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डॉ० ज्योत्सना मिश्रा की कहानी 'जइयो बरसियो कहियो'

डॉ० ज्योत्सना मिश्रा की कहानी 'जइयो बरसियो कहियो'

आत्मकथ्यात्मक शैली में रचित एक कहानी, जो घर-दफ़्तर से लेकर बाहर तक स्त्री के संघर्ष और उसकी मानसिक जद्दोजहद का जीवंत चित्र खींचती है। एक तरफ उसका अपना 'मन' है, अपने सुख-दुःख बटोर रहा है, आसपास का सबकुछ अनुभव कर जो एक इंसान की भांति जीना चाहता है, दूसरी तरफ उसका एक 'स्त्री' होना है, जो उसके 'मन के जीने' के बीच किसी साए की तरह आकर खड़ा है और उसे बार-बार अनुभव करवाता है कि तुम सामान्य इंसान नहीं, एक स्त्री हो। जिसे हर एक जगह सजग व संघर्षरत रहना है। पढ़िए, एक विचारप्रधान मार्मिक रचना।

हर बदली को बरसने का अधिकार कहाँ? कुछ अपनी नमी कलेजे में छिपाये भीतर ही भीतर सीलती रहती हैं। कई-कई सावन लग जाते कुछ बरसातों को।
उमस से जूझते ही पार हो जाता उमर का पावस। 'घर जाना है' कई बरस बीते 'मायके जाना है' बन चुका। साथ में हमेशा जाने की वजह भी जोड़नी होती है।
अकेले 'जाना है' कहना कभी पूरा ही नहीं पड़ता, सुनने वाला प्रतीक्षा करता, रुकता, सहमति में सिर हिलाने को। 'जाना है' बस इतना कह देना जैसे सामाजिक न था। दरअसल बताना, पूछना ही नहीं था। बेअदबी के इलज़ाम से बचने को अदबदा के जोड़ देती। माँ का फोन आया था। कुछ साँस लेकर आगे दिन तारीख़ भी बतानी होती है फोन आने की, तब जाकर पूरी होती बात।

प्रार्थना-पत्र मंजूर हो गया, ये पता चलता उत्तर में मिले प्रश्न 'कब लौटोगी?' से। दिल को इतने सालों में यकी़न आ चुका था कि ये प्रश्न प्रेमवश ही पूछा जाता है, इसे पूछने से मेरे किसी तरह के अधिकार का हनन नहीं होता और अगर कहीं प्रश्न मुस्कुरा के पूछा जाए फिर तो ख़ुशी से झूम जाना बनता था ही। अगले ही पल सुनाई पड़ता रजनीश को फोन कर दो, लौटने का मंगल का रिजर्वेशन करवा दे! रजनीश यानी मेरा छोटा भाई। दिमाग़ में कई कैलकुलेशन खटाखट चलने लगे। रजनीश से केवल लौटने का कहना है यानी जाने का पति ख़ुद करायेंगें। ओह! इसका मतलब वो दिल से मंजूरी दे रहे हैं जाने के लिये। कुछ पैरोल मंजूर होने जैसा लगा पर जल्द ही दिमाग़ से झटक दिया।

अब केवल ऑफिस से छुट्टी लेना रहता था। और अपनी पैकिंग और सबके लिये कुछ उपहार! छोटी भाभी की बिटिया को मेरे हाथ के लड्डू बहुत पसंद हैं। शाम को लौटते समय सामग्री लेती आऊँगी। चलो अच्छा है अलग से मिठाई लेने का झंझट नहीं होगा। हाथ खटाखट पति और बेटे का टिफिन पैक करते रहे और दिमाग़ साल भर की संचित पूँजी का गुणा-भाग करता रहा। आॉफिस का वक़्त हो गया था। जल्दबाज़ी में घर से बाहर निकलते ही पैर बरसाती पानी से भरे गढ्ढे में पड़ गया, पूरी चप्पल कीचड़ से भर गयी। उसी पानी में चप्पल धोकर आगे बढी, शुक्र ये कि चप्पल टूटी नहीं थी।

घर के सामने ही बाज़ार था। बाज़ार क्या, घरो के सामने ही चबूतरे तिरपाल से ढँककर बनाई अस्थाई दूकानों की एक कतार। राखियाँ ही राखियाँ। धागों से लेकर हज़ार रुपये तक की चाँदी की राखी। लग तो बडी सुंदर रही थी पर इतनी मँहगी? शायद जो सोच रही थी बड़बडा़ भी गयी थी इसीलिये बराबर खड़ी एक स्त्री कहने लगी, अरे ये तो कुछ नहीं, चौक वाले चौधरी ज्वैलर्स के यहाँ जाकर देखो, पचास-पचास हज़ार की राखियाँ।
कुछ हड़बडा़कर हाथ में पकड़ा धागा भी नीचे रख दिया और ऊँचे स्वर में शाम को लेने आने को कहा। हालाँकि दूकानदार को हरगिज़ फ़िक्र नहीं थी मेरे सौदा लेने न लेने की। फिर भी बोलना उचित समझा कि वो देख ले कि हाथ का धागा वहीं रख दिया गया है।

ऑफिस का समय होने को था, देखा बस खड़ी थी। तकरीबन भाग के पकड़ी। दो धक्के सहे, तीन अश्लील फिकरे जिसमें से दो बहन की गाली के साथ थे। वैसे ये कोई नयी बात नहीं थी पर सावन में? और राखी के आसपास के दिनों में? अरे पागल! मैने ख़ुद का ही मज़ाक उडाया, सावन भर ही लोगों की बहनें होती हैं क्या! बस से नीचे उतरी तो वर्षा की झड़ी लगी थी। ऑफिस तक भागते भी पहुँची तो भीग चुकी थी। बरामदे में ज़रा रुककर पंखे के नीचे कपड़े सुखाना चाहती थी कि अर्दली आकर ऊपर से नीचे निहारता हुआ बोला, साहब बुला रहे हैं!

साहब ने कोई पाँच मिनट लेक्चर दिया और पेंडिग काम वहीं उन्हीं के कमरे में करने का फरमान सुना दिया। कोई दो घंटे रोक कर काम करवाने के बाद साहब मुस्कुराये और बोले कि आप छाता लेकर क्यों नहीं चलतीं? पूरा भीग गयीं, जाइये चाय पी लीजिये। मैं इस अप्रत्याशित सहानुभूति से कुछ हड़बडा़कर बुदबुदाई, कोई बात नहीं सर अब तो सूख गये कपड़े। साहब ने भेदती नज़रें मुझ पर टिका कर कहा, पर अंडरगार्मेंट्स तो गीले होंगे अब भी। देखिये ध्यान रखिये कहीं सरदी न लग जाये। इसके बाद जितनी देर मैं ऑफिस में रही, पूरे समय लगता रहा कि सबको मेरे गीले अंत:वस्त्र दिख रहे हैं। साथ काम करने वाली कांता जी को छुट्टी का प्रार्थना-पत्र थमा कर कल दे देने को कहा! वो कुछ कह रहीं थीं इतनी देर अंदर रहीं तब दे देती, जैसा कुछ, पर उसने अनसुनी कर दी।

लौटते समय फिर वही सड़क, फिर वही लोग, वही गालियाँ। घर में घुसते ही भागकर बाथरूम में घुसी। बाहर सास बोल रही थीं, भींज के आईं हैं आजौ।
कपड़े बदले, चाय पी, ख़ुद को समझाया, बस आज भर की बात है कल घर लौट जाऊँगीं। घर? अच्छा चलो माँ का घर! अभी तो माँ है वहाँ।
रात के खाने के साथ ही अगले दिन साथ ले जाने की पुड़ियाँ भी तल लीं। आलू उबाल लिये। अकेले जाना हो तो और बात थी पर छोटी बिटिया भी जा रही थी उसको तो गाड़ी चलते ही भूख लगती है।

लड्डू भी जैसे-तैसे बन ही गये। अचानक याद आया न जाने कबसे पार्लर नहीं गयी। शायद आखिरी बार करवाचौथ पर गयी थी। ज़रा-सी चिरौंजी पीस कर चेहरे पर लगा ली। हाथों का खुरदुरापन मलाई से ढँक लिया। इतना सब कर लेने पर अपने को शाबाशी देते-देते खाने के बाद किचन संगलाया। रात सोने के पहले दर्पण देखा और ख़ुश हुई।

सुबह निकलने के पहले जब सास के पैर छूकर उन्हें उनका और दोनों ननदों का नेग पकड़ाया तो एक ठंडी साँस भर कर बोलीं, साल भरै का त्योहार, बेटियाँ आएँगी। कोई घर में नहीं मिलेगा। और आह भर कर घुटने सहलाने लगीं। एक बार तो अपराध-बोध की लहर-सी दौड़ गयी पर जल्द ही मायके जाने की ललक हावी हो गयी। पति स्टेशन छोड़ने गये थे। रास्ते भर पिता-पुत्री का लाड़ देख गदगद होती रही। खिड़की से झाँकते पति का चेहरा देख मोह-सा होने लगा।

चेयर कार थी, तीन सीट वाली। खिड़की वाली बेटी ने पकड़ ली। बीच वाली पर मैं बैठी। तीसरी सीट पर एक बुजुर्ग को बैठते देख आश्वस्त हो गयी। गाड़ी चली तो पीछे सर टेक आँखें मूँद लीं। किससे-किससे मिलूँगी, क्या-क्या करूँगी। छोटी बच्ची की तरह योजनाएँ बनाने लगी। बचपन के गले में गलबहियाँ डाल, दो दिन के लिये बाक़ी सबकुछ भूल जाने की।

यादें जैसे अपना सिरा भूल, गडमड हो, मेरे मन के एक तरफ से दूसरी तरफ दौड़ रहीं थीं। जैसे मैं दौड़ा करती माँ के घर के छोटे-से आँगन में। बाहर दालान में पड़ी झूलने वाली कुर्सी तो टूट गयी थी पिछली ही बार। बूढा आम जिस पर पड़े झूले पींगे मारते कितनी ही बार एडी़ से आकाश को परे धकेल खिलखिलाई थी।अब कट चुका और ज़मीन के उस टुकड़े पर किरायेदारी के लिये कमरे बन गये हैं। पड़ोस का वो मंदिर, जहाँ सावन के हर सोमवार के उपवास में सुबह-सुबह नहाकर पूजा करने जाती थी। मंदिर तो अब बहुत भव्य हो गया है। दो साल पहले जब जन्माष्टमी पर गयी थी तो कितनी सुंदर झाँकी सजी थी।

'वो' भी तो दिखा था अपनी पत्नी के साथ। कितनी बेकार पत्नी मिली है उसे। बड़ी भाभी ने तो घर लौटते ही कहा, हमारी गुड्डी तो लाख गुना सुंदर है इस छछूंदरी से और मैं भाभी के गले लग ख़ुद पर रीझ-रीझ गयी थी। सीट पर सर टिकाये, आँखें मूँदे, मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट थी कि अचानक स्कूल के पीछे उगी कीकर की झाडी़ की चुभन-सा अनुभव हुआ। मैं तो इस रास्ते कभी नहीं जाती थी। और लगा जैसे झूले की डाल चरमरा-सी रही है। और आकाश बहुत ऊँचा हो गया। आँगन में गिर गयी क्या? कुछ गिजगिजा कीचड़-सा महसूस हुआ और आँखें खुल गयीं।

पास बैठे सफेद बालों वाले शख़्स की कोहनी काँटों की तरह बगल में धंस रही थी और उँगलिया सर्प की तरह कमर की तरफ बढ़ रहीं थीं। बचपन हवा की तरह सरसरा के उड़ गया। सामने की सीट के महानुभाव पूरे दृश्य को तन्मयता से देख रहे थे। मेरी हड़बड़ाहट देख, उनके होठों पर एक लोलुप मुस्कुराहट आ गयी।
मैं सकुचाकर बेटी की तरफ हो गयी। खिड़की के बाहर अब भी हरे खेत थे। रिमझिम फुहार थी पर मैं समझ चुकी थी कि ये सब मेरे लिये नहीं। अब मुझे पूरे रास्ते अपने शरीर को एक लानत की तरह दुनिया की नज़रों से परे रखना है। आगे का सफ़र पूरे वक़्त खिड़की की तरफ झुके, सकुचाये, बदन सिकोड़े ही बिताना है।

मेरे हिस्से का सावन बीत चुका है या कभी था ही नहीं?


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रचनाकार परिचय

ज्योत्सना मिश्रा

ईमेल : docjyotsna1@gmail.com

निवास : नई दिल्ली

नाम- डॉ० ज्योत्सना मिश्रा 
जन्मस्थान- कानपुर

शिक्षा- एम बी बी एस, डी जी ओ
सम्प्रति- स्त्री रोग विशेषज्ञ
विधा- कविता, कहानी, लेख एवं यात्रा-वृतांत
प्रकाशन- औरतें अजीब होती हैं (काव्य संग्रह)
देश के प्रतिष्ठित पत्र , पत्रिकाओं में लेख, कहानी एवं कविताओं आदि का प्राकाशन।
सम्पादन- साझा-स्वप्न 1 (साझा-काव्य संग्रह)
सम्मान- विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित  
संपर्क- नई दिल्ली 
मोबाईल- 9312939295