Ira
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। दिसंबर 2024 के अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

किसानों का दर्द बयां करती समकालीन हिन्दी ग़ज़ल- अविनाश भारती

किसानों का दर्द बयां करती समकालीन हिन्दी ग़ज़ल- अविनाश भारती

हमने चाँद तक की यात्रा पूरी कर ली है, अतंरिक्ष हमारी मुठ्ठी में है और अब तो सूरज पर भी जाने की तैयारी है। लेकिन तमाम अंतरिक्ष यात्रियों, ख़्याति प्राप्त खिलाड़ियों, आधुनिक भारत-भाग्य विधाताओं आदि तथाकथित अभिजात वर्ग का भरण-पोषण करने वाला किसान आज भी अपनी किस्मत पर आँसू बहाने को मज़बूर है।

भारत की स्वतंत्रता को 76 वर्ष हो चुके हैं। 1947 से अब तक देश के हर क्षेत्र ने पर्याप्त विकास किया है। हमने चाँद की आब-ओ-हवा का पता लगा लिया है, अंतरिक्ष हमारी मुट्ठी में है, भारतीय सेना विश्व की सबसे ताकतवर सेनाओं में सम्मिलित हो चुकी है तथा भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की पाँच सबसे मज़बूत अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। अन्य क्षेत्रों में भी भारत नियमित रूप से विकास की नई कहानियाँ लिख रहा है।
इन उपलब्धियों के बावजूद एक ऐसा क्षेत्र भी है, जो आज भी विकास की दौड़ में कहीं पीछे रह गया है। खाद्य सुरक्षा, ग्रामीण रोज़गार जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला कृषि क्षेत्र आज भी उस स्थिति में नहीं पहुँच पाया है, जिसे संतोषजनक माना जा सके। इसका परिणाम यह हुआ है कि कृषि पर निर्भर देश के करोड़ों लोग आज भी बेहद अभावों में जीवन जीने को विवश हैं और कई बार ये कृषि के माध्यम से अपनी बुनियादी ज़रूरतें भी नहीं पूरी कर पाते हैं।
भारतीय किसान शुरू से ही आभावग्रस्त और समस्याओं से घिरी ज़िंदगी जीने को अभिशप्त नज़र आते हैं। कहीं न कहीं किसानो की समस्याएँ पहले भी मौजूद थी और वर्तमान में भी जस की तस है। हिन्दी साहित्य में किसानो से जुड़े विषयों को अनेक रचनाकारों ने अपने साहित्य में उठाया है। किसान, खेत और मज़दूर को लेकर यह विमर्श साहित्य में आधुनिक काल से चला आ रहा है। भारतीय किसान का जीवन बहुत ही दरिद्रता, ऋणग्रसत्ता एवं कष्टों से भरा पड़ा है, इस पर समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों ने भी उनके जीवन के प्रत्येक पक्ष को छूने का प्रयत्न किया है। किसानों की दयनीय स्थिति पर सरकार की उदासीनता को युवा ग़ज़लकार अभिषेक सिंह रेखांकित करते हुए कहते हैं–

प्यासे खेतों ने फिर से है पूछा
राशि कितनी किसान तक पहुँची

****************

सभी हैं एकमत अब हुक्मरानों में
फ़सल तैयार होगी कारखानों में

धरती के भगवान कहे जाने वाले किसान आज पाई-पाई के मोहताज़ हैं। उन्हें अनाजों के उचित दाम नहीं मिल रहे, इसके अलावे भी वे कभी बारिश, तो कभी सूखे का दंश झेलने को मज़बूर हैं। इस संदर्भ में के० पी० अनमोल के शेर मुखरता से उनकी पीड़ा को बयां करते हैं। कुछ शेर देखें–

एक झुलसी-सी दुपहरी और जर्जर-सा बदन
हाय वो हलधर भी तो क़िस्मत का मारा ख़ूब था

****************

फ़ाका करते देख धरा के बेटे को
भीतर-भीतर घुटता इक खलिहान रहा

डाॅ० भावना का नाम बेहद संवेदनशील ग़ज़लकारों में शुमार है। गाँव में जन्मी डॉ० भावना, आज भी ख़ुद को ग्रामीण संस्कृति से जुड़ा हुआ पाती हैं। उन्होंने किसानों की समस्या को बहुत क़रीब से देखा और महसूस किया है। इनके कुछ संजीदा शेर देखें–

डभकते भात की ख़ुशबू उड़ा कर ले गया कोई
किसानों की कटोरी में तो पतली दाल आती है

****************

पसीने से जो रोटी बो रहा है
कृषक वो ही भला क्यों रो रहा है

डॉ० पंकज कर्ण भी किसानों की समस्या से भली-भाँति वाक़िफ़ हैं। किसानों की वकालत करते हुए कहते हैं–

धरती की कोख से यही सोना उगाएँगे
सरकार से किसानों को हिम्मत भी तो मिले

किसानों का निजी जीवन भी बड़ा कष्टदायक होता है। प्रकृति भी हर तरह से इनका इम्तिहा लेती रहती है, कभी सूखा तो कभी बाढ़ तो कभी आँधी-तूफान के रूप में इनकी जिजीविषा को झकझोरने का निरंतर प्रयास करती है। हर वर्ष भारत में बाढ़ की वजह से लाखों किसानों के घर डूब जाते हैं, खेती बर्बाद हो जाती है, वे भूखे-प्यासे दर-दर की ठोकरे खाने को मज़बूर हो जाते हैं। मदद के नाम पर सरकार उन्हें पहचानने से भी इंकार कर देती है। उदाहरण के तौर पर भारत और बांग्लादेश की सीमा पर रहने वाले किसानों को देखा जा सकता है, जिन्हें बाढ़ के वक़्त दोनों देशों की ओर से किसी तरह की राहत नहीं मिलती। इस अति संवेदनशील विषय पर संजीदा ग़ज़लकार संजीव प्रभाकर के कुछ शेर देखें -

डूब गयी खेती-बाड़ी सब, डूब गयी रोजी-रोटी
ढूँढ रहा हूँ कहाँ तबेला, कहाँ मेरा घर-आगर है

****************

बाबू सरकारी कहते हैं- "सबकुछ सही-सलामत अब"
डूब रहा जो गाँव देश में वो नक्शे से बाहर है

नज़्म सुभाष आसान शब्दों में गंभीर बात कहने का हुनर जानते हैं। इनकी ग़ज़लें आम-अवाम की समस्याओं की मुखर अभिव्यक्ति है। इन्होंने किसानों की अकथित पीड़ा को भी अपने शेरों में गढ़ने का काम किया है। इस सन्दर्भ में नज़्म सुभाष के चंद शेर देखें-

मौसम का अनुमान लगाए बैठे हैं
जो सूखे में धान लगाए बैठे हैं

बारिश की भाषा को सुनने की ख़ातिर
जर्जर छप्पर कान लगाए बैठे हैं

परती खेतों का मंज़र है टीस रहा
'बीजगणित' में जान लगाए बैठे हैं

डॉ० ज़ियाउर रहमान जाफ़री समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं। ग़ज़ल आलोचक के रूप में भी इन्हें ख़ूब लोकप्रियता मिल रही है। कहीं न कहीं मशीनीकरण और शहरों के विस्तारीकरण ने लोगों को अपंग और संवेदनहीन बना दिया है। ख़ास करके किसानों का जीना दूभर हो गया है। खेती योग्य ज़मीन पर फैक्ट्री बनाकर उसे बंजर किया जा रहा है। ग़ज़लकार को चिंता है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो किसी दिन खेती करने के लिए ज़मीन भी नहीं बचेगी। इस बाबत डॉ० जाफ़री के शेर देखें-

नई इक फैक्ट्री तामीर कर लेने की चाहत में
यहाँ के लोग होरी से किसानी छीन लेते हैं

****************

जड़ें जो काट के बिल्डिंग नई बनाएँगे
तो हम ज़मीं पे कहाँ सब्ज़ियाँ उगाएँगे

ओमप्रकाश यती, किसानों की अत्यंत दयनीय स्थिति को देखकर आहत हैं। उन्हें पता है कि यह देश किसानों का है। और उन्हें यह भी पता है कि इस देश में किसानों की समस्या पर किसी की नज़र नहीं है, सभी उदासीन होकर बैठे हैं। शेर देखें–

यह देश किसानों का है, कहते हैं सभी लेकिन
इस देश में कब होगा सम्मान किसानों का

वहीं वरिष्ठ ग़ज़लकार दिनेश प्रभात की नज़र में भी इनके हालात दयनीय हैं। वे कहते हैं-

देखना जल्दी बनेंगे हम महाराणा प्रताप
रोटियाँ नज़दीक चलकर आ रही हैं घास की

रामनाथ 'बेख़बर' भी किसानों के हिमायती हैं। किसानों के साथ हो रहे अत्याचार और दुर्व्यवहार के खिलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए कहते हैं-

जहाँ भर का वो पेट भरते हैं लेकिन
किसानों के हिस्से का दाना कहाँ है!

पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया था। साठ के दशक में आई हरित क्रान्ति ने कृषि क्षेत्र को बेहतर करने में मदद की। लेकिन वर्तमान में किसानों की स्थिति बद से बदतर है। आए दिन किसानों की आत्महत्या की ख़बरें आती रहती हैं। इसके पीछे महँगाई, प्रकृति की मार, ऋण आदि कई कारण हो सकते हैं। इस सन्दर्भ में मैं अपना शेर उद्धृत करना चाहूँगा। शेर देखें–

जो सूखे और बरखा में सभी का पेट भरते हैं
उधारी में वही हलधर चिता ख़ुद की सजाते हैं

किसान को ही केन्द्र में रखकर देवेन्द्र आर्य जैसे प्रयोगधर्मी ग़ज़लकार ने कई शेर कहे हैं। वे किसान की आत्महत्या को अनुचित मानते हैं। उनके अनुसार किसानों को संघर्ष का रास्ता अपनाना चाहिए। उनके ये शेर देखें–

किसानो! जान देने से न होगा
उगाओ अपनी इक दमदार भाषा

****************

नहीं करते थे खेतिहर आत्महत्या
उपज बेशक थी कम सौ साल पहले

अभावग्रस्त किसानों के त्रासदी भरे जीवन के तकलीफ़देह मंज़र को देखते हुए विज्ञान व्रत कहते हैं–

होरी सोच रहा है उसका
नाम यहाँ किस दाने पर है

समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में किसानों की समस्याएँ बड़ी मज़बूती से उभर कर सामने आयी हैं। वरिष्ठ ग़ज़लकार बल्ली सिंह चीमा जो कि स्वयं किसान हैं। वे अपनी भोगी तमाम परेशानियों को शेर में कैसे उद्धृत करते हैं, ज़रा देखें-

मैं किसान हूँ मेरा हाल क्या, मैं तो आसमाँ की दया पे हूँ
कभी मौसमों ने हँसा दिया, कभी मौसमों ने रुला दिया

आगे वे मौसम की दग़ाबाज़ी की वज़ह से छोटे या असमर्थ किसानों की बेबसी को बताते हुए कहते हैं कि-

प्यासी रह गयी फ़सलें शरारत कर गया मौसम
किसानों के घरों में यूँ उदासी भर गया मौसम

रामकुमार कृषक अपने जनवादी तल्ख़-तेवर की वजह से जाने जाते हैं। किसानों के हश्र पर उनके शेर कड़े शब्द अख्तियार करते हैं। सरकार के झूठे आश्वासन को रेखांकित करता हुआ उनका यह शेर देखें-

बड़के मंत्री जी भी हक में हैं किसान के
कहते मिल-मालिक से बड़ा किसान चाहिए

हर किसान की समस्याएँ अलग-अलग हैं लेकिन अंजाम एक ही है। इस पर ग़ज़लकार ऋषिपाल धीमान का सवालिया अंदाज़ का यह शेर देखें-

सूख गये क्यों धान के पौधे
एक ग़रीब किसान के पौधे

ऋषिपाल धीमान देश के वास्तविक नायक की दुर्दशा से आहत हैं। वे 'जय जवान, जय किसान' जैसे नारे को महज़ काग़ज़ों पर ही देखते हैं। सरकार की उदासीनता और तानाशाही पर कुठाराघात करते हुए उनका यह शेर काफ़ी महत्वपूर्ण हो जाता है। शेर देखें-

जो नहीं समझे हैं सेना के जवानों का मिज़ाज
उनसे क्या उम्मीद समझेंगे किसानों का मिज़ाज

वरिष्ठ ग़ज़लकार माधव कौशिक की ग़ज़लें बड़ी ही सूक्ष्मता से विसंगतियों को उद्घाटित करने का काम करती हैं। उनके अनुसार किसानों का सर्वस्व उनकी खेती-बाड़ी ही है। फलस्वरूप खेती पर मौसम की मार उनके सम्पूर्ण जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। इस सन्दर्भ में किसानों का क्रन्दन अपने शब्दों में पिरोते हुए माधव कौशिक ने कई ग़ज़लें कही हैं। कुछ शेर देखें-

कभी-कभी तो बालक समान रोता है
अकेला खेत में बूढ़ा किसान रोता है

****************

उसे होरी से मतलब है न मकसद
असल भारत से दिल्ली कट गयी है

राम मेश्राम, अपनी ग़ज़लों में वर्तमान की हक़ीक़त को प्रमुखता से स्थान देते हैं। इनकी स्पष्टवादिता ही इनकी लोकप्रियता का मुख्य कारण है। किसानों के शोषण पर भी इनके विचार मुखरता से इनके शेरों में नज़र आते हैं। शेर देखें-

मरना है किसानों को, यही उनका मुकद्दर
क्या क़ायदे-क़ानून फ़क़त इन पे कड़े हैं

वरिष्ठ ग़ज़लकार अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़लें समाज का आईना हैं। वे स्वयं गाँव से जुड़े हुए हैं। अनिरुद्ध सिन्हा ने किसानों की समस्या को किताबों में नहीं पढ़ा है, बल्कि उनके बीच रहकर महसूस किया है। फलस्वरूप इन्होंने आधुनिक युग के अन्नदाताओं का वास्तविक स्वरूप चित्रित किया है। शेर देखें-

न जिसके पाँव में चट्टी, न तन पर गर्म कपड़ा है
नए भारत में साहब जी किसानों का ये चेहरा है

ग़ज़लकार वशिष्ठ अनूप ने बदलते समय और परिस्थिति के अनुसार प्रेमचंद के पौराणिक पात्रों को भी बदलने का प्रयास किया है। क्योंकि उन्हें पता है कि अब किसानी से घर का भरण-पोषण और जीविकोपार्जन असंभव है। आधुनिक युग में समाज के हर तबके का उत्थान हुआ है सिवाए किसानों के। इस सन्दर्भ में वशिष्ठ अनूप का यह शेर देखें-

छोड़कर घर चल पड़ा हल्कू मजूरी के लिए
पेट तक भरता नहीं खेती के कारोबार में

वरिष्ठ ग़ज़लकार हरेराम समीप ने सुखी-संपन्न और तथाकथित व्यस्त लोगों का ध्यान किसानों के प्रति आकृष्ट करने का प्रयास किया है। इस बाबत यह बेहद ख़ूबसूरत शेर देखें-

यहाँ शहर में तुम्हें अन्न भेजता है जो
पता तो कर कि वो कैसे किसान ज़िन्दा है

आए दिन किसानों की आत्महत्या की ख़बरें आती हैं। वजह कभी ऋण तो कभी खेतों में फ़सल की बर्बादी होती है। ग़ौरतलब है कि किसान दिन-रात मेहनत करके खेती करते हैं, अपनी खून-पसीने की कमाई तक झोंक देते हैं। फिर भी कभी मौसम की मार तो कभी जानवरों के उत्पादन से फ़सल नष्ट हो जाती है। और इस पर सरकार की उदासीनता अलग से। इस परिस्थिति में किसान आत्महत्या करने को मज़बूर हो जाता है। हरेराम समीप का यह शेर महज़ दो पंक्तियों में सारी व्यथा बयां करने में सक्षम है। शेर देखें-

पूरी साल लगन से बोते और सींचते खेत किसान
चाट गयी गर फ़सल इल्लियाँ तुम्हीं बताओ क्या करते

वरिष्ठ ग़ज़लकार कमलेश भट्ट 'कमल' भी किसानों की समस्या पर अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए कहते हैं-

कभी आँधी, कभी तूफान तो बारिश कभी ओले
सभी अंजाम लिखते हैं किसानों की किसानी के!

ग़ज़लकार रमेश कँवल भी किसानों की किस्मत से परिचित हैं। उन्हें पता है कि लाख कोशिशों के बाद भी किसानों के जीवन में कुछ भी सार्थक बदलाव नहीं हो सका है। सभी जानते हैं कि किसानी आदिकाल से ही लोगों के जीवन का अहम हिस्सा रही है। कभी किसानी के माध्यम से ही जीविकोपार्जन संभव था, लेकिन आज स्थिति ठीक विपरीत है। किसानों के जीवन में सुख और समृद्धि जैसे कोई शब्द नज़र नहीं आते। इस समस्या पर रमेश कँवल का यह शेर देखें-

शबे-ग़म न कटती सहर दूर है
किसानों को ख़ुशियाँ मयस्सर कहाँ

कुल मिलाकर कहें तो काग़ज़ों पर भले ही किसानों की स्थिति बेहतर दिखती हो लेकिन सच्चाई यही है कि आज भी किसानों की सभी समस्याएँ यथावत हैं। देश के किसान आज भी क़र्ज़ में डूबे हुए हैं। आज भी सरकार उनके प्रति उदासीन नज़र आती है। इस परिस्थिति में 'जय जवान, जय किसान' का नारा हास्यास्पद प्रतीत होता है। हक़ीक़त तो यह है कि किसान चिलचिलाती धूप, कड़ाके की ठंड, मूसलाधार बारिश या अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों में भी डट कर प्रकृति का सामना करते हैं, तब कहीं जाकर देशवासियों को पेट भर भोजन नसीब हो पाता है।

विदित हो कि किसानी आदिम सभ्यताओं में शामिल रही है। पूर्व में किसानी ही जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन थी। कालांतर में खेती-बाड़ी के अलावा लोगों ने अपने जीवन को बेहतर और सभ्य बनाने के लिए कई तरह के कार्य का चुनाव किया, जिन्हें बुलंदी भी मिली लेकिन किसानी आज भी अपनी समस्याओं के साथ वहीं है। हमने चाँद तक की यात्रा पूरी कर ली है, अतंरिक्ष हमारी मुठ्ठी में है और अब तो सूरज पर भी जाने की तैयारी है। लेकिन तमाम अंतरिक्ष यात्रियों, ख़्याति प्राप्त खिलाड़ियों, आधुनिक भारत-भाग्य विधाताओं आदि तथाकथित अभिजात वर्ग का भरण-पोषण करने वाला किसान आज भी अपनी किस्मत पर आँसू बहाने को मज़बूर है।

समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार अपनी ग़ज़लों के माध्यम से किसानों की समस्याओं को मुखरता के साथ कहने का साहस दिखा रहे हैं, साथ ही अपनी रचनाधर्मिता का बख़ूबी निर्वहन करते हुए भी नज़र आ रहे हैं।


******************

0 Total Review

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

अविनाश भारती

ईमेल : avinash9889@gmail.com

निवास : मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)

जन्मस्थान- मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)
जन्मतिथि- 08 जनवरी 1995
शिक्षा- पी० एचडी० (शोधरत)
सम्प्रति- सहायक प्राध्यापक
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल एवं आलेख।
प्रकाशन- अदम्य (ग़ज़ल संग्रह, संपादन)
कई साझा संकलनों में ग़ज़लें प्रकाशित। हंस, वागर्थ, साहित्य अमृत, ककसाड़, गीत गागर, हरिगंधा, प्रेरणा अंशु, श्री साहित्यारंग, दैनिक जागरण, प्रभात ख़बर, हिंदुस्तान, दैनिक भास्कर, कविता कोश, अमर उजाला काव्य आदि पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित।
प्रसारण- दूरदर्शन एवं आकाशवाणी, पटना पर निरंतर ग़ज़लों का प्रसारण।
सम्मान/पुरस्कार- नागार्जुन काव्य सम्मान, 2020
निवास- साहेबगंज, मुज़फ्फ़रपुर (बिहार)
मोबाइल नं०- 9931330923