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कल्पना मनोरमा की कहानी 'एक नई शुरुआत'

कल्पना मनोरमा की कहानी 'एक नई शुरुआत'

किसी के द्वारा कहा गया एक भी शब्द इस ब्रह्माण्ड में अनसुना नहीं जाता। शब्द की अपनी सत्यता और प्रामाणिकता होती है। शब्द कभी मरते नहीं। वक़्त आने पर ठंडी-गरम तासीर ज़रूर दिखाते हैं।

एक नई शुरुआत

वे ख़ुशनुमा मार्च के दिन थे। सुनहरे दिनों की आमद, ललिता के घर काम का सैलाब ले आई थी। ऊनी कपड़ों की पोटलियों में नैपथलीन की गोलियाँ डालकर सुरक्षित कर दी गयी थीं। गर्मी के कपड़े दुरुस्त किए जा रहे थे। पुरानी साड़ियों की धज्जियों से पाँवदानों की बुनाई, नयी साड़ियों में फ़ोल टाँकाई और हथपंखों में फुंदने लगाए जा रहे थे। भले वह नौकरी-पेशा स्त्री नहीं थी पर कामों की उसके पास कोई कमी नहीं थी। पति के ऑफिस की पार्टियों में जाना, सैर करना, किसी के साथ खाली समय बिताने को वह पाप समझती थी। वहीं उसका पति, इस तरह के व्यवहार पर उसे अन्तर्मुखी, घुन्नू, घर-घुस्सू, अकुशल एवं अव्यवहारिक स्त्री कहता हुआ थकता ही नहीं था।

"किसी को कुछ भी मान लेने में, दोष उसी दृष्टि का माना जाएगा, जो कुछ भी मानने में अपना सारा देय लगा बैठती है, मेरा नहीं।"
चिढ़ आने पर इतना बोल देती। काम के आगे उसे बच्चों का भी ख़याल नहीं रहता। देखने वाले भी कहते, "बच्चों की परवरिश भी काम की तरह करती है ललिता।" वे बातें भी ललिता के पास आतीं मगर उन्हें भी वह हवा में उड़ा देती।

इस सर्दी बड़ी बेटी गुड्डो के लिए स्कीबी, बिन्नो की टोपी और बेटे रजत के लिए, जो बिन्नो से बड़ा था, हाफ़ स्वेटर बनाया था। अब क्रोशिया के साथ रंगीन धागे की लच्छियाँ निकल आयी थीं। ललिता पूजाघर के लिए बंदनवार बुन रही थी।

एक दिन पति ने ऑफिस से लौटकर ट्रांसफर की बात उसे बताई। स्थानांतरण का अथाह दर्द उसके मन में ताज़ा हो गया।
"कहाँ पटका है, रेलवे ने? तुम्हारी नौकरी हमें जगह-जगह का पानी पिला-पिलाकर अधमरा कर छोड़ेगी।" ललिता बोली।
"सहारनपुर। वैसे जगह अच्छी बता रहे हैं लोग। चीज़ें भी वहाँ अच्छी मिलती हैं।" प्रलोभन देता हुआ-सा पति बोला।
"जमे सामान को उखाड़ने में जो तन-मन खर्च होता है, उसकी भरपाई कोई चीज़ नहीं कर सकती।"
"अरे पगली! अब तक तो तुझे अभ्यस्त हो जाना चाहिए।"

पति के होठों तक शब्द आए पर उसकी लाज़िम दलील पर बोला नहीं। ट्रान्सफर की सौगात में सिर्फ़ सामान ही बाँधना नहीं होता, शहर बदलना, घर बदलना, साग़-सब्जी वाले, दूध वाले बदलना, न्यूजपेपर वाले के साथ काम वाली बाईयाँ बदलना, पड़ोसी बदलना, मित्र बदलना और सबसे ज़्यादा अपने मन के माहौल को नयी जगह के अनुरूप ढालना। उसकी बीवी को कभी अच्छा नहीं लगा था। सरकारी नौकरी के मिज़ाज थे सो एक रोज़ ललिता को इलहाबाद छोड़कर सहारनपुर आना ही पड़ा।

हफ्ते भर गेस्ट हाउस में रुकने के बाद रेलवे कॉलोनी के एक सरकारी बंगले में उसे पहुँचा दिया गया था, जिसे बूढ़ी स्त्री की तरह रंग-रोगन चढ़ाकर सजाया गया था। नए परिवेश में परिवार को उसके हाल पर छोड़कर पति ऑफिस, सहकर्मी और बॉस के इर्दगिर्द ऐसा जुटा कि घर, बच्चे और नए घर की व्यवस्थाओं को भूल गया था। वहीं सीलन युक्त वातावरण को स्वीकारते-नकारते, ललिता लगातार जमने का प्रयास कर रही थी लेकिन वह समझ नहीं पा रही थी कि घर को कहाँ से घर बनाना शुरू करे?
बहुत सोचने के बाद वह अस्थाई सहायकों के सहयोग से सामान खोलने लगी रहती और शाम होते-होते घनी थकान के बीच भी इलाहाबाद स्मृतियों में झाँकने लगता तो वह जहाँ की तहाँ यादों में खो जाती और मन भारी कर बैठती।

ऑफिस से लौटते हुए पति को घर का माहौल लगातार अबोला मिलने के बावजूद कुछ भी न पूछने की उसने क़सम खाई थी। उसे लगता- घर की व्यवस्थाओं में जब हाथ न बटाओ तो बोलो भी नहीं। साथ ये भी कि बिना मदद किये अगर वह बोला तो ललिता लताड़े बिना नहीं छोड़ेगी। इसलिए किसी भी प्रकार का जोख़िम उठाना उसे उचित नहीं लग रहा था। जहाँ पति ने सहारनपुर आते ही सरकारी आवास को अपना घर मान लिया था। वहीं, ललिता ने जर्जर बंगले को घर के रूप में तब स्वीकारा, जब उसके बच्चों का एडमिशन एक अच्छे स्कूल में हो गया।

उस दिन पहली बार रूपमती (सहायिका) ने एक दिन की छुट्टी माँगी थी। ललिता को उसके कई काम निपटाने पड़े थे। गीले कपड़े निकालकर जब वह बालकनी में सुखाने गयी तो बालकनी में झुक आए शहतूत से झरती धूप में उभरते छाया-चित्रों को देखकर वह ठिठक गयी। पेड़-पौधों में रुचि न रखने वाली ललिता को कुछ अच्छा लगा था। कपड़े सुखाने के बाद भी वह काफी देर बगीचे की रंगत को भाव-विभोर देखती रही थी।
"निश्चित ही कभी इस घर में रहने वाला शहतूत प्रेमी रहा होगा। पेड़ लगाता कोई है, फल कोई और खाता है। क्या लगाने वाले की निज की बातें ये पेड़ नहीं जानते होंगे? काश! पेड़ों की जुबान मैं समझ सकती तो ज़रूर पूछती कि मुझसे पहले इस घर में कौन रह कर गया है?"
शहतूत की फुनगी ने उसके कान में गुदगुदी की तो छन्न से उसकी तंद्रा भंग हो गयी।

"सहारनपुर इतना भी बुरा नहीं है।" पेड़ों का जादू था या हवा का कोमल ख़ुमार, सहारनपुर में शायद यह पहला सुकून भरा पल था उसके लिए। जिस प्रकार प्रकृति हमारे बाहरी शरीर की संरचना को पोषित करती है, उसी प्रकार मन के प्रभामंडल को भी संचालित करती है। हम छोटी-छोटी चीज़ों से प्रभावित होते भी हैं और करते भी हैं। साथ रहने वाला साथी अपने अस्तित्व से दूसरे को प्रभावित न करे तो वह अलग कहाँ से हुआ?" धीरे-धीरे ललिता के स्वभाव में प्रकृति के प्रति अंजाना बदलाव आने लगा था।

समय अपनी लय में चलता जा रहा था। काम में नाक तक डूबी ललिता को सहारनपुर के पाँच वर्ष वैसे तो पता नहीं चलते मगर रजत और बिन्नो के इलाहाबाद से ख़रीदे कपड़े उठंग हो चले तो उसकी नज़र बीते समय पर चली गयी।
एक दिन अंदाज़ा लगाते हुए पति ने सोचा, "लगता है, सहारनपुर आये हुए पाँच वर्ष बीत चुके हैं। ट्रांसफर की तलवार हमारी गर्दन पर कभी भी गिर सकती है। है न!"

कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन ट्रांसफर का लेटर लेकर पति घर आ पहुँचा। इस बार ट्रांसफर किसी क़स्बे के छोटे-से रेलवे स्टेशन पर हुआ था, जहाँ बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी। बहुत पूछताछ के बाद सहारनपुर के उसी सरकारी आवास में ललिता को बच्चों के साथ रुकने पर विचार करना पड़ा। सरकारी व्यवस्था के अनुसार दो वर्ष उसी घर को होल्ड किया जा सकता था। ललिता को राहत थी। पति अपना सूटकेस लेकर नयी जगह चला गया था। घर में सन्नाटा पसर गया।

कुछ दिन घर में रहने वाली ललिता को बाहर के कार्यों को सम्हालने में ख़ासी दिक्कत का सामना करना पड़ा। फिर वह भी बच्चों के साथ नए रुटीन में ढल गयी लेकिन जब–तब रजत पापा को याद कर रोने लगता तो पहले गुड्डो आँखें भरकर बैठ जाती फिर ललिता की आँखों से भी पानी बरस पड़ता, जिसे वह छिपा कर पोंछ लेती।

"....सब कैसा क्या चल रहा है?" एक दिन पति ने फोन पर पूछा था।
"सब ठीक ही चल रहा है, सिवाय बगीचे की कटाई-छँटाई का काम नियमित न होने के कारण बेतरतीबी से पेड़ बढ़ रहे हैं। सिर्फ एक बरसात पीकर ही बगीचे के शहतूत इतने घने हो गये हैं कि उन पर अब पंछियों के साथ-साथ चमगादड़ों का भी बसेरा हो गया है। बालकनी वाले शहतूत की डालियाँ तो कमरे में घुसने लगी हैं। उसके पके फलों से बालकनी में खून जैसे धब्बे पड़ जाते हैं। उसकी डालियाँ कपड़े फाड़ रही हैं। मुझे इलाहाबाद छोड़ दो, वही अच्छा रहेगा।" परेशान-सी ललिता बोली।
"अच्छा ठीक है….। परेशान मत हो। इस बार छुट्टी आऊँगा तो उसे जड़ से ही कटवा दूँगा।" पति ने उसे शांत करते हुए कहा।
"हाँ, ये ठीक रहेगा। इसे कटवा ही दो, बच्चे क्या! मैं भी डर जाती हूँ सोचकर कि रात बे-रात कोई छिपकर न बैठ जाए और अँधेरे में घर में घुस पड़े। इससे भी ज़्यादा दुःख, मेरे हल्के रंग के कपड़ों में शहतूत के ज़िद्दी धब्बे लगने लगे हैं। कुछ रूपमती की लापरवाही और कुछ शहतूत की बड़ी टहनियों में फँसकर कई कपड़े फट चुके हैं। बहुत बुरा लगता है।" ललिता ने शिकायत करते हुए फोन रख दिया।

एक दिन ललिता को बच्चों को लेकर स्थानीय पिकनिक पर जाना था। उसने गुलाबी सिल्क का दुपट्टा धोकर बालकनी में फैला दिया और अपने काम में व्यस्त हो गयी। खेल-खेल में रजत ने उसे खींचा तो शहतूत की डाली में उलझकर वह फट गया। गुड्डो ने जब देखा तो वह डर से काँप उठी। दुप्पटा फटने से ज़्यादा माँ की डांट-डपट, चीख़-पुकार याद कर वह सहम गयी थी।
"ये इंसान के बच्चे इतना डरते क्यों हैं?" पेड़ गुड्डो के गात-कंपन पर अचम्भित था।

गुड्डो ने इधर-उधर देखा और झपट कर रजत के हाथ से दुपट्टा छीनकर अलमारी में कपड़ों के बीच छिपा आई। जिस दिन पिकनिक जाना था, ललिता ने गुड्डो से वही दुपट्टा लाने को कहा। बहुत देर तक वह बहाने बनाती रही लेकिन ललिता जब डाँटने लगी तो उसने दुपट्टा उसके हाथ में लाकर पकड़ा दिया। दुपट्टे को जैसे ही ललिता ने कंधे पर डाला उसके होश उड़ गये। दुपट्टा बेतरतीबी से फट चुका था। उलट-पलट कर कई बार उसने देखा, कहीं से भी उसे ओढ़ा नहीं जा सकता था। क्योंकि दुप्पटा ललिता की माँ! की अंतिम निशानी था इसलिए उसके लिए वह बहुत क़ीमती था। ललिता की आँखें छलक पड़ीं। सिर पकड़कर वह बैठ गयी। अब शहतूत उसे दुश्मन लगने लगा था। सजे-धजे बच्चे माँ के सामान्य होने की प्रतीक्षा करते रहे पर ललिता ने पिकनिक पर जाना केंसिल कर दिया। उस घटना के बाद ललिता और शहतूत में जो ठनी! सो ठनी!

आते-जाते पेड़ को ख़ूब बुरा-भला सुनाने लगी थी। चलते-फिरते कभी उसके पत्ते नोंचती तो कभी डालियाँ तोड़ देती। एक दिन उसके पास खड़ी होकर बोली-
"मुझे कभी पेड़ों से मुहब्बत नहीं रही पर तूने अपनी छटा से मेरे मन को मोह लिया था पर हरकतें तेरी नहीं बदलीं। बचपन मेरी फ्राक कुछ बंदर ने फाड़ी थी, बची-खुची पेड़ ने। अब तुझे कटवाकर ही मुझे ख़ुशी मिलेगी। अपनी मस्ती में झूमकर तू मेरे कपड़ों का सत्यानाश करेगा? मेरी सफेद, गुलाबी, पीली चादरों को धब्बों से भरेगा? और मैं चुप बनी रहूँगी? होगा तू बगीचे का बादशाह! अब मैं तुझे देखती हूँ।"
ललिता के अनाप-शनाप बोल-कुबोल सुनकर शहतूत था कि चिकना घड़ा। उस पर कोई असर न होता और उसकी लहकन पर ललिता खीझ उठती। धीरे-धीरे मौसम ने करवट बदली। बरसात से सर्दी और उसके बाद पतझड़ ने अपना खेल रचाया तो कॉलोनी के सारे वृक्ष पत्र विहीन हो गये। ललिता को परेशान करने वाला शहतूत भी बदसूरत होता चला गया।

पतझड़ की नीरव संध्या में शहतूत की कंकाल काया को देख ललिता बहुत देर तक उसे देखती रही। उसका मन अजीब सुकून से भर गया था। उसने पेड़ की टहनियों को छूकर देखा, जो सूखी नहीं थीं। वह तोड़-तोड़ कर उन्हें फेंकने लगी। जो थोड़ी मजबूत दिखीं, उसे हंसिया की मदद से काटकर फेंक दिया। इस तरह बालकनी की ओर से लगभग चौथाई पेड़ कट चुका था। पेड़ ललिता के कृत्ययों को स्तब्ध होकर देखता रहता लेकिन उसके कार्यों पर दुःख नहीं मनाता। "माएँ बच्चों के बाल कटवाकर उन्हें सुन्दर बना देती हैं, ललिता भी मुझे सुंदर बना रही है।" पेड़ मन ही मन सोच रहा था।

कुछ दिनों में पतझड़ बूढ़ा हो चला तो पेड़ों पर बसंती रंगत लौटने लगी थी। शहतूत के प्रति ललिता के मन का गुस्सा यथावत था। पछुआ हवाओं में पत्र विहीन पेड़ झूम रहे थे। ललिता का ध्यान शहतूत के पेड़ की ओर चला गया। इस पेड़ पर पत्ते नहीं आये थे।
"मैं तो कहती हूँ अब इस पर कभी एक पत्ता भी न उगे। कहीं ऐसे भी पेड़ होते हैं? इसने मेरी माँ का दिया दुपट्टा कैसे तो फाड़ डाला है। एक तो गृहस्थी की सारी ज़िम्मेदारी अकेले ढोओ, ऊपर से सारी दुनिया मुझे ही दुख देने पर तुली रहती है।" ललिता ने अपने जीवन का क्षोभ उस पर उड़ेल दिया।

जब-जब ललिता अपना गुस्सा पेड़ पर निकालती तब-तब पेड़ सोचता बहुत, पर अपनी ग़लती पकड़ नहीं पाता? भला-बुरा सुनते-सुनते पेड़ जब परेशान हो जाता तो आँखों के साथ कान भी बंद करने लगा था। फिर भी ललिता की तीख़ी ज्वाला युक्त डपटती चीखें उसे सुनाई पड़ती रहतीं। धीरे-धीरे बगीचे का यह पेड़ अन्यमनस्क-सा रहने लगा। रात में पक्षी जब पेड़ पर सोने आते तो सोता हुआ पेड़ अचानक चौंक पड़ता। पेड़ के काँपने से घोंसलों में बैठे नन्हें पंछी जाग कर बोलने लगते तो हवा चौकन्नी होकर उड़ जाती। अन्य वृक्ष भी इसकी इस प्रकार की हरकत पर जाग जाते। देखने वालों को भी पेड़ की हालत ठीक नहीं लगने लगी थी।

बगीचे में हर ओर पेड़ों की डालियों पर कोमल पत्तियाँ छिटक उठी थीं। फूलों से लदी डालियाँ झुक गयी थीं। वृक्षों की सुकुमारता सब का मन मोह रही थी केवल ललिता को दुःख देने वाला शहतूत उजाड़ खड़ा था। वह अपनी हालत का ज़िम्मेदार ललिता को मान रहा था।
"जो बातें चुभने वाली होती हैं, वे हवा के साथ उड़ती नहीं बल्कि कानों से होते हुए दिल को घायल कर जाती हैं।" पेड़ अपनी नंगी डालियाँ देखकर मन ही मन बुदबुदाया। पेड़ की डालियाँ आपस में उलझ कर बज उठीं। ललिता ने पेड़ को इस हालत में देखा तो वह विचार नहीं कर पाई थी कि उसकी गालियों का असर उस पर हुआ है या मौसम का या कोई अन्य कारण था। लेकिन एक गहरी उसाँस छोड़ते हुए उसने कहा, "चलो, साँप भी मर गया और अपनी लाठी टूटने से भी बच गयी।" एक से डेढ़ महीनों के बाद सुबह-सुबह झाड़ू पटक कर रूपमती दौड़ते हुए उसके पास आकर बोली।

"मैडम! सहतूत को देखीं! हरिया गया है ऊ।"
"कौन हरि...या...?" ललिता ने जाकर देखा तो देखती रह गयी। पेड़ की प्रत्येक डाली पर हरे-हरे बूटे यानी पत्तों के अंकुरण फूट पड़े थे। पेड़ प्रसन्न लग रहा था। इस पेड़ पर पतझड़ का असर देर से हुआ था इसलिए पत्रागमन भी देर से हुआ था।
"ये क्या हुआ? इसमें तो अभी भी जान बाक़ी है। मैंने सोचा था कि ये मर चुका है। इसमें जान कैसे बची रह गई? अब ये फिर से अपने मद में लहराकर दादागीरी दिखायेगा। कपड़ों को दाग-धब्बों से भरेगा। मेरा जीना हराम करेगा।" क्रोध से आगबबूला उसे लगा कि वह गश खाकर गिर जायेगी। उसने स्मृतियों को खँगालना शुरू किया। बहुत देर माथापच्ची करने के बाद उसे अजिया की कई बातें और टोटके याद आने लगे।
"लाली, स्त्री-मासिकी में तुम फलदार पौधों और तुलसी को मत छुआ करो। तुम्हरा क्या! तुम तो नहा-धोकर खड़ी हो जाओगी लेकिन पेड़-पौधे बेचारों की आत्मा सूख जायेगी। उनके फल असमय सूखकर झड़ जायेंगे।" एक बार गर्मी की दोपहर हैंडपंप से पानी लेकर उसने हरसिंगार में डाला था तब भी अजिया ने कहा था। "लाली पेड़ों को गर्म पानी मत डाल, उसके प्राण निकल जायेंगे।" ललिता आजी की बातों को रुक कर सोचने लगी।
इस वैज्ञानिक युग में भी आजी की दकियानूसी बातों का कुछ अर्थ बचा होगा? क्या मालिन बाग़ में काम न करती होगी? या अपने मासिक धर्म के दौरान पेड़-पौधों को नहीं छूती होगी? फल-फूल, पेड़-पौधे भी तो फल देते हैं। क्या बेलें-लताएँ, पेड़-पौधे रजस्वला न होते होंगे? भले उनके जीवन का ढंग अलग होता है, तो क्या हुआ! मुझे नहीं लगता इसका कोई असर होगा। हाँ गर्म पानी से कुछ हो सकता है।

ललिता ने जैसा सोचा, वैसा ही किया। उसके बाद प्रतिदिन पेड़ का मुरझाता हुआ चेहरा देखने के लिए लालायित रहने लगी। जब परिणाम निकलते समझ नहीं आया तो बालकनी के दरवाज़े पर ताला ठोंक दिया और उस ओर किसी को भी न जाने के लिए रोक दिया।
"रूपमती तू भी ध्यान से सुन ले, कपड़े-वपड़े उस ओर नहीं सुखाएगी। और बच्चो, तुम लोग भी सुनो, कोई भी बालकनी का दरवाज़ा नहीं खोलेगा।"
"कपड़े फिर कहाँ सूखी मैडम?" रूपमती के मन में आया कि पूछे लेकिन ठीक है मैडम! बोलकर मौन हो गयी।

लंबे समय तक कोई भी शहतूत की ओर नहीं गया। बच्चे भी नहीं। कई महीनों के बाद शाम को वह रजत को 'पेड़ों की दुनियाँ' पाठ पढ़ाते हुए ललिता को शहतूत की याद हो आयी। किताब छोड़ वह बालकनी में आ गयी। उसने देखा चारों ओर हरियाली उफ़ान पर थी लेकिन शहतूत पर सन्नाटा पसरा था।
हरे-भरे वातावरण में उसका शहतूत कंकाल की तरह लग रहा था। जो पत्र-अंकुरण लहक में डालियों पर उगे थे, वे चिपक कर सूख चुके थे। ललिता बहुत देर सोचती रही लेकिन कुछ समझ नहीं आया तो रजत को आकर पढ़ाने लगी। लेकिन उसके मन में पेड़ कौंधता रहा। अगले दिन ललिता ने उसकी डाली झुकाकर एक पत्रांकुर को छुआ तो वह उसकी उँगली में चुरमुरा गया। झपट कर उसने दूसरी डाल झुकाई, उस पर लगे पत्रांकुर का भी वही हाल। उसने एक डाल तोड़ी तो कुट्ट से टूट गयी। लगातार कई डालियों को उसने तोड़ा, सभी टूटती चली गयीं। उसके मन में अचानक भय भरने लगा। ललिता इधर-उधर देखने लगी जैसे उससे कोई बहुत बड़ा गुनाह हुआ था।

"एक पेड़ की मौत का ज़िम्मेदार और कोई नहीं, तुम हो ललिता।" किसी के कहने का एहसास हुआ उसे। ललिता ने इधर-उधर देखा लेकिन कोई कहीं नहीं था। बोलने वाला उसका स्वबोध ही था, जो अब ललिता को धिक्कार भेज रहा था। समझते-समझते जब समझ पायी तो मन का दहकता हुआ क्रोध ऐसे उड़न-छू हुआ जैसे दहकती अंगीठी पर बादल फट पड़ा हो।

"हाय ये मैंने क्या कर डाला?" वह परेशान-सी उसे टटोलने लगी, जैसे बच्चे के हाथ-पाँव देख रही हो।
"अरे! ये क्या हुआ तुझे? तू तो बिलकुल सूख गया। मैंने ऐसा तो कभी नहीं चाहा था। हे ईश्वर! ये क्या कर डाला...और तू! मेरी बातों को दिल से क्यों लगा बैठा? मैंने ऐसा नहीं चाहा था कि तू सूख कर मर जाए। मैं तो तेरी उद्दंडता से परेशान थी इसलिए भला-बुरा कहती आ रही थी।"
ललिता ने अब अपना स्वर बदला और गिड़गिड़ाते हुए इस तरह से कहने लगी कि उसे ख़ुद अपना कलेजा मुँह को आता हुआ महसूस हुआ।

"ललिता देवी, इस दुनिया में यूँ ही कुछ नहीं होता। सबका कुछ न कुछ ध्येय होता है। जितनी तुम्हारी कविताओं ने मुझे बढ़ने में मदद की थी। उससे ज़्यादा तुम्हारी गालियों ने मेरे हृदय की हर एक परत को छील डाला है। सच कहूँ तो हरे-भरे बने रहने की मैंने बहुत कोशिश की थी लेकिन तुम्हारी गालियाँ सुनते-सुनते मैं अपने को हरा-भरा न रख सका। देखो न! बगीचे में मेरे परिवार के सभी पेड़ कितने ख़ुश और स्वस्थ हैं क्योंकि उन्हें तुमने जब भी देखा, स्नेह से देखा। लेकिन मेरी ओर तुम्हारी दृष्टि अग्नि ही बरसाती रही। मैं एक बार कुंठित होना शुरू हुआ तो होता चला गया। अब तो तुम देख ही सकती हो कि मरने की अंतिम कगार पर हूँ। एक बार आँधी आने की देरी रहेगी, समूल नष्ट हो जाऊँगा। तुम ख़ुश रहो…।"
हवा के झकोरे से पेड़ की सूखी टहनियाँ आपस में टकराकर झनझना उठीं। ललिता को लगा जैसे शहतूत ने अपना दुःख उसके कानों में उड़ेल दिया, जो उसकी आत्मा को कचोटने लगा था।

"अरे! ये क्या कह रहा है तू! तुझसे ज़्यादा बुरा-भला तो मैं अपने बच्चों से कहती हूँ। पिटाई करने से भी नहीं हिचकती। किसी के सामने पीटने में भी बिलकुल सोचती नहीं हूँ। आख़िर मैं उनकी माँ हूँ। हाँ, कुछ लोग कहते ज़रूर हैं कि बच्चों की भावनाओं की कद्र करना चाहिए पर मैं कहती हूँ ऐसा करने से बच्चे बिगड़ जाते हैं, उद्दंड हो जाते हैं। मजाल है, जो मेरे सामने हँसकर बच्चे कोई ऊधम...। गुड्डो, रजत और बिन्नो बहुत प्यारे बच्चे हैं पर उनकी भावनाओं का सम्मान कर मैं उन्हें बिगाड़ना नहीं चाहती। मैं उनसे जो चाहती हूँ, बच्चों को वही करना पड़ता है। मैं कहती हूँ खड़े रहो तो खड़े रहते हैं, मैं कहती हूँ बैठ जाओ तो वे बैठ जाते हैं। आख़िर देव तुल्य मैं, उनकी माँ जो हूँ। अपनी अतुल्य ममता उन्हीं पर तो लुटाती हूँ तो इतना अधिकार बच्चों पर बनता है।
उस पर मैं लाख बुरा कहूँ लेकिन मेरी बातों का मेरे बच्चे कभी बुरा नहीं मानने और न ही अधिकार है बुरा मानने का उन्हें। अगर वे माँ पर नाराज़ होंगे तो लोग क्या कहेंगे? समाज क्या कहेगा? वैसे भी मैंने लोगों को कहते सुना है कि पेड़ बच्चों की तरह होते हैं। तो तूने मुझे माँ के ठौर क्यों नहीं माना? बुरा क्यों मान गया मेरी बातों का?"
फीकी-सी हँसी हँसते हुए ललिता ने पेड़ के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए उसकी डाल को छुआ तो पेड़ बूढ़े आदमी की तरह थरथरा उठा। हवा दबे पाँव वहाँ से खिसक गयी। चिड़ियों ने चहकना रोक लिया।

"तुमने बिलकुल सही कहा ललिता! अपने किये कुकृत्यों पर कुछ भी सोचकर मन को तसल्ली देना मानवीय फ़ितरत है। लेकिन मैं अच्छी तरह से जानता हूँ, किसी के द्वारा कहा गया एक भी शब्द इस ब्रह्माण्ड में अनसुना नहीं जाता। शब्द की अपनी सत्यता और प्रामाणिकता होती है। शब्द कभी मरते नहीं। वक़्त आने पर ठंडी-गरम तासीर ज़रूर दिखाते हैं।"
"नहीं, नहीं...। मैं नहीं मानती हूँ। मैंने किया ही क्या है? कभी-कभार किए गये क्रोध से क्या होता है?"
"अच्छा!! अपने बच्चों को तुम अधिकार समझकर भला-बुरा बोलती हो और ये जानती हो कि तुम्हारे बच्चे सब भूल जाते हैं?"
"हाँ, बिलकुल।"
"मैं पूछता हूँ, तुम्हारे बच्चों पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता?"
"नहीं, बिलकुल नहीं। माँ-पिता की गालियाँ भी पौष्टिक होती हैं। तुझे पता नहीं।"
"इसका मतलब तुमने अपनी बड़ी बेटी गुड्डो को ध्यान से कभी देखा ही नहीं। वह बेचारी खुलकर हँसना, बोलना और मुस्कराना ही भूल चुकी है। जीवन के उचित निर्णय क्या ही लेगी वह! जबकि वह तुम्हारी बेटी है फिर भी अपना मन तुम्हारे साथ नहीं बाँट पाती। क्यों?"
"मुझे ऐसा नहीं लगता। वह अभी बच्ची है। उसके पास है ही क्या बाँटने को?" ललिता प्रश्नवाचक मुद्रा में अकड़कर बोली।
"अगर ऐसी बात है तो फिर कुछ बहुत बुरा होने का इंतज़ार करो, समय आने दो..।"

पेड़ हवा में खड़बड़ाया और औचक मौन हो गया लेकिन ललिता को लगा जैसे उसे किसी ने ऊपर से धकेल दिया हो। वह अवाक थी। चारों ओर सन्नाटे का तीक्ष्ण स्वर उसके कलेजे को बींधने लगा था। उसने विनित भाव से ऊपर की ओर देखा। ज़ाफ़रानी आसमान पर सूरज पश्चिम की ओर रुख कर चुका था पर साँझ होने में वक़्त था फिर भी ललिता को अपनी आँखों में खौफ़ की कालिमा उतरती हुई प्रतीत हुई। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। उसने आवाज़ देकर बच्चों को अपने पास बुला लिया। असमंजस और ग्लानि की स्थिति में ललिता ने बालकनी से झुककर शहतूत के तने के सहारे ज़मीन पर देखना चाहा। ऊपर से नीचे तक शहतूत पूरी तरह से सूख चुका था।

ललिता को अपना पेट ऐंठता-सा महसूस हुआ। उसकी नज़रें लगातार कुछ सुंदर खोज लेना चाह रही थीं ताकि क्षोभ का उद्वेग कुछ थमें। बहुत देर खोजने के बाद शहतूत की जड़ के पास उसे दो पत्तेदार छोटे-छोटे हरे कल्ले लहक में सिर उठाते हुए दिखे। ललिता की आँखें चमक के साथ पनीली हो आयीं।
"पेड़ की उदारता देखिए! ख़ुद का अस्तित्व समाप्ति की ओर है फिर भी धरती की सेवा में दो को छोड़े जा रहा है। एक मैं हूँ!"
विचार आते ही शीत-लहर ललिता के शरीर को कंपकंपा गयी। घूमकर उसने अपने बच्चों की ओर पहली बार प्रेम से देखा। बिन्नो, रजत की गोद में हँस रही थी, झपटकर ललिता ने बिन्नो को गोद में लेकर गुड्डो और रजत को अपने पास समेट लिया था।

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रचनाकार परिचय

कल्पना मनोरमा

ईमेल : kalpanamanorama@gmail.com

निवास : द्वारका (नई दिल्ली)

जन्मतिथि- 4 जून, 1972
जन्मस्थान- अटा, औरैया (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- डबल एम० ए० एवं बी० एड (हिंदी साहित्य व भाषा)
सम्प्रति- अध्यापक (सेवानिवृत्त)
प्रकाशन- 'कब तक सूरजमुखी बनें हम' (नवगीत संग्रह, 2019), बाँस भर टोकरी (कविता संग्रह, 2021) एवं 'नदी सपने में थी' (कविता संग्रह, 2023) प्रकाशित। वनमाली कथा, कथाक्रम, समावर्तन, निकट, नवनीत, सोच विचार, हिंदी चेतना, यूपी मासिक, विश्व गाथा, वागर्थ, अहा ज़िंदगी, दैनिक जागरण, न्यूज 18 आदि पर कहानियाँ, लेख, कविताएँ, यात्रा वृत्तांत प्रकाशित। कई कहानियाँ उड़िया, नेपाली व पंजाबी में अनूदित, प्रकाशित।
संपादन- 'सहमी हुईं धड़कनें' एवं 'काँपती हुईं लकीरें' (पुरुष विमर्श पर दो कथा संग्रहों का सम्पादन)। एजुकेशन पब्लिसिंग हाउस में लगभग एक से दो वर्ष तक सीनियर सम्पादक के रूप में कार्य।
पुरस्कार-
अखिल भारती कुमुद टिक्कू प्रतियोगिता, 2022 में कहानी 'पिता की गंध' साहित्य समर्था पुरस्कार से पुरस्कृत।
माँ धनपती देवी स्मृति कथा साहित्य सम्मान प्रतियोगिता, 2023 में कहानी 'कोचिंग रूम' पुरस्कृत।
सम्मान-
दोहा शिरोमणि सम्मान (खटीमा उत्तराखंड, 2014)
लघुकथा लहरी सम्मान (वनिका पब्लिकेशन, 2016)
नवगीत गौरव सम्मान (वैसबारा शोध संस्थान, 2018)
'कब तक सूरजमुखी बनें हम' नवगीत संग्रह को सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला सम्मान (सर्व भाषा ट्रस्ट, 2019)
काव्य प्रतिभा सम्मान (हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी, 2019)
आचार्य सम्मान (जैमिनी अकादमी, पानीपत हरियाणा, 2021)
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