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कहानी के बाहर नहीं होता शिल्प- प्रियदर्शन

कहानी के बाहर नहीं होता शिल्प- प्रियदर्शन

तो ध्यान रखने की बातें यही दो हैं। कहानी ऐसी कसी हुई हो, ऐसी निर्विकल्पता, निरुपायता की ओर ले जाती हो कि लगे कि इसके अलावा नायक या लेखक के पास कोई चारा ही नहीं था। फिर उसमें दुख-सुख से ज्यादा वह विडंबना बोध हो, जिसमें हमारा आधुनिक समय सबसे ज़्यादा परिलक्षित-प्रतिबिंबित होता है।

कहानियाँ इंसानी सभ्यता की सबसे पुरानी दोस्त रही हैं। इंसान ने जब से भाषा ईजाद की, जब से एक-दूसरे से बोलना सीखा, जब से कल्पना करना शुरू किया, तब से कहानी शुरू हो गई। दरअसल हर चीज़ एक कहानी है- यह दुनिया भी, इसका विकास भी, इसमें रहने वाले लोग भी, उनके क़िस्से भी, असली वृत्तांत भी, नक़ली कल्पनाएं भी, सपने भी, भविष्य भी और इन सबके बीच बनने वाली कविता भी। जो भी कहा जाता है, उसमें एक कहानी होती है। जो भी लिखा जाता है, उसकी एक कहानी होती है।

लेकिन जिसे हम आधुनिक समय में कहानी कहते हैं, और जिसकी रचना-प्रक्रिया पर, जिसके शिल्प पर अनवरत बहस करते हैं, वह एक समकालीन विधा है। इसे कहानी से उस विराट रूप से जोड़ेंगे जिसका ऊपर के पैरे में ज़िक्र है तो एक वायवीय किस्म की स्थापना ही करेंगे जिसका बहुत ज्यादा अर्थ और मोल नहीं होगा। लेकिन फिर इस लेख की शुरुआत ऐसे पैरे से क्यों करने की ज़रूरत महसूस हुई? बस यह ध्यान दिलाने के लिए कि जिसे हम कहानी कहते हैं और जिसके शिल्प पर बात करना चाहते हैं, उसका एक विराट स्वरूप भी है, एक विस्तृत इतिहास भी है, एक लंबी-चौड़ी यात्रा भी है और एक विकास क्रम भी है। इस विकास क्रम को समझे बिना, कहानी के मूल रेशों को पहचाने बिना जब हम आधुनिक विधा के रूप में कहानी पर बात करेंगे तो उसके कई तत्व छूट जाने का ख़तरा होगा।

इस संक्षिप्त भूमिका के बाद हम कहानी के मूल तंतुओं को, रेशों को समझने की कोशिश कर सकते हैं। कहानी बनती कहां से है, मिलती कैसे है? क्या हर घटना एक कहानी होती है? या वह घटना जब बयान की जाती है तो चुपचाप कहानी में बदल जाती है? सड़क पर एक हादसा होता है- एक बूढ़ा लहूलुहान गिरा हुआ है, उसके झोले की सब्ज़ियाँ बिखरी हुई हैं, लोग चारों ओर खड़े हैं, कुछ लोग एक गाड़ी का इंतज़ाम कर रहे हैं। यह घटना या दुर्घटना है। लेकिन जब कोई इस घटना का बयान किसी और से कर रहा होता है, जब वह इसे लिख रहा होता है तो जाने-अनजाने में इसे कहानी में बदल रहा होता है। लेकिन यह कहानी क्यों हो जाती है? क्योंकि इसमें स्मृति शामिल है, अनुभव शामिल है, यथार्थ शामिल है, निजी प्रतिक्रिया शामिल है, संप्रेषण के माध्यम शामिल हैं और जाने-अनजाने हमारी कल्पना भी शामिल है। यानी जब हम किसी को बता रहे होते हैं कि एक बूढ़ा आदमी सड़क पर गिरा हुआ था और उसके झोले की सब्जियाँ बिखरी हुई थीं, तब भी एक कल्पना कर रहे होते हैं कि वह कहाँ से आया होगा, कौन घर पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा, कहाँ रुलाइयां गूँज रही होंगी, कहाँ कोई वृद्ध पत्नी स्तब्ध चुपचाप किसी सदमे में चली गई होगी। साथ ही यह कामना भी कर रहे होते हैं कि यह दुर्घटना किसी परिवार पर बहुत बुरी तरह न बीते। यह सुझाव भी दे रहे होते हैं कि कोई सड़क पार करे तो सावधानी से चारों तरफ देख ले या कोई गाड़ी चलाता हुआ एहतियात बरते कि उसकी रफ़्तार किसी के लिए जानलेवा तो साबित नहीं होने जा रही।

तो कहानी यहीं से बनती है। अनुभव से, स्मृति से, यथार्थ से, कल्पना से, कामना से और कुछ समझ और सबक़ से। लेकिन इन सारी चीज़ों को ठीक से घोलना पड़ता है। कहानियाँ कल्पना की संतान होती हैं, लेकिन कल्पना शून्य से नहीं आती। वह यथार्थ से ही निकलती है। कहानियों में अनुभव होता है, मगर वह भी शून्य से नहीं बनता, उसके पीछे स्मृति होती है। कहानियों को कहना पड़ता है। इसके लिए भाषा का जादू चाहिए होता है। लेकिन यह जादू ऐसा नहीं होता कि सबकुछ जगमग-जगमग दिखता रहे। उल्टे यह अदृश्य जादू होता है। यह कहानी में कहीं छुपा होता है और कहानी को बदलता रहता है। इसके बाद कहानी बिना कहे हमारे भीतर उतर आती है और हमें भी कुछ बदल डालती है।

यह कोई बहुत जटिल या रहस्यमय बात नहीं है। यह कोई पहेली नहीं है जिसे बूझना पड़ा। यह कहानी है जिसका काम जीवन की पहेलियां खोलना है। आख़िर हम कोई कहानी लिखना या कहना क्यों चाहते हैं? क्योंकि हमें उस कुछ ऐसा मिलता है जिसे हम दूसरों से साझा करना चाहते हैं- कोई दुख देने वाला अनुभव, कोई खुशी देने वाली कल्पना, कोई तसल्ली देने वाला वृत्तांत, कोई अचरज से भर देने वाला घटनाक्रम। यह सारा अचरज इस बात से जुड़ा होता है कि हमारा जो जीवन है, हमारा जो संसार है, उसका जो इतिहास है, उसकी जो विविधता है, उसमें कितने सारे कौतुक हैं, कितनी सारी न समझ में आने वाली चीज़ें हैं। कहानियां हमारे लिए इस संसार को क़रीब लाने का काम करती हैं, इस जीवन को खोलती हैं।

लेकिन क्या सारी कहानियाँ एक ही तरह से कही जाती हैं? या दुनिया में इतनी सारी कहानियाँ निकलती कहाँ से हैं? कहा जाता है कि दुनिया की सारी कहानियाँ दरअसल एक या दो कहानियों से निकलती हैं- एक कहानी स्त्री-पुरुष संबंधों की है- प्रेम की, परिवार की, नैतिकता की, कामना की, मर्यादा की, विद्रोह की, प्रतिशोध की, और इन सबके आपसी द्वन्द से बनने वाले रसायन की। दूसरी कहानी ताक़त, अन्याय और शोषण की है- दिए और तूफ़ान के संघर्ष की कहानी, निर्धन और बलवान की लड़ाई की कहानी, झूठी आन-बान और शान की मालिक और मजदूर के टकराव की कहानी, पूँजी और मनुष्य के झगड़े की कहानी। बाक़ी सारी कहानियाँ जैसे इन्हीं दोनों कहानियों के आसपास चलती हैं- अपने समय की धूल-मिट्टी, अपने समय का हवा-पानी और अपने समय का अनुभव उनके रूप बदलता चलता है, उनको समकालीन करता चलता है। इस क्रम में हम कई बार पुरानी कहानियों का भी नवीकरण करते चलते हैं।

कहानी के शिल्प पर आएँ। शिल्प से हमारी मुराद क्या है? कहानी कहने का ढंग- जिसमें एक बयान होता है, किरदार होते हैं, एक विकास क्रम होता है और एक अंत होता है। शायद शुरुआत से अंत तक एक क्रमिक विकास के साथ चरम तक पहुँचने वाले ऐसे ही शिल्प को कहानी का आदर्श शिल्प माना जाता है। लेकिन न ज़िंदगी ऐसी सरल रेखा पर चलती है, न कहानियाँ चल सकती हैं। ज़िंदगी की वक्रता को समझने, पकड़ने का जतन करने वाली कहानी एकरैखिक नहीं हो सकती।

दरअसल कहानी का कोई एक शिल्प नहीं हो सकता। हर कहानी का अपना शिल्प होता है। शिल्प इस बात से तय होता है कि हम कैसी कहानी कहना चाहते हैं और किसके लिए कहना चाहते हैं। फिर भी हम यह समझने की कोशिश कर सकते हैं कि किस तरह की कहानी में कैसा शिल्प हो और उसे बरतते हुए कौन सी सावधानियाँ रखी जाएँ।

मसलन, कहानी का जो सबसे प्रचलित और स्वीकृत रूप है- वह यथार्थवादी कहानी का है। दुनिया के सबसे बड़े लेखक और उपन्यासकार इसी शिल्प के साथ लिखते रहे हैं। कथा की विराट रूसी परंपरा इसी यथार्थवाद की कोख से निकली है जिसमें टॉल्स्टॉय, गोर्की, चेखव, तुर्गनेव और दॉस्तोएव्स्की जैसे बड़े नाम रहे हैं। इस यथार्थवाद का भारतीय परंपरा पर भी बहुत गहरा असर रहा है। प्रेमचंद इस यथार्थवादी धारा के सबसे बड़े लेखक हैं। यह बहुत आसान शिल्प लगता है, लेकिन बहुत मुश्किल है। क्योंकि इस शिल्प में लिखी जाने वाली कहानी जिस अनुभव से मिलती है, उसे बहुत विपुल होना पड़ता है। यह एक शिल्पविहीन शिल्प है। कहानी एक घटना से, कुछ किरदारों से शुरू होती है, आगे बढ़ती है और एक नतीजे तक पहुँच कर खत्म हो जाती है। यह नतीजा आदर्शवादी भी हो सकता है और यथार्थवादी भी। लेकिन इस शिल्प में दो बातें ज़रूरी हैं। पहली बात यह कि हम जिस यथार्थ को लिख रहे हैं, उसे किसी घटना या प्रसंग की मार्फ़त रोचक बनाए रखें। यह रोचकता अगर कथा-प्रसंग में नहीं हो, जीवन के किसी मार्मिक अभाव या सत्य के उद्घाटन में हो तो उसे भी इस तरह व्यक्त करें कि पाठक ख़ुद को कथा सूत्र से बंधा महसूस करे। क्योंकि अमूमन ऐसे शिल्प में नीरस और ग़ैरज़रूरी वर्णनात्मकता बहुत होती है- मोटे-मोटे उपन्यासों में चरित्रों, जगहों और मन:स्थितियों के इतने विस्तृत वर्णन कि पाठक के ऊबने, उसका मन उचट जाने का खतरा भी होता है। तो ऐसे में रास्ता यह बचता है कि लेखक का वर्णन इतना जीवंत, इतना प्रभावशाली हो कि पाठक उससे बंधा रहे, उसे पढ़ते हुए उसके भीतर यह एहसास पैदा हो कि वह एक नई दुनिया देख रहा है या देखी हुई दुनिया के नए मायने समझ रहा है। लेकिन यहां भी एक सावधानी ज़रूरी है। जीवंत या प्रभावशाली वर्णन का मतलब कृत्रिम, पांडित्यपूर्ण शैली में बहुत विस्तृत ब्योरा नहीं है- इससे कहानी ठहर जाती है या भटक जाती है। कहानी को बहुत ज़्यादा आभूषण नहीं पहनाने चाहिए। उसे सीधे-सीधे कहा जाना चाहिए।

दूसरी बात यह कि यथार्थवादी कहानी को विश्वसनीय भी होना पड़ता है। विश्वसनीयता का मतलब बिल्कुल यथार्थ नहीं होता। जीवन में यह संभव है कि कोई दस दिन किसी भूकंप में दबा रह कर भी सकुशल निकल आए- कहानी में यह नहीं हो सकता। कहानी अगर यह स्थिति दिखाना चाहती है तो उसे अपने वर्णन में, अपनी तर्कशीलता में इतना विश्वसनीय होना होगा कि पाठक इस कल्पना को सच मान ले।

इस यथार्थवादी धारा का एक पेच और है। ऐसी कहानियाँ अपने अनुभव से मिलती हैं, अपने हिस्से के यथार्थ से। कई बार वह यथार्थ इतना नाटकीय, इतना निष्कर्षात्मक होता है कि उसे जस का तस लिख देने भर से कहानी बन सकती है। हममें से ज्यादातर लेखक जब ऐसी कहानियाँ लिखते हैं तो अपने अनुभव को अपने कच्चे माल की तरह इस्तेमाल करते हैं। लेकिन कई बार हम इस अनुभव से बंधे रह जाते हैं। इसमें कोई हेरफेर करना नहीं चाहते- जैसे यह मानते हों कि ऐसा कुछ किया तो कहानी अपने अनुभव के साथ बेईमानी करेगी। लेकिन कहानी और अनुभव में अंतर होता है। कहानी में कल्पना का रसायन मिलाना पड़ता है। यथार्थ की मिट्टी को कल्पना के पानी से गूंथना पड़ता है। यह संभव है कि हमारे पास कई तरह के अनुभव हों, हम उन सबको जोड़ कर एक अनुभव में बदलें और उसे अपनी कल्पना से तरतीब दें। यहाँ से वह संपूर्ण कहानी बनती है जो वह संप्रेषित करती है जो हमारा लक्ष्य है। बिल्कुल यथार्थ में फँसी रह जाने वाली कहानी इकहरी होती है। बिल्कुल कल्पना के सहारे चलने वाली कहानी जमीन से कट जाती है। लेकिन अनुभव और कल्पना के, यथार्थ और गप के साझा योग से जो कहानी बनती है, वह हमें जीवन का कहीं बेहतर सच दिखाती है।

लेकिन यथार्थवादी कहानी अगर कथा-लेखन की सबसे मज़बूत, मुख्य या प्रबल प्रविधि और धारा है तो इसके समानांतर और भी धाराएँ हैं जो यथार्थवाद का अतिक्रमण करके कहानी को आगे बढ़ाती रही हैं। बल्कि यथार्थवाद तो एक आधुनिक अवधारणा है, कहानी अपने जन्म से मूलतः कल्पनाओं पर आधारित रही है और यथार्थ को तोड़ कर यथार्थ का संधान करती रही है। हमारे पास पंचतंत्र की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में पशु-पक्षी इंसान की बोली बोलते हैं, पेड़-पौधे भी देखते-महसूस करते हैं। हमारे पास ऐसी नीति कथाएँ हैं जो यथार्थ के अवलंब के बिना जीवन का कोई सत्य उद्घाटित कर देती हैं। यह सिर्फ़ हमारे यहाँ नहीं, सारी दुनिया में है। दरअसल यह कथा की सबसे आजमाई हुई युक्ति है जिसमें अतिरंजित कल्पनाएं अदृश्य सच्चाइयों से परदा हटाती हैं। सिंदबाद की कहानी, अलादीन के चिराग की कहानी, उड़ने वाले कालीन की कहानी, हज़ार रातों की कहानी- और ऐसी ढेर सारी अन्य कहानियां अगर पूरब की कोख से निकली हैं तो मिस्टरी प्लेज़, मिराकल प्लेज़ आदि पश्चिम में नाटक की बुनियाद में रहे हैं।

आधुनिक समय के हमारे बहुत सारे लेखकों-उपन्यासकारों ने कथा की इस मूल प्रविधि का कुछ पुनर्संस्कार कर बहुत सूक्ष्म मानवीय स्पंदनों को, अपनी विराटता में दृश्य से परे रह जाने वाले ऐतिहासिक यथार्थ को और हमारे भीतर के अँधेरे में बनने वाले मनोविज्ञान को अद्भुत ढंग से पकड़ने में कामयाबी हासिल की है। अगर ये प्रविधियाँ न होतीं तो हमारे यथार्थ का बहुत सारा हिस्सा हमसे अनदेखा रह जाता।

सच तो यह है कि यूरोप के यथार्थवादी स्वभाव के बाहर एशिया, लातीन अमेरिका और अफ्रीका में ऐसे बहुत से लेखक हैं जो यथार्थ का अतिक्रमण कर लेखन करते रहे हैं। वे अपनी लोककथाओं और लोक-स्मृतियों से तत्व ग्रहण करते हैं, लोक-कल्पना की मदद लेते हैं और फिर उसे एक ऐसा आधुनिक रूप देते हैं कि पढ़ने वाला चमत्कृत रह जाता है। फिर कुछ ऐसे भी लेखक हैं जो लोक स्मृतियों में बहुत ज्यादा न भी उतरें तो यथार्थ में पर्याप्त तोड़फोड़ कर लेते हैं और अपना एक अलग वृत्तांत रचते हैं। कहीं इसे जादुई यथार्थवाद कहते हैं, कहीं अति यथार्थवाद या कहीं कुछ और- लेकिन मूल बात यह है कि इन लेखकों का शिल्प अपने कच्चे माल के लिए यथार्थ पर निर्भर नहीं रहता, बल्कि उसमें अपनी कल्पना को इस हद तक फेंटता है कि यथार्थ बदल जाता है।

गैब्रियल गार्सिया मारक़ेज़ इस विधा का सबसे बड़ा और सबसे चमकता हुआ सितारा है। उसकी कहानियों में जीवन का जादू असंभव वृत्तांतों से निकलता है। उसकी अंधी नायिकाएँ सौ साल जीती हैं, उसके मृतकों के शव सड़ते नहीं, उसके बेदखल बादशाह मौत के मुहाने पर अपनी वापसी की उम्मीद रखते हैं, उसकी वेश्याएं गोलियों से छिदी छतरियां लिए धूप से बचती हैं, उसके प्रेमी एक पूरी उम्र अपनी प्रेमिका के इंतज़ार में निकाल देते हैं और जब वह मिलती है तो उसे लेकर ऐसे जहाज़ से सफ़र पर निकल जाते हैं, जिसे कहीं पहुँचना नहीं है।

जो दूसरा लेखक इस अतियथार्थवाद का सिहरा देने वाला इस्तेमाल करता है, वह फ़्रैंज काफ्का है- मारक़ेज़ से बिल्कुल भिन्न। मारक़ेज़ के लेखन में  जितनी रोशनी फूटती है, काफ्का के लेखन में उतना ही अंधेरा दिखता है। काफ़्का का नायक तिलचट्टे में बदल जाता है। लेकिन यह वह कायांतरण नहीं है जिसके लिए ‘मेटामॉर्फ़ोसिस’ पढ़ा जाता है। काफ्का जिस सूक्ष्म रूपांतर की ओर इशारा कर रहा है, वह मनुष्य से तिलट्टा बन चुके ग्रेगोर सालसा के अपनों के भीतर घटित हो रहा है- जो कभी उसकी बेहद परवाह करते थे, लेकिन अब अपने इस अनुपयोगी हो चुके भाई या बेटे के प्रति नितांत संवेदनहीन होते चलते हैं। काफ़्का के यहां ही ऐसा ‘ट्रायल’ चल सकता है जिसमें न आरोपी को मालूम है कि उस पर इल्ज़ाम क्या है और न उसका मुक़दमा सुनने वालों को पता है कि उसके गुनाह क्या हैं?

ऐसे लेखक और भी हैं जिन्होंने अपने-अपने ढंग से यथार्थ का अतिक्रमण करते हुए कहानियाँ या उपन्यास लिखे हैं। सलमान रुश्दी, मुराकामी, पामुक और यहां तक मिलान कुंदेरा तक इस श्रेणी में चले आते हैं। और क्या कमाल है कि ये सब अपने समय के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में शुमार हैं। भारत में भी हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास इस यथार्थ को जातीय स्मृति के सहारे तोड़ते हैं। विजयदान देथा की कहानियाँ लोककथाओं के पुनर्संस्कार से बनती हैं और फिर उसमें यथार्थ के बाहर जाने की सहज प्रक्रिया दिखाई पड़ती है।

इन सबके विस्तार में जाने का अवसर यहाँ नहीं है। लेकिन यह स्पष्ट है कि कथा का यथार्थवादी शिल्प जितना अपरिहार्य नजर आता है, उतना ही उसके समानांतर उपस्थित वह अयथार्थवादी शिल्प भी है जिसे कई अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है और जिसे कई लेखक अपने-अपने ढंग से बरतते रहे हैं।

दरअसल आधुनिक समय की जो विडंबनाएँ हैं, जो हमारे ज़माने का चटखा हुआ शीशा है, उसे पकड़ने के लिहाज से समग्र यथार्थ से ज़्यादा यह अतियथार्थ कारगर मालूम होता है।

इस अतियथार्थ को बरतना लेकिन यथार्थवादी शिल्प को बरतने से कहीं ज़्यादा कठिन है। इसमें बेतुका, बेमानी और विकृत तक होने के ख़तरे रहते हैं। इसमें भी एक विश्वसनीयता अर्जित करनी होती है, लेकिन वह यथार्थ से ज्यादा लेखक के प्रति होती है- यह भरोसा कि इस वर्णन में जो दिख रहा है, वह किसी मूल्यवान अनुभव तक ले जाएगा। बल्कि ज़्यादातर ऐसे लेखक इस अतियथार्थ को भी बिल्कुल यथार्थवादी बनाकर पेश करते हैं। मुराकामी के यहाँ जब चमत्कार नहीं होते तो इतना गहन यथार्थबोध होता है कि हम उसमें बहुत गहरे धंसे रह जाते हैं।

शिल्प के सवाल पर लौटें। फिर दुहराने की ज़रूरत है कि कहानी का शिल्प इस बात से तय होता है कि आप कहना क्या चाहते हैं। लेकिन उसका य़थार्थवादी, प्रामाणिक और विश्वसनीय होना जरूरी है। यह लगना जरूरी है कि कहानी में इसके अलावा और कुछ नहीं हो सकता था।

खालिद हुसैनी के मशहूर उपन्यास ‘द काइट रनर’ के भीतर एक दिलचस्प कहानी मिलती है। यह हमें कथा शिल्प की कुछ बारीकियाँ सिखा सकती है। उपन्यास का नायक अपने बचपन में एक कहानी लिखता है- एक मेहनतकश मज़दूर पर पसीज कर ईश्वर उसे आशीर्वाद देते हैं- उसके जितने आँसू बहेंगे, वह सब मोतियों में बदल जाएँगे। कहानी के आखिरी हिस्से में वह मज़दूर अपनी पत्नी को मार कर मोतियों के बीच रो रहा है।

बच्चा यह कहानी अपने मुंहबोले चाचा करीम को भेजता है। करीम उसे चिट्ठी लिखते हैं- तुमने कमाल की कहानी लिखी है- क्योंकि इस कहानी में ‘आयरनी’ यानी विडंबना है। लेखक लिखता है- यह कहानी लेखन में मेरा पहला पाठ था- कहानी में विडंबना होनी चाहिए। लेकिन फिर बच्चा यह कहानी अपने नौकर दोस्त को सुनाता है। वह सुनता है और फिर कहता है कि बाक़ी तो ठीक है, लेकिन आँसू बहाने के लिए किसी को मारने की क्या जरूरत थी? आँख में प्याज लगा लेता। लेखक लिखता है- यह कहानी लेखन में मेरा दूसरा पाठ था- प्लॉट में कोई दरार नहीं होनी चाहिए।

तो ध्यान रखने की बातें यही दो हैं। कहानी ऐसी कसी हुई हो, ऐसी निर्विकल्पता, निरुपायता की ओर ले जाती हो कि लगे कि इसके अलावा नायक या लेखक के पास कोई चारा ही नहीं था। फिर उसमें दुख-सुख से ज्यादा वह विडंबना बोध हो, जिसमें हमारा आधुनिक समय सबसे ज़्यादा परिलक्षित-प्रतिबिंबित होता है।

एक बात और है। कहानी में जरूरी नहीं कि सबकुछ कह दिया जाए। कई कहानियाँ अपने अनकहे से बड़ी होती हैं। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफ़ाम’ का हीरामन तीसरी कसम यह खाता है कि आगे से वह किसी कंपनी वाली बाई को गाड़ी पर नहीं बिठाएगा। कहानी यहीं ख़त्म होती है। लेकिन दरअसल रेणु ने जो बात नहीं कही, वह यह है कि हीरामन अपनी कल्पना की गाडी से कभी इस कंपनी वाली बाई को उतारेगा नहीं। यह उस प्रेम की कसक की ख़ूबसूरती है जो बिना कहे व्यक्त हुई है।

दरअसल कहानी का शिल्प बहुत सावधानी की माँग करता है। बल्कि वह कथ्य से अलग कुछ नहीं होता। उसे कथ्य में बिल्कुल इस तरह घुल जाना चाहिए कि उसे बाहर से पहचाना न जा सके। दरअसल कहानी से बाहर कोई शिल्प नहीं होता., जैसे शिल्प से बाहर कोई कहानी नहीं हो सकती।

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त्रिलोकी मोहन पुरोहित

27 August 2024

आलेख कहानी के स्वरूप और शिल्प पर प्रामाणिक सूचनाओं और मौलिक चिंतन के साथ पाठकों से संवाद करता है। भारतीय कहानीकारों और उपन्यासों की किंचित चर्चा कुछ और की जाती तो आलेख की व्यापकता बन जाती। फिर भी, आलेख पाठकों की दृष्टि साफ करता है और दिशा-दर्शन भी करता है। बधाई।

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रचनाकार परिचय

प्रियदर्शन

ईमेल : priyadarshan.parag@gmaio.com

निवास : गाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 24 जून, 1968
जन्मस्थान- राँची
लेखन विधा- कविता, कहानी, आलेख, आलोचना, संस्मरण
शिक्षा- एम.ए.
सम्प्रति- स्वतन्त्र लेखन, पत्रकारिता, अनुवादक
प्राकासहित कृतियाँ-
ज़िन्दगी लाइव’ (उपन्यास); ‘बारिश, धुआँ और दोस्त’, ‘उसके हिस्से का जादू’ (कहानी-संग्रह); ‘नष्ट कुछ भी नहीं होता’ (कविता-संग्रह) सहित नौ किताबें प्रकाशित। कविता-संग्रह मराठी में और उपन्यास अंग्रेज़ी में अनूदित। सलमान रुश्दी और अरुंधति‍ रॉय की कृतियों सहित सात किताबों का अनुवाद और तीन किताबों का सम्पादन। विविध राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर तीन दशक से नियमित विविधतापूर्ण लेखन और हिन्दी की सभी महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन
सम्मान- कहानी के लिए पहला 'स्पन्दन सम्मान' के अलावा अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित। 
प्रसारण- विभिन्न चैनलों से वार्ता का प्रसारण
संपर्क- ग़ाज़ियाबाद(उत्तर प्रदेश)
मोबाइल- 9811901398