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सुधा अरोड़ा का साक्षात्कार- गंगा शरण सिंह

सुधा अरोड़ा का साक्षात्कार- गंगा शरण सिंह

तराजू में तौलकर मैंने कागज़ नहीं रँगे


गंगा शरण सिंह- साहित्य के संस्कार कहीं न कहीं हमारे रक्त में होते हैं। यदि न भी हों तो घर का परिवेश, माता-पिता या बड़े भाई-बहनों का इस दिशा में झुकाव या उनकी सक्रियता हमारे लिए प्रेरणा बनती है। आपका साहित्य से जुड़ाव किस तरह हुआ? बचपन या किशोरावस्था के दिनों में घर और आसपास का परिवेश कैसा था?
सुधा अरोड़ा- मेरे घर में साहित्य के संस्कार पूरी तरह रचे-बसे थे। माता-पिता दोनों घोर साहित्य प्रेमी। माँ लाहौर की प्रभाकर पास थीं और पिता कोलकाता में सिटी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज के बेहद ज़हीन छात्र। बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम वाले शेख मुजीबुर्रहमान सिटी कॉलेज में उनके क्लासमेट थे। रामनाथ सिंह उनके स्कूल 'आर्य विद्यालय' में हिंदी के शिक्षक थे और प्रभुदयाल अग्निहोत्री प्रिंसिपल। पिता इनके बेहद प्रिय छात्र थे। घर में हिंदी साहित्य-प्रेमियों का आना-जाना था, जिसमें राजेंद्र यादव, कृष्णाचार्य, कवि सुरेंद्र तिवारी जैसे रचनाकार पापा के मित्र थे। राजेंद्र यादव की आत्मकथा 'मुड़-मुड़ के देखता हूँ' में इसका विस्तृत ज़िक्र है। अपनी टाँग में गोली लगने पर राजेंद्र यादव पिता की फैक्टरी में डेढ़ महीना रहे थे और माँ के हाथ का बनाया टिफ़िन उन्हें रोज़ पहुँचाया जाता था।

पिता हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी, पंजाबी और बांग्ला भाषा के अच्छे जानकार थे। बांग्ला साहित्य के कई क्लासिक उनकी छोटी-सी लाइब्रेरी में थे। विशाल भारत, हंस, विप्लव, इन सब पत्रिकाओं के हर साल के पुराने जिल्द बँधे अंक हमारे घर में थे, जिन्हें कवि बोधिसत्व महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय लाइब्रेरी के आर्काइव्स में रखने के लिए कोलकाता से मेरे पिता से ले आए थे। नागरी प्रचारणी सभा के कई शब्दकोष, साहित्य कोष, बहुमूल्य किताबों और पत्रिकाओं का ज़खीरा उनके पास था। ऐसे परिवेश में हम भाई-बहनों में भी साहित्य के प्रति लगाव होना स्वाभाविक था। कोलकाता वैसे भी लेखन के लिए बेहद उर्वर महानगर है।

साहित्य रोज़ी-रोटी नहीं देता, इसका ख़ामियाज़ा माता-पिता को भुगतना पड़ा। लड़कियाँ शादी के बाद घर-गृहस्थी में बझ जाती हैं। सो, शादी के बाद किताबों में रमी रहने वाली माँ का सारा समय हर दूसरे साल बच्चे पैदा करने और उन्हें पालने-पोसने में बीतने लगा। कविताएँ लिखने की रचनात्मकता रसोई में तरह- तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बनाने में और अपनी बेटियों की झालरों वाली फ्रॉक सिलने और स्मोकिंग वाले डिज़ाइन रचने में बदल गई। उधर दादा ने अपने बेटे के दिमाग़ से साहित्य और कला का फितूर उतारने के लिए उनकी पंजाब नेशनल बैंक की अच्छी-ख़ासी नौकरी छुड़वाकर उन्हें अपनी साबुन की फैक्टरी के धंधे में झोंक दिया। अब साहित्य-प्रेमी दंपति के लिए अपनी दोनों रचनात्मक बेटियाँ ही एकमात्र राहत थीं और ये दोनों अपने माता-पिता के सपनों को पूरा करने में जुट गईं। माता-पिता के बेहद रूमानी प्रेमपत्र पढ़-पढ़कर हम दोनों बहनों ने लिखना सीखा। मेरी छोटी बहन जितनी ख़ूबसूरत थी, उतनी ही ज़हीन भी। बेहद त्रासद स्थितियों में वह असमय अवसाद का शिकार हो गई। उसकी अनछपी रचनाओं, डायरियों, ख़तों को पढ़ना आज भी बेहद तकलीफ़देह है।

गंगा शरण सिंह- सबसे पहले क्या लिखा? कहानी, कविता या किसी अन्य विधा में कोई रचना?
सुधा अरोड़ा- यूँ तो स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं में हर साल हम दोनों बहनों की मुक्त छंद की कविताएँ प्रकाशित होती रहीं पर लेखन की बाक़ायदा शुरुआत तो सबसे पहले माँ की मुझे थमाई हुई डायरी से ही हुई। कथेतर विधा में ही लेखन शुरू किया। सन् 1962 में हमारी ख्यातनाम प्राध्यापक, जो कवि, कथाकार, गायिका भी थीं, डॉ० सुकीर्ति गुप्ता ने श्री शिक्षायतन कॉलेज में हिंदी ऑनर्स की सभी छात्राओं को एक पीरियड में मौलिक कहानी लिखने को कहा। अगले दिन सबकी रचनाएँ पढ़कर उन्होंने क्लासरूम में घोषणा कर दी थी कि सुधा एक दिन कहानीकार बनेगी।

माँ ने अगर मेरी बीमारी के दौरान मुझे डायरी न थमा दी होती कि लेटे-लेटे इसमें कुछ लिखा कर तो पता नहीं, इतनी छोटी उम्र में मैं लिखना शुरु करती या नहीं। मैंने पहली डायरीनुमा कहानी 'एक सेंटिमेंटल डायरी की मौत' लिखी थी, जो सारिका के मार्च 1966 अंक में छपी थी। इससे पहले मेरी डायरी के पन्ने ‘अविवाहित पृष्ठ’ ज्ञानोदय के दाम्पत्य विशेषांक में दिसंबर 1965 में प्रकाशित हुए थे।... मुझे लगता है, मेरी आख़िरी रचना भी शायद मेरी डायरी के बेशुमार पन्ने ही होंगे, अगर वे तब तक बचे रह सके।

गंगा शरण सिंह- विधाओं के चयन को लेकर कभी कोई असमंजस रहा मन में? उपन्यास एक ही लिखा आपने, पर कहानी, कविता और कथेतर विधाओं में आवाजाही बराबर जारी रही।
सुधा अरोड़ा- विधाओं को लेकर कभी कोई असमंजस नहीं रहा। हर विषय अपनी विधा ख़ुद चुन लेता है। हर विधा की अपनी ज़मीन है, अपनी ताक़त है। कहानी लिखने के लिये हमें आज के घटनाक्रम से एक दूरी बनानी पड़ती है। कहानी लिखना एक लंबी प्रक्रिया है। वह अंदर ही अंदर पकती रहती है। कभी दो चार महीने तो कभी कई साल तक। आज कोई घटना हुई या कोई हादसा हुआ, जिसने हमें विचलित किया तो उसे हम तत्काल किसी कहानी में नहीं ढाल सकते पर उस हादसे का हम कोई आलेख लिखकर उसका विश्लेषण ज़रूर कर सकते हैं। उसके पीछे के कारणों को खंगाल सकते हैं। भविष्य में ऐसे हादसे न हों, उस पर अपने सुझाव सामने रख सकते हैं। यह काम आलेखों के माध्यम से ही किया जा सकता है, कहानी कविता से नहीं। अख़बारों में लिखे गए नियमित छोटे-छोटे स्तंभ पाठकों को जागरूक बनाने का और भी कारगर जरिया हैं, इसे मैंने 1997 में जनसत्ता के अपने स्तंभ ‘वामा’ के दौरान बहुत अच्छी तरह समझ लिया था।

विधा का चुनाव हमारे भीतर की बेचैनी अपने आप कर लेती है। उसके लिये हमें सायास ज़रा-सी भी कोशिश नहीं करनी पड़ती। यह ज़रूर है कि आलेखों की ओर मुड़ने का एक बड़ा कारण महिला संगठनों से जुड़ना और महिलाओं की अनंत समस्याओं से रूबरू होना था। लंबे समय तक महिला सलाहकार केंद्र से जुड़ी रही। पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ भी थीं इसलिए समय उतना नहीं मिल पाता था। फिर सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जो सुकून और संतुष्टि मिलती है, वह लेखन से बहुत अलग होती है। आत्महत्या की कगार पर पहुँची हुई किसी आत्महंता स्त्री को ज़िंदगी तक लौटा लाना बहुत बड़ी राहत देता है। वह ऐसा समय था, जब लेखन से ज़्यादा सामाजिक कार्यों में मन रमता था।

जहाँ तक कविता का सवाल है, वह एक इंटेन्सिटी से जन्म लेती है। किसी चोट को, तकलीफ़ को या आक्रोश को हम कम शब्दों में संप्रेषित करना चाहते हैं तो कविता उसके लिये सबसे कारगर विधा है। मैंने सिर्फ़ एक-डेढ़ साल, अपने फ्ऱोज़न शोल्डर के दौरान कविताएँ लिखीं। कविता मेरी विधा नहीं रही। यह अलग बात है कि उन कुछेक कविताओं ने भी मुझे कवि होने का ख़िताब दे दिया।

संस्मरण भी मैंने बहुत लिखे हैं। जो अपने क़रीब रहे, उन पर संस्मरण लिखे। जो बहुत क़रीब रहे, जिनका जाना बर्दाश्त नहीं कर पाई और जिनके जाने की टीस अब तक भीतर बनी हुई है, उन पर लिखना बाक़ी है, जैसे अपने समानधर्मा अग्रज मित्र रमेश उपाध्याय पर, जीनियस भाई कथाकार चित्रकार प्रभु जोशी पर, अन्तरंग मित्र दलित लेखिका सुजाता पारमिता पर, पवई में रहने वाली अपनी सामाजिक कार्यकर्ता मित्र चैताली गुप्ता पर, जब इनको अपने से दूर रखकर देख सकूँगी तभी क़लम सध पाएगी। अभी तो इनकी याद मन में धँसी है।

गंगा शरण सिंह- 'यहीं कहीं था घर', यह आपकी एक बहुचर्चित कविता का शीर्षक भी है और आपके एकमात्र उपन्यास का नाम भी! इतने दशकों तक फैले लेखकीय सफर में सिर्फ एक उपन्यास! इस विधा में लिखने का मन नहीं हुआ या फिर व्यस्तताओं के कारण ऐसा हुआ?
सुधा अरोड़ा- 'यहीं कहीं था घर' उपन्यास के शुरू में फ्लैप मैटर की जगह कविता लिखी थी। वह उपन्यास के लिए ही लिखी गई थी पर बतौर कविता वह चर्चित हो गई। दरअसल मैं एक भी उपन्यास पूरा नहीं कर पाई। 'यहीं कहीं था घर' भी एक अधूरा उपन्यास ही है। इस उपन्यास को तीन खंडों में लिखने की योजना थी। डायरी में उसके नोट्स तैयार कर रखे थे पर उस उपन्यास की मुख्य पात्र की त्रासदी जहाँ से शुरू होती है, वहीं पर क़लम अटक गई। कई सालों तक जब नहीं लिख पाई तो उसके उतने अध्याय ही छपवा दिए। यही स्थिति दूसरे उपन्यास– 'यह रास्ता उसी अस्पताल को जाता है' के साथ भी रही। इसमें चार पात्रों के चार बयान थे। एक ही पूरा लिख पाई। कुछ कहानियाँ भी उपन्यासों के ही नोट्स हैं, जैसे ‘खिड़की’ कहानी। डेज़र्ट फ़ोबिया उर्फ़ समुद्र में रेगिस्तान। 'एक माँ का हलफ़नामा उर्फ़ तेजस्विनी की मौत पर बयान जारी है' ये तीनों कहानियाँ उपन्यासों के नोट्स से लिखी गईं।

कारण ढूँढने की कोशिश करती हूँ तो समझ में आता है कि लेखक को संवेदनशील तो होना चाहिए क्योंकि संवेदना के बिना लेखन हो ही नहीं सकता लेकिन अतिरिक्त संवेदनशीलता लेखक की रचनात्मकता को ध्वस्त कर देती है या कहें, ग्रस लेती है। लेखक को एक सीमा तक ही संवेदनशील होना चाहिए, उसके बाद उसकी रचनात्मकता के लिए तटस्थता की ज़रूरत होती है। मैं वह तटस्थता आज तक अपने में ला नहीं पाई। एक उपन्यास अब भी लिखा जा रहा है। अगर पूरा कर पाई तो मेरे अपने लिए यह बहुत बड़ी राहत होगी।

गंगा शरण सिंह- आपके लेखन और जीवन में बहुत साम्य रहा। जैसा लिखा, वैसे ही जीते हुए महिला सशक्तीकरण की दिशा में ठोस सामाजिक कार्य किये आपने! आज इतने बरसों बाद पुनरावलोकन करने पर कहीं कुछ खटकता है कि यहाँ ऐसे नहीं, कुछ और हो सकता था या फिर किसी मुद्दे पर कोई ऐसा अफ़सोस कि उस समय किसी बात को जैसा समझा, वह बाद में कुछ और ही निकली?
सुधा अरोड़ा- समय आपको बहुत कुछ सिखाता है। हम ख़ुद समय के साथ ग्रो करते हैं, समय के साथ अपनी धारणाएँ बदलते रहना ही ज़रूरी होता है। अपनी धारणाओं को मैं कई बार बदलती, सुधारती रही हूँ। मैंने 1997 में लिखा था– "यह पुरुषों की सोची समझी ‘डिवाइड एंड रूल’ की साजिश है कि एक औरत को दूसरी से लड़वा दो। दरअसल औरत, औरत की दुश्मन नहीं, उसकी संगी-साथी-सहेली है।" बाद में समझ में आया कि मैं ग़लत थी। औरतों की भी एक बड़ी जमात है, जो पुरुष सत्ता को कंधा देती है। हमारा सामाजिक ढाँचा ही ऐसा है। सास, ननद के अत्याचार इसमें समाहित हो जाते हैं। ऐसी पुरुषनुमा औरतों के कंधा दिए बिना पितृसत्ता पनप ही नहीं सकती। तब पुरुष विमर्श पर विशेषांक निकालने वाली एक पत्रिका के लिए एक लंबा आलेख लिखा– 'विमर्श से परे : स्त्री और पुरुष'। 'कंधे' शीर्षक से एक कविता भी लिखी।

या फिर यह धारणा कि आर्थिक आत्मनिर्भरता स्त्री के सशक्तीकरण की पहली शर्त है। बाद में मैंने देखा कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाओं का भी एक बड़ा वर्ग घरेलू हिंसा का शिकार होता है। इसके लिए ज़रूरी है कि माइंडसेट में बदलाव हो। पुरुष ख़ुद भी इस सामाजिक संरचना का विक्टिम है। वह भी प्रताड़ना देकर तकलीफ़ ही पाता है लेकिन अपनी वनअपमैनशिप से बाहर आने में अशक्त है। सिर्फ आर्थिक आत्मनिर्भरता सशक्तीकरण के लिए नींव का काम कर सकती है पर स्त्री को अपने पैरों की ज़ंजीरें तोड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए, बग़ावत करनी चाहिए, जोखिम उठाना चाहिए, तभी वह अपनी ज़िंदगी सँवार पाएगी।

अंतिम सत्य कुछ नहीं होता। अपनी धारणाओं को हम अपने अनुभव के आधार पर बदलते हैं और यह एक लेखक की अस्थिरता और कन्फ़्यूज़न नहीं, उसकी ताक़त और लचीलापन है।

गंगा शरण सिंह- मुझ जैसे तमाम लोग आपसे इस कारण थोड़े ख़फ़ा रहते हैं कि आपने तसवीर के एक पहलू को तो बहुत सूक्ष्मता से देखा, जाना, समझा और कार्य किया किन्तु दूसरे पहलू को लगभग इग्नोर कर दिया। महिलाओं पर हुए अत्याचार और उत्पीड़न को आपने देखा किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत वैषम्य और उत्पीड़न को निरखने से कैसे आप चूक गईं? आपको जितना जाना है, उसे देखते हुए यह नहीं लगता कि आपसे ऐसा पक्षपात जान-बूझकर सम्भव है।
सुधा अरोड़ा- "तस्वीर के एक पहलू को देखा, जाना, समझा और दूसरे पहलू को लगभग इग्नोर किया।" यह स्टेटमेंट देने वाला पाठक भी है तो आख़िर एक पुरुष ही न! हर लेखक की अपनी प्राथमिकताएँ और अपनी सीमाएँ होती हैं। अपने सरोकार और अपनी प्रतिबद्धताएँ भी। हर लेखक प्रेमचंद नहीं होता। देश और समाज के वंचित तबके के प्रति प्रतिबद्धता के लिए आपमें एक बड़ा माद्दा होना चाहिए- तकलीफ़ को आत्मसात करते हुए, उससे अलग खड़े होकर उसका आकलन करने का, उसे शब्दों में पिरोने का। लेखन के लिए एक आँच से गुज़रना ज़रूरी है। जो रचनाकार किसी आँच में ख़ुद ही भस्म हो जाए, वह बस उतना ही लिख पाएगा, जितना मैं लिख पाई। अपनी सीमा को स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं।

एक सवाल आपसे पूछना चाहती हूँ- क्या आपने हिंदी साहित्य के एक बेहतरीन कथाकार निर्मल वर्मा से कभी शिकायत की कि उन्होंने इतनी ख़ूबसूरत मुलायम भाषा में एक पुरुष की रूमानियत, उसके अकेलेपन, उसके द्वंद्व की इतनी यादगार कहानियाँ रचीं लेकिन एक स्त्री की यातना, भावना और ज़िम्मेदारियों के बीच उसकी रस्साकशी, उसकी दमघोटू स्थितियों पर क्यों एक भी मर्मांतक कहानी नहीं लिख पाए? क्या प्रतिरोध के प्रमुख हस्ताक्षर, एक प्रगतिशील कवि मुक्तिबोध से कभी आपने सवाल किया कि देश दुनिया के सर्वहारा के प्रति घोर सन्नद्धता के बीच, अपने घर की स्त्री के वंचित होने को कभी रेखांकित क्यों नहीं किया? तो सारी अपेक्षाएँ एक महिला रचनाकार से ही क्यों? आख़िर क्यों वह अपना लेखन स्त्री की कसक और उसके आत्मसम्मान के मुद्दे पर केंद्रित नहीं कर सकती? अपनी दुनिया के एक बड़े प्रताड़ित वर्ग की बात एक स्त्री रचनाकार नहीं करेगी तो कौन करेगा? और क्यों मेरा सिर्फ़ वही लेखन आपका ध्यान ज़्यादा खींचता हैं, जिसे आप तवज्जोह नहीं देना चाहते। दूसरे मुद्दों पर जो लिखा, वह आपके ज़ेहन में दर्ज ही नहीं हो पाता? इसलिए, क्योंकि वह दंश देता है। दंश इसलिए देता है क्योंकि वह हमारे समाज की भयावह सच्चाई है, त्रासदी है।

मैं यह बहुत अच्छी तरह जानती हूँ कि मैंने अपनी कहानियों से जितने दोस्त कमाए हैं, उतने ही अपनी वैचारिकी से दुश्मन भी कमाए। कथादेश के स्तंभ 'औरत की दुनिया' में कई बार मैंने अपने प्रशंसक, मित्र रचनाकारों को अपने विरोधी खेमे में खड़ा होते देखा पर इसे मैं अपनी उपलब्धि मानती हूँ। कहानी हो या आलेख या स्तंभ, हमेशा वही लिखा, जो मैं लिखना चाहती थी, जो मैंने सौ फ़ीसदी ख़ुद अनुभव किया। अपने आसपास देखा। उससे बच निकलने का या उसे नज़रअंदाज़ करने का कोई सवाल ही नहीं था। एक बड़े वर्ग की नाराज़गी भी उस सच के सामने झेली जा सकती थी। राजेंद्र यादव से ही कितनी-कितनी बार झगड़ा मोल लिया। कुछ ऐसे समानधर्मा लेखक, जो मेरे लेखन के मुरीद थे, अचानक उन्होंने ऐसे मुँह फेरा, जैसे मुझे पहचानते ही न हों। एकाएक विरोधी खेमे में उन्हें खड़े पाया।

गंगाशरण सिंह- आपकी ऐसी प्रिय किताबें, जिनकी स्मृति आपको सदैव ऊर्जस्वित कर देती हो, लेखन के प्रति अनुरक्त कर जाती हो।
सुधा अरोड़ा- वैसे तो बहुत-से लेखक और कवि मेरे प्रिय हैं। बहुत-सी किताबें भी। लंबी सूची है लेकिन अगर सिर्फ़ एक किताब का नाम लेना हो तो सिमोन द बुवा की 'द सेकेंड सेक्स' मेरी बहुत प्रिय किताब रही, जिसने मुझे अपने को समझने का नज़रिया दिया। मेरे पास यह किताब 1965 से थी लेकिन मैंने इसे ठीक से पढ़ा सन् 2004 में, जब मेरी छोटी बिटिया ने मुझे यह किताब भेंट में दी। पढ़ने के बाद बहुत अफ़सोस हुआ कि मैंने इसे अब तक क्यों नहीं पढ़ा। पढ़ लेती तो अपने को समझना बहुत आसान हो जाता।

गंगाशरण सिंह- सुधा जी, ज़िंदगी के इस लंबे सफ़र में सबसे बड़ी चुनौतियाँ क्या रहीं? लेखन या जीवन? या दोनों?
सुधा अरोड़ा- जीवन हमेशा लेखन से बड़ी चुनौती होता है। जीवन अपना निज का, अपने आसपास का, अपने समाज का, अपने देश का। वहाँ से मिले दंश और विसंगतियाँ ही लेखन के लिए खाद-पानी होते हैं। हम इन्हें बदलना चाहते हैं। जब हम अपने जीवन में किन्हीं चुनौतियों का सामना करते हैं तो चाहते हैं कि हम अपने जैसे दूसरे लोगों से साझा करें और यह समझें कि इनसे कैसे निपटा जाए, बचा जाए। कई बार लेखन रचनाकार को भी रास्ता दिखाता है। लिखते हुए कई बार अपनी सही दिशा का भान होता है। समाज और देश के दंश कहीं ज़्यादा गहरे होते हैं। उन्हें हम बदलना चाहते हैं। ये दंश न हों तो लेखन सिर्फ़ कलावादी नक्काशी बनकर रह जाए। कई रचनाकारों के लिए होती भी है पर यह एक अलग बहस का मुद्दा है।

गंगाशरण सिंह- आधी सदी से भी लंबी इस लेखकीय यात्रा में कौन-से पड़ाव संतुष्टि देते हैं?
सुधा अरोड़ा- सन् 1975 का पहला पड़ाव: जब 'सारिका' के एक विशेषांक में 'दमनचक्र' कहानी से मेरी एक पहचान बनी। सन् 1994 में लेखन का दूसरा पड़ाव: जब मैंने 13 साल की चुप्पी के बाद दोबारा लिखना शुरू किया। 1981 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित कहानी 'बोलो, भ्रष्टाचार की जय' के बाद 1994 में 'हंस' में प्रकाशित हुई दो पन्नों वाली कहानी 'रहोगी तुम वही' पर मुझे यह देखकर बड़ी राहत का अहसास हुआ कि तेरह साल की चुप्पी के बावजूद पाठक मुझे भूले नहीं थे। तीसरा पड़ाव: जब मैंने 2007 में एक लंबा आलेख लिखा– 'जिस हिंसा के निशान नहीं दीखते' यानी चुप्पी की हिंसा। मेरी सबसे चर्चित किताब 'एक औरत की नोटबुक' किताब की नींव में यही आलेख है। चौथे पड़ाव के इंतज़ार में हूँ। पाँच-सात सालों से लेखन में अवरोध चल रहा है। यह ख़ुद अपने को बहुत नागवार गुज़र रहा है।

गंगाशरण सिंह- आपकी कहानियों के पाठक अलग-अलग रचनाओं के कारण आपको याद करते हैं। कोई 'कांसे का गिलास', कोई 'उधड़ा हुआ स्वेटर' तो कोई 'अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी' के लिए आपको जीवन भर याद करने को तैयार है। आप अपनी किस कहानी को इस रूप में स्मरण करती हैं, जिसे लिखकर मन को गहन संतुष्टि मिल सकी हो?
सुधा अरोड़ा- 'अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी' एक सिटिंग में ही लिखी गई थी पर 'उधड़ा हुआ स्वेटर' को लिखने के बाद सचमुच बहुत संतुष्टि मिली क्योंकि इस कहानी पर मैंने बहुत मेहनत की थी। अधिकांश पाठकों को लगा कि यह मेरी अपनी कहानी है पर ऐसा नहीं था।

गंगाशरण सिंह- सबसे ज़्यादा सराहना किस रचना पर मिली और सबसे ज़्यादा आलोचना किस रचना के लिए?
सुधा अरोड़ा- सबसे ज़्यादा या कम कहना ग़लत होगा। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में कहानी के साथ लेखक का पता छपा करता था, इसलिए 1977 में वहाँ से प्रकाशित कहानी 'महानगर की मैथिली' पर इतने पत्र आए कि एक फ़ाइल में नहीं अँट पाए थे। लेकिन वैश्विक स्तर पर सराहना 1994 में हंस में छपी 'रहोगी तुम वही' कहानी को मिली। कई विदेशी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ, नुक्कड़ नाटक हुए, अभिनेता सईद जाफ़री ने लंदन के नेहरू सेंटर में इसका अभिनय पाठ किया। पाकिस्तान के 'हम' टी वी चैनल ने चार एपीसोड में इस पर धारावाहिक बनाया- (बिना मुझसे अनुमति लिए)
पर सबसे संवेदनशील, भीगी, मुलायम-सी प्रतिक्रियाएँ तो 'उधड़ा हुआ स्वेटर' पर ही मिलीं, इसमें कोई संदेह नहीं।

सबसे ज़्यादा भर्त्सना 'कथादेश' के स्तंभ 'औरत की दुनिया' की एक किस्त के समय हुई– जुलाई 2007 में एक प्रख्यात कवि की पत्नी के खुलासे पर और सितंबर 2007 में उस पर प्रतिक्रियाएँ। एक औरत के पास खोने के लिए सिर्फ़ ज़ंजीरें हैं। सबसे ज़्यादा गालियाँ ‘पाखी’ में छपे राजेंद्र यादव पर लिखे संस्मरण के बाद मिलीं। राजेंद्र यादव जी तो छः महीने बाद सामान्य हो गए। मुझे और मन्नू दी को खाने पर घर बुलाया किन्तु उनकी भक्त मंडली के कुछ सदस्य अब तक नाराज़ हैं।

गंगाशरण सिंह- कई वर्ष पहले मेरे युवा लेखक मित्र नज़्म सुभाष ने यह कहते हुए लगभग मेरा हाथ पकड़कर ‘उधड़ा हुआ स्वेटर’ तक मुझे पहुँचाया था कि "यह सुधा जी की सर्वश्रेष्ठ कहानी है और मैं इस एक कहानी के लिए उन्हें याद रख सकता हूँ।" ( यहाँ शब्द भिन्न हो सकते हैं, किन्तु उनके कहने का भाव यही था।) कहानी पढ़कर मैं बहुत देर तक स्तब्ध बैठा रहा! इतनी सूक्ष्मता से कहानी के रेशे-रेशे को बुनना, कतई आसान कार्य नहीं है। सबसे पहले पाठक होने के कारण इस कहानी के लिए आपसे ख़ुश हुआ, फिर आप पर गर्व हुआ। फिर एक और बात सहसा कौंधी! लेखन से जुड़े होने के कारण जानता हूँ कि ऐसी कहानी लिखने के लिए कितने श्रम, धैर्य और संतुलन के साथ ही मनोवेगों पर नियंत्रण की ज़रूरत होती है। आपने कैसे इन तमाम बिंदुओं को साधा?
सुधा अरोड़ा- कुछ कहानियाँ अपने को लिखवा ले जाती हैं और कुछ को लिखने के लिये बाक़ायदा उन पर काम करना पड़ता है। लिखने के दौरान कभी-कभी दिमाग़ पर बहुत थकान तारी हो जाती है। लगता है कि लिखे जाने की बेइंतहा बेचैनी के बीच सिरे जुड़ ही नहीं पा रहे और घटनाएँ अधर में बेसहारा झूल रही हैं। बेहतर हो कि इस रचना को एक दुःस्वप्न मानकर स्थगित कर दिया जाय बजाय इसके कि रचना को एक मुकाम तक पहुँचाने में हम ख़ुद को किसी यातना शिविर में बनाए रखें और उससे अपने को बचाए रखने की कोशिश भी करते रहें।

यह कहानी 'उधड़ा हुआ स्वेटर' लिखने में पूरे सात साल लग गये। आख़िर कौन-सी मजबूरी होती है कि कोई वाक़या आपके भीतर धँस जाता है और चैन से बैठने नहीं देता! जितनी आसानी से यह कहानी मेरे भीतर दाख़िल हुई, उतनी ही मुश्किलों का सामना इसको भीतर से बाहर लाने में करना पड़ा। बाहर के पात्र बिलकुल अलग थे और उन्हीं को जब कथा के भीतर पिरोया गया तो उनका चरित्र और ख़ाका इतना बदल गया कि वास्तविक पात्रों का तो बस आवरण भर रह गया। इस कहानी की रचना-प्रक्रिया पर एक लंबा आलेख भी लिखा मैंने।

मेरी किसी अन्य कहानी पर प्रतिक्रियाओं की इस तरह बारिश नहीं हुई, जो मुझे भीतर तक भिगो दे, जितनी इस कहानी पर। लेकिन आज भी इसे पढ़ना मुझे बहुत उदास करता है। प्रेम की बीहड़ अनुपस्थिति में प्रेम की भरपूर उपस्थिति की कहानी…! पाठकों ने उस कहानी की शिवा को मुझ पर यूँ ही आरोपित नहीं किया। मैंने ख़ुद कहानी के उस चरित्र को जिया। जो मैं नहीं थी, पर होना चाहती थी...। जो वह बूढ़ा नायक भी नहीं था लेकिन उसे वैसा ही देखना चाहती थी मैं....। जिस कहानी का अपने निजी जीवन से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था, उसी कहानी को सबने मेरी ज़िंदगी के सबसे क़रीब पाया। यह मेरे लिये सबसे बड़ा कॉम्प्लिमेंट था। इसलिये जब कोई पूछने के स्वर में कहता है– ऐसा कोई पात्र आपके जीवन में ज़रूर आया होगा न! तो जवाब देने की जगह एक टीस-सी दिल में उठती है कि काश, ऐसा होता!

गंगाशरण सिंह- मन्नू भंडारी जी को स्मरण किए बगैर आपसे यह संवाद अधूरा रह जाएगा। उनसे आपके बेहद घनिष्ठ संबंध रहे। उस दौर में जब 'हंस' में छपने के लालायित लेखकों (महिला, पुरुष दोनों) ने सीधे-सीधे राजेन्द्र यादव का पक्ष चुन लिया क्योंकि मन्नू भंडारी से उनका कोई स्वार्थ पूरा नहीं हो सकता था, आप इतनी बेबाकी से, इतने साहस से कैसे मन्नू जी के साथ खड़ी रह सकीं? कभी यह भय मन में नहीं आया कि राजेन्द्र यादव आपकी रचनाओं को 'हंस' में स्वीकृत करना बंद कर देंगे? मैं यह प्रश्न इसलिए भी आपसे पूछ रहा हूँ क्योंकि मन्नू भंडारी मेरी बहुत प्रिय लेखक रहीं और उन बुरे दिनों में आपका उनके साथ खड़े होना, मानवीय एवं नैतिक दृष्टि से मेरे लिए बड़ा सुकूनदेह रहा।
सुधा अरोड़ा- मन्नू जी 1994 में जब मेरे घर आकर रही थीं तब पहली बार उन्हीं की ज़बानी मैंने उनके जीवन की दास्तान सुनी। मैं तब हेल्प से जुड़ी थी। उनकी मेरे सामने अपने-आप को खोलने की शायद यह भी एक वजह रही हो। उनके जाने के बाद मुझे लगा, मैं तमाम आपदाग्रस्त प्रताड़ित महिलाओं की ज़िंदगी से वाकिफ़ हो रही हूँ और यहाँ मेरे सामने एक ऐसी कद्दावर लेखिका अपनी समस्याओं से अकेले जूझ रही हैं। ऐसे में मुझे लगा कि उनका साथ देना मेरा पहला फ़र्ज़ होना चाहिए। उन्होंने कभी अपने को एक विक्टिम की तरह नहीं देखा। अपनी ग़लतियों को, अपने-आप को, अपनी समस्याओं की वे ख़ुद बहुत अच्छी तरह छानबीन करती थीं, उन्हें जाँचती-परखती थीं और अपने लेखन के ज़रिये उन्हें मखौल में उड़ाने की कोशिश भी ख़ूब करती थीं। उनकी क़लम ने उन्हें बचाए भी रखा पर उनकी संवेदना पर बार-बार प्रहार होते रहे। बाद में जब मुझे अपनी ज़िंदगी में आघात मिले तो मेरी बेटियों के साथ-साथ वह भी एक सुरक्षा कवच की तरह मेरे लिए हमेशा मौजूद रहीं, जिसकी मुझे उस वक्त बहुत ज़रूरत थी।

लिखना और छपना कभी भी अपनी ज़िंदगी और उसूलों से बड़ा नहीं लगा इसलिए छपने को लेकर कोई ऐसी ललक भी नहीं रही। वैसे राजेंद्र यादव इस मामले में बेहद उदार संपादक थे। अपने तमाम कटु आलोचकों को भी पर्याप्त जगह देते थे पर आख़िर वह भी तो इंसान ही थे, देवता नहीं। बातें चुभती भी थीं उन्हें। 1994 में मेरी पहली कहानी छापी। लेकिन उसके बाद 'हंस' में मेरी ज़्यादा कहानियाँ नहीं छपीं। उन्होंने माँगी नहीं और मैंने भेजी नहीं। उनसे लगातार मेरी मुठभेड़ होती रही।

गंगा शरण सिंह-:आपने अपने लेखन और सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत रहकर बहुत यश और पाठकों का प्रेम अर्जित किया। मैंने देखा है कि नई पीढ़ी के अनेक रचनाकार आपको एक आइकॉन की तरह देखते हैं। क्या बचा रह गया है, जिसके लिए अवचेतन बार-बार आपको संकेत देता हो कि “चलो, अब यह भी कर डालो।”
सुधा अरोड़ा- आप कह रहे हैं कि नई पीढ़ी के रचनाकार मुझे आइकॉन की तरह देखते हैं तो मेरे लिए एक अचरज का विषय है। अगर ऐसा है तो आश्वस्तिकर है। समय बहुत आगे बढ़ चुका है। नई-नई समस्याओं को अलग तरह से समझा और सुलझाया जा रहा है। हमारी पीढ़ी के हथियार पुराने और भोथरे हो चुके हैं। अब नई धार से नए आकलन की ज़रूरत है और नई पीढ़ी के नये रचनाकार इसे करने में समर्थ हैं। यह और बड़ी आश्वस्ति है।

'चलो, अब यह भी कर डालो' की तरह मैंने आज तक लेखन नहीं किया वर्ना मेरे खाते में भी विपुल लेखन होता। तराजू में तोलकर आप कागज़ नहीं रँगते। 'कर डालने' वाला लेखन तो देर-सबेर घूरे के ढेर पर ही दिखाई देगा। मैंने स्वेटर का डिजाइन बुनने या फ्रेम लगाकर कशीदाकारी करने की तरह कहानियाँ नहीं लिखीं। आप सिर्फ़ सराहना के लिए नहीं लिखते, अपना सामाजिक दायित्व निभाने के लिए, अपने को मुक्त करने के लिए लिखते हैं। मैं तो सिर्फ़ उतना ही लिख पाई, जिसने अपने भीतर समेट कर नहीं रख सकी, जिसे लिखना मेरे अपने लिए भी एक चिकित्सा, एक थेरेपी थी।

अब भी बहुत कुछ भीतर छटपटा रहा है, जो मुझ पर एक वज़न की तरह है। चाहूँगी कि उसे पूरा कर लूँ और अपने बोझ से मुक्त हो जाऊँ। किसी और को उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर यह सब लिख पाई तो सबसे बड़ी राहत ख़ुद मुझे मिलेगी और वह राहत पाना मैं निश्चित रूप से चाहती हूँ।

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4 Total Review

शशि श्रीवास्तव

16 July 2024

मेरी प्रिय लेखिका का रोचक साक्षात्कार इस अंक की एक बड़ी उपलब्धि है।संपादक को बहुत बहुत बधाई ब साधु बाद।

S

Sunita Ghosh

13 July 2024

सुधा अरोड़ा जी हिन्दी साहित्य की अप्रतिम रचनाकार हैं. जितनी बेबाकी से उन्होने प्रश्नों के जवाब दिए, जितना विस्तार से चर्चा की वह विरल है. एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार.

नज़्म सुभाष

09 July 2024

बेहद महत्वपूर्ण साक्षात्कार उधड़ा हुआ स्वेटर मेरी प्रिय कहानी है

R

Ramprasad

09 July 2024

एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार,,

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रचनाकार परिचय

गंगा शरण सिंह

ईमेल : gangasharansingh1974@gmail.com

निवास : ठाणे (महाराष्ट्र)

जन्मतिथि- 18 अप्रैल, 1974
जन्मस्थान- उत्तर प्रदेश
शिक्षा- एम० ए० (प्राचीन इतिहास)
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन
लेखन विधाएँ- समीक्षा एवं आलेख
प्रकाशन- कहानी संग्रह 'नैवेद्य' (सम्पादित) हिंदी की वरिष्ठ कथाकार सूर्यबाला की 9 चुनिंदा कहानियों का संचयन।
पता- फ्लैट संख्या 101, ए- विंग, ठाकरे कॉम्प्लेक्स, जावसई, अम्बरनाथ (पश्चिम) ठाणे (महाराष्ट्र)- 421502
मोबाइल- 9833885952