए नितांत आवश्यक है। यही वजह है कि मैं विविधता में विश्वास करता हूँ।

सुमन युगल- नवोदित लेखकों के लिए क्या संदेश देना चाहते हैं?
संदीप तोमर- देखिए, पढ़ना यानी अध्ययन साहित्य और उसकी विभिन्न विधाओं के अंगोपांग को समझने के लिए ज़रूरी है लेकिन देखने में आता है कि अधिक पढ़ने से कुछ नवलेखकों का स्वयं का लेखन भी प्रभावित होने लगता है। कुछ नवरचनाकार किसी लेखक से इतने प्रभावित होते हैं कि उनकी शैली को ही अपनाने लगते हैं। ज़रूरी है कि नयी पीढ़ी के लेखक खेमेबाजी से दूर रहें। ख़ुद के लिखे को बार-बार पढ़ें और ख़ुद के लेखन को ख़ारिज करने से परहेज न करें। एक शब्द लिखने से पूर्व कम से कम सौ शब्द अवश्य पढ़ें। सतत लेखन अवश्य ही शिखर तक ले जाएगा।

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सन्दीप तोमर

19 July 2024

आभार

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रचनाकार परिचय

सुमन सिंह चंदेल

ईमेल : chandelsuman143@gmail.com

निवास : मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तरप्रदेश)

नाम- सुमन सिंह चंदेल
उपनाम- सुमन युगल 
पति का नाम- श्री युगल किशोर भारती
जन्मतिथि- 16 अप्रैल 1976
जन्मस्थान- मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- एम० ए० (हिंदी), बी० एड
संप्रति- शिक्षिका एवं स्वतंत्र लेखन
प्रकाशन- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
संपर्क- 252, लद्दावाला, कम्बल वाली गली, निकट चन्द्रा सिनेमा, मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तरप्रदेश)- 251001
मोबाइल- 8126228658