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विनीता शुक्ला की कहानी 'विश्रांति'

विनीता शुक्ला की कहानी 'विश्रांति'

स्मृतियाँ अपने कपाट फटफटाने लगीं। संध्या का झुटपुटा उनको जकड़ने लग गया। जान पड़ा मानों कल की कुहरीली सांझ, पुनः जीवंत होकर; अभिशप्त परछाइयों के पंजे फैला रही हो। उस दुर्घटना को 24 घंटे भी न बीते होंगे। इसी क्लब हाउस के चौराहे से बमुश्किल सात फीट की दूरी पर वह अप्रत्याशित काण्ड हुआ था। एक लापरवाह-सा नौजवान, अपनी बेकाबू हो चुकी बाइक को लेकर रंधीर की कार से जा भिड़ा। ग़लती उस युवक थी; फिर भी अपराधी वे बने।

रंधीर क्लब हाउस में कबसे बैठे थे। मन उकता रहा था। साथ ही सशंकित भी होता जाता था। इंस्पेक्टर अंजन ने उनके मुआमले में कुछ न कुछ मदद करने का आश्वासन दिया था। शाम साढ़े पाँच बजे मिलने बुलाया था। दो घंटे प्रतीक्षा में बीत गये। रंधीर के अधिवक्ता मित्र निलय, इस विकट परिस्थिति में उन्हें सम्बल देने आये थे किन्तु अंजन ही का कुछ अता-पता नहीं इसलिए निलय वहाँ रुक न सके थे। 'तीसरी पार्टी' के लोग भी नदारद। 'आउट ऑफ़ द कोर्ट सेटलमेंट' की सम्भावना धूमिल होती जा रही थी। दिल डूबने लगा। जान पड़ा कि हालात उनसे कोई घटिया मज़ाक कर रहे हों। कहाँ दो पल का विराम नहीं; मरने की फुर्सत तक नहीं और कहाँ ऐसा मंज़र कि समय गुज़रता ही न था।

स्मृतियाँ अपने कपाट फटफटाने लगीं। संध्या का झुटपुटा उनको जकड़ने लग गया। जान पड़ा मानों कल की कुहरीली सांझ, पुनः जीवंत होकर; अभिशप्त परछाइयों के पंजे फैला रही हो। उस दुर्घटना को 24 घंटे भी न बीते होंगे। इसी क्लब हाउस के चौराहे से बमुश्किल सात फीट की दूरी पर वह अप्रत्याशित काण्ड हुआ था। एक लापरवाह-सा नौजवान, अपनी बेकाबू हो चुकी बाइक को लेकर रंधीर की कार से जा भिड़ा। ग़लती उस युवक थी; फिर भी अपराधी वे बने। उनकी गाड़ी तेज़ रफ्तार पकड़े थी; इसी से वक़्त पर रोक पाना सम्भव न हुआ। यही बात उनके ख़िलाफ़ चली गयी। घटनास्थल पर उन्हें घेर लिया गया।

प्रत्यक्षदर्शी जनता हद दर्जे की समाजवादी थी। उनको घायल युवक के शरीर पर चोटों के निशान अवश्य दिखे परन्तु रंधीर राय की लाचारी नहीं। उनके हिसाब से जिसका वाहन बड़ा, असल दोषी वही। तथ्यों को देखना-समझना भी गैर ज़रूरी ठहरा। उस लड़के तुहिन की उम्र कुछ बीसेक साल रही होगी। घटनास्थल से उसे अस्पताल वे ही ले गये थे। तुहिन के परिजन उन्हें खा जाने वाली दृष्टि से देख रहे थे। उनसे कुछ कहने-सुनने का साहस, रंधीर को नहीं हुआ। वे चोरों की तरह वहाँ से खिसक लिए।

एक विचित्र-सी ग्लानि, अस्तित्व पर छा गई थी; जो अपराध किया नहीं, उसका बोझ ढोने की ग्लानि। कुछ वैसा ही संताप, उन्हें बड़े बेटे देव को देखकर होता है। उसे इस दुनिया में लाने का अपराध भी तो उनसे ही हुआ था। तुहिन की आयु देव जैसी है- बीस से पच्चीस के बीच। तभी तो उस चोटिल नवयुवक की दशा, रंधीर को आहत कर रही है। अस्पताल में कोई कह रहा था, "लगता है हाथ की हड्डी टूट गयी, कलाई मुड़ने पर दर्द से चीखता है।"

थोड़ी देर उधर रुकते तो पता चल जाता कि हालत वास्तव में कितनी गंभीर थी। इस भूल के लिए सहकर्मी उन पर तरस खा रहे थे, "आप भी राय साहब...! जो टूट-फूट लड़के के शरीर में नहीं भी हुई होगी, उसका मुआवजा आपसे वसूला जाएगा। डॉक्टरों से पूछताछ करते तो सच्चाई सामने आ जाती।" उन्हें खेद होने लगा। इन पहलू पर तो ध्यान गया ही नहीं। घबराहट के चलते दिमाग की बत्ती गुल हो गयी। उनका मोबाइल घनघनाया तो विचारों को अपने पंख समेटने पड़े। यह तो निलय ही थे।

"क्या हुआ, कुछ बात आगे बढ़ी?" दूसरे छोर से आवाज़ आयी। "नहीं रे! फोन पर चर्चा ज़रूर हुई है। इंस्पेक्टर का दीदार नहीं हुआ। बात क्या ख़ाक आगे बढ़ेगी?"
"इंस्पेक्टर अंजन तो हमारे क्लब हाउस में आता-जाता है।"
"हाँ...लेकिन" कहते-कहते रंधीर की आवाज़ मरियल-सी हो गई थी।
"वह हमारे सोशल- सर्किल में है।" निलय के स्वर में आश्वस्ति थी।
"हमारी-तुम्हारी उससे 'हाय-हेलो' होती रही है। तुम कहो तो मैं बात करूँ?"
"कोई फायदा नहीं, वह भी ‘खाओ-कमाओ’ वाले गैंग का हिस्सा है। तरह-तरह के डर दिखा रहा था।"
"तो उसे भी थोड़ा-कुछ खिला-पिला दो। तुम्हारी गर्दन तो छूटेगी।"

"पहले श्रीमुख के दर्शन तो हों आमने-सामने, सलाह-मशविरा हो; तब जाकर कोई नतीजा निकलेगा।" रंधीर के स्वर में व्यंग्य उतर आया था।
"उसके डराने से जब मैं नहीं डरा तो कह रहा था एफ़० आई० आर० करवा लीजिए। आपकी गाड़ी भी तो डैमेज हुई है। आप निर्दोष हैं तो गड़बड़ी की कोई गुंजाइश नहीं। सी० सी० टी० वी० फुटेज से सच का पता चल ही जाएगा।" रंधीर ने कुछ अधीरता से कहा।
"ऐसा भूलकर भी मत करना। इस तरह तो तुम पर सॉलिड केस बन जाएगा। बदनामी होगी सो अलग। विवाद का फैसला जब होगा, तब होगा। ख़ुद को सच्चा साबित करने के लिए भी तरह-तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। और रही बात निरपराध होने की तो आजकल झूठे गवाह खड़े करके, सबूत मिटाकर, स्याह को सफेद किया जा सकता है। 'सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुँह काला' वाले दिन लद गये।"

इस पर सन्नाटा खिंच गया। रंधीर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर निलय ने उनकी मनोस्थिति को भांप लिया। बातचीत वहीं पर रुक गयी। कुछ पल यूँ ही, बेख़याली में बीते। फिर ध्यान आया कि देव इस समय घर पर अकेला होगा। यह सोचते ही दिल डूबने लगा। कामवाली से दोपहर में सब्जी कटवाकर आ गये थे। सोचा था वापस आकर वे ख़ुद ही कुछ पका लेंगे। बड़ी मुश्किलों से घर में चौबीसों घंटे रहने वाली सेविका मिली थी। आज ऐसे समय पर छुट्टी ले गई, जब उसकी सबसे ज़्यादा दरकार थी। कामवाली के नखरे उठाना उनकी मजबूरी है। कोई दूसरी उनके यहाँ काम करने को तैयार नहीं। मतिमंद देव तैश में आकर कुछ पुरानी बाइयों पर हाथ उठा चुका था। अलबत्ता उसका इलाज करने वाले डॉक्टर जानते थे कि वह ऐसा जान-बूझकर नहीं करता। देव की मेडिकल कंडीशन के चलते उसे अवसाद के दौरे पड़ते थे और कभी-कभार वह हिंसक हो जाता।

इंस्पेक्टर अंजन की राह देखते-देखते नकारात्मक विचार उन पर हावी हो गये। दो दिन पहले की ही तो बात है, उन्होंने देव को समझाया था, "देख देबू, बिना बताये घर से निकलना बंद कर। अब हम कॉलोनी में नहीं हैं। बाहर के लोग न जाने कैसे हैं। आजकल किसी का पता नहीं।" वह उनका आशय तत्क्षण समझ गया था। हालांकि बहुत समझाने पर ही कोई बात देबू के पल्ले पड़ती है किन्तु इस बार उनकी नसीहत सुनकर झट से बोल पड़ा, "मुझे कोई किडनैप नहीं कर सकता, मैं कितना स्ट्रांग हूँ।" कहकर भुजा की मांसपेशियाँ दिखाने लगा। रंधीर को पहले तो हँसी आयी परन्तु फिर सोच में पड़ गये। मनोचिकित्सक ने कहा था, "कोई भी विचार देव पर हावी मत होने देना। ही शुड नॉट बी ऑब्सेस्ड विद एनीथिंग। आपको इसका ध्यान रखना होगा।"

यह देव के छोटे भाई, आनन्द का किया धरा था। उसके साथ टी० वी० पर एनीमेशन फिल्में देखकर ही देबू को ऐसे ऊटपटांग ख़याल आते। पहले की बात है, कॉलोनी वाली श्रीमती अंजना बता रही थीं कि वह उनके दरवाज़े आया था और स्टूल की माँग कर रहा था। उन्होंने पूछा, "स्टूल क्यों चाहिए?" जवाब मिला, "आम तोड़ना है।" अंजना जी ने लाख समझाया कि स्टूल से आम तक नहीं पहुँचा जा सकता; पर व्यर्थ। हारकर उन्होंने अपने फ्रिज से एक आम निकाला और देबू को दिया तब जाकर पिंड छूटा! कोई बता रहा था कि घर का दरवाज़ा खुला पा जाता है तो धड़धड़ाता हुआ भीतर तक घुसता चला आता है। मौका मिलते ही हर चीज़ अस्त-व्यस्त कर देता है। फाटक न खोलो तो इतनी ज़ोर से खटखटाता है, मानों उसके टुकड़े-टुकड़े कर देगा।

जो भी हो, कॉलोनी वाले; उसकी हरकतों को काफी हद तक सहन करते थे। आखिर उनकी अपनी कॉलोनी थी और लोग उनके जानने वाले कार्यालय के लोग। यह और बात है कि वहाँ के छोटे बच्चे भी देबू के साथ खेलना पसंद नहीं करते थे। वह उन्हें दूर से ही खेलता देखकर काम चला लेता। कभी-कभी आनंद और उसके दोस्तों के बीच खेलने घुस जाता तो कुछ देर बाद ही वे सब उससे कन्नी काटने लगते थे। आनंद उसके संग यदा-कदा गेंद या फ्रिजबी खेलकर, 'अनुज- धर्म' निभाता था परन्तु दोस्तों की उपस्थिति में बड़े भाई का साथ उसे लज्जित करता था। आजकल तो पढ़ने के बहाने अपना कमरा अंदर से बंद रखता है। रंधीर को लगने लगा है कि आनंद देव से पीछा छुड़ाने के लिए ही ऐसा करता है।

यही हाल रहा तो भविष्य में देबू को कैसे संभालेगा? नये मकान में आने के बाद देव की अपनी गतिविधियाँ भी मंद पड़ गई हैं। कॉलोनी की स्मृतियाँ पुनः प्रबल हो उठीं। उधर कम से कम मॉर्निंग-ईवनिंग वॉक करने वाले 'अंकल-आंटियों' से देबू की 'नमस्कारी' हो जाती। वे रंधीर का लिहाज कर, उससे थोड़ा-बहुत बतिया लेते। यह ज़रूर था कि वह उनसे बे-सिर-पैर के सवाल पूछता। यथा- "आप लोग नाश्ते में क्या खाते हैं, लंच में, डिनर में?" कभी तेलगू-भाषियों से अपनी भोजपुरी वाली मूवी की चर्चा करता तो वे हँसकर टाल जाते। रंधीर का बेटा होने के नाते उसे घुड़कते नहीं।

किन्तु इधर कुछ समय से हमदर्दी का कवच ओढ़कर उनकी निजता में अतिक्रमण की कोशिशें बढ़ गई थीं। यह एक तरह से अच्छा था कि वहाँ से चले आये। यूँ भी पैसा बहाकर अपना ख़ुद का मकान बनवाने के बाद कॉलोनी में रहने का कोई मतलब नहीं था। वहाँ से शिफ्ट करने के बाद ही हाउस एलाउंस मिलना था। आनंद के स्कूल और कोचिंग भी तो यहाँ से नज़दीक थे। आस-पास के लोगों से जान-पहचान ज़रूर थी पर ऐसी नहीं कि वे 'तहकीकात' पर उतर आयें और कॉलोनी वाले...! देबू को युवावस्था की देहरी पर खड़ा पाकर; उन्हें मनोरंजन का नया साधन मिल गया। जब-तब रंधीर से उनके बड़े बेटे का ज़िक्र छेड़ देते। किसी का सुझाव था, "...रीज़निंग पॉवर, थोड़ी वीक है पर याददाश्त अच्छी है। छोटी-मोटी स्किल्स सिखाई जा सकती है।"

"हाँ, कुकिंग और गार्ड़ेनिंग सिखा रहे हैं, इधर स्विमिंग भी चालू की है।" वे एक अभिभावक की तरह बचाव की मुद्रा में आ गये थे। पूछने वाले की जिज्ञासा कुछ अधिक प्रबल थी। "स्विमिंग! लेकिन वह तो देव के लिए ख़तरनाक हो सकती है।"
"नहीं तो पानी में हाथ पैर अच्छी तरह मार लेता है और फिर वीकेंड में स्वाति भी आ जाती है दिल्ली से; वही उसे ले जाती है पूल पर ट्रेनिंग के लिए।"
"ओके! तब तो..." संवाद को कुछ वैसे ही अधूरा छोड़ दिया गया, जैसे प्रत्यंचा चढ़ाकर बाण को छोड़ा जाता है। इसके साथ सद्भावी की 'सदाशयता' भी तिरोहित हो गयी सोडा-वाटर की बोतल में कुलबुलाकर ठंडे पड़ने वाले बुलबुले की तरह। देबू की बेचारगी के बारे में कुछ ‘नया’ सुनने की इच्छा फलीभूत नहीं हो सकी।

एक दूसरे महानुभाव मुफ्त का दिलासा देते हुए बोले, "अच्छा है देव लड़की नहीं है, नहीं तो उसकी ‘सिक्यूरिटी’ के लिए बहुत चौकन्ना रहना पड़ता। यह भी अच्छा है कि आपका दूसरा बच्चा लड़का है; बड़ा होकर उसकी देखरेख कर पायेगा।" रंधीर राय बिन माँगे अपना मत प्रकट करने वालों से तंग आ गये थे किन्तु ‘सिक्यूरिटी’ वाली बात ने उनके चित्त को अशांत कर दिया। आजकल तो किशोरों और युवकों पर भी यौन हमले हो रहे हैं। कमअकल बेटे में हारमोन्स की बदौलत हो रहे बदलाव उन्हें डराते हैं; कहीं देव ख़ुद ही कुछ ‘ऐसा-वैसा' न कर बैठे!

तब चौथी क्लास में था देव। 12-13 का ही तो था। अपनी कक्षा के दूसरे बच्चों से तीन या चार साल बड़ा मंदबुद्धि होने के कारण, छोटे बच्चों के साथ पढ़ना पड़ता। उस कक्षा की ही एक 9 साल की लड़की ने देबू पर छेड़ने का आरोप लगाया था। आयु में छोटी होते हुए भी बहुत चंट थी वह कन्या। संभवतः उसके घर का माहौल ऐसा रहा होगा, जिसके चलते उसका सामान्य ज्ञान अनपेक्षित रूप से उच्च स्तरीय था। उस दौरान रंधीर राय की पत्नी स्वाति भी उनके साथ रहती थी; तब तक उसका लखनऊ से दिल्ली स्थानान्तरण नहीं हुआ था। स्कूल से फोन आने पर राय दम्पति भागे-भागे वहाँ पहुँचे थे। कक्षाध्यापिका ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा, "मिस्टर एंड मिसेज़ राय, आपके बेटे के ख़िलाफ़ सीरियस कंप्लेंट है।"

कन्या और उसके अभिभावक भी वहीं मौजूद थे। स्वाति ने बच्ची को घूरकर देखा। अपने बच्चे को जानने-समझने वाली माँ और उसकी गहन दृष्टि विफल कैसे हो सकती थी! लड़की ने तत्क्षण सच्चाई का खुलासा कर दिया। यह कि उसे देव को थोड़ा-सा टीज़ करना था। बेटी की करतूत जानकर माँ-बाप शर्म से पानी-पानी हो गये। आरोप तो उसी समय ख़ारिज हो गया पर उसकी गूँज कॉलोनी तक जा पहुँची। श्रीमती वर्मा ने बेहरमी से स्वाति को सुनाते हुए महरी से कहा था, "लड़का पागल है। ज़रूर कुछ न कुछ किया होगा।" स्वाति का मुख लाल पड़ गया। वह रंधीर संग बाज़ार से ख़रीदी करके आ रही थी और अपने प्रथम तल के फ्लैट की सीढियाँ चढ़ने ही वाली थी कि भूतल में रहने वाली वर्माइन अपने घर के बाहर खड़ी होकर परपंच करने लगीं।

स्वाति हाथ में पकड़ा हुआ शॉपिंग बैग पति को थमाकर उनकी तरफ बढ़ी ही थी कि रंधीर ने इशारे से उसे रोक दिया। वे नहीं चाहते थे कि व्यर्थ का तमाशा खड़ा हो। अब तो मुश्किलें और भी बढ़ गई हैं। दो बच्चों को पालते हुए मतिमंद देबू की समस्याओं से दो-चार होते हुए वे अकेले पड़ जाते हैं। उन्हें स्वाति की बहुत याद आती है। मोबाइल की रिंगटोन ने उन्हें गहरी सोच से निकाला। पत्नी को याद करते-करते उसका फोन आ भी गया। स्वाति के स्वर में चिंता थी, "रंधीर, सब ठीक तो है! अंजन से कुछ बात हुई?"

"नहीं, वह अभी तक आया नहीं। सोचता हूँ घर चला जाऊँ। आज तो बाई भी छुट्टी पर चली गयी, खाने का इंतजाम करना है।"
"ठीक है, हरी अप। आई मीन जल्दी यहाँ से निकलो पर ड्राइविंग स्लो ही करना। समझ रहे हो, मैं क्या कह रही हूँ।" बोलते हुए तनिक रोष उभर आया था। स्वाति की स्नेह भरी घुड़की उन्हें भली लगी। सच ही तो कह रही थी। उस दिन वे कार इतनी तेज़ न चलाते तो शायद दुर्घटना बच जाती। वे भी क्या करें? कई सारे काम उनकी जान को रोते हैं। जीवन की गाड़ी सुचारू रूप से चलाने के लिए चार पहिये वाली गाड़ी को दौड़ाना पड़ता था। आनंद स्कूल अपने आप चला जाता है पर कोचिंग तक उसे छोड़ना पड़ता है। वहाँ से लाने भी यदा-कदा जाना पड़ता है। दुर्घटना के बाद एक ऑटोवाले से कहकर अस्थायी व्यवस्था कर दी है।

केस होगा या आपसी समझ से कुछ दे-दिलाकर निपटारा; यह पता नहीं। यदि समझौता हो सके, बहुत बढ़िया नहीं तो जब तक केस पर फैसला नहीं आ जाता; कार की मरम्मत के लिए बीमा राशि भी नहीं मिलेगी। वह यूँ ही गैराज में खड़ी है वैसे भी। मामला अदालत में पहुँच जाता है तो दुर्घटना को अंजाम देने वाले वाहन का उपयोग नहीं किया जा सकता। एक चुनौती हो तो बताया जाए, उनका तो भाग्य ही बाधाओं ने लिखा है। गिरगिटी प्रेम दिखाने वाले लोग भी ऊपरी तौर पर उनके जुझारूपन की सराहना करते हैं। उन्हें कितना कुछ अनदेखा और अनसुना करना पड़ता है। जीवन है तो झमेले भी हैं। इधर देबू का कॉलेज भी शुरू हो गया। हालाँकि बी० ए० प्रथम वर्ष में रोज़-रोज़ क्लास अटेंड करना ज़रूरी नहीं। बीच-बीच में ऑनलाइन कक्षाएँ भी चलती हैं। उसे भी कॉलेज छोड़ने वे ही जाते थे, इधर देव का ट्यूटर बहुत नौटंकी करता है। एक मंदबुद्धि का ज़िम्मा जो लिया है। हज़ारों रूपये ऐंठकर भी उसकी माँगें थमने का नाम नहीं लेतीं। ट्यूटर का सर देबू खाता है और वह देबू के पिता, राय साब का...! इस खींचातानी के लिए भी वक़्त देना ही पड़ता है। और तो और बाई की शिकायतें सदाबहार हैं। किस-किस की सुनें! किस-किस के पीछे भागें! इतना समय कहाँ से लाएँ और भागे नहीं तो गुज़ारा कैसे हो?

जी करता है स्वैच्छिक सेवावकाश ले लें। स्वाति तो अच्छा कमा ही रही है। वैसे भी ऑफिस के काम से कभी बाहर नहीं जाते, भले पदोन्नति बाधित होती रहे। उनकी दैनिकचर्या किसी संग्राम से कम है! स्वाति तो उनके लिए अपनी नौकरी तक छोड़ देती किन्तु उन्होंने ही मना कर दिया। एक तो पत्नी की तनख्वाह उनसे अधिक है; दूसरे कभी-कभार देव को मानसिक विक्षिप्तता घेर लेती है। लम्बे-तगड़े बेटे की विध्वंसक गतिविधियों को काबू कर पाना स्वाति के बस में कहाँ! जहाँ तक रंधीर का प्रश्न है तो अभी उनकी सेवानिवृत्ति को छह-सात बरस बाकी हैं। इतनी जल्दी वी० आर० एस० लेना व्यवहारिक नहीं उनके लिए भी।

उन्हें अपने बेटों के पास जाने की जल्दी थी पर उनका स्कूटर ही जाम हो गया। कुहासे से भरी शामों में अक्सर यह होता है। जब अनेकों किक मारने के बाद भी वह नहीं चला तो क्लब हाउस की पार्किंग में 'स्थापित' कर दिया गया। रंधीर के लिए परीक्षा की घड़ी थी। कई बार कैब बुलाने का जतन किया पर बेकार...! अव्वल तो ठीक से सिग्नल नहीं मिल रहा था और यदि मिलता भी तो कैब अनुपलब्ध होती। कशमकश अभी जारी ही थी कि इंस्पेक्टर अंजन की एंट्री हो गयी। राय महोदय ने इंस्पेक्टर से निवेदन किया कि फिलहाल उनका घर पहुँचना ज़रूरी था, अतः उन्हें निकलने दिया जाए।

लेकिन इंस्पेक्टर के पास दूसरा ‘टाइम- स्लॉट’ नहीं था। उसने आश्वासन दिया कि चर्चा को शीघ्र समाप्त कर देगा परन्तु उसकी सतही बातों से समाधान कहाँ मिलने वाला था! इधर रंधीर ने छोटे बेटे के सेल फोन का नम्बर मिलाया पर फोन नहीं उठा। मुश्किल से तीन-चार दिन हुए होंगे, जब उन्होंने स्मार्टफोन देबू से छीनकर आनंद को दिया था और आनंद कोचिंग क्लास के दौरान उसे बंद रखता है। अब क्या हो? बच्चे चिंता करेंगे। भोजन-पानी तक का इंतजाम नहीं हुआ। उन्हें बार-बार घड़ी देखते हुए पाकर आखिरकार अंजन ने बातचीत का समापन किया।

रंधीर राय की बौखलाहट को देख इंस्पेक्टर ने अपनी जीप में उन्हें लिफ्ट दे दी। उन्हें कहीं से खाना पैक कराना था किन्तु पुलिस वाहन को रास्ते में रोकना मुनासिब नहीं लगा। वैसे भी उस राह में पड़ने वाले सभी होटल बंद थे। विशिष्ट अनुरोध करते तो अंजन उनकी कुछ मदद कर सकता था किन्तु ऐसे में उस काइयाँ आदमी के ‘गले पड़ जाने’ का भय था सो चुप ही रहे। उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। देबू ज़्यादा देर अकेला रहे तो अकुलाने लगता है। बाई तथा यू- ट्यूब के सौजन्य से बावर्चियों का छोटा- मोटा गुर सीखकर, टैब या फोन पर कोई गेम खेलकर वह अपना दिल बहलाता। टैब तो वे अपनी निगरानी में उसे देते थे अलबत्ता फोन हमेशा उसके पास रहता ताकि कोई ऊँच-नीच हो तो उन्हें सूचित किया जा सके लेकिन उन्होंने तो...!

आगे वे सोच न सके। आँखें ख़ुद-ब-ख़ुद मुंद गयी थीं। दिन भर की थकान से बेहाल पीछे वाली सीट पर चुपचाप टिके रहे। ड्राईवर के बराबर बैठा हुआ इंस्पेक्टर मोबाइल कान में लगाकर किसी से बतिया रहा था। शायद अपने वरिष्ठ अधिकारी से। अँधेरे को चीरती हुई जीप आगे बढ़ती जा रही थी पर चेतना पर छाई अँधेरे की परत जस की तस! मन में दुबका चोर रह-रहकर सिहर उठता ठंड भरे धुंधलके में सिहरती हुई देह के साथ। इस सप्ताह स्वाति को फुर्सत नहीं थी देव के बारे में पूछताछ करने की, यह गनीमत रही।

देबू के लिए राय दम्पति दिन-रात एक कर रहे थे। भविष्य का सामना करने की तैयारी कर रहे थे। आर्थिक-स्थिरता हेतु धन की बचत कर रहे थे। देव की परीक्षाएँ निकट होतीं तो स्वाति छुट्टी लेकर लखनऊ आ जाती। दोनों मिलकर उसे पढ़ाते। दसवीं से लेकर अब तक उसको ऐसे विषय दिलवाये, जो ‘रटंत-विद्या’ के भरोसे चल सकते। तार्किकता पर आधारित गणित और विज्ञान जैसे विषय छुड़वा दिए। दसवीं की परीक्षा में उसे बौद्धिक-विकलांगता के चलते एक सहायक को साथ रखने की अनुमति मिली, जो उसके बताये हुए प्रश्नों के उत्तर कॉपी में लिख देता। सौभाग्य से उसकी सहायिका निलय की बेटी, नीहारिका थी जो तब एम० बी० बी० एस० कर रही थी।

नीहारिका के संग बैठने के कारण देबू का मन मज़बूत रहता क्योंकि वह पहले से उसे जानता था। इससे यह लाभ भी हुआ कि वह घर आकर बता देती कि उसका कौनसा पर्चा अच्छा हुआ और कौनसा नहीं। खैर, जानने वालों को झटका लगा जब देव ठीक-ठाक नम्बरों से पास हो गया लेकिन मुसीबतें अभी खत्म नहीं हुई थीं। ग्यारहवीं क्लास में सहपाठी उसे चिढ़ाते थे जिस कारण, वह स्कूल जाने से कतराता। इसी से उसके अभिभावकों को मनोवैज्ञानिक की सहायता लेनी पड़ी। स्वाति स्वयं कक्षा में बेटे के साथ बैठती ताकि उसका मनोबल बढ़ा सके। कोरोना के चलते बारहवीं में परीक्षार्थियों का आंतरिक मूल्यांकन हुआ। परिचित अध्यापकों की हमदर्दी ने यहाँ भी उसकी नैया पार लगा दी।

किसी तरह जोड़-तोड़ करके बी०ए० में उसको दाखिला मिल तो गया है पर आगे क्या होगा, इसका कुछ पता नहीं। हाल में ही रंधीर ने उसे मोबाइल में कोई द्विअर्थी गाना देखकर मुस्कुराते हुए पाया था। यह सर्वथा नया और प्रचंड आघात था। अदम्य आस्था को ठेस पहुँचाने वाला आघात! वे अपना आपा खो बैठे। बरसों से संचित धैर्य, ज्यों पल भर में चुक गया। उन्होंने बेल्ट निकाली और देबू पर टूट पड़े थे। उसकी पीठ लाल हो गयी। एकाध जगह पर चमड़ी लगभग उधड़ने को थी। घावों पर मरहम लगाते हुए उनकी फैमिली डॉक्टर शिखा के आँसू छलक उठे। शिखा की मूक चेतावनी से वे लज्जित अवश्य हुए थे परन्तु स्मार्टफोन देव को वापस नहीं दिया। भाई की हालत से आनंद भी आतंकित था और बाई भी पर वे दोनों खुलकर देबू का पक्ष नहीं ले पा रहे थे। रंधीर की अवज्ञा का साहस जो नहीं हुआ।

"किस सोच में हैं सरजी, देखिये ज़रा- आपने यहीं-कहीं उतरने को बोला था।" ड्राईवर की आवाज़ से वह सचेत हुए। बोझिल पलकें उठाकर देखा तो पाया- उनका अपना मकान चंद ही क़दमों की दूरी पर था। एक औपचारिक-सा धन्यवाद करते हुए रंधीर जीप से बाहर आ गये थे। गेट देबू ने ही खोला था। वे जल्दबाज़ी में रसोईं की तरफ चल दिए। "कामवाली ने जो सब्जी काटी थी, कहाँ गयी?" जान पड़ा कि वे दीवारों से बोल रहे थे। "उसे डालकर मैंने मैगी बना ली है। आनंद को भी खिला दी।" शून्य में उछाले गये प्रश्न का त्वरित उत्तर देव की तरफ से आया।

वे स्तब्ध थे। देबू ने भोलेपन से पूछा, "आप अभी तक नाराज़ हो?" रंधीर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाये मानो जड़ हो गये हों। अबोला देव ने ही भंग किया, "आई प्रॉमिस कभी डर्टी-सॉंग्स नहीं देखूँगा। आपने मारा मम्मा को नहीं बताऊँगा। वीकेंड पर वह आएँगी। उनके साथ...उनके साथ स्विमिंग के लिए नहीं...नहीं जाऊँगा।" स्पीच- थेरेपिस्ट की मदद के बिना ही वह इतना कुछ कह गया। कहते- कहते उसकी ज़बान लड़खड़ा रही थी फिर भी वह बोलता रहा, "आप चिंता मत करो, मम्मा को...मम्मा को...पीठ नहीं...देखने दूँगा! प्लीज खाना खा लो...गुस्सा मत होना।" बेटे के प्यार ने रंधीर के आँसू छलका दिए थे। मन का बाँध सारे तटबंध तोड़कर बह निकला। उसे अंक में भरकर वे फफक पड़े। उन्हें लगा कि उनके बच्चे को बेवकूफ कहने वाले, स्वयं ही नासमझ हैं। कल वाली दुर्घटना की स्मृति अब उनको डरा नहीं रही थी। भाग-दौड़ से क्लांत पड़े जीवन को जो विश्रांति चाहिए- अंतत: मिल ही गयी।

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रचनाकार परिचय

विनीता शुक्ला

ईमेल : vinitashukla.kochi@gmail.com

निवास : कोची (केरल)

प्रकाशन- अपने-अपने मरुस्थल, नागफनी (कहानी संग्रह), एक्वेरियम की मछलियाँ(कविता संग्रह)
विविध पत्र-पत्रिकाओं एवं वेबसाइटों यथा- नामान्तर, निकट, व्यंग्य-यात्रा, राष्ट्रधर्म, उत्पल, विभोम-स्वर, उपनिधि, वनिता, जागरण सखी, मेरी सहेली, दि अंडरलाइन, शब्दांकन, विश्व हिंदी साहित्य, सोच-विचार, किस्सा-कोताह, कथारंग वार्षिकी आदि में रचनाएँ प्रकाशित। कथा संकलन 'गुमशुदा क्रेडिट कार्ड्स' में कहानी संकलित। आकाशवाणी लखनऊ से कविताएँ प्रसारित। गद्य-कोश में रचनाएँ संकलित।
विशेष- आकाशवाणी कोची के लिए अनुवाद कार्य
सम्मान/पुरस्कार-
उ०प्र० हिंदी संस्थान द्वारा पं० बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार
विभिन्न पत्रिकाओं ( मेरी सहेली, वनिता) द्वारा पुरस्कृत
ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरस्कार
2018 का साहित्यगन्धा कथा लेखिका सम्मान
प्रेरणा परिवार पुवायां द्वारा मैथिलीशरण गुप्त स्मृति सम्मान 2021 एवं मैत्रेयी सम्मान 2021
प्रखरगूँज प्रकाशन द्वारा लघुकथा प्रखर साहित्य सम्मान 2020
विश्व हिंदी अकादमी, मुम्बई एवं अबीर एंटरटेनमेंट द्वारा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता 2020 में सम्मानित
चंडीगढ़ लिटरेरी सोसाइटी द्वारा आयोजित वार्षिक लघुकथा प्रतियोगिता 2021 की विजेता
सम्पर्क- टाइप 5/9, एन०पी०ओ०एल० क्वाटर्स, 'सागर' आवासीय परिसर, पोस्ट- त्रिक्काकरा, कोची (केरल)- 682021
मोबाइल- 8075642509