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सत्या शर्मा 'कीर्ति' की कविताएँ

सत्या शर्मा 'कीर्ति' की कविताएँ

पर बार-बार सज़ा के बाद भी
हम संभलते नहीं
क्योंकि मनुष्य को
भगवान बन जाने का अहंकार
उसे मनुष्य भी कहाँ रहने देता है

एक- मरीचिका

जब सो रहा था गाँव
पहाड़ की गोद में
तब पहाड़ ने
जड़ी-बूटी और
सुगंध से भरे पेड़ पौधों से कहा-
तुम अपनी ठंडी-शीतल
हवा से दूर कर दो
हमारे बच्चों के सारे कष्ट
ताकि दिन भर के थके
मेरे बच्चे ले सकें
एक लंबी गहरी नींद
पर गाँव कहाँ सो पाता है?

उसकी तो जगी आँखों में
आ बसते हैं
मनमोहक से जगमगाते शहर
दौड़ती-भागती, जागती दुनिया
स्वर्ग से सम्पन्न और समृद्ध लोग

वहीं उसी पल दूर कहीं
पूरी तरह से जागा शहर
बेचैन हो रहा होता है
सुकून के पल ढूँढ रहा होता है
मुलायम गद्दे पर नींद खोज रहा होता है
प्रदूषण से भरी हवा में
शुद्ध साँसों के लिए हाँफ रहा होता है

और अपनी जागी आँखों में
देखता है एक गाँव
जहाँ वह शुद्ध हवा में
सभी चिंताओं से दूर
खुले आकाश और
पहाड़ों की छाँव में
ले सके एक लंबी गहरी नींद

इस तरह जागती रहती हैं
सारी आँखें
देखती रहती हैं एक स्वप्न

अपने उस सुख से अनभिज्ञ
जिसे पाने के लिए
जाने कितनी आँखें
अभी भी जाग कर
देख रही हैं स्वप्न

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दो- धरती उदास है

धरती भी फूलती है ख़ुशियों से
जब फूल कर पकते हैं अनाज
खेतों में

धरती भी सींझती है
जब सिंझता है
भात

धरती भी
मुरझा जाती है
जब मुरझा जाते हैं
अपनों के बीच
प्रेम भरे रिश्ते

धरती भी हो
जाती है ठंडी
जब ठण्डे हो जाते हैं
घरों के चूल्हे

धरती भी जलती है
जब अंतिम क्रिया
में धधकती है आग

पर धरती के
पूरे शरीर पर
तब उग आते हैं
भयंकर फोड़े
जब
युद्ध की विभीषिका में
सुलगने लगता है
पूरा संसार

क्योंकि धरती सिर्फ
धरती नहीं होती
वो तो एक
घर है जिसमें
बसते हैं
सभी जीव/निर्जीव

घर चुपचाप है
इन दिनों
क्योंकि
धरती उदास है

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तीन- पेड़

मैं देख रही थी
अपने मुख्यद्वार पर
लगे ख़ूबसूरत से
दरवाज़े को

मैंने महसूस किया
जैसे उसकी आँखें
ढूँढ रही हो
गीली मिट्टी की
खोई उसकी ज़मीन

जैसे उसके अंदर
पनप रहे हों
अभी भी कोमल पत्ते

जैसे उसकी साँसे
अभी भी कार्बन डाइऑक्साइड को
ऑक्सीजन में बदल रही हों

जैसे उसकी शाखाएँ
अभी भी घोंसले बुन रही हों

हाँ, दरवाज़ा जो
कुछ वक्त पहले तक
पेड़ हुआ करता था
जीवन देता था
अपनी गोद में घोंसले
बुनवाता था
जो चिड़ियों का पनाहगाह
हुआ करता था

आज वही
किसी बड़े घोंसले (घर) के
मुख्यद्वार पर
खड़ा था निस्तेज, निर्जीव

सभी पेड़ भाग्यशाली नहीं होते
जो झुंडों में हँसते-मुस्कुराते-खिलखिलाते
जीवन गुजार दें

कुछ पेड़ दरवाज़े, कुर्सी,
टेबल, पलंग बन जाते हैं

क्या यह
पेड़ों का प्रारब्ध कर्म होता है
जिसे वे
इस जन्म में पूरा करते हैं!

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चार- पानी

देवों का पूजन करता
गंगा के जल-सा पानी

पितरों को तर्पण देता
नदी फल्गू-सा पानी

सीप के मुख जा गिरता
मोती-सा पानी
गिर केले के थम पर बनता
कपूर-सा पानी

सत्यकर्म हो जैसे
नक्षत्र स्वाति का पानी

खेतों का प्यास बुझाता
किसान पिता-सा पानी

जीवन बगिया को
लहराता
पिता माली-सा पानी

संघर्षों से पार लगता
भागीरथ-सा पानी

समुद्र आगोश में
इतराता वो
मदमस्त-सा पानी

गरज-गरज बरसता
बादल-सा पानी

स्त्री चेहरे पर
अटका हो जैसे
शर्म-सा पानी

काजल के कोरों पर
ठहरा वो
भावुक-सा पानी

ईश्वर से बस यही
प्रार्थना है कि
बचा रहे हम सबकी
आँखों का पानी

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पाँच- हिडेन कैमरा

हमने बनाया सीसी कैमरा
और हो गए निश्चिंत

हम ड्रोन की मदद से
दुश्मनों के हर क़दम पर
रखते रहे नज़र

सैटेलाइट की खोज ने
हमें सुरक्षित बनाया
और हम
अपनी उपलब्धियों पर इतराते रहे

पर करते रहे अनदेखा
उस हिडेन कैमरे को
जिसकी ज़द में स्वयं हम हैं

जो देख रहा है हर वक़्त
हमारी ग़लतियाँ
हमारी बेवकूफियाँ
वो देता है हमें बार-बार
चेतावनी और हम भोगते हैं
कभी भूस्खलन तो कभी ग्लेशियर का पिघलना
कभी नदियों का तांडव
तो कभी प्रलय की भयंकर बारिश

पर बार-बार सज़ा के बाद भी
हम संभलते नहीं
क्योंकि मनुष्य को
भगवान बन जाने का अहंकार
उसे मनुष्य भी कहाँ रहने देता है

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रचनाकार परिचय

सत्या शर्मा 'कीर्ति'

ईमेल : satyaranchi732@gmil.com

निवास : रांची (झारखण्ड)

शिक्षा- एम०ए०, एल०एल०बी०
प्रकाशन- तीस पार की नदियाँ (काव्य संग्रह), वक्त कहाँ लौट पाता है (लघुकथा संग्रह), सीझते हुए सपने
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित।
निवास- रांची (झारखण्ड)