Ira
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। दिसंबर 2024 के अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

जनवादी अनन्य नैष्ठिक कलमकार 'कमल किशोर श्रमिक' से- अरुण तिवारी

जनवादी अनन्य नैष्ठिक कलमकार 'कमल किशोर श्रमिक' से- अरुण तिवारी

आमतौर पर जनवादी लघु पत्रिकायें अधिक समय तक नहीं टिक पातीं,क्योंकि हर समय वह अर्थ संकट से गुजरती हैं ।सरकारी पत्रिकाओं /पोषित पत्रिकाओं में छपने वाले लेखकों की भीड़ लगी रहती है ।अपने मूल्यों पर ही लिखकर इन पत्रिकाओं में भी कई बार लिख चुका हूं ,शायद पैसा पाने के लालच में या छपास के क्रम में ।लेकिन यह लघु पत्रिकाएं जो बहुत थोड़ी संख्या में छपती हैं पोषित पत्रिकाओं के बरक्स अधिक ईमानदार होती हैं।

हितेन सहितं साहित्यं,की सार्थकता, नितान्त,लोकपक्षधरता को समर्पित लेखनी के व्रत जीती है। आधुनिक विश्व में, औद्योगिक विकास और आर्थिक वैषम्य के लिये,पूर्व के मैनचेस्टर के श्रम और श्रमिकों के दस्तावेज,एक अमिट इतिहास रहे हैं। राजनीति ने ,मंचीय और एकेडमिक कथित साहित्यकारों, प्रकाशकों, आलोचकों, समीक्षकों, के कुण्ठित, अवसरवादी, लार टपकाऊ,अफसरानों ने,शील जी,मुक्तिबोध जी,कमल किशोर श्रमिक जी,रामकुमार कृषक जी,जैसे सच्चे जनकवियों को साहित्य के केंद्र में रखने,मानने से बिल्कुल किनारा करने का प्रयास किया।
कानपुर की साहित्यिक परम्परा का वैशिष्ट्य संघर्षशील लोकपक्षधरता ही है,इसके अतिरिक्त तो जो भी सृजन रहा,वह लालच की सीमा में भी कलावादी कहा जा सकता है। कानपुर के इस संघर्षशील लोकपक्षधर चरित्र को, यश ,धन,की लिप्सा वाले अवसरवादी - कवियों, लेखकों, साहित्यकारों,पत्रकारों, प्रकाशकों ने,समयदर्पण पर, धूल फेंक पर धुंधलाया है।पूरे हिन्दी जनवादी परम्परा में, कथनी करनी के साम्य,और भुक्त व सृजन के ऐक्य को जीते,हुये,अपने प्रदेय से वंचित रहने वाले, शील जी व श्रमिकजी,जैसे विरले ही हैं,और ऐसा नहीं है कि कानपुर में साहित्यिक संस्थाओं का टोटा है, या पत्र-पत्रिका के प्रकाशन का अभाव है, पर ईश्वर जाने उनके आये दिन,गाहे-बजाहे,इतने इफरात में होने वाले,कार्यक्रमों में, जाने कौन ऐरा गैरा बगैरा ,वही आपसी महान कलाकारों को माला,शाला,की ताबड़तोड़,जुम्बिश के चर्राये शौक से,उन्हें सिर्फ सुपात्रों को इग्नोर करने के सिवा कौन सी तुष्टि मिलती है,
मंच पर सिर्फ और सिर्फ परफोर्मेंस की जय है,पत्रकारिता में अपने वर्चस्व की स्थापना की विजय चाहिए।
आइये जीते हैं एक साक्षात्कार कनपुरिया-कामरेड,कलमकार,कमल किशोर श्रमिक जी के मेरे साथ---

अरुण तिवारी- आप का जिया हुआ और जीवन के लिए आवश्यक ही उपजीव्य रहा है, तो आप अपने प्रारंभिक जीवन का संघर्ष जिसने आपके साहित्यकार को गढ़ा- पर प्रकाश डालें ।
कमल किशोर श्रमिक- बचपन का पहला चरण लगभग 10 साल गांव में बीता। शहर में आए। पिता गवर्नमेंट ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में एक क्लर्क के रूप में कार्यरत थे और मुझे बढ़ाना चाहते थे ।मैं पढ़ने में मैथ छोड़कर बाकी सब्जेक्ट में ठीक-ठाक था 13 वर्ष की आयु में मैं 8th क्लास में पहुंच गया था। उसी समय पिताजी को पैरालाइसिस का अटैक हो गया ।उनके दोस्तों ने सलाह दी कि तुम्हारी कच्ची गृहस्ती है, तुम्हें अपने लड़के को ट्रेनीज के रूप में सरकारी नौकरी में लगा देना चाहिए ।पिता मुझे पढ़ाना चाहते थे लेकिन वह भी कहीं मजबूर थे ।उन्होंने मुझसे कहा बेटे तुम्हारे पांच भाई और हैं एक बहन है, उनके लिए तुम्हें त्याग करना होगा ।पढ़ाई छोड़ कर नौकरी ज्वाइन कर ली ।इस बात को सुनकर मैं खुश हुआ था। बाल सुलभ ढंग से सोच रहा था -चलो पढ़ने लिखने से छुटकारा मिला। थोड़ी बहुत दिक्कतों के बाद ट्रेनीज के रुप में ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में काम करने लगा ।उस जमाने में 1950 के दौरान कानपुर की तमाम फैक्ट्रियों के ऊपर गवर्नमेंट का इंप्लाइज यूनियन का प्रभाव था ,जिसके ऑल इंडिया जनरल सेक्रेट्री एसएम बनर्जी सत्येन्द्र मोहन बनर्जी) थे ।वहाँ 3 वर्ष की ट्रेनिंग के दौरान, बीच में ही यूनियन का सक्रिय सदस्य बन गया और कह सकता हूं कि मजदूर यूनियन मेरी वर्गीय पक्षधरक की पहली पाठशाला थी ।कविता तो मैंने बचपन से ही तुकबंदी करना सीख लिया था। अब मैं मजदूरों की जनरल मीटिँग में अपनी स्वरचित रचनाएं पढ़ा करता था और मजदूरों की बड़ी भीड़, तालियां बजाकर मुझे प्रोत्साहित करती रहती थी। यूनियन में काम करने को एक लंबा इतिहास है। लगभग 16 वर्षों का ।1964 में मुझे झूठे चार्ज लगाकर जनरल मैनेजर ने फैक्ट्री से निकाल दिया। इस दौरान पिताजी कुछ स्वस्थ हुए। इसी बीच मजदूर आंदोलन के प्रतिनिधित्व के साथ-साथ हाईस्कूल और इंटर परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली थी। मैं नौकरी से बाहर हो गया -चाहता तो कोर्ट के थ्रू वापस जा सकता था लेकिन नहीं गया, क्योंकि इस बीच मेरी चेतना, मेरी जनवादी समझ, वर्गीय पक्षधरता मेरे ऊपर दबाव बना रही थी,कि मैं दुनिया के सामाजिक सरोकारों से जुड़कर और व्यापक आयामों को स्पर्श करूं-जिनके द्वारा मजदूर वर्ग को मुक्ति मिल सके ।मैं उन लोगों की तरह सोचने वालों में था ,जो इस तथाकथित आजादी को आजादी नहीं मानते थे और समाजवाद की स्थापना मेरे जीवन का लक्ष्य बन चुका था। उस दौरान मैं भटकता रहा। घर इतना समृद्ध नहीं था कि घर से मैं अपनी आवश्यकताओं के लिए धन प्राप्त करता ।लिहाजा मेरे सामने दोहरे संघर्ष थे ।अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ करना (आंदोलन से लेकर लेखन तक )और उसके लिए जिंदा रहना। मैं पूर्ण रुप से मंच पर पढ़ी जाने वाली कविताओं के पारिश्रमिक पर निर्भर हो गया था, लेकिन यह व्यवस्था भी अधिक दिनों तक नहीं चली। लेकिन मुझे महसूस होता था कि मुझे कुछ करना चाहिए। किसी आंदोलनकारी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। मैं एक अति वामपंथी संगठन से जुड़ कर किसानों के बीच में काम करने लगा। शहरों में जब कोई मजदूर वर्ग का बड़ा आंदोलन होता मैं उसमें शामिल हो जाता ।इस बीच मैंने पत्रकारिता भी की । कुल मिलाकर यह मेरे संघर्ष और मानसिक अशांति के दिन थे और जिन दोहरे संघर्षों को मैंने 20 वर्ष की आयु में शुरू किया था वह आज भी जारी हैं।

अरुण तिवारी- आपके शुरुआती साहित्य सृजन के दौर में,भुक्त जीवन संघर्ष के अतिरिक्त, अन्य किन देशी-विदेशी, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय साहित्यकारों का प्रभाव रहा ?
कमल किशोर श्रमिक- जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं कि मजदूर संगठन मेरी वर्गीय पक्षधरता की पहली पाठशाला थी।मैंने 13 वर्ष की आयु में सबसे पहले कुशवाहा कांत, शरत् चन्द्र को पढ़ा। उनसे प्रभावित हुआ ।मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली। मैंने प्रेमचंद को पढ़ा, यशपाल को पढ़ा ,राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव आदि उनके समकालीन सभी लेखकों को जो मुझे लाइब्रेरी से प्राप्त हो सके पढ़ता रहा ।अंत में जब मुझे मार्क्स और लेनिन की पुस्तकें अनूदित पढ़ने का अवसर मिला-तो मुझे पहली बार लगा कि प्रकाश पुंज का सूर्य तो यही है, जिसमें से तमाम लेखक रोशनी प्राप्त कर रहे हैं ।उसके बाद मेरी रुचि देसी विदेशी लेखकों में बहुत रही लेकिन किताबों का अभाव हमेशा बना रहा। आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं मनचाही पुस्तक खरीद सकूं और पेट भरने के क्रियाकलाप मुझे इतना समय भी नहीं देते थे की मैं सुविधा अनुसार किसी लाइब्रेरी में बैठ कर पढ़ सकूं। बरहाल यह सब चलता रहा। मंचों पर मैं रंग जी से प्रभावित रहा -वह उस समय अपनी जेल के दौरान लिखी गई ग़ज़ल पढ़ा करते थे--' मैंने तनहाई में जंजीर से बातें की हैं' ।
ग़ज़ल के अतिरिक्त हिंदी साहित्य में प्रचलित सभी विधाओं पर मैंने कलम चलाई ।कविता का व्याकरण कई बार जानने का प्रयास तो किया, लेकिन लिखते समय कभी मुझे व्याकरण याद नहीं रहा ।आज तो मैं बौद्धिक रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि, व्याकरण के प्रभाव में रहने वाले लोग अच्छे कवि नहीं बन पाते ।शायद, तभी निराला ने कहा होगा कि आदमी की तरह कविता की भी मुक्ति होनी चाहिए।

अरुण तिवारी- आप की स्वयं 'श्रमिक' उपनाम रखने के पीछे क्या आत्म-चेतना रही?आपका 'श्रमिक' , 'कृषक' से कितना समीप दूर है?
कमल किशोर श्रमिक- यह उपनाम मेरा स्वयं का चयन है ।यह किसी ने दिया नहीं है ।मैं मजदूर वर्ग में खुद था, और इस वर्ग के प्रति मेरा लगाव था ।मैं इस का पक्षधर था ।लिहाजा मैंने अपना उपनाम 'श्रमिक' खुद रखा ।जहां तक किसानों का संबंध है -किसानों के लड़के ही तो मजदूर बनते हैं। मेरे बाबा, परबाबा स्वयं किसान थे ।वही किसानों के बेटे शहर में आकर या तो कारखानों में सरकारी मजदूर बन जाते हैं या दिहाड़ी मजदूर बन कर जीवन यापन करते हैं। मै इनका पक्षधर था ,इसी चेतना और समझदारी ने मुझे श्रमिक उपनाम लिखने को प्रेरित किया।

अरुण तिवारी- व्यक्तिगत जीवन की सैद्धांतिक प्रगति में ,क्या परिवार और परिजनों से विमुक्तता या पलायन की कीमत पर ही जनवादी हुआ जा सकता है? या आपकी दृष्टि में सक्षम /समर्थ होकर भी जनवाद को सुदृढ़ करवाया या किया जा सकता है?
कमल किशोर श्रमिक- इस सवाल के पीछे कोई सिद्धांत नहीं बनता। कई बार समाज के बच्चों के लिए काम करने वाला व्यक्ति, अपने बच्चों का भरण-पोषण नहीं कर पाता ।कई बार दूसरों के बच्चों के लिए काम करने वाले लोग अपने बच्चों की परवाह नहीं कर पाते। ऐसा परस्थितजन्य होता है- क्योंकि जो अपने बच्चों को प्यार नहीं करता वह दूसरे के बच्चों को प्यार कर ही नहीं सकता! आदमी परिस्थितियों का गुलाम होता है ।उसके अनुसार उसकी चेतना सही निर्णय लेने के लिए विवश है ।यह पलायन बात नहीं है ।

अरुण तिवारी- कार्ल मार्क्स व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार में स्त्री को दलित की भाँति ,वस्तु मानकर ही अवमूल्यन, में नारी विमर्श को देखता है ,जो दलित विमर्श से आपके अनुसार भारतीय संदर्भ में किस तरह से भिन्न है ?
कमल किशोर श्रमिक- यह प्रश्न बुनियादी तौर पर गलत है। मार्क्स के बारे में अध्ययन की कमी से ही ऐसे प्रश्नों का जन्म होता है। मार्क्स ने जैनी मार्क्स को इस आधार पर अपना जीवन साथी चुना था कि वह सैद्धांतिक रूप से मार्क्स के बहुत नजदीक थी। मार्क एंजल और जेनी मार्क्स इन तीनों के बीच में समझदारी काम कर रही थी। लिखित रूप से आने वाला साहित्य अधिकांश मार्क्स के नाम से हो-क्योंकि वह विषय वस्तु को लेकर अधिक वैज्ञानिक रूप से सोचते थे। मार्क्स ने कभी अपनी पत्नी को दलित या बँधुआ मजदूर नहीं समझा ।आपने शायद मार्क्स और जानी मार्क्स के उन पत्रों को नहीं पढ़ा जो अलग-अलग प्रवास के दौरान लिखे गए हैं। जेनी मार्क्स अपने अभाव के दिनों में( दांपत्य दिनों में )उसी प्यार से अपने बच्चों का लालन-पालन करतीं रहीं। क्योंकि वह अच्छी तरह से जानतीं थीं, कि मार्क्स जो काम कर रहे हैं वह दुनिया के लिए मार्क्सवाद के नाम से मील का पत्थर साबित होगा। इसीलिए वह कई बार अपने अभावों का जिक्र भी मार्क्स से नहीं करती थी। एक बात और आपको पता होना चाहिए -मार्क्स एक वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले साहित्य राजनीति के समीक्षक भी थे। उनके समकालीन लेखों की,जो भी किताबें उनके पास समीक्षा के लिए आती थी वह तीन हाथों से गुजरती थी मार्क्स, एंजिल्स और जेनी मार्क्स और तीनों अपनी टिप्पणियां अवश्य देते थे। उन टिप्पणियों के सहित मार्क्स उक्त रचना की समीक्षा किया करते थे। उसी आधार पर अपने कई दार्शनिक मित्रों को उन्होंने उनकी गलत दिशाओं में भटकने के लिए कठोर आलोचना की।
मानव मात्र की मुक्ति चाहने वाला सहज मार्क्स बिना जेंडर फीलिंग के, स्त्री जाति को उसके बराबर समझता था।हालांकि मार्क्स ने अलग से कोई किताब स्त्री पर स्त्री विमर्श पर नहीं लिखी। लेकिन उनका साहित्य पढ़ने के बाद अच्छी तरह से महसूस किया जा सकता है और यह समझा जा सकता है -कि वह स्त्री वर्ग को पुरुष जाति से कहीं कमतर नहीं मानते थे ।ऐसा चिंतक क्या कभी अपनी पत्नी के साथ कोई ज्यादति कर सकता है!

अरुण तिवारी महिलाओं को लेकर साहित्य और समाज की सोच में ऐसा अंतर (द्वैत) वाले लेखन के दोगले पन का कारण, निवारण क्या है ?
कमल किशोर श्रमिक- यूँ तो साहित्य समाज का दर्पण है लेकिन दर्पण में तो एक वास्तविक तस्वीर दृष्टिगत होती है ।कई साहित्यकार उस तस्वीर पर कुछ ऐड (जोड़ने) का काम करना चाहते हैं और उसके लिए वह अपनी बौद्धिक चेतना के द्वारा प्रयास करते हैं और जेंडर फीलिंग को नकार देते हैं लेकिन जिस समाज में साहित्यकार जन्म लेता है, जिस परिवार में पलता है ,वह संस्कार कई बार वह छोड़ नहीं पाता ।माँ और दादी के लाड़ -प्यार में पलने वाला साहित्यकार कई बार प्रयास करने के बाद भी अपनी पत्नी को बराबरी का दर्जा नहीं दे पाता और जाने-अनजाने इस उपरोक्त द्वैत का शिकार हो जाता है लेकिन मैं मानता हूं अगर वैचारिक रूप से एक साहित्यकार को यह संज्ञान है कि स्त्री, पुरुष की भांति एक बुद्धिमान प्राणी है तो वह देर सबेर उसके लिए प्रायश्चित भी करता है- कि अतीत में उसने पत्नी के साथ समानता का व्यवहार नहीं किया। लेकिन जो व्यक्ति एक सामंती व्यवस्था में पलता और अधीन होता है- वह अपनी तमाम उदारता के बाद भी अपनी पत्नी के साथ न्याय नहीं कर पाता ।यही द्वैत तो साहित्य में भी बना ही रहेगा। होना नहीं चाहिए ।

अरुण तिवारी- स्त्री मुक्ति के सारे समर्थक और जातिवाद के सारे विरोधी, व्यक्तिगत जीवन में इतने निष्ठावान नहीं हैं ,क्यों?
कमल किशोर श्रमिक- प्रायः ऐसा सबके साथ नहीं है लेकिन स्त्री मुक्ति और दलित उत्थान को वैचारिक रूप से मुखौटे की तरह से इस्तेमाल करने वाले लेखकों की कमी नहीं है। ऐसे लेखक दुनियाबी रूप से सफल होने के लिए, किसी सीमा तक जा सकते हैं। वह अपने व्यावहारिक जीवन में सारी ऐय्याशियों के साधन जुटाते हुए अपने स्वामियों पुरुष्कर्ताओं के आगे स्वान की भाँति दुम हिलाते हैं। अपना लोक और परलोक दोनों सुधार लेना चाहते हैं । वह हर उस अवसर की तलाश में रहते हैं जहां कुछ कहकर या लिखकर स्वार्थ हल हो सके। ऐसे लोग तात्कालिक रूप से भले ही सफल हो जाएं ,समृद्ध हो जाएं ,लेकिन समय उनके तमाम किए धरे को नंगा कर देगा। मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता, लेकिन मेरा विश्वास है कि पाठक उन्हें जानते हैं।

अरुण तिवारी- भूमिहीन किसान, दलित( नारी व पुरुष ),कामगार मजदूर और घरेलू स्त्री, यह सभी श्रमिक संवर्ग में ही हैं।विश्व और भारत में इन की वर्तमान स्थिति में कितना सुधार वामपंथी लेखन से हुआ है?बताएं
कमल किशोर श्रमिक- पहले तो आपको ज्ञात होना चाहिए कि भारत में अधिकांश भूमिहीन किसान ;दलित वर्ग से ही आता है ,क्योंकि दलितों के पास जमीन नहीं थी और वह पीढ़ी दर पीढ़ी मालिकों और जमींदारों की जमीनों पर बँधुआ मजदूर की तरह काम करते रहे। स्त्री भी भारतीय समाज में दोहरे शोषण का शिकार हुई ।एक तरफ वह अपनी जमीदार की बँधुआ थी, दूसरी तरफ वह अपनी ग्रह स्वामी की भी बँधुआ थी, क्योंकि हमारे देश-समाज में दांपत्य की यही परंपराएं रही हैं। जो ऊपर से नीचे रही हैं।जहां तक मार्क्सवादी विचारधारा का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्वरूप का संबंध है आप यह नहीं कह सकते कि इसने इस वर्ग के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया है। स्त्री को भी मजदूर वर्ग में समझने वाला मार्क्सवाद का ही यह श्रेय है कि आज राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर उक्त वर्ग मुक्ति की सांस ले रहा है ।
यह भी एक सत्य है कि भारतीय मार्क्सवादी राजनीत के प्रचलित नुमाइंदे (पार्टियां) ईमानदारी से काम नहीं कर पाईं,जैसा कि उनसे उस वर्ग की अपेक्षा रही और इसी का यह कारण है कि वर्तमान तथाकथित लोकतांत्रिक राजनीति में यह पार्टियां अपने वर्ग से कटती जा रही हैं ,और धीरे-धीरे प्रभावहीन हो रही हैं ।लेकिन फिर भी मार्क्सवाद की जूझ से ही पूरी दुनिया में जिन मजदूरों से 20-20 घंटे काम लिया जाता था, आज वर्तमान में 7-8 घंटे काम करने के बाद यह वर्ग मुक्ति की सांस ले रहा है। पूरी दुनिया भर में पूंजीवाद के विरुद्ध जो भी क्रांतिकारी उग्र प्रदर्शन हुए उनकी प्रेरणा मार्क्सवाद ही है ।80 दिनों तक कम्यून चलाने वाली फ्रांस की राज्य-क्रांति का नेतृत्व मार्क्सवादी ही कर रहे थे। हिंदुस्तान में भी प्रारंभ से साम्यवादी झंडों के नीचे ऐतिहासिक आंदोलन हुए और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का एक जुझारू इतिहास रहा है।
सामूहिक रूप से इसके निस्प्रभावी होने के दो कारण है- पहला, एक बीमार लोकतंत्र से साम्यवादियों का प्रभावित होना और अपने वर्ग से कट जाना और एक मध्यमवर्गीय हवाई पार्टी बन जाना। मैं किसी नेता की व्यक्तिगत बात नहीं करता ,मगर भारत का साम्यवादी आंदोलन प्रारंभ में ही अवसर बाद और स्वार्थी तत्वों का शिकार रहा ।वे क्रांति की बात भूल कर,अपने वर्ग से कटकर मध्यवर्ग की पार्टी बन कर रह गए। क्रांति की जगह व्यक्तिगत सुख का शिकार हो गए। रूसी पराभव का भी दुनियाभर में मार्क्सवादी प्रभाव के क्षीण होने का दूसरा बड़ा कारण है।

अरुण तिवारी- वैश्वीकरण और उदारवादी नीतियों के चलते,पिछले कुछ दशकों से खासतौर पर आदिवासी ,दलित व अल्पसंख्यक समुदायों की महिला कामगारों की बढ़ीँ संभावनाओं से बदले परिदृश्य से आप कितना संतुष्ट हैं ?
कमल किशोर श्रमिक- सबसे पहले मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि मेरी दृष्टि में बाजारवाद और ग्लोबलाइजेशन हमेशा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी चिंतक इस नतीजे पर पहुंचे थे कि हम हथियारों के जरिए किसी देश को अधिक समय तक गुलाम नहीं बना सकते, क्योंकि वह कभी भी अपनी मुक्ति के लिए अपना सिर उठा सकते हैं और वियतनाम बन सकते हैं। इसके लिए वहां के अर्थशास्त्रियों एक ऐसी थीसिस तैयार की जिसके द्वारा वह पूरे विश्व को आर्थिक रूप से अपना उपनिवेश बना सकते हैं ।प्रारंभ में उन्होंने इसका उपयोग भी किया और अमेरिकी बैंकों ने यूरोपीय देशों को लोन देना शुरू किया इसके लिए सभी देशों से व्यापार का मुक्त होना आवश्यक था इसके आविष्कार-कर्ताओं का नारा था-' युद्ध जहां मुल्क में बर्बादी लाता है, बाजार में शांति की स्थापना करता है' लेकिन ये प्रलोभन था। असली मकसद उस बाजारवाद व ग्लोबलाइजेशन के पीछे यही था ,कि दुनिया भर के देशों को आर्थिक रूप से अमेरिका का उपनिवेश बना लिया जाए और पूरे विश्व में अमेरिका का प्रभुत्व स्थापित हो सके ।प्रारंभ में अमेरिका दोहरी नीति पर चलता रहा ।वो युद्ध भी करता रहा और आर्थिक मदद देकर तमाम देशों को अपने नियंत्रण में भी लेता रहा ।इसका पहला प्रयोग उसने अफ्रीकन कंट्री में किया और आज अफ़्रीका की क्या स्थिति है, यहां लिखने की भी आवश्यकता नहीं है। अमेरिका अपनी नीतियों में आंशिक रूप से सफल भी रहा ।आज छोटे राष्ट्र जो उसके कर्ज पर आर्थिक रूप से निर्भर करते हैं, उससे डरते हैं और अमेरिका उसी दबाव के तहत अपना व्यापार सारी दुनिया में फैला पा रहा है ।बाजारें हमेशा रही हैं ।हम अपनी जरूरत की चीज बाजार से प्राप्त करते थे। आज बाजार हमारी नई आवश्यकताओं की खोज करके जो हमें बताता है और लग्जरी आवश्यकताओं के ऐसे चक्रव्यूह में फंसा देता है जिससे आदमी को पूरी उम्र निकल पाना मुश्किल होता है ।जहाँ तक,भूमिहीन किसान, दलित या घरेलू स्त्री संवर्ग की बात है ,इस व्यवस्था में हमेशा की तरह सबसे नीचे पाये के आदमी समझे जाते हैं ।कह सकते हैं आज, कि वह पूर्णकालिक बँधुआ नहीं है ,लेकिन उनकी स्वतंत्रता उनके लिए बेहद घातक है। उन्हें इस बात की पूर्ण स्वतंत्रता है कि वह चौराहे पर नंगे भूखे पड़े पड़े मर जाएं। क्योंकि वह आर्थिक रूप से आज भी उसी जगह पर हैं जहां पहले थे। बल्कि पहले मालिक लोग अपने बँधुआ मजदूर को इसलिए स्वस्थ रखते थे ,कि उनके काम का हर्जाना न कर सके ,लेकिन आज इस बात से पूंजीपति वर्ग का कोई लेना देना नहीं है ।वह काम करवाता है ,पैसे देता है। यह पैसे उसके श्रम के एवरेज में बहुत कम होते हैं -जिसके कारण वह अपनी बेसिक जरूरतें भी मुश्किल से पूरी करता है। उसके पास बीमारी से इलाज का कोई बजट नहीं है। कई बार यह वर्ग बेरोजगारी के दिनों में बीमार हो जाता है और दम तोड़ देता है। जहां आदिवासियों का प्रश्न है,वर्तमान व्यवस्था घोषित तौर पर लोकलुभावन कानूनों की व्यवस्था करती है ।लेकिन व्यवहार में यह नौकरशाही उसे कभी पूरा नहीं करती ।सरकार भी यह बात अच्छी तरह से जानती है कि भारतीय राजनीति में नक्सलवाद नाम से एक ऐसा ग्रुप है- जो हिंसात्मक क्रांति पर विश्वास करता है और हिंसा के जरिए वर्तमान व्यवस्था को बदलना चाहता है। वह अपनी तमाम तथाकथित कमजोरियों के बाद आदिवासियों के बीच ईमानदारी से काम करने का प्रयास करता है ,लेकिन व्यवस्था के दमन के कारण सफल नहीं होता ।आदिवासी जब कभी अपनी मांगों के लिए सड़कों पर उतरने का प्रयास करता है भले ही उनका संबंध नक्सलियों से ना हो उन्हें नक्सलवादी कहकर गोली मार दी जाती है या जेलों में ठूंस दिया जाता है ।यहां यह भी जानकारी हमें होनी चाहिए कि ब्रिटानिया सरकार से गुलामी के दौर में आदिवासी 100 से अधिक युद्ध लड़ चुके हैं, जो पहले भी नहीं जीते आज भी नहीं जीतेंगे ,लेकिन उनका संघर्ष जारी रहेगा।

अरुण तिवारी- विश्व वाम पंथ में अकर्मण्य भोग वादी भ्रष्टाचार का विकल्प हेतु अनुशासन की पैरोकारी के लिए वामपंथ या नक्सलवाद को आगे किस तरह से और कौन दिशा देगा ?
कमल किशोर श्रमिक- निस्संदेह आज विश्व स्तर पर मार्क्सवाद का अवसान दृष्टिगत हो रहा है लेकिन विश्व के दबे-कुचले लोग आज भी अपने अधिकारों के लिए अपने जीवन पर्यंत संघर्ष करते रहते हैं।
यह संघर्ष थमने वाला नहीं है ,वाद कोई भी रहे ,मैं ये मान के चलता हूं कि सामूहिक रूप से यह मेहनतकश लोगों की संख्या सर्वाधिक है और यह वर्ग भविष्य के प्रति इसलिए भी आशान्वित है कि उसने जो कुछ भी आज तक प्राप्त किया, उसके पीछे उसका संघर्ष ही है ।व्यक्तिगत रूप से मेरी यह सोच रही है कि सामूहिक रूप से निचले पाए के आदमी का यह वर्ग जो आदिम अवस्था से वर्तमान स्थितियों तक पहुंचा है और विश्व के -कल उत्पादन और निर्माण में जिसके हाथों की कला चिन्हित होती है ऐसा वर्ग कभी पीछे नहीं हटेगा ।
समय बता पाना बहुत मुश्किल है किंतु एक समय ऐसा अवश्य आएगा जब यह आर्थिक क्रांति या विषमता पट जाएगी, तब मनुष्य जाति मुक्त होकर एक यथार्थवादी कविता जैसी हो जाएगी ।

अरुण तिवारी- वामपंथ पर आरोप रहे हैं कि यह कर्तव्य नहीं सिर्फ अधिकार के दावे पर आंदोलन खड़े करते हैं ।घटते उत्पादन और हानि के कारण बंद होते उद्योगों को देखकर भी इनमें कर्तव्य बोध, ईमानदारी जागृत करने के लिए क्यों नहीं सोचते?
कमल किशोर श्रमिक- जहां तक मजदूर वर्ग के कर्तव्य का प्रश्न है ,आप अगर पूरे विश्व पर दृष्टि डालें तो सारा उत्पादन, सारी ऐतिहासिक इमारतें, कलात्मक वस्तुएं ,अन्न - जल के स्रोत, जो कुछ भी हमारी दृष्टि में आता है ,उसके निर्माता कौन हैं? क्या किसान और मजदूर नहीं?इसके अनुपात में मजदूरों को अधिकार प्राप्त नहीं हैं।अधिकारों की व्याख्या अगर की जाए और पूछा जाए तो यह वर्ग आज भी सिर्फ जिंदा रहने का अधिकार माँग रहा है। अधिकारों के नाम पर न तो वह पूँजीपतियों की ऐय्याशियां खरीदना चाहता है,न सी लक्जरी जीवन जीने का शौक है उसे। जहां तक कारखानों के उत्पादन का एक भ्रामक प्रचार है कि साम्यवादियों के प्रतिनिधित्व में आकर कार्य करते हुए कामगारों ने मिलों का प्रोडक्शन बंद करा दिया। जिस तरह किसान अपनी धरती को प्यार करता है- ठीक उसी तरह मजदूर अपनी मिल को समझता है। किसान खड़ी फसल में आग नहीं लगा सकता- मजदूर मशीनों को नष्ट नहीं कर सकता। मजदूर अधिक से अधिक प्रोडक्शन देना चाहता है, लेकिन जब उसे अतिरिक्त श्रम का मूल्य नहीं मिलता है, तो विरोध करके अपने अधिकारियों से माँग करता है। यह भीतर की राजनीति है।कभी हड़ताल(मिल बंदी) मजदूरों का अस्त्र था आज यह पूँजीपतियोँ का अधिकार बन चुका है ।कई बार कारपोरेट घराने नया व्यापार निर्मित करने के लिए, कम फायदे वाले व्यापारों को बंद कर देना चाहते हैं- इसके लिए वह मिल बंद करना चाहते हैं और अपने लोगों के द्वारा( अपने गुर्गों के द्वारा )हड़ताल करा देते हैं ।अन्त में मिल बंद करते हुए, इसका ठीकरा उन्हीं मजदूर वर्ग पर छोड़ देते हैं। यह उनकी साजिश है।

अरुण तिवारी- भाषा स्तर पर आपके मौजूं,उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी ,देशज के सम्मिश्रण में हैं। भाषा, साधन और टेक्निक की दृष्टि में आपके लिए कितनी महत्वपूर्ण है ?
कमल किशोर श्रमिक- साधन और टेक्निक दोनों ही दृष्टियों से मैं सामान्य रूप से यही समझता हूं कि हमें जन सामान्य भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। कई बार विद्वान भाषाविद यह लिख जाते हैं कि भाषाओं की जानकारी ना होने के कारण विषय वस्तु को सही ढंग से संप्रेषित नहीं किया गया। मैं यह सब नहीं मानता ।भाषा का निर्माण जन सामान्य के द्वारा होता है ,तथाकथित विद्वान उसे पढ़कर या जानकर उसका व्याकरण तय कर देते हैं। लेकिन वह भाषा का निर्माण नहीं करते। इसलिए जनसामान्य में बोली जाने वाली भाषा में विज्ञान और तकनीकी आविष्कारों से लेकर दार्शनिक मान्यताओं तक उसी भाषा में व्यक्त की जा सकती है। किसी भी भाषा का महत्व यही होता है कि वह अधिक से अधिक लोगों द्वारा समझी जा सके ।

अरुण तिवारी- आपकी स्पष्ट वादी मुखरता ने साहित्य खेमों में आपकी अस्वीकृत बढ़ाई है ।लोगों को आपसे शिकायतें अधिक हैं और आपको भी उनसे ।आपको क्या बाजिब कारण लगता है? आपके मुंह फट जबाब का स्वागत है ।
कमल किशोर श्रमिक- बँधी-बँधायी लीक पर चलकर मैं भी कुछ लिख सकता तो थोड़ा सा बिक जाता ।कर लेता अमरीका की सैर। बोलो क्या बनती मेरे वर्ग की खैर ?
जब बँधी-बँधायी लीक पर मैं नहीं चलता। वर्तमान व्यवस्था का दमन,अपने वर्ग का शोषण,दोहन, अत्याचार ,भ्रष्टाचार यह सब मैं देखता हूं और लिखता हूं तो यथास्थितिवादियों के बीच मेरे और उनके बीच में अंतर्विरोधों का होना स्वाभाविक है। वो कई बार मेरी उपेक्षा करते हैं ।साहित्यिक समाज में मुझे काटने का प्रयास करते हैं। ऐसे समाज में मेरे सामने एक ही रास्ता बचता है कि मैं अकेला रहूं या अपने वर्ग के बीच में रहूं। मुझे इस बात का संतोष है कि जहां मुझे घर से दफ्तर तक का गणित लगाकर चलने वालों ने मेरे अलगाव का प्रयास किया है, वहीं मुझे अपने वर्ग से अपार स्नेह और सम्मान प्राप्त हुआ है। यह स्नेह मुझे उनके किसी भी पुरस्कार से अधिक वजनदार दृष्टिगत होता है।

अरुण तिवारी कामगार महिलाओं में मुस्लिम और दलित महिलाओं को धार्मिक या जातीय वैषम्य के चलते कानपुर में क्या स्थिति रही और क्या संभावनाएँ हैं?
कमल किशोर श्रमिक- जहाँ तक कामगार महिलाओं का प्रश्न है उक्त विषमताएं उनमें नहीं दिखाई पड़तीं, क्योंकि यहां इन्हें एक मजदूर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है- जिसमें सभी जाति और धर्म की महिलाएं शामिल रहती हैं ।श्रम का संघर्ष उन्हें एकता के रूप में बाँधे रहता है। इनका जीवन एक तरह का होता है। उनकी रिहाइश एक तरह की होती है ।इसीलिए वह व्यवहारिक जीवन के क्षेत्र में एक सूत्र में बंधी रहती हैं ।यह बात केवल कानपुर की नहीं है ,पूरे देश में या संपूर्ण विश्व के पैमाने पर जहां-जहां कामगार महिलाएं कारगर हैं ,उनमें जाति विभेद(विश्व संप्रदायिक) और तीव्र कान्ट्रडिक्शन नहीं है।न होगा।

अरुण तिवारी- वामपंथ और समाजवाद में राजनीति को आप किस तरह से देखते हैं और आगे कैसा होना चाहिए ?
कमल किशोर श्रमिक- वैसे तो दोनों शब्दों को एक दूसरे के पर्यायवाची अर्थों में लिया जा सकता है, क्योंकि हर वामपंथी का लक्ष्य होता है- समाजवाद का निर्माण। लेकिन जहां तक वर्तमान लोकतांत्रिक पार्टियों का प्रश्न है, अधिकांश वामपंथी या समाजवादी उनका कोई जन पक्षधर लक्ष्य नहीं है ।चुनाव के पहले एक दूसरे की पार्टी में आना-जाना इस बात का व्यवहारिक उदाहरण है, क्योंकि वर्तमान लोकतांत्रिक राजनीति एक सफल व्यापार हो गया है ।
कन्हैया कुमार का भाजपा में जाना निष्ठाच्युत होने का एक जमीनी और समसामयिक उदाहरण है।

अरुण तिवारी- लेखन की निष्ठा में न आपकी धर्म-अभीरुता आपको निराला नागार्जुन दुष्यंत कुमार से कहीं अधिक अदम के समीप रखती है आप खुद को कहां रखना चाहते हैं या समझते हैं?
कमल किशोर श्रमिक- निराला और नागार्जुन यह बड़े नाम हैं। उन से अपनी तुलना नहीं कर सकता। दुष्यंत से मैं कभी नहीं मिला। हाँ मैं रंग जी के साथ मंचों पर गजलें कह रहा था। मेरी किताब लगभग 30 वर्ष बाद प्रकाशित हुई ।जहां तक अदम का प्रश्न है -गोंडा शहर के एक काव्य समारोह के बाद मेरे कुछ प्रशंसक अदम को लेकर मेरे पास आए थे -उनका कहना था कि यह नौजवान आपकी तरह तरक्की पसंद गज़ल कह रहा है। मैंने अदम को सुना ।किसानी परिवेश में कही गई आदम की ग़ज़लें जनवादी साहित्य की निधि हैं, जिन्हें कभी जनवादी साहित्य खारिज कर ही नहीं सकता। लेकिन अपने व्यवहारिक जीवन में अदम अपने वर्ग के प्रति उतने प्रतिबद्ध नहीं थे- वह कई बार बेकल उत्साही के साथ कांग्रेस के चुनाव प्रचार में भी गए। मुलायम सिंह के जन्म दिवस पर कविता सुनाकर 10000 की चेक लेकर भी आए ।उन तमाम कमियों के बावजूद अदम एक बेहतरीन ग़ज़लगो थे इसमें कोई शक नहीं ।

अरुण तिवारी- आपने गजल ,गीत,नवगीत,लोकगीत, नई कविता, कहानी ,डायरी सभी विधाओं में लिखा है, पर आपको कौन सी विधा सबसे मुफीद लगती है?
कमल किशोर श्रमिक- गजलें मैंने अधिक कहीं हैं लेकिन मैं अधिकतर विषय वस्तु के अनुसार विधा का चुनाव करता हूँ। हाँ ,लेकिन महाकाव्य, खंडकाव्य कभी नहीं लिखा ।उपन्यास नहीं लिख पाया ।जो कुछ भी लिखा है, वह मुझे बहुत कम प्रतीत होता है इसका कारण वही दोहरा संघर्ष रहा है ,लिख सकता था ऐसा महसूस करता हूं और अभी भी चुका नहीं हूं मैं ।

अरुण तिवारी- आपने कलावाद ,मार्क्सवाद,जनवाद, समाजवाद ,लोक वाद ,मानववाद सभी को विश्व स्तर पर पढ़ा और जाना है। आप व्यक्तिगत स्तर पर खुद को कहां खड़ा पाते हैं ?
कमल किशोर श्रमिक- यह प्रश्न ऐसा लिखा गया है जैसे नई कविता लिखी गई हो ।अरे भाई ,मुझे वादों के घेरे में जबरदस्ती फँसाने का प्रयास क्यों कर रहे हैं?मैंने पहले भी कहा है कि मैं अपने वर्ग के प्रति कटिबद्ध हूं ।मैंने निचले पाये के व्यक्तियों के अधिकारों के संघर्ष का पक्षधर हूं ,बस! अब आपकी मर्जी है कि आप मुझे चाहे जिस खाने में फिट करें ।

अरुण तिवारी- आप जैसी निष्ठावान लेखनी की जूझ,यह सोचती है कि लेखन समाज को बदल सकता है ।साहित्य के वर्तमान और भविष्य को लेकर इसको किस तरह से सोचते हैं?
कमल किशोर श्रमिक- तत्कालीन बदलाव तो राजनीति से ही होता है। प्रायः यह बदलाव निरंतरता प्राप्त नहीं करता,लेकिन साहित्यिक बदलाव की गति बहुत धीमी और इतिहास के पृष्ठों पर ठहराव प्राप्त करती है। साहित्य के प्रभाव से होने वाला बदलाव अधिक समय तक प्रभावशाली रहता है। यह बहुत कुछ देशकाल परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है ।वर्तमान समाज में साहित्य और साहित्यकार दोनों अपनी अस्मिता बचाने के लिए छटपटा रहे हैं। यूँ भी भारतीय समाज में साहित्य कभी भी मुख्य धारा के रूप में प्रवाहित ही नहीं हुआ। एक समय था कि फ्रांस में सार्त्र, अगर किसी मेंबर ऑफ पार्लियामेंट की सार्वजनिक आलोचना कर देते थे -तो वह चुनाव हार जाता था ।वह काल फ्रांस के लिए स्वर्णिम युग रहा होगा। आज पूरे विश्व में साहित्य मुख्यधारा में नहीं है। राजनीति का मुखाकृति बन गया है ।लेकिन कम ही सही आज भी बहुत कुछ ऐसा लिखा जा रहा है जो आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए उनके मार्ग में सूर्य बनकर भले ही न चमके, एक तेज टोर्च की भूमिका तो निभाएगा ही और यही आशा की जाती है- यही आश्वस्त बनती है, कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जो दुनिया भर में साहित्य प्रवाहित होगा। हाँ हम साहित्यकारों को इस बात पर विमर्श करना चाहिए कि हमें साहित्य में जमीनी स्तर पर ऐसा बदलाव लाना होगा जो हमारे वर्ग को क्रान्ति के लिए प्रेरणा दे सके।

अरुण तिवारी- पाठ्यक्रम सत्ता निर्धारित करती है और मंच संयोजक तथा प्रकाशन; प्रकाशक तो पाठकीय अभाव में अपूर्ण और निरीह हैं ,एक ईमानदार लेखन करे भी तो क्या करे?
कमल किशोर श्रमिक- वर्ग संघर्ष कोई दावत नामा नहीं है यह कठोर कर्तव्य है ।इसका अंजाम विपरीत परिस्थितियों में ही दिया जाना है और यह विपरीत परिस्थितियाँ,ये जीवन की कठिनाइयाँ,ये संत्रास ,सामाजिक उपेक्षा- यह सब एक प्रतिबद्ध लेखक के लिए प्रेरणा का काम देते हैं। रोटी केवल पेट भरने का जरिया नहीं है ।रोटी हमारी उस भूख को भी शांत करती है जिसे हम चेतना कहते हैं ।रोटी का संघर्ष हमारा वर्ग संघर्ष का एक रूप है और विपरीत परिस्थितियों में यह तीव्रता महसूस करता है -उदाहरण के लिए लमही जैसे पिछड़े हुए माहौल में प्रेमचंद पैदा हुए। चोर-उचक्के ,खोमचे वाले, बेकरी वाले, वेश्याओं- मजदूरों, के बीच में गोर्की और उनकी कृति 'माँ' का जन्म हुआ। मैं कहना यही चाहता हूं कि अगर यह परिस्थितियां विपरीत ना होतीं, तो लेखक को या कवि को जमीनी सच्चाई का पता ही कभी नहीं चलता। इसलिए विसंगतियों से प्रेरणा पाकर इन विसंगतियों की समाप्ति का क्रम ही साहित्य की रचना धर्मिता है और बनी रहेगी ।

अरुण तिवारी- उम्र के 85 बसंत और पतझड़ देख चुके आपके जनवादी लेखक की दिनचर्या पर प्रकाश डालें ।
कमल किशोर श्रमिक- कुछ और जी सकूँ और अपने वर्ग की पक्षधरता से कुछ और कह सकूँ।इसलिए सुबह सुबह 6:00 बजे मॉर्निंग वॉक पर निकल जाता हूं। चौराहे पर जाकर उस टी स्टाल पर चाय पीता हूँ-जहां दिहाड़ी मजदूरों का झुंड पहले से चाय पी रहा होता है ।लौटकर 8:30 बजे जाता हूं। उसी स्थल पर एक चाय फिर पीता हूं और कुछ देर मजदूर साथियों से अपने और उनके सुख-दुख कहता सुनता हूं ।घर आकर नहाते और खाना बनाते खाते 12:00 बज जाते हैं, फिर उसके बाद में टेबल पर कुछ लिखने-पढ़ने को बैठता हूं ।इसके बाद 5:30 बजे पुनः बाहर निकलने घूमने के पहले कुछ आराम भी कर लेता हूं ।मेरे अध्ययन का विशेष समय 10:00 बजे रात के बाद से शुरू होता है,जो जवानी में कभी-कभी 2:00 बजे 3:00 बजे तक 4:00 बजे तक चलता था ,लेकिन अब उतरती हुई उम्र इसकी इजाजत नहीं देती। लिहाजा हर हाल में 12/01 बजे तक लिखना पढ़ना बंद कर देता हूं और फिर नींद के आगोश में सुबह का इंतजार करता हूँ।

अरुण तिवारी- जातिवाद और सांप्रदायिकता से जूझते देश में मार्क्सवाद क्या सफल होगा जब वह अपनी ही जमीन में असफल हो गया?
कमल किशोर श्रमिक- सांप्रदायिकता के विरुद्ध सुधार वादियों ने कम प्रयास नहीं किए। उँगलियों पर गिने हुए धर्म के मानने वाले ऐसे व्यक्ति भी मिल जाएंगे जो सांप्रदायिकता को पसंद नहीं करते लेकिन इस देश में इनके प्रयास कभी सफल नहीं हुए क्योंकि उन्होंने सांप्रदायिकता की जड़ों को कभी उखाड़ने का प्रयास ही नहीं किया। धर्मभीरु अपनी पक्षधरता में कहते हैं --"मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना " तो सिखाता कौन है? क्या कभी नास्तिकों की किसी भीड़ ने कभी मंदिर- मस्जिद को तोड़ा है। इसलिए मैं यह दावे से कह सकता हूं कि साम्प्रदायिकता और धर्म की जड़ों को उखाड़ फेंकने वाला, अगर कोई भी दर्शन या विचारधारा है तो वह मार्क्सवाद है। इसलिए मुझे पूरी उम्मीद है कि देर सबेर भारत में सांप्रदायिकता को उखाड़ फेंकने में मार्क्सवाद ही सफल हो के रहेगा ।

अरुण तिवारी- काव्य में भाषा स्तर पर आप जमीनी और गद्य में वैश्विक आभिजात्य जीते हुए दिखते हैं ऐसा क्यों?
कमल किशोर श्रमिक- मैं मूल रूप से अपनी प्रतिबद्धता से नहीं हटता। कविता मेरे विचारों की भावपूर्ण अनुकृति रहती है -जिसमें एक संज्ञान संवेदना पैदा करता हूं ।कविता लिखते लिखते कई बार यह मन होता है कि मैं अपनी बात के हर आयाम को विस्तृत रूप से व्याख्यायित करूं। यह काम मैं अपने लेखों के द्वारा करता हूं। लेखों में जो भी शोध आलेख होते हैं ,उनमें प्रामाणिकता चिन्हित करनी होती है और उसके लिए आवश्यक होता है कि किसी कालखंड में उसी बात को कहने वाले लेखक को चिन्हित किया जाए ऐसा मैं विशेष लेखों में ही करता हूं। जो भी अखबारी लेखन मैंने किया है उसमें ऐसा नहीं होता ।

अरुण तिवारी- सृजन क्षणों में 'कला' व 'विचारधारा' को आप किस तरह से नियोजन में प्राथमिकता देते हैं या देनी चाहिए ?
कमल किशोर श्रमिक- मैं तुलसीदास के विचारों से असहमत होते हुए भी ,उन्हें कविता का बड़ा कारीगल मानता हूँ। किसी क्रिया को संपन्न करने में उसकी सुघरता ही उसकी कला है ।हमारी कला ,हमारा सौन्दर्यबोध, परंपरागत कलाओं या सौंदर्यबोध से अलग भी हो सकता है। पसीने से नहायी हुई, श्रम करती हुई स्त्री में हमें सौंदर्य बोध दृष्टिगत होता है। यहां हमारे कलात्मक मूल्य, परंपरागत मूल्यों से अलग हो जाते हैं ।क्या कोई दुनिया में ऐसी भी कला है जो मानव जाति के उपयोग की न हो और अगर ऐसी कोई अमूर्तकला है तो वो चंद लोगों के ख्यालों में ही बनी रहेगी।

अरुण तिवारी- आप कामरेड नाम से जाने जाते हैं, सबको दोस्त बोलते हैं ,पर आपके दोस्त बहुत कम है ,परिजन भी साथ नहीं देते या रहते इसका क्या कारण है ?क्योंकि मैंने देखा भरा पूरा समृद्ध परिवार होते हुए भी आपको आर्थिक और अपनत्व के अभाव में 50 वर्ष में नितांत एकाकी और स्वपाकीदेखा है क्यों?
कमल किशोर श्रमिक- आमतौर पर उतरती आयु के कारण मैं खुद इतना सामाजिक नहीं रह गया हूं, लेकिन मैं सामाजिक सरोकारों से कभी कटा नहीं हूं। जहां तक पारिवारिक सदस्यों का प्रश्न है वह सब मेरे औपचारिक दोस्त हैं ।अपने ढंग से जीने व रहने से,हम से दूरी बन गई। पत्नी बच्चों के बच्चों में इंवॉल्व है, इसलिए बच्चों के साथ रहती हैं। बच्चे भी बड़े हो गए हैं उनकी अपनी जिंदगी है। जिम्मेदारियां हैं ।मेरी भी बुनियादी जरूरतें आराम से पूरी हो जाती हैं। इस आयु में लग्जरी की आकांक्षा नहीं रही ।मुझे अपने बच्चों में से कोई असंतोष नहीं है। हम लोग औपचारिक दोस्तों की भांति जीवन बसर करते हैं। पत्नी मोबाइल से कभी महीने 2 महीने में हालचाल लेती रहती हैं।

अरुण तिवारी- साहित्य जगत में वाजिब स्वीकृति और यथोचित पुरस्कार आपको नहीं मिले ।इसका कितना मलाल है और इनकी अथाण्टिसिटी पर आप क्या कहेंगे?
कमल किशोर श्रमिक- वर्तमान व्यवस्था के विरोधों से सम्मान व साहित्य पुरस्कार पाने की बात मैंने कभी नहीं सोची। मैं जिनके विरुद्ध लिखता हूं वह मुझे पुरस्कार कैसे दे सकते हैं? हां स्वतंत्र जनवादी संगठनों ,संस्थाओं के मंचों पर, मैंने छोटे-बड़े कई पुरस्कार प्राप्त किए , पर अपने वर्ग के मंचों पर कई बार सम्मानित भी हुआ हूं। अपने वर्ग के मंच पर मैं उतना उपेक्षित अपने वर्ग से नहीं रहा जैसा कि आज दिखाई पड़ता है।

अरुण तिवारी- स्थापित/ समृद्ध/ पोषित पत्रिकाओं और लघु पत्रिकाओं के उद्देश्य और क्षमताओं या प्रभावों को जनवाद के संदर्भ में आप किस तरह से देखते हैं ?
कमल किशोर श्रमिक- आमतौर पर जनवादी लघु पत्रिकायें अधिक समय तक नहीं टिक पातीं,क्योंकि हर समय वह अर्थ संकट से गुजरती हैं ।सरकारी पत्रिकाओं /पोषित पत्रिकाओं में छपने वाले लेखकों की भीड़ लगी रहती है ।अपने मूल्यों पर ही लिखकर इन पत्रिकाओं में भी कई बार लिख चुका हूं ,शायद पैसा पाने के लालच में या छपास के क्रम में ।लेकिन यह लघु पत्रिकाएं जो बहुत थोड़ी संख्या में छपती हैं पोषित पत्रिकाओं के बरक्स अधिक ईमानदार होती हैं ।

अरुण तिवारी- आर्थिक मुद्दों को छोड़कर, जनवाद, /साम्यवाद प्रायः पर्यावरण, जल-संरक्षण, जातिवाद, धार्मिक असहिष्णुता, राष्ट्रवाद जैसे ज्वलंत मुद्दों पर सोद्देश्य, मौन सा क्यों दिखता है?
कमल किशोर श्रमिक- आप पूरी तरह नहीं कह सकते हैं कि उपरोक्त मुद्दों पर जनवादी बिल्कुल ही कलम नहीं चलाते,लेकिन दरअसल जो अपने वर्ग की बेसिक आवश्यकताओं से प्रेरित होने के कारण, बुनियादी चीजों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। पर्यावरण में सुधार की आवश्यकता है लेकिन इस पर लिखना और छपना एक फैशन हो गया है ।अधिकतर ऐसे लेखकों की कमी नहीं है, जो इन मुद्दों पर लिखकर अपने लेखक को प्रमाणित करना चाहते हैं।


******************

 

0 Total Review

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

अरुण तिवारी

ईमेल : aruntiwarigopal@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

नाम- डाॅ अरुण तिवारी गोपाल
जन्मतिथि- 29 अगस्त 1973
जन्मस्थान- कानपुर
शिक्षा- एम. एससी.,एम. टेक.,पीएच. डी.,नेट
संप्रति- प्रवक्ता भौतिकी
लेखन विधा- गीत सृजन और समीक्षा व समालोचना
प्रकाशन- मानस मेरु के मंजुल और तुलसीदास के निराला (समीक्षा), उत्तरछायावादी काव्यधारा में रामेश्वर प्रसाद द्विवेदी जी का साहित्य (शोध),पसीजे तुम नहीं क्यों (काव्य संग्रह), गीत ही केवट हुये हैं (गीत संग्रह),लगभग सभी स्तरीय पत्रिका में आलेख    ।
प्रसार/पुरस्कार- दुर्गा प्रसाद दुबे पुरुस्कार  राज्यपाल मोतीलाल वोहरा द्वारा,कला संस्कृति मन्दिर भोपाल द्वारा साहित्य अभिनव सम्मान के साथ शताधिक अन्य संस्थाओं से सम्मान।
संपर्क- डाॅ अरुण तिवारी गोपाल 117/69  N तुलसीनगर काकादेव कानपुर नगर उत्तर प्रदेश-208025
मोबाइल- 8299455530