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जब जागो, तब सवेरा- प्रियंका गुप्ता

जब जागो, तब सवेरा- प्रियंका गुप्ता

शिक्षा का हर व्यक्ति के जीवन में कितना महत्व है इस को कहानी के माध्यम से बड़ी ही सुंदरता से रचा है सुप्रसिद्ध कहानीकार एवं बाल साहिरीकार प्रियंका गुप्ता। कहानी बेहद दिलचस्प है। एक लड़की, माँ बाप की पिछड़ी सोच के चलते शिक्षा से वंचित कर दिए जाने के पश्चात भी किस प्रकार पढ़ने के रास्ते निकालती है" यह जाने के लिए आप भी पढिए 'जब जागो, तब सवेरा'। 

आज फिर मुनिया ने झटपट टिफ़िन लगाया और उठा कर तेज़ी से बाहर दौड़ पड़ी, “अरी…लड्डू भी रख लेती भाई के लिए," अम्मा पीछे से चिल्लाई पर मुनिया तो ये जा, वो जा...। अम्मा बड़बड़ाती हुई काम में जुट गई, “एक भाई को खाना पहुँचाने का ही काम है, जिसमें छोरी झटपट दौड़े है...। बाकी काम करने को कहो तो कैसा नाक-भौं सिकोड़ती है...।"

मुनिया भला क्यूँ न जाती अपने छोटे भाई मनुवा का खाने का डिब्बा लेकर, यूँ चटपट? आखिर पूरे दिन में वही तो एक समय होता है जब वह स्कूल में कदम रख पाती थी; वरना पूरे दिन तो वही अम्मा के साथ रसोई का काम, झाड़ु-बुहारु करना या फिर कभी-कभार खेत पर जाकर बापू की मदद करना।

मुनिया को यह सब बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। माँ-बापू के काम में थोड़ा-बहुत हाथ बँटाने तक तो ठीक था, पर पूरे दिन सिर्फ़ यही करना उसे नहीं भाता था। उसे तो पढ़ना अच्छा लगता था। कितनी सुन्दर-सुन्दर तस्वीरें होती हैं किताबों में और कितनी अच्छी कहानियाँ...। साथ में ढेर सारी ज्ञान की बातें भी...। मुनिया का तो मन ललचा उठता है मनुवा की किताबें देखकर। जी करता है तुरन्त उनको लेकर पढ़ने बैठ जाए। पर जब कभी वह ऐसा करना चाहती है, या तो मनुवा उसकी चोटी खींच उससे किताब छीनकर भाग जाता है या फिर अम्मा ही चिल्लाती है,"जब देखो तब भाई की किताब पर नज़र गड़ाए रहेगी। ये नहीं कि घर का कामकाज़ करे...। अरे भाई तो लड़का है, ये पढ़ाई-लिखाई तो लड़कों को ही शोभा देती है...तेरी इज्ज़त तो कामकाज़ की निपुणता से होगी," और फिर अम्मा उसे किसी काम में लगा देती हैं। ऐसे में मुनिया मन मसोस कर रह जाती है। एक बार अम्मा उसे मौका तो दें, फिर वह दिखा देगी कि लड़कियाँ भी पढ़-लिख कर माँ-बाप की इज्ज़त बढ़ा सकती हैं।

यही कारण था कि मुनिया खाने की छुट्टी से काफ़ी पहले ही मनुवा के स्कूल पहुँच जाती है और चुपके से खिड़की से झाँककर वो सब सीखने-याद करने की कोशिश करती है, जो मास्टर जी कक्षा में पढ़ा रहे होते हैं। रात में जब सब सो जाते हैं तो वह चुपके से मनुवा की किताबें लेकर बाहर चौबारे पर चली जाती है। वहाँ लालटेन की धीमी रोशनी में भी वह सब कुछ अच्छे से पढ़-समझ लेती है।

आज भी वह कक्षा की खिड़की से झाँक ही रही थी कि तभी मास्टर जी ने उसे देख लिया। इससे पहले कि वह भाग पाती, मास्टर जी ने उसे पकड़ लिया।

"माफ़ करिएगा मास्टर जी, मैं तो बस यूँ ही...। आप गणित पढ़ा रहे थे न, मुझे गणित बहुत अच्छा लगता है, इसी लिए रुक गई। आप गुस्सा मत करिएगा, मैं बस मनुवा को खाने का डिब्बा देकर जा रही हूँ।" मुनिया डर के मारे रुआँसी-सी हो गई थी।

मास्टर जी दो पल उसको देखते रहे, फिर हाथ पकड़कर कक्षा के अन्दर ले गए। मुनिया थर-थर काँपने लगी। अब ज़रूर मास्साब उसे छड़ी से मारेंगे और मुर्गा, नहीं-नहीं, मुर्गी बना देंगे। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मास्टर साहब ने तो बड़े प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा, "कभी स्कूल गई हो?"

"हाँ-हाँ मास्साब, तीसरी कक्षा तक पढ़ा है मैने..." मुनिया ने बड़े उत्साह से कहा, पर फिर तुरन्त ही उसकी आवाज़ बुझ गई, "पर चौथी में अम्मा-बापू ने दाखिला नहीं दिलवाया। माँ-बापू कहते हैं कि चिठ्ठी लिखने-पढ़ने लायक मैं सीख गई, अब आगे पढ़कर क्या करूँगी...? लड़की हूँ, इसी लिए अब मुझे सिर्फ़ घर-गृहस्थी के काम सीखने चाहिए। पढ़ना तो लड़कों का काम है।"

मास्टर जी ने आगे उससे कुछ और नहीं पूछा। मुनिया ने चुपचाप मनुवा को खाने का डिब्बा दिया और उदास कदमों से घर की ओर चल पड़ी। आज मास्टर जी ने उसे चोरी-चोरी खिड़की से झाँकते देख लिया था, सो अब तो कल से वह आसरा भी बन्द...।

दोपहर को घर पहुँचते ही मनुवा ने खूब नमक-मिर्च लगाकर अम्मा से मुनिया की चुगली कर दी। फलस्वरूप अम्मा ने दो-तीन धौल जमा कर मुनिया को खूब खरी-खोटी सुनाई और दूसरे दिन से ही मनुवा का टिफ़िन स्कूल पहुँचाने की सख़्त मनाही कर दी।

शाम को अचानक मनुवा के मास्टर साहब मुनिया के घर आ गए। वहाँ उन्होंने मुनिया की पढ़ाई-लिखाई में रुचि देखते हुए उसे भी मनुवा के साथ स्कूल में दाखिला दिलाने की बात कही, पर अम्मा-बापू ने हाथ जोड़कर साफ़ इंकार कर दिया। मास्टर साहब को देखकर मुनिया के मन में आशा की जो एक किरण जागी थी, वह भी पूरी तौर से बुझ गई। पर मुनिया ने तब भी हिम्मत नहीं हारी। दिन में ज़रा देर के लिए स्कूल जाकर थोड़ा-बहुत ही तो सीख पाती थी, अब नहीं जा पा रही तो क्या हुआ? घर पर रात में तो वह खुद पढ़ ही सकती है। सो रात में लालटेन की धीमी रोशनी में चौबारे पर मुनिया की पढ़ाई लगातार चलती रही।

वक़्त बीतता गया। इधर मनुवा स्कूल में परीक्षा देता, तो मुनिया रात में खुद ही परीक्षा देती और फिर खुद ही परीक्षक बन अपनी कमियाँ जाँचती। सो भले ही मनुवा की तरह उसे परीक्षाफल नहीं मिलता था, पर मनुवा से बेहतर अंक उसके आते थे, यह बात वह मन-ही-मन जानती थी।

इधर कई दिनों से अम्मा की तबियत कुछ ठीक नहीं चल रही थी। गाँव के डॉक्टर ने शहर जाकर बड़े डॉक्टर को दिखाने की सलाह दी तो बापू अम्मा को लेकर शहर चले गए। लौटे तो कुछ उदास थे। मुनिया ने बहुत पूछा तो बापू ने बताया कि अम्मा के पेट में पथरी थी, ऑपरेशन कराना पड़ेगा। डॉक्टर ने कुल मिलाकर पन्द्रह-बीस हज़ार का खर्चा बताया था। अबकी फसल तो बहुत अच्छी हुई थी, पर कटाई में वक़्त था। डॉक्टर ने इतने दिन इन्तज़ार करने से साफ़ मना कर दिया था। तुरन्त ऑपरेशन कराने के लिए पैसों की ज़रूरत थी। बापू इसी लिए चिन्तित थे।

बहुत सोच विचार के बाद आखिरकार उन्होंने गाँव के दुकानदार से मदद लेने की सोची। वो दुकानदार न केवल गाँव वालों को उधार राशन-अनाज़ आदि देता था, बल्कि वक़्त पड़ने पर रुपया भी उधार देता था।

दुकानदार से बात करके बापू ने तय किया कि जब तक कटाई नहीं हो जाती, वे खेत दुकानदार के पास गिरवी रख देंगे और फसल बेच कर जो पैसा आएगा, उससे वे खेत छुड़वा लेंगे।

मुनिया के बापू की गाँव में अच्छी साख़ थी। सो दुकानदार शाम को खुद ही खेत गिरवी रखने के कागज़ात लेकर घर आ गया। मुनिया दुकानदार काका के लिए नाश्ता-पानी लेकर गई तो वहीं बापू के पास बैठ गई। काका ने कागज़ात निकाल कर बापू के सामने रख दिए। इससे पहले कि बापू उस पर अंगूठा लगाते, मुनिया ने कागज़ उठा लिए। पढ़कर मुनिया दंग रह गई। दुकानदार काका ने उन कागज़ों पर बीस हज़ार के बदले खेत गिरवी रखने की नहीं, बल्कि बेचने की बात लिखी थी।

दुकानदार काका को तुरन्त वहाँ से विदा करके बापू सिर पकड़कर बैठ गए। मुनिया से बापू की चिन्ता देखी नहीं जा रही थी। सो डरते-डरते मुनिया ने उन्हें बताया कि उसने स्कूल की पुस्तक में पढ़ा था कि अब सरकार बैंकों के माध्यम से किसानों की अलग-अलग ज़रूरतों के लिए बहुत कम ब्याज़ पर कर्ज़ा देती है। मुनिया की जानकारी देखकर बापू दंग थे।

दूसरे दिन ही बापू के साथ बैंक जाकर मुनिया ने सारी बातें पता करके, जल्दी-से-जल्दी बापू को कर्ज़ा मिल सके, ऐसी व्यवस्था करा दी।

घर लौटते समय बापू ने मुनिया को दुलार करते हुए कहा, "बिटिया, कल सुबह जल्दी तैयार हो जाना...आगे की कक्षा में दाखिला लेने के लिए तुम्हें स्कूल जो चलना है।"

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रचनाकार परिचय

प्रियंका गुप्ता

ईमेल : priyanka.gupta.knpr@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्म- 31 अक्टूबर, 1978 (कानपुर)
शिक्षा- बी.काम
लेखन विधा- बचपन से लेखन आरम्भ करने के कारण मूलतः बालकथा बड़ी संख्या में लिखी-छपी, परन्तु बड़ी कहानियाँ लिखने के साथ साथ हाइकु, तांका, सेदोका, चोका, माहिया, कविता और ग़ज़लें आदि भी लिखी और प्रकाशित
प्रकाशन-
कृतियाँ -
1- नयन देश की राजकुमारी (बालकथा संग्रह)
2- सिर्फ़ एक गुलाब (बालकथा संग्रह)
3- फुलझड़ियाँ (बालकथा संग्रह)
4- नानी की कहानियाँ (लोककथा संग्रह)
5- ज़िन्दगी बाकी है (बड़ी कहानियों का एकल संग्रह)
6- बुरी लड़की (कहानी संग्रह)
इसके अलावा देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
पुरस्कार/ सम्मान-
1- ‘नयन देश की राजकुमारी’ उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा "सूर अनुशंसा" पुरस्कार प्राप्त
2- "सिर्फ़ एक गुलाब" प्रियम्वदा दुबे स्मृति पुरस्कार-राजस्थान
3- कादम्बिनी साहित्य महोत्सव-94 में कहानी "घर" के लिए तत्कालीन राज्यपाल(उ.प्र.) श्री मोतीलाल वोहरा द्वारा अनुशंसा पुरस्कार प्राप्त
ब्लॉग- www.priyankakedastavez.blogspot.in
मोबाइल- 9919025046
संपर्क- ‘प्रेमांगन’
एम.आई.जी-292, कैलाश विहार,
आवास विकास योजना संख्या-एक,
कल्याणपुर, कानपुर-208017(उत्तर प्रदेश)