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कभी अपने भी दाँत गिनकर देखे इंसान- राकेश अचल

कभी अपने भी दाँत गिनकर देखे इंसान- राकेश अचल

मैं जिन दाँतों की बात कर रहा हूँ वे बहुउदेशीय होते है। दुनिया बनाने वाले ने दाँत बनाते समय ही उनका काम भी तय कर दिया था शायद इसीलिए आप ये जानकर हैरान होंगे कि दाँत का काम सिर्फ किसी चीज को पकड़ना, काटना, फाड़ना और चबाना ही नहीं है। जानवर इन दाँतों से कुतरने खोदने, सँवारने और लड़ने का काम लेते हैं। दाँत, आहार को काट-पीसकर गले से उतरने योग्य बनाते हैं। खुद ईश्वर ने एक अवतार में अपने दाँतों से सकल ब्रम्हांड को ऊपर उठा लिया था।

आज मै एक ऐसे विषय पर आपके सामने हूँ जो प्राय: किसी विमर्श का हिस्सा नहीं होता। आज का विषय है दाँत। दाँत मनुष्य के ही नहीं अपितु तमाम स्तनपायी जानवरों का एक ज़रूरी और महत्वपूर्ण अंग है। इसका अपना विज्ञान है। चिकित्स्क हैं, उपचार है। कहावतें हैं, मुहावरे हैं। मनुष्य दाँतों के मामले में बहुत लापरवाह भी होता है और सजग भी । दुनिया में जब पशुओं की उम्र का पता लगाने का कोई विज्ञान नहीं था तब पशुओं के दाँत गिनकर ही उनकी उम्र का पता लगाया जाता था। दाँत गिनना धर्म का काम भी है और नहीं भी।

आज बकरीद है इसलिए आपको बता दूँ कि इस्लाम धर्म के अनुयायी कुर्बानी के लिए बकरा खरीदते समय उसके दाँत ज़रूर गिनते हैं, ये एक धार्मिक बाध्यता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि केवल एक साल के बकरे की ही क़ुर्बानी दी जानी चाहिए। इस वजह से यदि किसी बकरे के दो, चार या फिर छह दांत होते हैं तो ही उनकी क़ुर्बानी दी जाती है। न ही नवजात और न ही बुज़ुर्ग बकरे की क़ुर्बानी दी जाती है। ऐसे में यदि किसी बकरे के दाँत नहीं हैं या फिर किसी बकरे के दाँत दो, चार या फिर छह से ज़्यादा हैं तो उसकी क़ुर्बानी नहीं दी जाती।

हमारे शहर ग्वालियर में एक शताब्दी पुराना पशु मेला लगता है। इस मेले में मैंने खरीदारों को गाय, बैल, भैंस, बकरी, घोड़ा यहाँ तक कि ऊँट के दाँत गिनते देखा है। जानकार पशुओं के दाँत गिनकर उनकी उम्र का अनुमान लगा लेते हैं, यानि पशु विक्रेता अपने माल की उम्र को लेकर ज्यादा ठगी नहीं कर सकता। दाँत गिनना एक कला भी है और विज्ञान भी। मनुष्यों में बत्तीस दाँत होते हैं। इन्हें भी कभी गिना जाता है और कभी नहीं भी। मनुष्य के दाँतों में एक दाँत का नाम अक्लदाढ़ भी होता है। ये या तो निकलती नहीं है और यदि निकलती है तो बहुत कष्ट देती है।

बहरहाल दाँत को लेकर कहावतें हैं और मुहावरे भी। आपने 'दाँत काटी रोटी' के बारे में सुना होगा। सुना होगा कि 'जब दाँत थे तब चने नहीं थे और जब दाँत नहीं हैं तो चने हैं '। आपने सुना होगा कि- ' दान की बछिया के दाँत नहीं गिने जाते '। हमारे यहाँ तो किसी को परास्त करने या छकाने के लिए भी जो मुहावरा है उसे 'दाँत खट्टे' करना कहते हैं। एक कहावत हाथी के दाँतों को लेकर भी है कि-' हाथी के दाँत दिखाने के और खाने के और होते है।' दाँत हाथी के और कहावत मनुष्यों के लिए बनी है।

दाँत निपोरने के काम भी आते हैं। निपोरने वाले दाँतों को खीसें कहते हैं। खीसें निपोरना एक पालटीकल कला है। संसद और विधानसभाओं में जाने वाले तमाम लोग सिर्फ खीसें निपोर कर ही अपना कार्यकाल पूरा कर लेते हैं। संसद में खीसें निपोरने वालों की लंबी फ़ेहरिस्त है। कुछ अभी मौजूद हैं और कुछ फ़ौत हो गये। कुछ के दाँत आँत में विलीन हो जाते हैं, नज़र ही नहीं आते।

मैं जिन दाँतों की बात कर रहा हूँ वे बहुउदेशीय होते है। दुनिया बनाने वाले ने दाँत बनाते समय ही उनका काम भी तय कर दिया था शायद इसीलिए आप ये जानकर हैरान होंगे कि दाँत का काम सिर्फ किसी चीज को पकड़ना, काटना, फाड़ना और चबाना ही नहीं है। जानवर इन दाँतों से कुतरने खोदने, सँवारने और लड़ने का काम लेते हैं। दाँत, आहार को काट-पीसकर गले से उतरने योग्य बनाते हैं। खुद ईश्वर ने एक अवतार में अपने दाँतों से सकल ब्रम्हांड को ऊपर उठा लिया था।

जब हम विज्ञान के छात्र थे तो हमें पढ़ाया जाता था कि दाँत की दो पंक्तियाँ होती हैं, ऊपर के जबड़े के दाँतों को जम्भिक या मैक्सलरी कहते हैं जबकि नीचे के जबड़े के दाँत चिबुक या मैंडिब्युलर कहे जाते हैं। ऊपर का जबड़ा स्थिर यानि मेरी तरह अचल रहता है और नीचे का सचल। खोपड़ी से मैंडिबुल को बाँधनेवाली पेशियों की सहायता से यह आगे पीछे तथा ऊपर नीचे चलकर काटने की और चक्राकार गति द्वारा चबाने की, क्रिया करता है। कहते हैं कि ईश्वर ने दाँत को शरीर की सबसे मज़बूत अस्थि के रूप में निर्मित किया है। अंतिम संस्कार के समय आग में तमाम अस्थियाँ जलकर राख भले ही हो जाएँ लेकिन दाँत सुरक्षित रहते हैं, इन्हें ही गंगा विसर्जन के लिए चुना जाता है। दाँतों के प्रति सनातनियों का शृद्धा भाव इतना है कि वे इन्हें दन्त नहीं बल्कि 'फूल ' कहते हैं। यानि अस्थि संचय कि क्रिया फूल चुनना भी कही जाती है। यह क्रिया मानव जाति में श्मशान वैराग्य उतपन्न करती है।

ईश्वर दाँत बनाने के मामले में बड़ा ही उदार रहा। ईश्वर ने केवल मनुष्य या दूसरे स्तन पायी जीवों को ही दाँत नहीं दिए बल्कि जलचरों और सरी-सर्पों को भी इस ईनाम से बक्शा। मछलियों के पास दाँत हैं तो सर्पों के पास भी हैं। दाँत न होते तो क्या राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर लिख पाते कि-

'क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।'

दंतपंक्तियों को लेकर साहित्यकारों ने बड़ी-बड़ी उपमाएँ खोजी हैं। अक्सर दाँतों के लिए दाड़िम पंक्ति [अनार के दानों कि पंक्तियाँ ] का इस्तेमाल किया जाता है। दाँतों का कथाओं से क्या रिश्ता है, मुझे नहीं पता,किन्तु मै बचपन से दन्त कथाओं के बारे में सुनता आया हूँ। बहुत सी दन्त कथाएँ मैंने पढ़ी भी हैं। अब तो दन्त चिकित्सा और दन्त औषधि विज्ञान अरबों-खरबों का बाज़ार है। कोई दन्त कांति बना रहा है तो किसी ने वर्षों पहले विको वज्रदंती बनाई थी। यानि यदि दुनिया में दाँत न होते तो क्या ये सब मुमकिन था। इसीलिए कहा जाता है कि जब तक ज़िंदा रहना है तब तक मुंह में दाँत और पेट में आँत सही सलामत होना चाहिए।

कभी-कभी दाँतों की आकृति के आधार पर नामकरण भी हो सकता है। महाभारतकाल में दन्तवक्र का उल्लेख आता है। महाभारत के अनुसार योगिराज कृष्ण कि मौसी श्रुतदेवी का विवाह करूषाधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था और उसका पुत्र था दन्तवक्र।सम्भवत दन्तवक्र के दन्त टेढ़े रहे होंगे। श्रुतदेवी श्री कृष्ण की माता देवकी की छोटी बहन थी। जब शाल्व ने द्वारका पर आक्रमण किया, तब दन्तवक्र भी शाल्व की ओर से कृष्ण के विरुद्ध युद्ध में लड़ा था। भगवान गणेश को तो सब ' एक दन्त ' कहते ही हैं।

कुलजमा मेरा कहना है कि मनुष्य केवल बकरों ,गायों-भैंसों घोड़ों या दूसरे जानवरों के ही दाँत न गिनें कभी समय निकलकर अपने दाँतों की भी गणना करें। देखे कि वे कितने पैने हो चुके हैं, या उनमें कितने कीड़े लग चुके है। अपने दाँतों को गिनना भी आत्मपरीक्षण की एक विधा है। इति-मित्थम।

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रचनाकार परिचय

राकेश अचल

ईमेल : achalrakesh1959@gmail.com

निवास : मुंबई (महाराष्ट्र)

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